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नारीवादी फिल्म सिद्धान्त: प्रतिरोधी सिनेमा का स्वर | |||||||
Feminist Film Theory: The Voice of Resistant Cinema | |||||||
Paper Id :
15848 Submission Date :
2022-03-14 Acceptance Date :
2022-03-14 Publication Date :
2022-03-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त जिन बातों पर बल देता है उन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए शायद कोई फ़िल्म नहीं बनी पर उसके कुछ बिन्दुओं को साथ लेकर नए ढंग से फ़िल्म बननी शुरू हुई. जैसे- समाज में महिलाओं की स्थितियों का प्रतिबिम्बन, उनके जीवन से जुड़ी समस्याओं और उनका अपने अधिकारों के लिए संघर्षों का प्रतिबिम्बन आदि. नारीवादी आन्दोलन एक ऐसा सामाजिक आन्दोलन है जिसने फ़िल्म सिद्धान्त और उसकी आलोचना पर काफ़ी प्रभाव डाला है. नारीवादियों द्वारा सिनेमा को एक सांस्कृतिक व्यवहार के रूप में लाया जा रहा है ताकि स्त्री और फ़ेमिनिटी तथा पुरुष और मैस्कुलिनिटी संबन्धी मिथकों को प्रदर्शित किया जा सके. प्रस्तुतीकरण और देखने का नजरिया जैसे मुद्दे नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त और उसकी आलोचना के मुख्य केन्द्र बिन्दु हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Keeping in mind all the things that the feminist film theory emphasizes, perhaps no film was made, but a new way of film making started taking some of its points together. For example, the reflection of the conditions of women in the society, the problems related to their life and their struggle for their rights etc. The feminist movement is one such social movement that has had a great influence on film theory and its criticism. Cinema is being brought up by feminists as a cultural practice to reflect the myths about women and femininity and men and masculinity. Issues such as presentation and perspective are central to feminist film theory and criticism. | ||||||
मुख्य शब्द | पुरुषत्व, नारीवाद, मनोविश्लेषण, जेंडर । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Masculinity, Feminism, Psychoanalysis, Gender. | ||||||
प्रस्तावना |
सामान्यतया यह माना जाता है कि सिनेमा समाज का ऐसा दर्पण है जिसमें वही दिखाई देता है जो कुछ समाज में घटित होता है. आधी आबादी के नाम से जाना जाने वाला एक वर्ग भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और उस वर्ग का प्रतिबिम्बन भी इस दर्पण में होता है. अब यह अलग बात है कि वह किस रूप में होता है, कैसे होता है? हम यह भी जानते हैं कि समाज के इस वर्ग की सदियों से महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों न हो और उसकी आज भी उतनी ही भूमिका है बल्कि हम यह कह सकते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा उनकी भागीदारी कहीं अधिक है. यदि हम अपने इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि महिलाओं को अपनी आरम्भिक अवस्था से ही पितृसत्तात्मक बन्धनों में कैद करके रखा गया क्योंकि पुरुष उसे अपनी सम्पत्ति के रूप में देखते थे. यह प्रक्रिया आज भी उसी तीव्र गति से जारी है और वे आज भी अपने अधिकारों और अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत हैं. समाज का यह रूप आम जनमानस में जो अब तक नहीं आ पाया था वह अब स्त्री अध्ययन नामक विधा के आने से लोगों के समक्ष आ रही हैं. लोग महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लिख रहे हैं, पढ़ रहे हैं, फ़िल्म बना रहे हैं और विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से इस वर्ग को उसका अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत हैं. अब जहां समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अपने अधिकारों के लिए प्रयासरत हो तो उसका भी प्रतिबिम्बन फ़िल्मों के आईने में होना आवश्यक है. हम देख सकते हैं कि जिस प्रकार इतिहास का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पूरा का पूरा लेखन एकतरफा है जो केवल पुरुषवादी दृष्टिकोण से लिखा गया है उसी तरह प्रारम्भ में फ़िल्मों का निर्माण भी इसी दृष्टिकोण के तहत किया जा रहा था।
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अध्ययन का उद्देश्य | १९७० के आरम्भ का समय, १९७० से १९८० के मध्य का समय और १९८० के मध्य से लेकर वर्तमान तक. इस प्रकार हम इसके इतिहास को तीन भागों में बांटकर उस अवधि के दौरान चले विमर्शों और उनके प्रभाव को देखने के साथ-साथ उन समस्याओं और निष्कर्षों को भी देख सकते हैं जिसने इस बहस को आगे बढ़ाया. फ़िल्म सिद्धान्तकार अनेते कुन ने कहा कि नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त एक सिद्धान्त नहीं बल्कि 'दृष्टिकोणों की एक श्रृंखला' है. और इसका सीधे-सीधे सम्बन्ध दूसरी धारा के नारीवाद से है. इस सम्बन्ध में उन्होंने दो स्थितियां बताईं. पहली जो समकालीन स्थिति है वह १९६० के आन्दोलन का परिणाम है तथा दूसरे का सम्बन्ध गहरे इतिहास से है। |
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साहित्यावलोकन | १९७५ में एक और निबन्ध 'विज़ुअल प्लेज़र एण्ड नैरेटिव सिनेमा' लॉरा मल्वी द्वारा लिखा गया. उन्होंने नैरेटिव के विश्लेषण के अलावा जिस बात पर ध्यान दिया वह था कि पर्दे और दर्शक के बीच के सम्बन्ध को जानना. यह महत्त्वपूर्ण लेख नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त का आधार ग्रन्थ माना जाता है. अपने इस लेख में मल्वी ने इस मुद्दे को उठाया कि फ़िल्मों को महिला दर्शक किस प्रकार देखती हैं और उनका नज़रिया क्या होता है. सिनेमा के ‘कोड्स’ और ‘कन्वेन्शन’ किस ढंग से कार्य करते हैं और यह किस प्रकार उस नज़रिए का निर्माण करते हैं जिसमें फ़िल्मों को पुरुषवादी दृष्टि से देखा जाता है और दर्शक भी अपने आप को पुरुष रूप में ही चिन्हित करता है. उन्होंने देखने की इस प्रक्रिया को ‘स्कोपोफीलिया’ कहा जिसका आशय है ‘प्लेज़र इन व्यूइंग’. मल्वी ने कहा चूंकि क्लासिकल फ़िल्मों के नैरेटिव सुनियोजित ढंग से महिलाओं के बारे में पुरुषवादी विचारों से दृढ़ता से बंधे होते हैं ऐसे में महिला दर्शक उसे किस रूप में लेती हैं अर्थात फ़िल्म देखते समय उनके साथ क्या घटित होता होगा? वे ‘विजुअल प्लेज़र’ को किस प्रकार प्राप्त करती हैं? |
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मुख्य पाठ |
सामान्यतया यह माना जाता है कि सिनेमा समाज का ऐसा दर्पण है जिसमें
वही दिखाई देता है जो कुछ समाज में घटित होता है. आधी आबादी के नाम से जाना जाने
वाला एक वर्ग भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और उस वर्ग का प्रतिबिम्बन भी इस
दर्पण में होता है| अब यह अलग बात है कि वह किस रूप में
होता है, कैसे
होता है? हम
यह भी जानते हैं कि समाज के इस वर्ग की सदियों से महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है चाहे
वह कोई भी क्षेत्र क्यों न हो और उसकी आज भी उतनी ही भूमिका है बल्कि हम यह कह
सकते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा उनकी भागीदारी कहीं अधिक है। यदि हम
अपने इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि महिलाओं को अपनी आरम्भिक अवस्था से ही
पितृसत्तात्मक बन्धनों में कैद करके रखा गया क्योंकि पुरुष उसे अपनी सम्पत्ति के
रूप में देखते थे. यह प्रक्रिया आज भी उसी तीव्र गति से जारी है और वे आज भी अपने
अधिकारों और अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत हैं। समाज का
यह रूप आम जनमानस में जो अब तक नहीं आ पाया था वह अब स्त्री अध्ययन नामक विधा के
आने से लोगों के समक्ष आ रही हैं। लोग महिलाओं
से जुड़े मुद्दों पर लिख रहे हैं, पढ़ रहे हैं, फ़िल्म बना रहे हैं और विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से इस वर्ग को उसका
अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। अब जहां
समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अपने अधिकारों के लिए प्रयासरत हो तो उसका भी
प्रतिबिम्बन फ़िल्मों के आईने में होना आवश्यक है. हम देख सकते हैं कि जिस प्रकार
इतिहास का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि पूरा का पूरा लेखन एकतरफा है जो केवल
पुरुषवादी दृष्टिकोण से लिखा गया है उसी तरह प्रारम्भ में फ़िल्मों का निर्माण भी
इसी दृष्टिकोण के तहत किया जा रहा था। महिला आन्दोलन का जो प्रारम्भिक दौर था उसने तो इस पर बहुत ज्यादा
ध्यान नहीं दिया पर आगे चलकर उन्हें महसूस हुआ कि जहां हम एक ओर अपने अधिकारों के
लिए संघर्षरत हैं वहीं दूसरी ओर हमारे आन्दोलनों को मटियामेट करने के लिए पुरुषों
द्वारा दूसरा औजार तैयार किया जा रहा है। वास्तव में ऐसा हो रहा था. महिला
आन्दोलन ने तुरन्त ही इस बात की तरफ गौर किया और मुख्यधारा के बरक्श कुछ ऐसे सूत्र
निकाले जो समाज की वास्तविक स्थितियों से अवगत कराते हों. नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त का आगमन इसी का प्रतिफल था जिसे
काफी सराहा गया। विभिन्न नारीवादियों ने समय-समय पर
इस विमर्श को आगे बढ़ाया तथा इसे और अधिक परिष्कृत किया। संरचनावाद, उत्तरसंरचनावाद, गेज़ थ्योरी, मनोविश्लेषण, संकेत विज्ञान आदि अनेक सिद्धान्तों
को अपनाते हुए उन्होंने फ़िल्मों और उनके नैरेटिव का अध्ययन और विश्लेषण किया। इस
विश्लेषण के बाद उन्होंने कुछ ऐसे तथ्य रखे जो चौंकाने वाले थे और जिन पर किसी का
ध्यान नहीं गया था। इस अध्ययन के आने के पश्चात
मुख्यधारा की फ़िल्मों के बरक्श एक नई धारा का सृजन हुआ जिसे हम नारीवादी फ़िल्म कह
सकते हैं। १९७५ में लॉरा मल्वी के द्वारा लिखे गए सर्वोतकृष्ट निबन्ध 'विज़ुअल
प्लेज़र एंड नैरेटिव सिनेमा' ने इस सिद्धान्त को आगे बढ़ाया और नारीवादी व्याख्या करते हुए कहा कि सिनेमा
में पुरुष और महिला अलग-अलग रूपों में अवस्थित होते हैं - पुरुष एक प्रतिनिधि के
रूप में होता है जो फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाता है और स्त्री पुरुष की इच्छा और
उसकी जादुई दृष्टि के लिए एक वस्तु के रूप में होती है। मल्वी
का यह निबन्ध सिद्धान्तत: इस बात पर बहुत अधिक जोर देता है। इस
निबन्ध को ’नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त का आधार ग्रन्थ’ कहा जाता है (Modleski 1989), क्योंकि यह हॉलीवुड और इसके आनन्द
की अस्वीकृति को सैद्धान्तिक आधार प्रदान करता है (Penley 1988)। यद्यपि १९२० के दशक की महिला फ़िल्म निर्देशक भी महिलाओं की
अभिव्यक्ति को लेकर कैमरे की उपयुक्तता के बारे में विचार कर रहीं थीं और यह
विमर्श आज के दौर में भी जारी है परन्तु १९६० के अन्तिम समय तक नारीवादी फ़िल्म
सिद्धान्त जो कि दूसरी धारा के नारीवाद का प्रतिफल था, पूरी
तरह से सामने नहीं आ सका था. नारीवाद की प्रथम धारा जो १९०० के आस-पास शुरु हुई, केवल महिलाओं के मताधिकार को लेकर
आन्दोलनरत थी। दूसरी धारा के नारीवाद ने पश्चिमी
देशों और आस्ट्रेलिया के अकादमिक और पत्रकारिता से जुड़े सवालों की तरफ तूफानी गति
अख्तियार किया और बड़ी तेजी के साथ महिलाओं से जुड़े मुद्दों से सम्बन्धित टेक्स्ट
लिखना शुरु कर दिया। उन्होंने फ़िल्म अध्ययन के साथ-साथ
उन सभी विषयों को प्रमुखता दी जो अकादमिक स्तर पर पढ़ाये जाते थे। वास्तव
में फ़िल्मों की किसी भी प्रकार की बहस में कोई भी नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त को नज़र
अन्दाज नहीं कर सकता। १९७० की दशक के प्रारम्भ में जेंडर
प्रस्तुतीकरण के मुद्दे की शुरुआत के इसने फ़िल्म अध्ययन पर जबरदस्त प्रभाव डाला.
इस सिद्धान्त के समय काल को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। पहला उन्होंने कहा कि चूंकि फ़िल्म समाज को व्यापक तौर पर प्रभावित
करता है और ऐसा होने से महिलाओं की विचारधारात्मक और सामाजिक संरचना भी निश्चित
रूप से प्रभावित होगी। दूसरा बिन्दु यह है कि उन्होंने हॉलीवुड फ़िल्मों का विश्लेषण करते
हुए यह कहा कि इनका निर्माण केवल महिलाओं को टार्गेट करके किया जा रहा है.
नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त को आगे बढ़ाने में यह दूसरा बिन्दु काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा। उसी बीच यूरोप में (विशेष रूप से ब्रिटेन में) इस आवश्यक बहस ने
क्लेरे जॉन्सटन, लॉरा मल्वी, पॉम कुक और अनेते कुन आदि नारीवादी
फ़िल्म सिद्धान्तकारों के सामने तीन प्रमुख समस्याएं उत्पन्न की। ये
नारीवादी संकेत विज्ञान और संरचनावाद के पूर्णत: वैज्ञानिक पद्यति से बहुत अधिक
प्रभावित थीं। उन्होंने जिन बातों को महसूस किया
वे निम्नलिखित है। 1. सभी महिलाओं के पास फ़िल्मों में महिलाओं के प्रस्तुतीकरण की
प्रामाणिकता परखने की योग्यता थी। 2. सभी महिला फ़िल्म निर्माता/निर्देशक भी पूर्णत: नारीवादी थीं। इन दोनों बिन्दुओं का विश्लेषण करते हुए और कठोर आलोचना करते हुए
कहा कि इसका मतलब यह हुआ कि ये पितृसत्ता को पिछले दरवाजे से किसी न किसी प्रकार
से वैधता प्रदान कर रहीं थीं। तीसरे जिस अन्तिम बिन्दु पर उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया वह
यह था कि यह ऐसा दौर था जिसमें महिलाएं सिनेमाई संस्थानों के सभी क्षेत्रों में
अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहीं थीं तो फिर आखिर क्या कारण था कि फ़िल्मों में महिलाओं
की छवियों के प्रस्तुतीकरण से पितृसत्ता के दबाव को खत्म नहीं किया जा सका. उनका
कहना था कि १९७२ गवाह है कि ऐसा उस समय हुआ. इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि उसी
समय अमरीका और ब्रिटेन में नारीवादी फ़िल्म महोत्सव का आयोजन हुआ. महिला फ़िल्म
निर्देशकों/निर्माताओं ने महिलाओं को फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में आने का
प्रोत्साहन भी दिया. उसी समय पहली नारीवादी फ़िल्म पत्रिका ‘वूमेन
एण्ड फिल्म’ का प्रकाशन भी हुआ. इस सम्बन्ध में अमरीकी नारीवादियों हैस्केल, मेलेन और रोज़ेन का कार्य
महत्त्वपूर्ण है. उन्होंने फ़िल्मों में महिलाओं की छवि निर्माण में परिवर्तन लाने
के लिए निम्नलिखित तीन बातें कहीं. पहला यह कि मुख्यधारा की फ़िल्म महिलाओं की छवि को जिस प्रकार
निर्मित करता है और जिस ढंग से स्थापित करता है उसका सैद्धान्तिक विश्लेषण करने की
आवश्यकता है. दूसरा, महिला
फ़िल्म निर्देशकों के कार्यों के आलोचनात्मक विश्लेषण की जरूरत है. तीसरा, नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त को
स्थापित करने और इसके अनुप्रयोग के बीच जो खाईं है उसको व्याख्यायित करने की
आवश्यकता है। १९७२ में क्लेरे जॉन्सटन, लॉरा मल्वी और लिंडा माइल्स ने
एडिनबर्ग फ़िल्म महोत्सव में महिला प्रयासों को संगठित किया. जॉन्सटन ने एक पम्पलेट
का सम्पादन किया. 'नोट्स ऑन वूमेन्स सिनेमा' नामक एक निबन्ध भी १९७३ में प्रकाशित हुआ जिसमें ‘वूमेंस सिनेमा’ को ‘कॉउंटर सिनेमा’ कहा गया. यह पहला लेखन था जिसने कहा
कि सिनेमा के टेक्स्ट का विश्लेषण आवाश्यक है। फ़िल्म
निर्माण में फ़िल्मों के टेक्स्ट को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता। प्रभाव के अध्ययन के अन्तर्गत सबसे प्रमुख काम यह जानना होगा कि
फ़िल्म नैरेटिव की संरचना में महिलाओं की स्थिति क्या होती है. इसके लिए नैरेटिव के
मनोविज्ञान का सूक्ष्म परीक्षण करना होगा. जैसे कि मुख्यधारा की फ़िल्मों में किस
प्रकार महिला पात्र को पुरुष पात्र की इच्छा की वस्तु के रूप में समझा जाता है? कैमरे
और प्रकाश का प्रयोग इस बात की पुष्टि करते हैं कि वह (महिला) एक ऐसी वस्तु है जिस
पर पुरुष पात्र अपने रोमांस को प्रकट करता है। जॉन्सटन
का कहना था कि उत्पादन प्रणाली के विखण्डन के द्वारा हमें नैरेटिव की विचाराधारा
को समझना चाहिए और यही हमें फ़िल्मों और नैरेटिव दोनों के संकेतों का खुलासा करने
में सहायक होंगे तभी मुख्यधारा के बरक्श एक प्रतिरोधी सिनेमा का निर्माण सम्भव है। १९७५ में एक और निबन्ध 'विज़ुअल प्लेज़र एण्ड नैरेटिव सिनेमा' लॉरा मल्वी द्वारा लिखा गया। उन्होंने
नैरेटिव के विश्लेषण के अलावा जिस बात पर ध्यान दिया वह था कि पर्दे और दर्शक के
बीच के सम्बन्ध को जानना. यह महत्त्वपूर्ण लेख नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त का आधार
ग्रन्थ माना जाता है। अपने इस लेख में मल्वी ने इस मुद्दे
को उठाया कि फ़िल्मों को महिला दर्शक किस प्रकार देखती हैं और उनका नज़रिया क्या
होता है. सिनेमा के ‘कोड्स’ और ‘कन्वेन्शन’ किस ढंग से कार्य करते हैं और यह किस प्रकार उस नज़रिए का निर्माण करते हैं
जिसमें फ़िल्मों को पुरुषवादी दृष्टि से देखा जाता है और दर्शक भी अपने आप को पुरुष
रूप में ही चिन्हित करता है। उन्होंने देखने की इस प्रक्रिया को ‘स्कोपोफीलिया’ कहा जिसका आशय है ‘प्लेज़र इन व्यूइंग’. मल्वी ने कहा चूंकि क्लासिकल
फ़िल्मों के नैरेटिव सुनियोजित ढंग से महिलाओं के बारे में पुरुषवादी विचारों से
दृढ़ता से बंधे होते हैं ऐसे में महिला दर्शक उसे किस रूप में लेती हैं अर्थात
फ़िल्म देखते समय उनके साथ क्या घटित होता होगा? वे ‘विजुअल प्लेज़र’ को किस प्रकार प्राप्त करती हैं? मल्वी ने इस बात को निष्कर्षत: इस रूप में देखा कि ऐसे में दो
स्थितियां होती हैं. या तो वे पर्दे पर स्त्री पात्र के साथ स्वयं को जोड़कर देखती
हैं या वे पुरुषवादी दृष्टिकोण के साथ विजुअल प्लेज़र प्राप्त करती हैं. नारीवादी
आलोचकों ने इस निबन्ध को काफ़ी महत्त्व दिया. फ़िल्मों के मनोविश्लेषण ने नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त को और आगे
बढ़ाया तथा अस्मिता जैसे मुद्दों के साथ -साथ अनेक मुद्दे प्रकाश में आए. इसी
मनोविश्लेषण ने फ़ेमिनिटी और मैस्कुलिनिटी, जो सामाजिक रूप से संरचित किए गये
हैं तथा महिला एवं पुरुष के बीच जो जैविकीय द्वन्द्व है, उसकी समझ को सरल बनाने का प्रयास
किया. इस
महत्त्वपूर्ण बिन्दु के प्रस्थान से अब सेक्सुअल डिफरेंस को विश्लेषित करना सम्भव
हो गया था जिसके बारे में यह माना जाता था कि यह वास्तविकता पहले से निश्चित है यह
डिफरेंस जैविकीय अर्थों में न विश्लेषित कर भाषाई अर्थों में विश्लेषित किया गया। उसी समय
लॉकां ने स्त्री यौनिकता की संरचना में संकेत विज्ञान के महत्त्व को दर्शाया और
कहा कि यह फ्रायड के ‘थ्योरी आफ़ पेनिस एन्वी’ के तहत इसे भाषाबद्ध किया जाता है। फ्रायड
के अनुसार यौन भिन्नता सत्ता सम्बन्धों पर आधारित होती है। उनका
कहना था कि सामाजिक और भौतिक परिस्थितियां मनुष्य की यौनिकता के संरचना नहीं करते.
यही कारण था कि यह विमर्श ‘सेक्स’ से ‘लैंगुएज़’ की तरफ स्थानान्तरित हो गया. लॉकां भी यही कहा कि इस संरचना के लिए
पितृसत्तात्मक भाषा ही जिम्मेदार है। इस समय के टेक्स्ट विश्लेषण ने नैरेटिव निर्माण की रणनीतियों पर
अपना ध्यान केन्द्रित किया और विशेष रूप से इन प्रश्नों को उठाया जैसे - इनका
उद्भव कैसे होता है और सब्जेक्टिविटी के निर्माण में इनकी क्या भूमिका होती है.
मॉली हैस्केल ने भी इसी समय 'मेलोड्रामा' और 'महिला की फ़िल्म' के बीच जो अन्तर है उसको उजागर
किया. मनोविश्लेषण और नारीवाद ने मेलोड्रामा और महिलाओं की फ़िल्म दोनों को
आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू कर दिया और उन विमर्शों को उठाया जो महिला
और उनके स्त्रीत्व की सांकेतिक संरचना करते हैं. इस प्रकार नैरेटिव के अन्दर जो
पुरुष अधिपत्य था जिसमें महिलाएं एक ट्रिगर के रूप में और पुरुषों की इच्छा की
प्रतीक के रूप में थीं, उनका खुलासा हुआ. फ़िल्मों के नैरेटिव में महिलाओं को जिस प्रकार फेथीसाइज़
करके पुरुषों की पुंसत्वहीनता को ढकने का प्रयास किया जाता था उनका भी रहस्योदघाटन
हुआ। १९६० में निर्मित अल्फ्रेड हिचकाक
की साइको इसी तरह की एक हॉरर फ़िल्म है जिसमें एक महिला को दूसरी महिला द्वारा
मारने का प्रयास करते हुए दिखाया गया है। १९८० के मध्य नारीवादियों ने महसूस किया कि सिनेमा को विभिन्न
दृष्टिकोणों से समझने के लिए केवल टेक्स्ट का विश्लेषण ही काफ़ी नहीं है बल्कि इसके
ऐतिहासिक-सामाजिक सन्दर्भ, उत्पादन प्रणाली और इसे किस प्रकार
ग्रहणीय बनाया जाता है इसको भी समझना आवश्यक है। १९७५
में मल्वी ने अपने लेख में ‘स्पेक्टेटरशिप’ की चर्चा की थी। उसी विमर्श से ‘गेज़’ नामक एक शब्द आया जिसका मतलब है ‘एक्स्चेंज आफ़ लुक्स’ और इसका सिनेमा में काफ़ी महत्त्व
है. १९७० तक न तो इस बारे में लिखा गाया था न तो इसका सैद्धान्तिकीकरण किया गया था
१९७० में पहले फ़्रेंच फ़िर ब्रिटिश और अमेरिकन फ़िल्मी सिद्धान्तकारों ने फ़िल्मों के
विश्लेषणात्मक अध्ययन के दौरान दर्शक और पर्दे के सम्बन्धों पर विचार किया। लॉकां के ‘मिरर स्टेज थ्योरी’ और फ़्रायड के ‘थ्योरी आफ़ लिबिडो ड्राइव्स’ के द्वारा उन्होंने यह विश्लेषित
किया कि सिनेमा किस प्रकार अवचेतन में कार्य करता है. दर्शक एक अंधेरे कमरे में
बैठा होता है और वह पर्दे पर दिखाए जाने वाले दृश्य को देखकर आनन्द की अनुभूति
करना चाहता है. इस आनन्द अनुभूति का एक भाग यह भी होता है कि वह पर्दे पर दिखाए
जाने वाले पात्र जैसा महसूस करना चाहता है और वहीं पर वह अपना नियंत्रण खोकर उस
इमेज़ के प्रभाव में आ जाता है. मल्वी ने हॉलीवुड सिनेमा के सन्दर्भ में इसको
व्याख्यायित किया था इसी ‘देखने की इच्छा’ और सिनेमा देखने का जो ‘मोह’ पैदा किया जाता है उसके आधार पर मल्वी ने क्लासिकल सिनेमा की स्टोरी और
इमेज़ को दो भागों में बांटा. पहला ‘वाइयुरिस्टिक विजुअल प्लेज़र’ और ‘नैरिसिस्टिक विजुअल प्लेज़र’. वाइयुरिस्टिक विजुअल प्लेज़र इमेज और उसकी स्थिति को देखकर पैदा होती है
और नैरिसिस्टिक विजुअल प्लेज़र इमेज के साथ सेल्फ़ आइडेन्टीफिकेशन से पैदा होती है.
मल्वी ने क्लासिकल सिनेमा में स्कोपोफीलिया का विश्लेशण एक स्ट्रक्चर के रूप में
किया। यह दो धुरी पर कार्य करता है. एक ‘एक्टिविटी’ और दूसरा ‘पैसिविटी’ और दोनों ही स्थितियां जेंडर्ड हैं। मल्वी ने कहा कि क्लासिकल सिनेमा का नैरेटिव स्ट्रक्चर पुरुष पात्र
को एक्टिव और पावरफुल रूप में स्थापित करता है और वह एक ऐसे प्रतिनिधि के रूप में
होता है जिसके इर्द-गिर्द सारी की सारी अभिनय-प्रक्रिया व्यवस्थित की गई रहती है। नारी
पात्र पैसिव और पावरलेस रूप में होती है और वह पुरुष पात्र की इच्छित वस्तु के रूप
में दिखाई पड़ती है। इस प्रकार सिनेमा पौरुषीय इच्छा के
लिए एक उपयुक्त ‘मशीनरी’ की तरह कार्य करता है। फ़िल्मों में पुरुष पात्र की दृष्टि
सीधे महिला पात्र पर होती है। थियेटर में दर्शक फ़िल्मों को पुरुष
दृष्टि से देखता है क्योंकि जब फ़िल्म को कैमरे से शूट किया जाता है तो वह पुरुष
पात्र की दृष्टि और कामुकता की दृष्टिकोण से कैमरे में कैद किया जाता है। इस प्रकार
यहां गेज़ के तीन स्तर हैं- कैमरा, पात्र और दर्शक जो नारी पात्र को ‘आब्जेक्टिफ़ाई’ करते हैं और उसे दृश्य रूप प्रदान
करते हैं। मल्वी ने यह भी कहा कि सिनेमा में कल्पना प्रक्रिया द्वारा इगो
फार्मेशन (अहं भाव) का भी चित्रण किया जाता है. उन्होंने कहा कि पुरुष पात्र का ‘मोर परफेक्ट’, ‘मोर कम्प्लीट’ और ‘मोर पॉवरफुल’ आइडियल इगो नारी पात्र के ‘डिस्टॉर्टेड इमेज़’, ‘पैसिवनेस’ और ‘पॉवरलेस इमेज़’ के बिल्कुल विपरीत खड़ा होता है। इस प्रकार दर्शक को अप्रत्यक्ष रूप से फ़िल्मों को पुरुष दृष्टि से
दिखाने का प्रयास किया जाता है। हॉरर
फ़िल्मों के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि इसमें महिला पात्र को ‘फेथीसाइज़’ करके नारी छवि को मानसिक रूप से
भौतिक पदार्थ में तब्दील कर दिया जाता है।
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निष्कर्ष |
संरचनावाद और मनोविश्लेशण दोनों को साथ -साथ लेकर नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्तकारों ने इसे एक विश्लेषक औजार के रूप में विकसित किया और फ़िल्मों के टेक्स्ट का विश्लेषण करना (विशेष रूप से अमरीका में) शुरू कर दिया और यह जानने की कोशिश की विचारधारा के निर्माण में उनकी क्या भूमिका होती है. उसी समय १९७६ में कैमरा ऑब्सक्यौरा नामक एक प्रभावशाली पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ जिसके निबन्धों ने संरचनावाद और मनोविश्लेषण की सहायता से पितृसत्तात्मक विचारधारा को समझने में सहायता की कि किस प्रकार नैरेटिव के कोड्स और कन्वेन्शंस पितृसत्तात्मक विचारों का प्रवाह करते हैं और ये विचार महिलाओं को किस प्रकार नियंत्रित करते हैं. नारीवादी फ़िल्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में समय -समय जो बहसें हुईं उससे सिनेमा को समझने में काफ़ी आसानी हुई. मेल गेज़ से सम्बन्धित जो विचार सामने आए उससे सिनेमा के ‘मेकेनिज्म’ को समझना और भी आसान हो गया. ये विचार इस बात को समझने में मदद करते हैं कि किस प्रकार सिनेमा का निर्माण पुरुष इच्छा के लिए किया जाता है क्योंकि सिनेमाई संरचना के विश्लेषण में हम पाते हैं कि ये अपनी मूल अवस्था से ही पितृसत्तात्मक होते हैं। वर्तमान के नारीवादियों ने यह कहा है कि महिलाओं की फ़िल्म को पारम्परिक नैरेटिव स्ट्रक्चर और सिनेमाई तकनीकों से दूर रखना चाहिए और एक्सपेरीमेंटल प्रैक्टिस में संलग्न होना चाहिए तभी ‘वूमेंस सिनेमा’ एक ‘कॉउंटर सिनेमा’ के रूप में सामने आ सकता है। |
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