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लोक प्रशासन कला है या विज्ञान: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन | |||||||
Is Public Administration An Art or A Science: An Analytical Study | |||||||
Paper Id :
16481 Submission Date :
2022-09-10 Acceptance Date :
2022-09-21 Publication Date :
2022-09-25
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सारांश |
मानव के गरिमापूर्ण जीवन की संकल्पना को साकार करने का दायित्व लोक प्रशासन की कार्यप्रणाली, कार्य कुशलता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, संवेदनशीलता एवं मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत दर्शन पर आधारित है। भौतिकवाद तथा नैतिकताबद्ध विचारधारा के द्वन्द्वात्मक संयोग ने लोक प्रशासन कला है या विज्ञान विषय में मानव चिन्तन को अत्यधिक प्रेरित किया है। मानव व्यवहार की अनिश्चितता एवं जटिलता ने इस विषय पर शोध को चुनौतीपूर्ण बना दिया है। प्रायः सरकार द्वारा संचालित कार्यों की प्रक्रिया के रूप में लोक प्रशासन को निश्चित ही एक सुन्दर कला माना जाता है किन्तु शासकीय मामलों के अध्ययन विषय के रूप में लोक प्रशासन को विज्ञान का दर्जा दिया जाए या नहीं ? सभ्यता के विकास के प्रारम्भ से ही सभी सामाजिक विज्ञानों में विश्लेषण का विषय यह रहा है कि उन्हें विज्ञान माना जाए या नहीं। इस विषय पर चिन्तन का मुख्य केन्द्र बिन्दु ‘विज्ञान‘ शब्द का प्रयोग है जो कि भौतिक तथा रसायन शास्त्र जैसे प्राकृतिक विज्ञानों के लिए किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञान द्वारा अचेतन या जड़ वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है जिनकी कोई इच्छा या भावना नहीं होती किन्तु मानवीय व्यवहार एवं आचरण से सम्बन्धित विषयों का स्तर संयोग, नैतिक मूल्यों एवं मानवीय सम्बन्धों की जटिलता पर आधारित होते हैं। अर्थात् स्पष्ट है कि लोक प्रशासन ने भले ही वैज्ञानिक सिद्धान्तों का विकास कर लिया है तथापि सत्य यह है कि यह भौतिक विज्ञान की भाँति वास्तविक विज्ञान नहीं अपितु एक सामाजिक विज्ञान है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The responsibility of realizing the concept of dignified life of human being is based on the functioning of public administration, work efficiency, scientific approach, sensitivity and philosophy imbued with human values. The dialectical combination of materialism and moralistic ideology has greatly inspired human thinking on whether public administration is an art or a science. The uncertainty and complexity of human behavior has made research on this topic challenging. Generally, public administration is definitely considered a beautiful art as a process of work conducted by the government, but should public administration be given the status of science as a subject of study of government affairs or not? Since the beginning of the development of civilization, the subject of analysis in all social sciences has been whether they should be considered as science or not. The main focal point of thinking on this subject is the use of the word 'science' which is used for natural sciences like physics and chemistry. Inconscient or inert things are studied by natural science which have no will or feeling but the level of subjects related to human behavior and conduct are based on coincidence, moral values and complexity of human relations. That is, it is clear that even though public administration has developed scientific principles, the truth is that it is not a real science like physical science, but a social science. | ||||||
मुख्य शब्द | भविष्यवाणी, वस्तुकला, क्रियात्मक, व्यावहारित, परिवर्तनशील, संगठन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Prediction, Architecture, Functional, Applied, Variable, Organisation. | ||||||
प्रस्तावना |
लोक प्रशासन विषय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है कि यह विज्ञान है अथवा नहीं। लोक प्रशासन को पूर्णतया प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति सिद्ध करने में अभी समय लगेगा, किन्तु चाल्र्स आस्टिन बीयर्ड जैसे विद्वान मानते हैं कि ‘‘अभी भी लोक प्रशासन का स्वरूप पूर्ण विज्ञान की भाँति है। अर्थात् लोक प्रशासन में ऐसे नियमों तथा स्वयंसिद्ध सिद्धान्तों का विकास हो चुका है जिन्हें व्यवहार में क्रियान्वित किया जा सकता है और उनके आधार पर भविष्यवाणी की जा सकती है।”[1] मानव व्यवहार का अध्ययन करने वाले विषय निश्चय ही अधिक जटिल प्रकृति के होते हैं, तथा उनका दर्जा किसी भी प्रकार से प्राकृतिक विज्ञान से कम नहीं है तथापि एक समाजशास्त्री को यह ज्ञात रहे कि अपने विषय को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करना या अविवेकी दावा करना उस विषय की अवैज्ञानिकता का ही प्रमाण है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य लोक प्रशासन कला है या विज्ञान है इसका विश्लेषणात्मक अध्ययन करना है । |
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साहित्यावलोकन | कला का अस्तित्व इसी विचार में निहित है कि वह जीवन के कितना निकट अथवा उपयोगी है। कला ने सदैव जीवन के उच्चतम आदर्शों को अनुप्रेरित किया है। अतः स्पष्ट है कि कला, ज्ञान और अभ्यास के जरिये किसी कार्य को करने की दक्षता या मानवीय कार्य क्षमता है। कौशल, अभ्यास तथा आकर्षण पर आधारित ज्ञान, कला का पर्याय माना जाता है। आडर्वेटीड ने कहा है कि ‘‘प्रशासन प्रेरक संवेग तथा भावना का केन्द्रीय शक्तिगृह है जो संस्था को अपने उद्देश्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है।”[2] ग्लेडन ने लिखा है कि ‘‘कला में ज्ञान की आवश्यकता होती है, किन्तु यह सिद्धान्त की अपेक्षा अभ्यास पर विशेष बल देती है। अतः एक कलाकार के लिए उस शास्त्र का विद्वान होने की अपेक्षा उस कार्य को करने में कुशल होना चाहिए। कला में सौन्दर्य एवं उपादेयता का बोध होता है। चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला, लेखन कला, पाक कला, वस्तुकला तथा वाद्यकला की भाँति प्रशासन का संचालन करना भी एक कला माना गया है। यद्यपि अधिकांश कलाकार जन्मजात प्रतिभा के धनी होते हैं फिर भी यह कहा जा सकता है कि कला को परिमार्जित किया जा सकता है। प्रशिक्षण, अभ्यास तथा समुचित मार्गदर्शन से सभी कलाएँ निखरती हैं। एक विषय के रूप में लोक प्रशासन लगभग एक शताब्दी पुराना है लेकिन क्रियात्मक रूप में लोक प्रशासन उतना ही प्राचीन है जितना की मानव सभ्यता का इतिहास। अपने क्रियात्मक रूप में लोक प्रशासन एक कला है अर्थात् समुद्रगुप्त, कनिष्क, विक्रमादित्य, अकबर, चन्द्रगुप्त मोर्य, अशोक तथा कृष्ण देव राय जैसे प्रतिभाशाली एवं कला निपुण प्रशासकों ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रशासन संचालन एक कला है। |
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मुख्य पाठ |
लोक प्रशासन: कला के रूप में ज्ञान को यथार्थ जीवन में व्यावहारित करना ही कला है।
कला में ज्ञान पक्ष की अपेक्षा क्रिया पक्ष अधिक प्रभावी होता है। हरिवंश राय
बच्चन के शब्दों में, ‘‘वस्तुतः आज हम कला का प्रयोग जिस अर्थ में करते हैं
वह किसी भी काम को सफाई से, सलीके से, अच्छे ढंग से, प्रभावशाली विधि से सम्पादित करना है। बात तो सभी करते हैं पर किसी-किसी के
बात करने के ढंग को देखकर हम कह सकते है कि उसे बात करने की कला आती है। हमारा आशय
है कि इसके बात करने के ढंग में कुछ ऐसी चीजें होती है जो मन को अच्छी लगती है, छूती है या उसे प्रभावित करती है।”[3] इसी प्रकार जब कोई कलाकार
साधारण सी क्रिया को अपने अभ्यास एवं प्रतिभा के स्पर्श से ऐसा मोहक बना दे कि दिल
की कली खिल उठे तो उसे कला कहा जायेगा। अस्तु, कला में उपलब्धियों से अधिक
क्षमताओं पर विशेष बल दिया जाता है। लोक प्रशासन को अनेक विद्वानों ने कला माना है। जिस
प्रकार अन्य कलाएँ और उनकी प्रक्रिया अथवा पद्धत्तियाँ परिवर्तनशील है, उसी प्रकार लोक प्रशासन की क्रियाएँ भी समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप
परिवर्तित होती रहती है। एल.डी.व्हाइट के शब्दों में, ‘‘किसी प्रयोजन या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक व्यक्तियों को निर्देश देना
उनके कार्यों का समन्वय एवं नियंत्रण करना प्रशासन की कला है।[4] इसमें इंजीनियरी, कानून, चिकित्सा, अध्ययन आदि प्रत्येक पेशे की
प्रवीणता अपेक्षित है। जिस प्रकार संगीत, नृत्य, खेल आदि कलाओं में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए एक विशेष प्रशिक्षण और
निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार कुशल प्रशासक बनने
और उसकी दक्षता पाने के लिए समुचित प्रशिक्षण एवं दीर्घकालीन अभ्यास की आवश्यकता
होती है। सुकरात और प्लेटो ने इस मत का समर्थन किया है। प्रशासन वास्तव में एक ललित कला है। आडर्वे टीड का
कथन है कि ‘‘यदि मिट्टी या रंगों से बनी कलाकृति है यदि स्तरों के
आपसी संगुफन के उतार-चढ़ाव का नाम संगीत है, यदि शब्दों और भावों का संचय
साहित्य है और यदि सभी ललित कलाएँ हैं, तो हमें उस श्रम को भी ललित कला
कहने का पूरा-पूरा अधिकार है जो एक उद्देश्य हेतु व्यक्तियों एवं समूहों को
एक-दूसरे के निकट लाता है।”[5] अर्थात् स्पष्ट है कि लोक प्रशासन के अन्तर्गत
मनुष्यों का प्रबन्ध करना भी एक कला है जो कि सर्वोच्च एवं जटिल प्रकृति की है। एक
संगठन में अनेक अधिकारी एवं कर्मचारी आते हैं और चले जाते हैं किन्तु कुछ कार्मिक
बिना डण्डे या प्रलोभन के उन्हीं कर्मचारियों से श्रेष्ठ कार्य निष्पादित करवा
लेते हैं जिन कर्मचारियों से पूर्व में अन्य अधिकारी निराश हो चुके थे। इसी प्रकार
कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र‘ में और मैकेयावली ने ‘शासन की कला’ पर विस्तार से विचार किया और प्रशासकों के लिए आवश्यक
विशेष गुणों पर प्रकाश डाला। चाल्सबर्थ के शब्दों में, ‘‘प्रशासन एक कला है, क्योंकि इसमें उत्तमता, नेतृत्व, उत्साह तथा उच्च विचारों की आवश्यकता होती है। उर्विक के अनुसार, ‘‘अन्य कलाओं की भाँति प्रशासकीय कला को खरीदा नहीं जा सकता।‘‘ आडर्वे टीड के शब्दों में ‘‘प्रशासन एक सुन्दर कला है।‘‘ कला में मुख्यतः पाँच आदर्श मूल्य निहित होते हैं- 1. कला एक असामान्य, वैयक्तिक एवं अनूठा अनुभव है। 2. कला में सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के भाव निहित हैं। 3. प्रत्येक कला में एक सृजनात्मक एवं रचनात्मक
अभिव्यक्ति होती है। 4. कला सिद्धान्त एवं व्यहवहार के अन्तर्सम्बन्धों को
बोध कराती है। 5. प्रत्येक कला की अभिव्यक्ति का कोई साधन या माध्यम
होता है। वस्तुतः प्रशासन को कला या विज्ञान मानने का विवाद
सामाजिक विज्ञानों में प्रारम्भ से ही विद्यमान है। अर्थात् यह विषय कला बनाम
विज्ञान का नहीं अपितु दोनों की पूरकता सिद्ध करने का है। जो विचारक प्रशासन को
कला नहीं मानते उनका कथन है कि प्रशासक की
सफलता या असफलता मानवीय वातावरण एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती है। व्हाइट के
शब्दों में, ‘‘वास्तव में लोक प्रशासन कला है या विज्ञान, इसका निर्णय भविष्य पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि यह एक निरन्तर विकसित विषय है
जिसकी वैज्ञानिकता समय के साथ बढ़ती जा रही हैं।” संक्षेप में लोक प्रशासन एक कला
है क्योंकि यह सिद्धान्तों की अपेक्षा व्यवहार पर अधिक बल देता है। लोक प्रशासन: विज्ञान के रूप
में सामान्यः क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन को विज्ञान
कहते हैं। गार्नर ने विज्ञान की परिभाषा करते हुए लिखा है कि, ‘‘विज्ञान से तात्पर्य किसी विशेष विषय के उस एकीकृत ज्ञान भण्डार से है, जिसे विधिवत् निरीक्षण, अनुभव तथा अध्ययन के द्वारा प्राप्त किया गया हो तथा
जिसके तथ्यों को समन्वित करके उनका क्रमबद्ध वर्गीकरण कर दिया गया हो।‘‘ ए.डब्ल्यू ग्रीन के शब्दों में ‘‘विज्ञान अनुसंधान की एक पद्धति
है।‘‘ हक्सले के अनुसार ‘‘विज्ञान एक ऐसा सम्पर्क ज्ञान
है जो युक्ति और साक्ष्य पर आधारित है।‘‘ वेनबर्ग तथा शोवत के अनुसार, ‘‘विज्ञान संसार की ओर देखने की एक निश्चित पद्धति है।‘‘ लुण्डबर्ग के शब्दों में ‘‘किसी क्षेत्र विशेष में विज्ञान शब्द का अर्थ यह है
कि उस क्षेत्र का अध्ययन कुछ निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार अर्थात् वैज्ञानिक
पद्धति के अनुसार किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विज्ञान की प्रमुख
विशेषताएँ निम्न है- 1. सुनिश्चित एवं सार्वभौम नियम 2. भविष्यवाणी करने के क्षमता 3. कार्य-कारण में स्पष्ट सम्बन्ध 4. अध्ययन विधि परिमाणात्मक एवं निश्चयात्मक 5. निष्कर्ष सार्वदेशिक, सार्वकालिक एवं शाश्वत। शैपर्ड ने विज्ञान के प्रमुख तीन लक्षण बताये हैं - (i) एक संक्षिप्त, संगत और सम्बद्ध ज्ञान की सम्भावना (ii) तथ्यों को क्रमबद्ध करना और उसमें कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के बाद
सामान्यीकरण कर सकने और पूर्व कथन करने की क्षमता (iii) प्राप्त सम्बन्धानुमानों और
निष्कर्षों के जाँच की सम्भावना। लोक प्रशासन को विज्ञान मानने के सम्बन्ध में तीन
पक्ष हैं।[6] प्रथम पक्ष विल्सन, विलोबी, मरसन, बर्नार्ड और चार्ल्स बियर्ड जैसे विचारकों का है जो पूर्ण रूप से विज्ञान
मानते हैं। दूसरा पक्ष फाइनर, मोरिस कोहन, वाल्डो और वालास जैसे विद्वानों
का है जो इसे विज्ञान नहीं मानते हैं। तीसरा पक्ष उर्विक, टेलर, साइमन, रिग्ज, फिफनर आदि विद्वानों का है जो इसे पूर्ण रूप से नहीं अपितु आंशिक विज्ञान
मानते है। प्रथम विचार वर्ग (विज्ञान है) लोक प्रशासन के जम्मदाता एवं अध्ययन विषय के रूप में
प्रतिष्ठित करने वाले विद्वान वुडरों विल्सन ने 1987 में लोक प्रशासन को विज्ञान
की संज्ञा दी है‘‘।[7] 1926 में विलोबी ने दृढ़तापूर्वक कहा था कि ‘‘प्रशासन में भी विज्ञान की विशिष्ठता के अनुरूप कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं जो
सामान्य व्यवहार में किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त के समान होते है।[8] चार्ल्स
ए.बियर्ड ने 1937 में दावा किया है कि‘‘लोक प्रशासन उसी प्रकार का
सामान्य विज्ञान है जैसा कि अर्थशास्त्र या मनोविज्ञान या जीवशास्त्र, इतिहास और राजनीतिशास्त्र। वस्तुतः यह इनके मुकाबले अधिक विज्ञान है।‘‘[9] उर्विक ने इस विचार का समर्थन किया है कि ‘‘अन्ततः प्रशासन एक सही विज्ञान
है।‘‘[10] इस विषय पर 1937 में Papers on the
Science of Administration" नामक निबन्ध लूथर गुलिक तथा
एल.उर्विक द्वारा सम्पादित किया गया। ‘‘नीति निर्माण एवं व्यापार प्रशासन से लोक प्रशासन का पृथक मानते हुए The Journal of
Public Administration में छपे एक लेख में एफ.मर्सन ने भी इसे विज्ञान माना
है क्योंकि अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति लोक प्रशासन ने भी अपना अध्ययन
क्षेत्र निर्धारित कर लिया है तथा पर्याप्त मात्रा में ऐसे तथ्य एकत्र कर लिये हैं
जिनका वैज्ञानिक पद्धति के माध्यम से परीक्षण किया जा सकता है।‘‘[11] ग्रिफिथ भी लोक प्रशासन को विज्ञान मानते हैं क्योंकि एक डॉक्टर, इंजिनियर की भाँति, एक प्रशासन भी वैज्ञानिक ढंग से प्रशासन चला सकता है। लोक प्रशासन को विज्ञान मानने
के कारण - 1. अनुसंधान कार्य सम्भव 2. भविष्यवाणी सम्भव 3. क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन 4. सर्वमान्य सत्य एवं सिद्धान्तों का विकास 5. प्रयोगीकरण, पर्यवेक्षण एवं सर्वेक्षण कार्य
सम्भव 6. कार्य-कारण में पारम्परिक सम्बन्धों की स्थापना 7. तथ्य संकलन एवं अन्य सांख्यिकीय विधियों का उपयोग दूसरा विचार वर्ग (विज्ञान नहीं
है)- लोक प्रशासन की विषय वस्तु मानवीय स्वभाव पर आधारित
है। अर्थात् नैतिक मूल्यों से प्रशासन मुक्त नहीं हो सकता। इसी आधार पर वाल्डो, वालास, फाइनर, मोरिस तथा कोहन यह मानते हैं कि
लोक प्रशासन विज्ञान नहीं है और न ही यह विज्ञान बन सकता है। इसके विपरीत विज्ञान
पूर्णतः मूल्य शून्य होता है। प्राकृतिक विज्ञान अनिवार्य रूप से तथ्यपरक होते हैं
तथा उनमें दृष्टिकोण की निरपेक्षता सम्भव है जबकि लोक प्रशासन जैसे विषय मूलतः
आदर्शमूलक होते हैं। प्रशासन का मुख्य लक्ष्य या प्रयोजन लोक हित सिद्धि एवं मानव
कल्याण के उद्देश्यों की प्राप्ति है जिसमें नैतिकता का समावेश अनिवार्यतः होता
है। अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति ही लोक प्रशासन मानव
व्यवहार सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करता है। राबर्ट ए.डैल ने लिखा है कि ‘‘मानव व्यवहार की यह सम्बद्धता लोक प्रशासन के विज्ञान की संलग्न क्षमताओं को
सीमित कर देती हैं, क्योंकि प्रथम प्रयोगात्मक पद्धतियों के उपयोग की
सम्भावना कम होती है। दूसरे, आँकड़ों की एकरूपता स्वाभाविक रूप से सीमित हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक स्त्री-पुरूष एक दूसरे से भिन्न एवं परिवर्तन होते है। तीसरे, आँकडे़ की अप्रमाणिकता एवं अत्यधिक संख्या स्वतंत्र जाँच की सम्भावनाओं को कम
कर देती है। चौथे लोक प्रशासन के नियम अविश्वसनीय होते हैं जिससे भविष्यवाणी करने
की क्षमता सीमाओं में आबद्ध होती है। लोक प्रशासन
के अधिकांश सिद्धान्त अनुमानित होते हैं और उनके विज्ञान होने का दावा, जो मानव प्रकृति की पूर्व धारणाओं से उत्पन्न है, आधुनिक काल में सहज ही मान्य हो सकता है।”[12] लोक प्रशासन को विज्ञान न मानने वाले विद्वानों का
तर्क है कि इसमें निश्चितता एव पूर्णता का अभाव है। उदाहरणार्थ, भौतिक शास्त्र का ‘‘गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त‘‘ जिसके अनुसार कोई वस्तु ऊपर फैंकी जाए तो एक निश्चित सीमा तक पृथ्वी अपनी और
खींच लेती है। अर्थात् भौतिक विज्ञानों के अन्य सभी नियम, अटल, अपरिवर्तनशील एवं अकाट्य है। उक्त नियम वे मूलभूत
सत्य हैं जो हर काल, स्थान एवं प्रादेशिक भूमण्डल में समान रूप से लागू
होते हैं। इसके विपरीत लोक प्रशासन द्वारा प्रतिपादित नियम और सिद्धान्त भी
परिवर्तनशील होते हैं। प्रायः लोक प्रशासन के क्षेत्र में निश्चित एवं
सर्वसम्मत सिद्धान्तों का अभाव है। इन पर काल, समय, स्थान की सामाजिक परिस्थितियों और पर्यावरण का प्रभाव रहता हैं। ‘‘लोक प्रशासन के भीतर किसी प्रकार के निरपेक्ष सिद्धान्तों की कोई गुंजाइश नहीं
है। अतः लोक प्रशासन की समस्याओं के लिए अनुभव पर आधारित तथा प्रयोजनवादी
दृष्टिकोण के अतिरिक्त कोई अन्य दृष्टिकोण अपनाना सम्भव नहीं।”[13] अतः स्पष्ट है कि प्रशासन के तथाकथित सिद्धान्त प्रशासकीय क्रिया के
सकारात्मक तथा आदर्शात्मक धारणाओं अर्थात् ‘‘क्या है” और ‘‘क्या होना चाहिए” के मध्य निरन्तर झूलते रहते
हैं। विचारक एवं शोधकर्ता अपने व्यक्तिगत अनुभव तथा मूल्यों द्वारा प्रतिपादित
सिद्धान्तों पर अपना रंग चढ़ा देते हैं जिसके कारण सिद्धान्तों की प्रमाणिकता सिद्ध
नहीं होती। विज्ञान की भाँति लोक प्रशासन के पास ऐसी कोई
प्रयोगशाला नहीं है जहाँ पूर्व अर्जित तथ्यों की सत्यता स्थापित की जा सके।
प्रशासन का सम्बन्ध चेतन मनुष्यों और उनके मानवीय व्यवहारों से है। ‘‘लोक प्रशासन के दृष्टिकोण में उपयोगिता की दृष्टि से कुछ सर्वसम्मत
सिद्धान्तों के प्रतिपादन की गुंजाइश है तो इसका अर्थ यह है कि प्रशासकीय व्यवहार
व आचरण पूर्णतया विवेकनिष्ठ है या हो सकता है, किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं।
मानव स्वभाव के अविवेकी तत्त्व, जैसे-आदतें, आशाएँ, भय, रूची-अरूचि आदि प्रशासन में इतनी ही भूमिका निभाते
हैं जितनी की विवेकपूर्ण तत्त्व। इसलिए नशाबन्दी जैसी नीतियो को लागू करना कठिन हो
जाता है। विशेषज्ञों द्वारा स्थापित औपचारिक संगठनों और कार्यविधियों को अनौपचारिक
संगठन तथा कार्यविधियाँ विकसित हो जाने पर प्रायः बिगाड़ के रख देती हैं।[14] लोक प्रशासन को विज्ञान न मानने
के कारण 1. विषयवस्तु मानवीय व्यवहार पर आधारित 2. सर्वमान्य एवं निश्चित सिद्धान्तों का अभाव 3. वैज्ञानिक प्रयोग एवं भविष्यवाणी सम्भव नहीं 4. लोक प्रशासन मूल्य निरपेक्ष नहीं 5. सामाजिक पर्यावरण के साथ पारस्परिक एवं सजीव
सम्बन्ध 6. अध्ययन पद्धति में वस्तुनिष्ठता एवं निरपेक्षता का
अभाव 7. कार्य-कारण के बीच सम्बन्ध निश्चित नहीं संक्षेप में लोक प्रशासन को तब तक विज्ञान नहीं कहा
जा सकता जब तक उसके द्वारा निम्न तीन शर्तों की पूर्ति नहीं की जाती। प्रथम
प्रशासन में आदर्श, स्थान एवं मूल्य को स्पष्टतापूर्वक परिभाषित किया
जाना चाहिए। दूसरे लोक प्रशासन के क्षेत्र में मानव को प्रकृति का समुचित ज्ञान
अर्जित होना चाहिए। तृतीय, विपरीत संस्कृतियों के अध्ययनों को प्रोत्साहित किया
जाना चाहिए, जिससे प्रशासन के ऐसे सिद्धान्तों को विकसित किया जा
सके जो संस्कृतिबद्धता से ग्रस्त न हो। तीसरा विचार वर्ग (सामाजिक
विज्ञान) आधुनिक समय में लोक प्रशासन का जो विकास हुआ है, उसे देखते हुए इसे विज्ञान का नाम भले ही न दिया जा सके, किन्तु शीघ्र ही भविष्य में यह एक विज्ञान का रूप धारण कर लेगा।”[15] उर्विक, टेलर, साइमन, रिग्ज, फिफनर आदि विद्वानों की मान्यता है कि वर्तमान में लोक प्रशासन के कुछ ऐेसे
मौलिक नियमो का पता लग चुका है, जिनके आधार पर अध्ययन, अनुसंधान, निरीक्षण तथा प्राप्त सामग्री का विश्लेषण अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति
किया जा सकता है। उर्विक ने प्रशासन के वास्तविक विज्ञान बनने की सम्भावना को
स्वीकार किया है। एफ.डब्ल्यू. टेलर ने भी विश्वास प्रकट किया है कि ‘‘नवीन प्रबन्ध पद्धति को प्रथम कार्य प्रशासन
के विज्ञान का विकास करना है।”[16] सामाजिक विज्ञानों के समर्थकों का यह मानना है कि
उनके विषय में पूर्ण निश्चितता व यर्थाथता नहीं है। तथापि उनकी दृढ़ मान्यता है कि
यह विज्ञान का सच्चा मानदण्ड नहीं। अर्थात् कोई भी विषय जिसमें वैज्ञानिक पद्धति
का प्रयोग किया जाता है, विज्ञान हो सकता है। यह सत्य है कि मानवीय व्यवहार का
विश्लेषण भौतिक विज्ञानों की भाँति सम्भव नहीं है। फिर भी यह पूर्णतया मनमानी पर
आधारित नहीं अपितु सामान्यीकरण पर आधारित है। यदि ऐसा न होता तो हम अपने पड़ौसी के
चरित्र और आदतों का अनुमान लगाने में असमर्थ होते और सामाजिक आदान-प्रदान का आधार
ही लुप्त हो जाता है। भौतिक विज्ञानों में भी कुछ ऐसे विज्ञान हैं, जैसे- मौसम विज्ञान, जो सम्भावनाओं को बताता है, अचूक निश्चितताओं को नहीं।हर्बर्ट साइमन का मानना है कि प्रशासन विज्ञान के
विषय में लोगों की अपेक्षाएँ भ्रमपूर्ण है। यह विज्ञान दो बातों पर ध्यान दे सकता
हैं- (1) संगठन के भीतर लोगों के आचरण की जानकारी पर तथा (2) प्रशासन के संचालन की
सर्वश्रेष्ठ रीतियों के सुझावों पर। इन दोनों लक्ष्यों की तुलना क्रमशः जीव
विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के साथ की जा सकती है। लोक प्रशासन को सामाजिक विज्ञान
मानने के कारण 1. अध्ययन के नये यंत्र आ रहे हैं, जिससे परीक्षण विधियाँ प्रभावी बनेगी। 2. यदि वर्तमान की तुलना व्हाइट व विलोबी काल से करें
तो प्रगति हुई है। 3. सामाजिक विज्ञानों में शोध की अन्तर्निर्भरता में वृद्धि 4. सामाजिक वैश्विक परिदृश्य में तुलात्मक अध्ययन की बढ़ती प्रवृति। |
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निष्कर्ष |
लोक प्रशासन का सामाजिक पर्यावरण के साथ पारस्परिक, क्रियात्मक एवं सजीव सम्बन्ध होता है। चूंकि लोक प्रशासन की उत्पत्ति पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक परिवेश में हुई है। अतएव यह आवश्यक नहीं कि इसके निष्कर्ष और सिद्धान्त विश्व के अन्य भागों में, जहाँ पर विभिन्न संस्कृतियाँ प्रचलित है, मान्य हों। अर्थात् जब तक लोक प्रशासन के सिद्धान्तों को विपरीत संस्कृतियों के अध्ययन के आधार पर विकसित अथवा प्रमाणित नहीं किया जाए तब तक वे सार्वभौमिक मान्यता का दावा नहीं कर सकते। अतः लोक प्रशासन विज्ञान कहलाने का अधिकारी तभी हो सकता है जब उसके सिद्धान्त विश्व के विभिन्न समाजों यथा- ऐशियाई, लैटिन अमेरिकी और अफ्रिकी देशों में किये गये अध्ययनों और अनुसंधानों का परिणाम हो।
मानवीय मूल्यों और क्रियाओं से सम्बन्धित होने के कारण लोक प्रशासन के नियम कम विश्वसनीय होते हैं क्योंकि निरन्तर परिवर्तित मानवीय व्यवहार के कारण भौतिक विज्ञानों की भाँति भविष्यवाणी सम्भव नहीं है। एम.पी.शर्मा के अनुसार, ‘‘इन तर्कों का प्रधान ध्येय यह सिद्ध करना है कि लोक प्रशासन न तो प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति कोई यथार्थ एवं सुनिश्चित विज्ञान है, और न ही भविष्य में उसके विज्ञान बन जाने की सम्भावना है। यह निष्कर्ष केवल लोक प्रशासन के सन्दर्भ में ही नहीं वरन् अन्य सामाजिक अध्ययनों के बारे में भी निकाला जा सकता है तथापि जब तक सामान्य व्यवहार में अन्य सामाजिक विज्ञानों के लिए ‘विज्ञान‘ शब्द का प्रयोग होता है तब तक लोक प्रशासन को भी विज्ञान मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।”[17] दूसरी ओर, यदि विज्ञान शब्द का प्रयोग उस यथार्थ ज्ञान भण्डार के लिए किया गया हो जो अनुभव और पर्यवेक्षण द्वारा प्राप्त किया जाता है, अथवा उन नियमों के समूहों के लिए किया गया हो जो अनुभव से प्राप्त किये गये हों तथा जिनके बारे में भविष्यवाणी की जा सकती हो, तो निश्चय ही लोक प्रशासन विज्ञान है।
सारांशतः कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन ने भले ही वैज्ञानिक सिद्धान्तों का विकास कर लिया है, फिर भी सत्य यह है कि लोक प्रशासन भौतिक विज्ञान की भांति वास्तविक विज्ञान नहीं है, अपितु एक सामाजिक विज्ञान है। वालास ने अपनी पुस्तक Federal Departmentalization में लोक प्रशासन को विज्ञान मानने के खतरों की ओर संकेत किया है। उनका मत है कि अज्ञानतावश लोग प्रशासन के मोटे निष्कर्षों को प्रमाणिक एवं निश्चित सिद्धान्त मान लेते हैं जबकि अभी वे केवल परिकल्पनाएँ मात्र ही है। राबर्ट सी.वुड का विचार है कि ‘‘विज्ञान और मानवतावाद की विचारधाराओं में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है बल्कि वे एक-दूसरे की पूरक हैं और दोनों ही अन्ततः अनिवार्य है। अन्त में कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन एक प्रगतिशील विज्ञान है जिसके निष्कर्ष अथवा सिद्धान्त नये अनुभव और नये तथ्यों की रोशनी में परिपक्वता की ओर निरन्तर प्रगति पर है। |
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