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हिंदी साहित्य मे शिवपूजन सहाय का अविस्मरणीय योगदान | |||||||
Unforgettable Contribution of Shivpujan Sahay in Hindi literature | |||||||
Paper Id :
16514 Submission Date :
2022-10-02 Acceptance Date :
2022-10-22 Publication Date :
2022-10-25
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सारांश |
उनकी साहित्यिक उपलब्धियों को देखकर भारत सरकार ने 1960 में शिवपूजन सहाय को पद-भूषण सम्मान प्रदान किया। पटना में 21 जनवरी 1963 को उनका निधन हो गया। उनकी रचनाएँ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना द्वारा चार खण्डों में प्रकाशित की गई है। सहाय जी की मृत्यु के बाद भी ‘वे दिन वे लोग’ और ‘मेरा जीवन’ सहित कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ प्रकाशित हुई।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Seeing his literary achievements, the Government of India honored Shivpujan Sahay with the Padma Bhushan in 1960. He died on 21 January 1963 in Patna. His works have been published in four volumes by Bihar National Language Council, Patna. Even after the death of Sahay ji, some famous works including 'Ve Din Ve Log' and 'Mera Jeevan' were published. | ||||||
मुख्य शब्द | चेतनायुक्त, प्रेरणादायक, प्रतिभाशाली, कथाकार, भाषाविद, विपुल। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Conscious, Inspirational, Talented, Storyteller, Linguist, Prolific. | ||||||
प्रस्तावना |
आचार्य शिवपूजन सहाय की साहित्य-सेवा का प्रारंभ ललित, भाषात्मक, विचारात्मक, विवेचनात्मक और समीक्षात्मक निबन्धों एवं कथाओं से हुआ जिनमें जीवन के यथार्थ अनुभवों को प्रायः काव्य और निबंधों के गुणों में समन्वित करते हुए रचनाएँ की। ये अपने समकालीन रचनाकार- प्रेमचन्द, राजा राधिकारमण सिंह, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद, सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला, पांडेय बेचन शर्मा उग्र जैसे प्रगतिशील चेतना के कथाकारों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। शिवपूजन सहाय द्वारा रचे संस्मरणों हिन्दी साहित्य में कहीं नहीं मिलता। इनकी प्रमुख मौलिक कृतियों में ‘विभुति’ (कहानी संग्ररह), ‘देहाती दुनिया’ (उपन्यास), असमंजस, माया-मंदिर तथा कुछ अपूर्ण रचनाएँ हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. शिवपूजन सहाय के साहित्य के उपलब्धियों को अंकित करना।
2. शिवपूजन सहाय के साहित्य के लेखन का प्रारंभ एवं उनकी विविध प्रकाशित रचनाओं का उल्लेख करना।
3. शिवपूजन जी की उपलब्धियों को देखकर भारत सरकार द्वारा मान-सम्मान दिया गया, उसको दर्शा ना।
4. शिवपूजन जी की रचनाओं में किन-किन भाषाओं एवं शैलियों को अपनाया गया है उनका उल्लेख करना। |
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साहित्यावलोकन | शिवपूजन
सहाय द्विवेदी युग के प्रतिभाशाली कथाकार, संपादक, चिंतक
एवं भाषाविद् हैं। हिन्दी साहित्य में इनका योगदान ऐतिहासिक है। शिवपूजन सहाय जिस
समय रचनाओं का लेखन कर रहे थे उस समय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक
और साहित्यिक स्तर पर नवजागरण का काल था। साहित्य दिनों-दिन प्रौढ़ हो रहा था।
देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना भी जागृत हो रही थी। इसी समय शिवपूजन सहाय ने लेखन
की शुरूआत की। इनकी रचनाओं में हिन्दी गद्य का जो निखरा हुआ रूप मिलता है, वह
उनके समकालीन लेखकों में विरले ही मिलता है। इन्होंने भाषा को परिष्कृत किया तथा
अपनी रचनाओं में यथार्थ दृष्टिकोण को अपनाया। नारियों की वीरता का वर्णन अब तक
कविताओं में मिलती थी। शिवपूजन सहाय ने ‘मुंडमाल’ कहानी
लिखकर नारी के शौर्य , प्रेम, भाव
और बलिदान को दिखाया है। वह अद्वितीय है। प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार, लघु
कथाकार, संपादक और पत्रकार, आचार्य शिवपूजन सहाय का जन्म 9 अगस्त, 1893
को बिहार के शाहाबाद में हुआ था; 21 जनवरी, 1963
को पटना में उनका निधन हो गया। उनके शुरुआती लेख ‘लक्ष्मी’, ‘मनोरंजन’ और ‘पाटलिपुत्र’ जैसे
पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। शिवपूजन सहाय ने वर्ष 1912ई॰ में आरा नगर हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास किया। जब वे युवा
थे, तब उन्होंने हिंदी की पढ़ाई और
पत्रिकाओं को पढ़ने के माध्यम से साहित्य में रुचि पैदा की। 1934 में उनके आगमन के
समय, शिवपूजन सहाय दरभंगा में ‘बालक’ नामक
एक मासिक समाचार पत्र के संपादक थे। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक शिवपूजन
सहाय और स्वतंत्रता के बाद ‘बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन’ द्वारा
प्रकाशित शोध-समीक्षा त्रैमासिक पत्र ‘साहित्य’ के
संपादक थे। बिहार अपने रचनात्मक लेखन के लिए प्रसिद्ध है, जिसका
श्रेय राज्य के आचार्य शिवपूजन सहाय जैसे
प्रकाशकों के लंबे इतिहास के लिए जाता है। भारत के सबसे प्रसिद्ध हिंदी लेखकों में
से एक, शिवपूजन सहाय एक उल्लेखनीय संपादक और
पत्रकार भी थे। राष्ट्रीय मंच पर साहित्य के अग्रदूत आज तक यह तय नहीं कर पाए कि
सहाय जी अपनी अनेक प्रतिभाओं के कारण महान लेखक थे या पत्रकार थे। बचपन में उनका
पहला नाम ‘भोलानाथ’ था।
शिवपूजन सहाय ‘मारवाड़ी सुधार’ को संपादित
करने के लिए कोलकाता गए और एक संपादक के रूप में ‘मतवाला’ में
शामिल हो गए। शिवपूजन सहाय मारवाड़ी समाज के संबंध में लिखा है कि “उसका
प्रधान उद्देश्य केवल मारवाड़ी समाज की कुरीतियों को दूर करके उस समाज का वास्तविक
परिष्कार करना है।“ जब वे 1924 में लखनऊ में दुलारेलाल
भार्गव की माधुरी में शामिल हुए, तो उन्होंने प्रसिद्ध हिंदी लेखक मुंशी
प्रेमचंद के साथ काम किया, उनका उपन्यास ‘रंगभूमि’ और
अन्य का संपादन किया। शिवपूजन सहाय के अनुसार “मै
माधुरी के सम्पादन विभाग में काम करता था। कुछ दिनों....... दूलहरे लाल भार्गव ने ‘गंगा’ पुस्तक
मासा के नियमानुसार उसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने के लिए मुझे सौंपी।“ 1925
में कलकत्ता में उनके द्वारा ‘मौजी’, ‘गोलमाल’ और ‘उपन्यास
तरंग’ जैसी अल्पकालिक पत्रिकाओं का संपादन
किया गया। एक स्वतंत्र संपादक के रूप में, वे
वाराणसी चले गए। लखनऊ में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए दंगों के दौरान ‘देहाती
दुनिया’ उपन्यास की पहली पांडुलिपि नष्ट कर दी
गई थी। जब शिवपूजन सहाय ने इसके बारे में सुना, तो वे
भावुक हो गए। उन्होंने उसी पुस्तक को फिर से लिखा और प्रकाशित किया, लेकिन
वह परिणाम से संतुष्ट नहीं थे। शिवपूजन सहाय ने खेद व्यक्त करते हुए लिखा है कि “पर
दुबारा लिखते समय न वह उत्साह रहा न साहस, न धैर्य और सच पुछिये तो प्रतिभा निगोड़ी की ठेल-गाड़ी बन
गई।” बिहार का समाचार पत्र, ‘गंगा’ 1931 में भागलपुर सुल्तानगंज द्वारा
प्रकाशित किया गया था, जहाँ उन्होंने एक दशक से अधिक समय तक
पत्रकार के रूप में काम किया। 1932 में, वे वाराणसी लौट आए और उन्हें ‘जागरण’ के
संपादन का कार्य दिया गया, जिसे उन्होंने पूरा किया। नागरी
प्रचारिणी सभा और अन्य वाराणसी साहित्यिक संगठनों ने भी उन्हें वाराणसी में एक
प्रमुख व्यक्ति बना दिया। शिवपूजन जी ने लिखा है कि “काशी के
साहित्य-सेवी पंडित विनोदशंकर व्यास ने मेरे सम्पादकत्व में साहित्यिक पाक्षिक ‘जागरण’ निकाला
था। मै आशीर्वाद हेतु पराडकर जी के पास गया। प्रोत्साहन हेतु ‘आज‘ में
परिचय टिप्पणी लिखने का निवेदन किया।“ 1934 में लहेरिया सराय, दरभंगा
जाने के बाद, शिवपूजन सहाय ने मासिक समाचार पत्र ‘बालक’ और
अन्य पुस्तक भंडार प्रकाशनों का संपादन शुरू किया। 1939 में छपरा के राजेंद्र
कॉलेज में हिंदी भाषा के प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए। ‘लक्ष्मी’, ‘मनोरंजन’ और ‘पाटलिपुत्र
आदि जैसी पत्रिकओं में उनके शुरुआती लेख प्रकाशित हुए थे, बिहार
राज्य का वर्णन भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से ‘बिहार
का विहार’ में किया गया है। ग्राम सुधार लेख ‘ग्राम
सुधार’ और ‘अन्नपूर्णा
के मंदिर में’ निबन्धों में संकलित किए गए हैं। ‘माँ
के सपूत’ और महाभारत के पात्रों की दो आत्मकथाएँ, ‘अर्जुन’ और ‘भीष्म’ जीवन-शैली
की रचनाएँ हैं। शिवपूजन सहाय के संपादन में उल्लेखनीय ‘राजेंद्र
अभिनंदन ग्रंथ’ को लिखा गया। 1946 में पटना आ गये, जब
उन्हें पुस्तक भंडार ने एक साहित्यिक पत्रिका ‘हिमालय’ के संपादन
के लिए काम पर रखा था। लेखक शिवपूजन सहाय को व्यापक रूप से अपनी पीढ़ी के महानतम् लेखकों में से एक माना जाता था। वह ‘जागरण’, ‘हिमालय’, ‘माधुरी’ आदि जैसे
प्रतिष्ठित प्रकाशनों के प्रधान संपादक थे। इसके साथ ही वे एक प्रतिष्ठित हिंदी
पत्रिका ‘मतवाला’ के भी
सहायक संपादक थे। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘साहित्य’, एक शोध-समीक्षा त्रैमासिक, 1949
में शिवपूजन सहाय द्वारा प्रकाशित किया गया था। उन्होंने इस समय के दौरान संगठन के
सचिव और इसके संपादक दोनों के रूप में कार्य
किया। शिवपूजन जी के अनुसार “1950 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के
मंत्री पद पर कार्यभार ग्रहण किया, बाद में इस पद का उन्नयन निदेशक के रूप
में हुआ।“ इस पद पर रहते हुए, उन्होंने
विभिन्न लेखकों द्वारा पचास से अधिक साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित कीं, बाद
में परिषद निदेशक के पद तक पहुंचे। उनके संपादन की एक स्थायी विरासत ‘हिंदी
साहित्य और बिहार’ पुस्तक पाई जा सकती है, जिसे
उन्होंने इस समय के दौरान संपादित किया था। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की देखकर, भारत
सरकार ने 1960 में शिवपूजन सहाय को पद्म भूषण सम्मान प्रदान किया। पटना में 21
जनवरी, 1963 को उनका निधन हो गया। उनकी रचनाएँ
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना द्वारा चार खंडों में प्रकाशित की
गई हैं। सहाय जी की मृत्यु के बाद भी ‘वे दिन वे लोग’ और ‘मेरा
जीवन’ सहित उनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ
प्रकाशित हुई। प्रसिद्ध हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद के साथ काम करने लगे और उनकी कुछ
अन्य कहानियों को संपादित करने के लिए, वे 1924 में लखनऊ चले आए और दुलारेलाल
भार्गव की ‘माधुरी’ की संपादकीय
विभाग में काम किया। 1925 में वे कलकत्ता लौट आए और समनवे, मौजी, गोलमाल
और उपन्यास तरंग सहित कई अल्पकालिक प्रकाशनों का संपादन शुरू किया। 1931 में वह कुछ
समय के लिए गंगा को संपादित करने के लिए भागलपुर के पास सुल्तानगंज गए। 1935 में
उन्होंने दरभंगा छोड़ा। वे बालक और अन्य पुस्तक भंडार प्रकाशनों के संपादक के रूप
में लहेरिया सराय के पुस्तक भंडार में आचार्य रामलोचन सरन के लिए काम करने चले गए।
वह 1939 में राजेंद्र कॉलेज, छपरा में हिंदी भाषा के प्रोफेसर बने।
1950 में बिहार राष्ट्र भाषा परिषद के सचिव के रूप में काम
करने के लिए पटना पहुँचे, जहाँ उन्होंने हिंदी संदर्भ कार्यों के
50 से अधिक संस्करणों का संपादन और प्रकाशन किया। बिहार का एक साहित्यिक इतिहास, हिंदी
साहित्य और बिहार, बाद में उनके द्वारा परिषद के निदेशक के
रूप में संकलित और संपादित किया गया था। 1959 में, उन्होंने
परिषद से अपने इस्तीफे की घोषणा की और एक स्वतंत्र लेखक के रूप में कार्य करना शुरू किया। परिषद ने शिवपूजन रचनावली
(1956-59) के चार खंड प्रकाशित किए, जो अपनी उनकी रचनाओं का संकलन है।
मंगल मूर्ति ने उनकी मृत्यु के बाद अपने पिता के संपूर्ण कार्यों को ‘शिवपूजन
सहाय साहित्य समग्र’ (2011, 10
खंड) के रूप में संपादित और प्रकाशित किया। अनुग्रह अभिनंदन ग्रंथ (1946), राजेंद्र
अभिनंदन ग्रंथ (1950), और जयंती स्मारक ग्रंथ (1933) आत्मकथा
का संपादन भी उन्होंने किया था। एक उपन्यासकार और कथाकार के रूप में जो, उनकी
छवि है हिंदी गद्य के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। 1926 में, उन्होंने
पहला आंचलिक उपन्यास, ‘देहाती दुनिया’ प्रकाशित
हुआ था। यह प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ से
बहुत पहले प्रकाशित हुआ था, उस समय की यह गाँव की संस्कृति, सामाजिक जीवन को दर्शाता है। ‘मतवाला’ और ‘दो घड़ी’ में
उनकी व्यंग्य रचनाएँ, जिसमें उन्होंने सामाजिक रूप से हाशिए
की पृष्ठभूमि के एक नाई और धोबी के विडम्बनापूर्ण चित्र प्रस्तुत किए हैं, वे भी
प्रसिद्ध हैं। उसके सम्बन्ध में मंगलमूर्ति ने प्रस्तावना में लिखा है कि “समग्र
के इस खण्ड में संस्मरणों के साथ हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति उनके चोली-दामन के
रिश्ते को ही रेखांकित करती है।“ उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से
महिलाओं के शोषण और ग्रामीण मुद्दों पर ध्यान आकर्षित किया। जब सच्ची देशभक्ति की
बात आती है, तो वे प्रगतिवाद के प्रबल समर्थक और
आडम्बर पूर्ण धार्मिक मूल्यों के मुखर आलोचक थे। कई आलोचकों ने उन्हें एक संत के
रूप में सम्मानित किया और उनके महान कद के लिए उन्हें हिंदी साहित्य का ‘अजातशत्रु’ और ‘दधीचि’ करार
दिया। साथ ही, सांकृत्यायन उनके व्यवहार से प्रभावित
हुए, जिसे उन्होंने विनम्र, शांत
और ईमानदार पाया। उनके 105वें जन्मदिन पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक स्मारक
डाक टिकट जारी किया। डॉ॰ प्रसाद ने अपने संस्मरण में सहाय को ‘तपस्वी’ और ‘हिंदी
सेवी’ के रूप में गौरव प्रदान किया है।
हरिवंश राय बच्चन ने 1963 में उनके निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि में एक कविता लिखी
थी। हिंदी पत्रकारिता में शिवपूजन सहाय का योगदान उल्लेखनीय है। ‘मारवाड़ी
सुधार’ 1921 और 1922 के बीच आरा में शिवपूजन
सहाय द्वारा संपादित एक मासिक पत्रिका प्रकाशित किया था। 1923 में जब वे कलकत्ता ‘मतवाला
मंडल’ में शामिल हुए, तो
उन्होंने ‘आदर्श’, ‘उपन्यास तरंग’ के रूप में ‘समन्वय’ और
अन्य पत्रों का संपादन शुरू किया। 1925 में ‘माधुरी’ के
संपादकीय के रूप में काम करते हुए, शिवपूजन सहाय ने अपनी सेवाएं दीं। 1930
में, वह सुल्तानगंज-भागलपुर में प्रकाशित
होने वाले मासिक प्रकाशन ‘गंगा’ के
सम्पादन करने लगे। एक वर्ष तक काशी में
रहने के बाद उनके द्वारा साहित्यिक पाक्षिक ‘जागरण’ का संपादन
किया गया। वह कई वर्षों तक काशी में रहे।
1934 ई॰ में दरभंगा (लहेरियासराय) में मासिक समाचार पत्र बालक के संपादक थे।
शिवपूजन सहाय ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ के
निदेशक और ‘बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन’ द्वारा
प्रकाशित शोध-समीक्षा त्रैमासिक पत्र ‘साहित्य’ के
संपादक थे। शिवपूजन सहाय की कहानियों और उपन्यास में विषयों की एक विस्तृत श्रृखंला शामिल है, और उनकी शैलियाँ भी विविध हैं। बिहार
के भूगोल और इतिहास का विस्तार से वर्णन ‘बिहार
का निर्माण’ पुस्तक में किया गया है। ‘देहाती
दुनिया’ (1926 ई॰) एक आंचलिक उपन्यास है। लखनऊ
के हिन्दू-मुस्लिम दंगों में इसकी पहली पांडुलिपि नष्ट कर दी गई थी। उससे शिवपूजन
सहाय जी को गहरा धक्का लगा। ‘राजेंद्र अभिनंदन ग्रंथ’ शिवपूजन
सहाय की कई उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है। उनकी रचनाएँ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद
(पटना) द्वारा ‘शिवपूजन रचनावली’ नाम से
चार खंडों में प्रकाशित हो चुकी हैं। शिवपूजन सहाय का गद्य हिन्दी साहित्य में है।
उनकी बातों को समझना आसान था। उन्होंने बहुत सारे उर्दू शब्दों और लोकप्रिय
मुहावरों के संतुलित मिश्रण के साथ पाठकों के सामने रखने की कोशिश की है। लेखक शिवपूजन
सहाय ने अनुप्रास-बहुल भाषा का भी प्रयोग किया है और अपने गद्य में काव्य की छटा
बिखरने का प्रयास किया है। |
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निष्कर्ष |
शिवपूजन सहाय की रचनाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। यद्यपि लेखक अपने देशकाल में जीता है और रचनाएँ करता है, लेकिन उसकी रचनाएँ अपने देश-काल की सीमाओं को पार कर कई सालों का जीवित रहती है। यह संजीवनी शक्ति यथार्थ से पैदा होती है। शिवपूजन सहाय की रचनाएँ आधुनिक चेतनायुक्त तथा नवजागरण से युक्त है। भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संदर्भों में इनका कथा-साहित्य आज भी प्रेरणादायक है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. मंगलमूर्ति (संपादक). शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र. भाग-3, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा॰ लि॰, मारवाड़ी सुधार, पृ॰ 402.
2. मंगलमूर्ति (संपादक). शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र. भाग-2, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा॰ लि॰, मेरा जीवन, पृ॰ 142.
3 मंगलमूर्ति (संपादक). शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र. भाग-1, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा॰ लि॰, देहाती दुनिया, पृ॰ 17.
4. मंगलमूर्ति (संपादक). शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र. भाग-2, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा॰ लि॰, मेरा जीवन, पृ॰ 161.
5. मंगलमूर्ति (संपादक). शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र. भाग-2, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा॰ लि॰, मेरा जीवन, पृ॰ 206.
6. मंगलमूर्ति (संपादक). शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र. भाग-2, नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा॰ लि॰, प्रस्तावना, पृ॰ 14. |