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भारत में मतदान व्यवहार के निर्धारक तत्व : एक विश्लेषण | |||||||
Determinants of Voting Behavior in India: An Analysis | |||||||
Paper Id :
16601 Submission Date :
2022-10-19 Acceptance Date :
2022-10-22 Publication Date :
2022-10-25
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सारांश |
विश्व में जिन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है वहाँ निर्वाचन का महत्व निर्विवाद है क्योंकि निर्वाचन को लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्राण और हृदय माना जाता है। निर्वाचन में कोई राजनीतिक दल क्यों जीतता है और कोई राजनीतिक दल क्यों हारता है इसको जानने की जिज्ञासा राजनीति शास्त्र के विद्वानों में पाया जाना आम बात है। भारत में सत्रह लोकसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके है और इन चुनावों में वे कौन से कारक है जिन्होंने भारतीय मतदाता को अमुक राजनीति दल को वोट देने के प्रेरित किया इसको समझने की प्रक्रिया धीरे-धीरे व्यवस्थित रूप ले रही है और इस कारण मतदान व्यवहार के अध्ययन अत्यंत लोकप्रिय हो रहे है। इसी कारण प्रस्तुत शोध पत्र में स्वांतत्रयोत्तर भारत में मतदान-व्यवहार के निर्धारक तत्वों का विश्लेषण करने का प्रयास किया जाता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the countries where there is a democratic system in the world, the importance of election is undeniable because election is considered the life and heart of the democratic system. The curiosity to know why a political party wins in an election and why a political party loses is common among scholars of political science. Seventeen Lok Sabha elections have been completed in India and in these elections, what are the factors that motivated the Indian voter to vote for such a political party, the process of understanding it is slowly taking a systematic form and due to this the study of voting behavior are becoming very popular. For this reason, in the present research paper, an attempt is made to analyze the determinants of voting behavior in post-independent India. | ||||||
मुख्य शब्द | लोकतांत्रिक व्यवस्था, निर्वाचन, राजनीति दल, लोकसभा चुनाव, मतदाता, मतदान-व्यवहार। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Democracy, Election, Political Party, Lok Sabha Election, Voter, Voting Behavior | ||||||
प्रस्तावना |
मनुष्य एक जिज्ञासु प्राणी है क्योंकि उसके आस-पास घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जानने, समझने की उसमें उत्कंठा एवं जिज्ञासा होती है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में जहाँ सत्ता का हस्तानांतरण निर्वाचनों के माध्यम से होता है वहाँ के नागरिकों, राजनीति विज्ञान के विद्वानों, शोधकर्ताओं मे यह जानने की बड़ी tivr जिज्ञासा होती है कि क्यों एक राजनीति दल को जनता बार-बार चुनाव में मतदान करती है या हर 5 साल बाद जनता सरकार में परिवर्तन क्यों करती है। इस प्रकार के प्रश्नों का उठना मतदान-व्यवहार के अध्ययन को अपरिहार्य बना देते है। भारत में अब तक सत्रह लोकसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके है और भारत में मतदाताओं के मतदान करने के तरीकों में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। 1967 के लोकसभा चुनाव भारत में कांग्रेस पार्टी का एक छत्र शासन रहा। 1967 के बाद राज्य स्तर पर जनता ने अन्य विकल्पों को भी महत्व दिया। भारत में मतदान-व्यवहार अनेक तत्वों से प्रभावित रहा है जिसे समझने का प्रयास प्रस्तुत शोध पत्र में किया गया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. मतदान-व्यवहार के अर्थ को समझना।
2. भारत में मतदान-व्यवहार के कारकों का विश्लेषण।
3. भारत में मतदान-व्यवहार के अध्ययन की परम्परा का विश्लेषण। |
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साहित्यावलोकन | भारत
में मतदान-व्यवहार के अध्ययन के बारें में संजय कुमार एवं प्रवीण राय ने अपनी
पुस्तक का भारत में मतदान व्यवहार का मापन (2013)
में भारत में मतदान-व्यवहार के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला
है। डाॅ. सी.बी. गेना ने अपनी पुस्तक 'तुलनात्मक राजनीति एवं राजनीतिक संस्थाएँ' (1997)
में मतदान-व्यवहार के अर्थ को स्पष्ट किया है। डाॅ.बी.एल. फडिया
एवं पुखराज जैन द्वारा लिखित पुस्तक 'भारतीय शासन एवं राजनीति, (2004) में भारत में मतदान-व्यवहार के कारकों को रेखांकित किया गया है। |
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मुख्य पाठ |
मतदान- व्यवहार का अर्थ मतदान-व्यवहार का अर्थ है किन कारणों से प्रभावित
होकर मतदाता मतदान करता है। मतदान-व्यवहार वोट डालने के पैटर्न (तरीकों) या कारणों
को परिभाषित करता है जो मतदान करने में लोगों को प्रभावित करता हैं। मतदान व्यवहार
चुनाव के अध्ययन का एक अंग या हिस्सा भी माना जा सकता है क्योंकि इसमे
मतदान-व्यवहार का वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है। सभी मतदान
व्यवहार के उदेद्श्य इस बात को जानना रहा है कि मतदाता वोट देते समय किस तथ्य से
सर्वाधिक प्रभावित रहता है ? वह कौन-सी बातें तथा मुद्दे है जो आम
मतदाताओं को अपना मत इधर-उधर देने के लिए प्रेरित करते है। मतदान व्यवहार चुनावी
आंकड़ों के रिकार्ड तक सीमित नहीं होता बल्कि यह मतदाताओं के मन की भावनाओं,
अनुभवों आदि मनोवैज्ञानिक पहलुओं से भी अपना सरोकार रखता है। मतदान व्यवहार का इतिहास मतदान-व्यवहार का अध्ययन बीसवी शताब्दी के पूर्वाद्ध
में प्रारम्भ हुआ था। फ्रांस प्रथम देश है जहाँ मतदान-व्यवहार की पहले शुरूआत हुई
थी। फ़्रांस के बाद अमरीका और ब्रिटेन में भी मतदान-व्यवहार के अध्ययन प्रारम्भ
हुए। सन 1935 में डॉ. गेलप ने अमेरिका के
प्रिसंटन न्यूजर्सी में अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपनियन की स्थापना की थी।
गेलप के अनुमान अपनी सटीकता के बहुत प्रसिद्ध हुए थे। भारत में मतदान-व्यवहार का
इतिहास भारत में मतदान-व्यवहार के अध्ययन की शुरूआत 50 के दशक से मानी जाती है। डॉ. एरिक दा कोस्टा ने 1950 के प्रारम्भ में इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक ओपनियन की स्थापना की जिसने
भारत में मतदान-व्यवहार के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में 1957
के द्वितीय आम चुनाव के बाद लोकसभा चुनावों में मतदान व्यवहार का
अध्ययन प्रारम्भ हुआ। भारत में मतदान-व्यवहार के अध्ययन में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ
डेवलपिंग सोसायटी की भी महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि इसने नेशनल इलेक्शन स्टडी के
नाम से अखिल भारतीय नमूना सर्वेक्षण पर चुनाव के अध्ययन की शुरूआत की। 1996
से निरन्तर यह संस्था मतदान व्यवहार का अध्ययन कर रही है। पाॅल
ब्रास ने केस स्टडी (1980) तथा मुकुलिका बनर्जी ने
नृवंशविज्ञान (2007) विधि से अध्ययन किए। सन् 2000 के बाद मतदान व्यवहार के अध्ययन की विद्या अत्यंत लोकप्रिय होने लगी है। भारत में मतदान-व्यवहार के
निर्धारक तत्व भारत में 1952 के प्रथम
लोकसभा चुनाव से सत्रहवीं लोकसभा चुनावों के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट रूप से
दृष्टिगोचर होती है कि भारत में मतदान-व्यवहार अनेक कारणों से प्रभावित रहा है जो
निम्नलिखित है:- जाति - जाति मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाला सबसे सशक्त कारक रहा है। इस संबंध
में पाॅल ब्रास लिखते है कि ‘‘स्थानीय स्तर गांवो में मतदान
व्यवहार का सबसे महत्वपूर्ण कारक जातीय एकता है। बडी और महत्वपूर्ण जातियाँ अपने
चुनाव क्षेत्र में अपनी ही जाति के सदस्य को समर्थन करती है या ऐसे दल को समर्थन
करती है जिनसे उनकी जाति के सदस्य अपनी पहचान स्थापित करते है।’’ जाति का राजनीतिक दलों ने थोक वोट बैंक के रूप में खुलकर प्रयोग किया है।
उदाहरण के लिए बहुजन समाज पार्टी का मुख्य मतदाता दलित वर्ग रहा है। लेकिन जाति का
तत्व हमेशा निर्णायक रहा हो ये भी सत्य नही है क्योंकि कई लोकसभा चुनावों में जाति
का प्रभाव कम देखा गया है। उदाहरण के लिए 1971,1977, 1984, 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव मे जाति की सीमित भूमिका रही
है। धर्म- भारत में अनेक राजनीतिक दलों के निर्माण का आधार वर्ग या धार्मिक भावनाएँ रही
है। अतः इन दलों ने धार्मिक मुद्दों के आधार पर जनता से मत प्राप्त करने का प्रयास
किया है। पंजाब में अकाली दल, महाराष्ट्र में शिवसेना, केरल में मुस्लिम लीग ने धार्मिक आधार पर ही सफलता प्राप्त की है। नेतृत्व- भारत में मतदान-व्यवहार को प्रभावित करने में चमत्कारिक या करिश्मायी नेतृत्व
को महत्वपूर्ण भूमिका देखने को मिलती है। व्यक्ति-पूजा भारतीय राजनीति की प्रमुख
विशेषता रही है। व्यक्ति-पूजा के कारण ही नेताओं को अलौकिक, अमानवीय या असाधारण गुणों से युक्त समझकर जनता ने भारी समर्थन
दिया है। शुरूआती दौर में नेहरू के व्यक्तित्व के कारण ही कांग्रेस को अपार सफलता
मिली। 1971 और 1980 में कांग्रेस की
विजय वास्तव में इन्दिरा गांधी की व्यक्तिगत विजय थी। 2014 और
2019 में तो भाजपा नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व के कारण ही
विजयी रथ पर सवार हुई हैं। वर्ग- वर्ग आर्थिक मामलों में रोजगार, महंगाई में कमी,
कर्जमाफी, मुफ्त की योजनाओं आदि में परिलक्षित
होता है। ये मुद्दे कई चुनावों में अभियान का केन्द्र रहे है। 1971 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का नारा था - गरीबी हटाओं जिसने उसे सफलता
दिलाई। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वामपंथी दलों ने
लम्बे समय तक शासन किया इसके पीछे उनकी आर्थिक नीतियाँ थी जो आम आदमी के जीवन को
प्रभावित करती थी। पिछले कुछ वर्षो से अनेक राजनीति दलों ने जनता को अधिक से अधिक
रियायते देने की नीति को अपनाकर सफलता प्राप्त की है। दक्षिण भारत में मुफ्त साडी
एवं टेलीविजन सैट बाँटे गए तो दिल्ली में बिजली पानी के बिलों में रियायत देकर आम
आदमी पार्टी ने प्रचण्ड बहुमत प्राप्त किया। लिंग (जेण्डर)- भारत में महिलाओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा
महिलाओं के उत्थान में नीतियों पर भी विशेष जोर दिया जाने लगा है। हर चुनाव में
राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा पत्र में महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों को शामिल किया जाने लगा है। अब हर राज्य में महिलाओं, छात्राओं के
लिए साइकिल, स्कूटी, मोबाइल बांटे जाने
लगे है। 2019 में भाजपा की लोकसभा चुनाव में सफलता में
उज्जवला योजना, स्वच्छ भारत, सौभाग्य,
जन-धन आदि योजनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सत्ताधारी दल का प्रदर्शन- भारत में जब जनता को लगता है कि सरकार अपने वादों को पूरा करने में असफल रही
है तो जनता उसे सरकार को चुनाव में हरा देती है। इसे एंटी इंकम्बेसी फैक्टर कहते
है। 1980 में जनता पार्टी, 1989 में कांग्रेस पार्टी की लोकसभा चुनाव में हार का प्रमुख कारण मतदाताओं में
सत्ताधारी दल के कार्य प्रदर्शन से असंतोष था। दूसरी तरफ यदि जनता सरकार से
सन्तुष्ट होती है तो उसे पुनः भरपूर समर्थन देती है जिसे प्रो इनकंबेसी कहा जा
सकता है। प्रचार के साधन एवं मीडिया- प्रचार के साधन चुनावों में मतदान व्यवहार को सीधे प्रभावित करते है। आजादी
के पश्चात् प्रत्येक चुनाव में हार्डिग, बैनर, पोस्टर के माध्यम से मतदाताओं को प्रभावित किया जाता है। 90 के दशक तक रेडियो प्रचार का प्रमुख माध्यम रहा तो दूसरी और प्रिंट मीडिया
विशेषकर समाचार-पत्रों ने चुनाव का विश्लेषण करके, मतदाताओं
को प्रभावित किया। 90 के दशक बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया का युग
आया और टेलीविजन पर राजनीतिक दलो ने प्रचार प्रारंभ किया। मीडिया का सबसे अधिक
प्रभावशाली प्रयोग सर्वप्रथम 1984 के लोकसभा चुनावों में
देखने को मिला। इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस ने अराजनीतिक एजेन्सी रेडिफ्यूजन
की सहायता ली। दूरदर्शन और वीडियो कैसेट का इस चुनाव में प्रभावशाली प्रयोग किया।
कांग्रेस के पाश्चात्य शैली में चुनाव संचालन और इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के
प्रयोग ने चुनाव की तस्वीर ही बदल दी। सोलहवीं लोकसभा के निर्वाचन (2014) में भी मतदाताओं के मतदान व्यवहार को मीडिया ने गहराई से प्रभावित किया।
मीडिया विशेषकर समाचार चैनलों ने भाजपा और नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन अभियान को न
सिर्फ मतदाताओं के बड़े हिस्से तक पहुंचाने तथा उसे इस तरह पेश किया कि उसे एक
विश्वसनीयता मिल गई। मीडिया के एक बडे हिस्से में मोदी ही छाए रहे जिसका फायदा
भाजपा को मिला। सोशल मीडिया- 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में मतदान
व्यवहार को प्रभावित करने में एक नया कारक जिसे ‘सोशल मीडिया’
कहा जाता है सामने आया है। फेसबुक, व्हाटसएप, ट्विटर, वेबसाइट, मैसेज
आदि प्रचार के नए साधन है जो मतदाताओं को प्रभावित करते है। सोलहवीं लोकसभा का
चुनाव (2014) तो सोशल मीडिया के सर्वाधिक प्रयोग के लिए जाना
जाऐगा। अब चुनाव एक तरह के छवि युद्ध में परिवर्तित हो गए है। हैशटेग वार राजनीति
के नए अखाडे बन गए है। सोशल मीडिया ने राजनीति को परम्परागत राजनीति और वेब
राजनीति दो हिस्सो में बांट दिया है। भाजपा का सोशल मीडिया पर सारा प्रचार
नरेन्द्र मोदी के इर्द-गिर्द था। सोलहवीं लोकसभा के निर्वाचन में नरेन्द्र मोदी के
चार मिलियन फॉलोअर्स ट्वीटर पर थे तो 14 मिलियन लाइक्स
फेसबुक पर थे। सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव (2019) में भी सोशल
मीडिया का मतदान व्यवहार पर असर साफ देखा जा सकता है। अकेले बंगाल में 50,000
व्हाट्सएप ग्रुप समूह भाजपा के थे जो बंगाल में भाजपा की सफलता की
कहानी बयां करते है। कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दल अभी भी सोशल मीडिया का प्रयोग
अपने पक्ष में करने में काफी पीछे है। |
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सामग्री और क्रियाविधि | प्रस्तुत शोधपत्र में विश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक प्रविधि का प्रयोग किया गया है तथा मुख्यतः द्वितीयक स्त्रोतों से अध्ययन के लिए आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। |
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निष्कर्ष |
भारत में मतदान-व्यवहार के कारणों के ऐतिहासिक अध्ययन स्पष्ट संकेत करते है कि मतदान-व्यवहार बहुआयामी होता है। भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने के अनेक कारण है। 1952 से 1962 तक कांग्रेस की लोकसभा चुनावों में विजय का सबसे प्रमुख कारण यह था कि भारतीय जनता के मस्तिष्क में यह विचार गहराई तक जम चुका था कि आजादी के आंदोलन में कांग्रेस पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा पण्डित नेहरू का नेतृत्व ही समक्ष प्रशासन दे सकता है। 1971 मेंबांगलादेश युद्ध में विजय ने इन्दिरा गांधी को देवी दुर्गा के समक्ष मानने को मजबूर किया तो 1977 में जनता को संदेश स्पष्ट था कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों को पसन्द करती है। 1980 में जनादेश स्थिर सरकार के पक्ष में था, 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद मतदाताओं की सहानुभूति राजीव गांधी एवं कांग्रेस के साथ रही तो 1989 में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनादेश था। 1991 में मण्डल और कमण्डल, राजीव गांधी की हत्या ने मतदान व्यवहार को प्रभावित किया। 1996, 1998, 1999, 2004, 2009 में मतदाता ने स्पष्ट जनादेश नहीं देकर गठबंधन सरकारों के पक्ष में मतदान किया तो 2014 एवं 2019 में पुनः करिशमाई नेतृत्व मिलने की अच्छे दिनों की आशा में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया। भारत में 70 वर्षो में भारतीय जनता का मतदान व्यवहार स्पष्ट करता है कि भारतीय मतदाता परिपक्व है तथा वह सदैव राष्ट्रीय हितों के अनुकूल मतदान करता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. गेना, सी.बी. (1997), तुलनात्मक राजनीति एवं राजनीतिक संस्थाएँ, विकास पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ 983
2. चोपड़ा, जे.के. (1989) पालिटिक्स ऑफ इलेक्शन रिफाम्र्स इन इंडिया, मित्तल, नई दिल्ली, पृष्ठ 42
3. कुमार संजय, राय प्रवीण (2013) भारत में मतदान व्यवहार का मापन सेज, दिल्ली, पृष्ठ 16
वहीं पृष्ठ 16
4. ब्रास पाल आर (1984), दि पालिटिक्स ऑफ इंडिया सिसं इंडिपेंडेस, कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, लन्दन, पृष्ठ (98)
5. कोठारी रजनी (2012) भारत में राजनीति, ओरिएंट ब्लैकस्वान, दिल्ली पृष्ठ संख्या 110
6. शाह घनश्याम (2002) कॉस्ट एण्ड डेमोक्रेट्रिक पालिटिक्स, परमानेंट ब्लैंक, दिल्ली पृष्ठ संख्या 112
7. चंद्र, विपिन (2009, आजादी के बाद भारत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली, पृष्ठ 300
8. गुहा रामचंद्र (2012) भारत गांधी के बाद, पेंगुइन, गुडगांव पृष्ठ संख्या 166
9. कुमार संजय (2009) चेजिंग फेस ऑफ देहली पालिटिक्स, राउटलेज, दिल्ली
10. डागर रेणुका (2015) जेन्डर नेरेटिव्ज एंड इलेक्संस, सेज, नई दिल्ली
11. जैन पुखराज (2004) भारतीय शासन एवं राजनीति, साहित्य भवन आगरा पृष्ठ सं. 612
12. टाइम्स ऑफ इण्डिया, 30 दिसम्बर, 1984
13. प्रसाद, वीरकेश्वरसिंह (2013), भारतीय शासन एवं राजनीति, ज्ञानदा दिल्ली, पृष्ठ संख्या 106
14. जोशी शालिनी, सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव और चुनावी राजनीति, न्यूज राइटर्स इन
15. सरदेसाई राजदीप (2020), मोदी की जीत, वाणी प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ संख्या 45 |