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ध्रुवमपायेऽपादानम् | |||||||
Paper Id :
16599 Submission Date :
2022-10-05 Acceptance Date :
2022-10-19 Publication Date :
2022-10-25
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सारांश |
वाक्य के अर्थ को समझने हेतु उसमें प्रयुक्त क्रियापद और अन्य पदों के संबन्ध को समझना आवश्यक है। उसी संबन्ध को विद्वान् अलग-अलग तरीके से परिभाषित करते है। ‘क्रिया जनकत्वं कारकत्वम्– वाक्य में जिसके द्वारा क्रिया की सिद्धि हो उसे कारक कहते है, ‘क्रियां करोति निर्वर्तयतीति कारकम्’ वाक्य में प्रयुक्त क्रिया के सम्पादन में सहायता करने वाले को कारक कहते है, इत्यादि। इन्हीं कारकों में से अन्यतम अपादान कारक के बारे में पाणिनि के द्वारा रचित सूत्र ‘ध्रुवमपायेऽपादानम्’ सूत्र का अर्थ समझाते हुए उस सूत्र पर पतञ्जलि, नागेश, कौण्ड भट्ट इत्यादि विद्वानों का मत इस शोध पत्र में स्पष्ट किया गया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | To understand the meaning of the sentence, it is necessary to understand the relation between the verb and other words used in it. Scholars define the same relation in different ways. Kriya Janaktvam Karaktvam - The person who helps in the completion of the action in the sentence is called the Karak, the person who helps in the editing of the verb used in the sentence 'Kriya Karoti Nirvartayati Karakam' is called the Karak, etc. Out of these factors, explaining the meaning of the formula 'Dhruvampaye-padanam' sutra composed by Panini, the opinion of scholars like Patanjali, Nagesh, Kaund Bhatt etc. has been clarified in this research paper. | ||||||
मुख्य शब्द | कारक, अपादान, कर्ता, कर्म, ध्रुव, अपाय, अवधिभूत, संज्ञा, विश्लेष, विश्लेष जनक व्यापार, क्रिया, उदासीन, चल, अचल, पतन, अश्व, मेष, पञ्चमी, अष्टाध्यायी, भूषण सार,पाणिनि, नागेश, कौण्ड भट्ट। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Karak, Apadana, Doer, Karma, Dhruva, Apaya, Awadhibhut, noun, analysis, analysis, business, action, indifferent, moving, immovable, downfall, horse, Aries, Panchami, Ashtadhyayi, Bhushan Saar, Panini, Nagesh, Kaund Bhatt | ||||||
प्रस्तावना |
पाणिनीय अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के चतुर्थ पाद के इस चौबीसवें सूत्र से अपादान संज्ञा का विधान किया गया है । चूंकि संज्ञा किसी संज्ञी की ही की जाती है अतः यहां संज्ञी है – ‘अपाये यत् ध्रुवम्’ अर्थात् अपाय (विश्लेष) में जो ध्रुव है वह संज्ञी है । ध्रुवम् (प्रथमैकवचनान्त), अपाये (सप्तम्यैकवचनान्त), अपादानम् (प्रथमैकवचनान्त) इन तीन पदों वाले सूत्र में ‘कारके’ (१/४/२३) का अधिकार चल रहा है । इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है – जब किसी का किसी से विश्लेष होता है तब विश्लेष होने में जो कारक ध्रुव (अवधिभूत) होता है उस कारक की अपादान संज्ञा होती है । सिद्धान्तकौमुदीकार लिखते है – ‘अपायो विश्लेषः तस्मिन्साध्ये ध्रुवमवधिभूतं कारकमपादानं स्यात्’ ।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. ‘ध्रुवमपायेऽपादानम्’ सूत्र को समझना ।
2. ‘ध्रुवमपायेऽपादानम्’ पर हुए शास्त्रार्थ का विश्लेषण ।
3. अपादान के भेदों का विश्लेषण करना ।
5. अष्टाध्यायी के संरचनात्मक वैशिष्ट्य को जानना ।
6. शास्त्र चिन्तन परम्परा को समझना । |
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साहित्यावलोकन | अष्टाध्यायी – यह संस्कृत व्याकरण का आधारभूत ग्रन्थ है। पाणिनि के समय से
पूर्व प्रचलित समस्त व्याकरणों का अध्ययन करके समेकित और समग्र व्याकरण ग्रन्थ की
रचना पाणिनि ने की।
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मुख्य पाठ |
पाणिनीय अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के चतुर्थ पाद के इस चौबीसवें सूत्र से अपादान संज्ञा का विधान किया गया है। चूंकि संज्ञा किसी संज्ञी की ही की जाती है अतः यहां संज्ञी है– ‘अपाये यत् ध्रुवम्’ अर्थात् अपाय (विश्लेष) में जो ध्रुव है वह संज्ञी है। ध्रुवम् (प्रथमैकवचनान्त), अपाये (सप्तम्यैकवचनान्त), अपादानम् (प्रथमैकवचनान्त) इन तीन पदों वाले सूत्र में ‘कारके’ (१/४/२३)[1] का अधिकार चल रहा है। इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ होता है – जब किसी का किसी से विश्लेष होता है तब विश्लेष होने में जो कारक ध्रुव (अवधिभूत) होता है उस कारक की अपादान संज्ञा होती है । सिद्धान्तकौमुदीकार लिखते है – ‘अपायो विश्लेषः तस्मिन्साध्ये ध्रुवमवधिभूतं कारकमपादानं स्यात्’ ।[2] यथा – प्रिया अश्वात् पतति (प्रिया घोडे से गिरती है) यहां प्रिया और घोडे का विश्लेष बताया जा रहा है । इस विश्लेष में अश्व अवधि बना हुआ है क्योंकि वक्ता घोडे से अलग होना कहना चाहता है । किञ्च पतन क्रिया का जनक होने से यह यह कारक भी है अतः अश्व अपादान है । ‘वृक्षात् पर्णं पतति’ (वृक्ष से पत्ता गिरता है) यहां वृक्ष और पर्ण के विश्लेष में वृक्ष अपादान है । ‘ध्रुवस्थैर्ये’ धातु से ‘इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः’ सूत्र से क प्रत्यय करने पर ध्रुव पद बनता है। यहां शङ्का होती है कि विभागजनकव्यापार के निष्पादन में कारक की अपादान संज्ञा होती है ऐसा अर्थ करने पर, ध्रुव पद का ग्रहण न करके, ‘अपायेऽअपादानम्’ इतने मात्र से ही अपेक्षित अर्थ की प्राप्ति हो जाती है, अतः ध्रुव पद का ग्रहण क्यों किया गया? इसका समाधान करते हुए कहते है कि- ऐसा स्वीकार करने पर विभागजनकव्यापार की अपादान संज्ञा होने लगेगी, उसके वारण हेतु ध्रुव पद के ग्रहण की आवश्यकता है। अपरञ्च, नागेश कहते है कि – ‘कर्तृवारणाय ध्रुवमिति। अन्यथा कर्तृसंज्ञाया अयमपवादः स्यात्’[3]। ध्रुव ग्रहण के अभाव में विभागजनकव्यापार के आश्रय की भी अपादान संज्ञा प्राप्त होने लगेगी और स्वतन्त्रः कर्ता सूत्र से कर्तृ संज्ञा भी प्राप्त होने लगेगी। सर्वत्र व्यापाराश्रय की कर्तृ संज्ञा होने से अपादान संज्ञा की प्रवृत्ति तो कहीं भी नहीं हो पाएगी, जिससे निरवकाशविधि होगी। अतः विभागजनकव्यापाराश्रय में प्राप्त कर्तृसंज्ञा को बाध कर अपवादत्वात् अपादानसंज्ञा होगी। अतः विभागजनक व्यापाराश्रय की अपादानसंज्ञा के वारण के लिए सूत्र में ध्रुव पद का ग्रहण आवश्यक है। लोक में ध्रुव शब्द का तात्पर्य होता है स्थिर, परन्तु यहां ध्रुव पद का तात्पर्य ‘अवधिभूत’ स्वीकार किया गया है। क्योंकि स्थिर अर्थ करने पर ‘धावतोऽश्वात् पतति’ में अश्व के स्थिर न होने से अपादान संज्ञा न हो सकेगी। अब अवधिभूत अर्थ करने से कोई दोष नहीं आता क्योंकि दौडने पर भी वह गिरने में अवधिभूत तो है ही। भर्तृहरि भी लिखते है– अपाये यदुदासीनं चलं वा यदि वाऽचलम्। ध्रुवमेवातदावेशात्तदुपादानमुच्यते ॥[4] अपाये – विश्लेषहेतुक्रियायाम्, उदासीनम्– अनाश्रयः, अतदावेशात्– तत्क्रियानाश्रयत्वात्[5]। अर्थात् अपाय (विश्लेष) में जो उदासीन, यानि अपायजनक व्यापार का आश्रय नहीं, होता वह चल हो या अचल ‘ध्रुव’ ही होता है । वियोगजनकव्यापार का अनाश्रय होने से वह अपादान ही कहा जाएगा। पततो ध्रुव एवासौ यस्माद् अश्वात् पतत्यसौ। तस्याप्यश्वस्य पतने कुड्यादि ध्रुवमिष्यते[6]॥ यहां अचल का उदाहरण है – अश्वात् पतति (घोडे से गिरता है)। चल का उदाहरण है– कुड्यात् पततोऽश्वात् पतति (दीवार से गिरते हुए घोडे से गिरता है) यहां गिरते हुए घोडे से गिरने में ‘गिरता हुआ घोडा’ भी ध्रुव ही माना जाता है क्योंकि घुडसवार के गिरने में घोडा वियोगजनकव्यापार का अनाश्रय है। जब घोडा भी दीवार से गिर रहा है तो उसके गिरने में दीवार (कुड्य) वियोगजनकव्यापार का अनाश्रय होने से अपादान है। तात्पर्य यह है कि जिस अपाय का वर्णन हो रहा है उस अपाय का व्यापार जिस में न रहे वही ध्रुव या अवधिभूत होता है। मेषान्तरक्रियापेक्षम् अवधित्वं पृथक् पृथक् । मेषयोः स्वक्रियापेक्षं कर्तृत्वं च पृथक् पृथक् ॥[7] ‘परस्परस्माद् मेषौ अपसरतः (मेष एक-दूसरे से दूर हट रहे है) यहां दोनों मेषों का अन्य मेष की क्रिया को लेकर पृथक् पृथक् अवधित्व होता है और अपनी-अपनी क्रिया को लेकर कर्तृत्व भी सिद्ध हो जाता है। यही मत कौण्ड भट्ट भूषणसार में लिखते है– एवञ्च विश्लेषहेतुक्रियानाश्रयत्वे सति विश्लेषाश्रयत्वं फलितम्। वृक्षात्पर्णं पततीत्यत्र पर्णस्य तद्वारणाय सत्यन्तम्। धावतोऽश्वात्पततीत्यत्राश्वस्य क्रियाश्रयत्वाद्विश्लेषहेत्विति। कुड्यात्पततो श्वात्पततीत्यत्राश्वस्य विश्लेषजनकक्रियाश्रयत्वेऽपि तन्न विरुद्धमित्याह– यस्मादश्वादिति। तद्विश्लेषहेतुक्रियानाश्रयत्वे सतीति विशेषणीयमिति भावः। एवमश्वनिष्ठक्रियानाश्रयत्वात्कुड्यादेरपि ध्रुवत्वमित्याह– तस्यापीति। उभयकर्मजविभागस्थले विभागस्यैक्यात्तद्विश्लेषजनकक्रियानाश्रयत्वाभावात्परस्परस्मान्मेषावपसरत इति न स्यादित्याशङ्क्य समाधत्ते– उभावपीति। मेषान्तरेति। यथा निश्चलमेषादपसरद्द्वितीयमेषस्थले निश्चलमेषस्यापसरन्मेषक्रियामादाय ध्रुवत्वं तथाऽत्रापि विभागैक्येऽपि क्रियाभेदादेकक्रियामादाय परस्य ध्रुवत्वमिति। तथा च विश्लेषाश्रयत्वे सति तज्जनकतत्क्रियानाश्रयत्वं तत्क्रियानाश्रयत्वे तत्क्रियायामपादानत्वं वाच्यम्। क्रिया चात्र धात्वर्थो न तु स्पन्दः। तेन वृक्षकर्मजविभागवति वृक्षाद्वस्त्रं पततीति संगच्छते[8]। एक शंका यह होती है कि विश्लेष या विभाग तब होता है जब पहले संयोग हो, अब ‘माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्यः आढ्यतराः’ (मथुरावासी पाटलिपुत्रवासियों से अधिक सम्पन्न है) यहां दोनों का संयोग तो है ही नहीं, अतः विभाग संभव नहीं है। विभाग के अभाव में अपादान संज्ञा और पञ्चमी विधान कैसे हुआ? इसका समाधान देते है कि यहां बुद्धि में परिकल्पित विभाग स्वीकार करना चहिए, जैसे वन्ध्यासुत इत्यादि में बुद्धि परिकल्पित पुत्र स्वीकार किया गया है। अतः इस वाक्य में बुद्धि परिकल्पित अपाय के आश्रय से पञ्चमी का विधान किया गया है। अपरञ्च, देवदत्तः ग्रामान्नायाति (देवदत्त गांव से नहीं आता है) यहां तो देवदत्त का गांव से विश्लेष हुआ ही नहीं, फिर अपादान कैसे हुआ ? तब कहते है कि क्रिया का पहले कारकों के साथ संबन्ध होता है बाद में नञ् के साथ संबन्ध होता है । अतः नञ् द्वारा प्रतिपाद्य निषेध से पूर्व ही अपादन संज्ञा हो जाने से कोई दोष नहीं होता। अपरञ्च, ‘पक्षी वृक्षं त्यजति’ (पक्षी वृक्ष को छोडता/त्यागता है) यहां त्यज् धातु का अर्थ विभागानुकूल व्यापार है। विभागाश्रय होने से वृक्ष की अपादान संज्ञा होनी चहिए फिर कर्म संज्ञा कैसे हुई? तब कहते है कि यह सही है कि विभागाश्रय होने से वृक्ष की अपादान संज्ञा प्राप्त है परन्तु कर्तृवृत्तिव्यापारजन्यफल का आश्रय होने से वृक्ष की कर्मसंज्ञा भी प्राप्त है। अष्टाध्यायी में अपादान संज्ञा के बाद में कर्म संज्ञा का विधान किया गया है अतः पर होने के कारण यहां कर्म संज्ञा के द्वारा अपादान संज्ञा का बोध हो जाता है। वाक्यपदीयकार भर्तृहरि के अनुसार अपादान के तीन भेद है– निर्दिष्टविषयं किञ्चिदुपात्तविषयं तथा। अपेक्षितक्रियं चेति त्रिधाऽपादानमुच्यते[9]॥ यह अपादान तीन प्रकार का होता है – १- निर्दिष्ट विषय २- उपात्त विषय, और ३- अपेक्षितक्रिय । १- निर्दिष्टविषय अपादान– यत्र साक्षाद्धातुना गतिर्निर्दिश्यते तन्निर्दिष्टविषयम्[10] । धातु के द्वारा पार्थक्य निर्दिष्ट होने पर निर्दिष्ट विषय कहलाता है । यथा – ग्रामात् आगच्छति (गाँव से आता है), यहाँ आने की क्रिया द्वारा ग्राम से पार्थक्य निर्दिष्ट हो रहा है । २- उपात्तविषय अपादान– यत्र धात्वन्तरार्थाङ्ग स्वार्थं धातुराह, तदुपात्तविषयम्[11]। जहाँ एक क्रिया अन्य क्रिया के अर्थ के अंग रूप में स्वार्थ को व्यक्त करती है, वहां उपात्त विषय अपादान होता है। यथा – बलाहकात् विद्योतते (बादल से बिजली चमकती है), यहां निश्रित्य का अध्याहार होता है। यहां धात्वन्तर – अन्य धातु निःशरण है। उसके अर्थ को अपना अङ्ग बनाकर विद्योतन क्रिया अपने अर्थ को कह रही है, अतः यह उपात्त विषय अपादान है। ३- अपेक्षितक्रियम्– अपेक्षिता क्रिया यत्र तदन्त्यम्[12]। जहां क्रिया की अपेक्षा होती है अर्थात् क्रिया पद की प्रतीति तो होती है, किन्तु स्पष्ट रूप से प्रयोग नहीं होता है वहां अपेक्षितक्रिय अपादान होता है। यथा – कुतो भवान् पाटलिपुत्रात् (आप कहां से ? पाटलिपुत्र से), यहां आगमन रूप क्रिया पद की प्रतीति तो हो रही है परन्तु स्पष्ट प्रयोग नहीं होने से क्रिया की अपेक्षा रहती है। |
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निष्कर्ष |
यह अपादान तीन प्रकार का होता है – १- निर्दिष्ट विषय २- उपात्त विषय, और ३- अपेक्षितक्रिय ।
१-निर्दिष्टविषय अपादान – यत्र साक्षाद्धातुना गतिर्निर्दिश्यते तन्निर्दिष्टविषयम् । धातु के द्वारा पार्थक्य निर्दिष्ट होने पर निर्दिष्ट विषय कहलाता है । यथा – ग्रामात् आगच्छति (गांव से आता है), यहां आने की क्रिया द्वारा ग्राम से पार्थक्य निर्दिष्ट हो रहा है ।
२-उपात्तविषय अपादान – यत्र धात्वन्तरार्थाङ्ग स्वार्थं धातुराह, तदुपात्तविषयम् । जहां एक क्रिया अन्य क्रिया के अर्थ के अंग रूप में स्वार्थ को व्यक्त करती है, वहां उपात्त विषय अपादान होता है। यथा– बलाहकात् विद्योतते (बादल से बिजली चमकती है), यहां निश्रित्य का अध्याहार होता है। यहां धात्वन्तर– अन्य धातु निःशरण है। उसके अर्थ को अपना अङ्ग बनाकर विद्योतन क्रिया अपने अर्थ को कह रही है, अतः यह उपात्त विषय अपादान है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. पाणिनीय अष्टाध्यायी
2. व्याकरणसिद्धान्तकौमुदी कारकप्रकरणम्
3. नागेश भट्ट विरचित लघुशब्देन्दुशेखर, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पृ. ५४२
4. वाक्यपदीयम्
5. कौण्ड भट्ट प्रणीत वैयाकरणभूषणसार, पृष्ठ २६२, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी,
6. वाक्यपदीयम्
7. वाक्यपदीयम्
8. वहीं, पृष्ठ २६६
9. भर्तृहरि विरचित वाक्यपदीयम्
10. कौण्ड भट्ट प्रणीत वैयाकरणभूषणसार, पृष्ठ २७१, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी
11. वहीं
12. वहीं |