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मानवाधिकार संरक्षण की आवश्यकता: एक समाजशास्त्रीय अध्ययन | |||||||
The Need for Human Rights Protection: A Sociological Study | |||||||
Paper Id :
16662 Submission Date :
2022-11-10 Acceptance Date :
2022-11-18 Publication Date :
2022-11-25
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सारांश |
विकास के आरम्भिक दौर में मानव को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं था। उस समय जो बलशाली होते थे वे जाने-अनजाने में दूसरों के अधिकारों का हनन करते थे। धीरे-धीरे समय के साथ साथ सभ्यता और शिक्षा की उन्नति की जिसका मानव मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसने उन्हें न केवल अधिकार बोध सिखाया बल्कि अधिकार के प्रति संघर्ष करने की प्रेरणा दी । तब मानव ने अपनी बुद्धि एवं विवेक से ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त गढ़ा। अब वह दूसरों की खुशी में खुश होना और दूसरों के दुःख में दुःखी होना सीख चुका है। दूसरों की पीड़ा से व्यथित होकर नजीर बनारसी कह उठते है कि -
‘‘हर तबाही मुझे अपनी ही नजर आती है
कोई रोता है उदासी मेरे घर छाती है।’’
मानवाधिकार से अभिप्राय ‘‘मौलिक अधिकार एवं स्वतन्त्रता से है जिसके सभी मानव प्राणी हकदार हैं। अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं के उदाहरण के रूप में जिनकी गणना की जाती है, उनमें राजनैतिक एवं नागरिक अधिकार सम्मिलित हैं जैसे कि जीवन और स्वतन्त्र रहने का अधिकार, अभिव्यक्ति र्की स्वतन्त्रता और कानून के समक्ष समानता एवं आर्थिक, सामाजिक और संस्कृतिक अधिकारों के साथ ही साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, भोजन का अधिकार, काम करने का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार’’। भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद-14 से लेकर 35 के द्वारा नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधिकार दिए गए हैं। एमनेस्टी इण्टरनेशनल मानवाधिकारों की रक्षा को विश्वभर में सुनिश्चित करने वाली एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है, जिसका मुख्यालय लन्दन भेंट है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the early stages of development, human beings were not aware of their rights. Those who were powerful at that time, knowingly or unknowingly violated the rights of others. Gradually, along with the development of education and civilization, mind of the human being also refined and along with the sense of rights, the desire to get rights also awakened in them. Then man with his intellect and discretion coined the principle of 'live and let live'. Now he has learned to be happy in the happiness of others and to be sad in the sorrow of others. Distressed by the suffering of others, Nazir Banarasi says that - "Every catastrophe I see as my own Somebody cries, sadness is my chest." Human rights mean the fundamental rights and freedoms to which all human beings are entitled. Examples of rights and freedoms that are counted include political and civil rights such as the right to live and liberty, freedom of expression and equality before the law, and economic, social and cultural rights as well as cultural Right to participate in activities, right to food, right to work and right to education. Various types of rights have been given to the citizens by Article 14 to 35 of Part-3 of the Indian Constitution. Amnesty International is an international organization to ensure the protection of human rights around the world, headquartered in London. |
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मुख्य शब्द | एमनेस्टी इण्टरनेशनल, वी द पीपुल, नीति निदेशक तत्व, भूमंण्डलीयकरण, एन0जी0ओ0, एफस्पा, जनतन्त्र, ह्यूमन राइट्स वाच। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Amnesty International, We the People, Policy Directive Principles, Globalization, NGO, FSP, Democracy, Human Rights Watch. | ||||||
प्रस्तावना |
वैसे तो मानवाधिकारों की अवधारणा का इतिहास बहुत पुराना है, पर इसकी वर्तमान अवधारणा द्वितीय विश्वयुद्ध के विध्वंस के परिणामस्वरूप तब विकसित हुई, जब वर्ष 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौतिक घोषणा को स्वीकार किया। मानवाधिकारों का उल्लेख प्राचीन भारतीय ग्रन्थों, जैसे-‘मनुस्मृति’, ‘हितोपदेश’, ‘पंचतन्त्र’ तथा ’प्राचीन यूनानी दर्शन’ आदि मेें भी मिलता है। यद्यपि 1215 ई0 में इंग्लैण्ड में जारी किए मैग्नाकार्टा में नागरिकों के अधिकार का उल्लेख था, पर उन अधिकारों को मानवाधिकार की संज्ञा नहीं दी जा सकती थी।
1525 ई0 में जर्मनी के किसानों द्वारा प्रशासन से माँगे गऐ अधिकारों की 12 धाराओं को यूरोप में मानवाधिकारों का प्रथम दस्तावेज कहा जा सकता है। 1789ई0 में फ्रांस की राज्य क्रान्ति के परिणामस्वरूप वहाँ की राष्ट्रीय सभा ने नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की। फलस्वरूप विश्व में समानता, उदारता एवं बन्धुत्व के विचारों को बल मिला। 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन एवं अमेरिका में दास प्रथा की समाप्ति के लिए कई कानून बने और 20वीं शताब्दी के आते-आते मानवाधिकारों को लेकर कई विश्वव्यापी सामाजिक परिवर्तन भी हुए, जिसके अन्तर्गत बाल श्रम का विरोध प्रारम्भ हुआ एवं विभिन्न देशों में महिलाओं को चुनाव में मतदान का अधिकार मिला। 1864 ई0 में हुए जेनेवा समझौते से अन्तर्राष्ट्रीय मानवतावादी सिद्धान्तों को बल मिला एवं संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की मान्यता की बात की गई।
10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषण की। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है ‘’चूँकि मानवाधिकारों के प्रति उपेक्षा और घृणा के फलस्वरूप हुए बर्बर कार्यो के कारण मनुष्य की आत्मा पर अत्याचार हुए। अतः कानून द्वारा नियम बनाकर मानवाधिकारों की रक्षा करना अनिवार्य है। इसके प्रथम अनुच्छेद में स्पष्ट उल्लेख है कि सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त है। उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है और उन्हें परस्पर भाईचारे के भाव से व्यवहार करना चाहिए।
इसके बारे में अनुच्छेद-2 में कहा गया है कि ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को इस घोषणा में सन्निहिर्त स्वतन्त्रता और राष्ट्र अधिकारों को प्राप्त करने का हक है और इस मामले में जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीति या अन्य विचार प्रणाली किसी देश या समाज विशेष में जन्म, सम्पत्ति या किसी प्रकार की अन्य मर्यादा आदि के कारण भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसके अतिरिक्त, चाहे कोई देश या प्रदेश स्वतन्त्र हो, संरक्षित हो या स्वशासन रहित हो अथवा परिमित प्रमुख वाला हो, उस देश या प्रदेश का राजनीतिक, क्षेत्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहाँ के निवासियों के प्रति भेदभाव नहीं किया जाएगा।’’ अनुच्छेद 3 में वर्णित है कि ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता और वैयक्तिक सुख का अधिकार है।’’
अनुच्छेद-4 के अनुसार, ‘‘किसी को भी गुलामी या दासता की हालत में नहीं रखा जाएगा, गुलामी प्रथा और गुलाम का व्यापार अपने सभी रूपों में निषिद्ध होगा।’’ अनुच्छेद - 5 में कहा गया है कि ‘‘किसी को न तो शारीरिक यातनाए दी जाएगी और न ही किसी के प्रति निर्दय, अमानुषिक या अपमानजनक व्यवहार अपनाया जाएगा।’’ ऐसे ही कई आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा इसके कुल 30 अनुच्छेदों में की गई है। मानवाधिकारों से सम्बन्धित यह घोषणा कोई कानून नहीं है। इसके कुछ अनुच्छेद वर्तमान तथा सामान्य रूप से मानी जाने वाली अवधारणाओं के प्रतिकूल हैं। फिर भी इसके कुछ अनुच्छेद या तो कानून के सामान्य नियम हैं या मानवता की सामान्य धारणाएँ हैं। घोषणा का अप्रत्यक्ष रूप से कानूनी प्रभाव है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा एवं कुछ कानून के ज्ञाताओं मतानुसार यह संयुक्त राष्ट्र का कानून है।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. मानवाधिकारों की अवधारणा का अध्ययन करना
2. मानवाधिकारों का मानव सशक्तिकरण के योगदान में अध्ययन करना
3. मानवाधिकारों के संदर्भ में देश में बने विशेष कानूनों की भूमिका का अध्ययन करना |
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साहित्यावलोकन | यह शोध कार्य की महत्वपूर्ण कड़ी
है। यह अनुसंधान की समस्या से संबंधित सभी प्रकार की पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित
व अप्रकाशित शोध प्रबन्धों एवं अभिलेखों आदि की ओर संकेत करती है जिनेक अध्ययन से शोधकर्ताओं
के अपनी समस्या के चयन, परिकल्पनाओं के निर्माण, अध्ययन की रूप-रेखा तैयार करने एवं
कार्य का आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है। इससे शोधकर्ता को यह भी ज्ञात होता है कि
इस समस्या से संबंधित कार्य किन-किन विद्वानों ने किन-किन उद्देश्यों को लेकर किया
है। इससे शोधकर्ता को शोध विधि संबंधी ज्ञान प्राप्त होता है। भारतीय संविधान ‘वी द
पीपुल’ की अवधारणा पर आधारित है, जिसे पूरी दुनिया में एक नम्य एवं लचीले संविधान के
रूप में देखा जाता है। भारतीय संविधान के लागू होने के पश्चात् सार्वभौम घोषणा-पत्र
के अधिकांश अधिकार इसके दो भागों ‘मौलिक अधिकार’ और ‘राज्य के नीति-निदेशक तत्वों’
में शामिल किया गया है, जो मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा के लगभग सभी पहलुओं को अपने
आप में समेटे हुए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-12 से 35 तक में मौलिक अधिकारों
को शामिल किया गया है। इसमें समानता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, शोषण विरूद्ध
अधिकार, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार तथा संवैधानिक
उपचारों अधिकार शामिल है। जबकि संविधान के अनुच्छेद-36 से 51 तक राज्य के नीति-निदेशक
तत्वों को शामिल किया गया है। सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम प्राप्त करने का अधिकार,
रोजगार चुनने की स्वतन्त्रता, बेरोजगारी के खिलाफ की सुरक्षा और कार्य के लिए सुविधाजनक
परिस्थितियों, समान कार्य के लिए समान वेतन, मानवीय गरिमा का सम्मान, आराम और अवकाश
का अधिकार, समुदाय के सांस्कृतिक जीवन में निर्बाध हिस्सेदारी का अधिकार, लोगों के
कल्याण को बढ़ावा देना, समान न्याय और मुफ्त कानूनी सलाह की प्राप्ति और राज्य द्वारा
पालन की जाने वाली नीति के सिद्धान्त को शामिल किया गया है। अपने उद्देश्यों की पूर्ति
हेतु भारत सरकार ने संविधान के अंगीकृत होने के बाद से अब कुल मिलाकर 104 संशोधन किए
हैं। इसी श्रृंखला में मानवाधिकार अधिनियम, 1993 भी आता है। भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार
आयोग का गठन 12 अक्टूबर, 1993 को किया गया। यह आयोग किसी पीड़ित व्यक्ति या उसकी ओर
से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मानवाधिकारों के अतिक्रमण या किसी लोक सेवा द्वारा इस
प्रकार के उल्लंघन की अनदेखी करने के सम्बन्ध में प्रस्तुत याचिका की जाँच करता है।
यह न्यायालय में मानवाधिकार से सम्बन्धित मामलों में हस्तक्षेप, कैदियों की दशा का
अध्ययन और उचित संस्तुति, मानवाधिकार से जुड़ी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों या अन्य प्रपत्रों
का अध्ययन तथा प्रकाशन, संचार माध्यमों, सेमिनार, या अन्य साधनों द्वारा समाज के विभिन्न
वर्गो में मानवाधिकारों की शिक्षा का प्रसार करता है। यह आयोग अभियोग या जाँच के लिए
आवश्यक सूचनाएँ व दस्तावेज प्राप्त करने के लिए किसी संस्थान का दौरा कर सकता है या
किसी संस्थान में प्रवेश कर सकता है। किसी शिकायत की जाँच पूरी होने के बाद आयोग उचित
कार्यवाही या उसकी संस्तुति कर सकता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अतिरिक्त भारत
के कई प्रान्तों में मानवाधिकारों से सम्बन्धित मामलों की सुनवाई के लिए राज्य मानवाधिकार
आयोगों का भी गठन किया गया है। पूरे विश्व में मानवाधिकार हेतु जागृति फैलाने के उद्देश्य
से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1950 में 10 दिसम्बर को ‘मानवाधिकार दिवस’ घोषित
किया। इसका उद्देश्य दुनिया भर के लोगों का ध्यान मानवाधिकार की ओर आकर्षित करना था,
ताकि प्रत्येक देश और समुदाय में सभी को एक समान दृष्टि से देखा जाए। 20 दिसम्बर,
1993 को संयुक्त राष्ट्र ने मानवधिकार मामलों की देखभाल के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति
की। इसके अतिरिक्त मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बहुत से तन्त्र विकसित हो चुके
हैं, जो बड़ी कुशलता के साथ अपना कार्य कर रहे हैं, किन्तु आज भी मानवाधिकार की तस्वीर
कुछ और है। मानवाधिकार के सन्दर्भ में तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव ‘बान-की-मून’
की एक पंक्ति स्मरणीय है कि ‘‘हाल ही में हमने नरसंहार और अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों
तथा मानवीय कानूनों के अनेक अन्य हृदय विदारक तथा व्यापक उल्लंघन देखे हैं।’’ बान-की-मून
का यह वक्तव्य खुद मानव अधिकार की सच्चाई को प्रकट करता है। दुनिया के आज बहुत से देशों
में हो रहे युद्धों पर विचार करें तो युद्ध का संकट मानव अधिकारों के लिए और त्रासद
रूप में सामने आया है। अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले ने पूरे पश्चिमी जगत को हिला
दिया और अब आईएसआईएस ने पूरी दुनिया में नए तरीके से आतंकवाद के रास्ते मानव अधिकारों
के कुचलने की आहट दी है। इसके साथ ही साथ भूमण्डलीकरण के इस दौर में मानवाधिकार की
रक्षा की खाई पैदा हो रही है। इस खाई को तभी भरा जा सकता है जब अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों
के माध्यम से कार्यकर्ताओं को नियमों के दायरे में लाया जा सके, सरकारें जो विदेश में
मानवाधिकारों के हनन के लिए जिम्मेदार हैं, विश्व भर में सक्रिय निजी तत्व और अन्तर्राष्ट्रीय
संगठन सब पर नजर रखनी होगी। अब तक ऐसा सम्भव नहीं है, इसलिए मानवाधिकारी हनन के शिकार
लोग अपने अधिकारों के लिए अदालतों में नहीं जा सकते और कोई मुआवजा भी नहीं पा सकते।
विश्व के हर हिस्से में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों और समाजशास्त्रियों
ने इस बीच निजी तत्वों द्वारा भी मानवाधिकारों के पालन और इसकी रक्षा की माँग करनी
शुरू कर दी है। अनेक एन.जी.ओ. अभियान चलाकर मानवाधिकारों के हनन को बड़े पैमाने पर जनमत
के माध्यम से सामने ला रहे हैं। भारत बहुत बड़ा देश है । यहाँ अनेक धर्मों और पंथों
के लोग रहते है। इस कारण यहाँ विविधता पायी जाती है । इस कारण भारत में मानवाधिकार
की स्थिति जटिल दिखाई देती है । भारतीय संविधान के अन्तर्गत धर्म की स्वतन्त्रता को
मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। इन्हीं स्वतन्त्रताओं का लाभ उठाते हुए
आए दिन साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। इससे किसी एक धर्म के मौलिक अधिकारों का हनन
नहीं होता वरन उन सभी लोगों के मानवाधिकार प्रभावित होते हैं, जो इस घटना के शिकार
होते हैं तथा जिनका इस घटना से कोई सम्बन्ध नहीं होता, जैसे-मासूम बच्चे, गरीब, पुरूष-महिलाएँ,
वृद्धजन इत्यादि। भारत के कुछ राज्यों में अफस्पा कानून हटाए जाने का प्रमुख कारण सैन्य
बलों को दिए गए विशेषाधिकारों का दुरूपयोग था। उदाहरणस्वरूप, बिना वारण्ट किसी के घर
की तलाशी लेना, किसी असंदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारण्ट के गिरफ्तार करना, यदि कोई
व्यक्ति कानून का उल्लंघन करता है, अशान्ति फैलाता है, तो उसे प्रताड़ित करना महिलाओं
के साथ दुव्र्यवहार करना इत्यादि खबरें अक्सर चर्चा का विषय रहती थी। अतः यहाँ यह सवाल
उठना स्वाभाविक है कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षो बाद भी भारत में मानवाधिकार पल-पल
किसी-न-किसी तरह की प्रताड़ना का दंश झेल रहा है। उपर्युक्त स्थितियों के सन्दर्भ में,
आज मानवाधिकार एक संवेदनशील मुद्दा है, जिसको समग्रता में अर्थात् स्थानीय राष्ट्रीय
एवं अन्तर्राष्ट्रीय सभी स्तरों पर देखना है। मानवाधिकारों के संरक्षण की जरूरत न केवल
आज है वरन् भविष्य में भी इसकी जरूरत पड़ती रहेगी, क्योंकि यह मनुष्य की गरिमा, सुरक्षा
और जीवन की बुनियादी माँग हैं पूर्व सुंयक्त राष्ट्र महासचिव बान-की-मून के शब्दों
में - ‘‘अगर कहें तो मानवाधिकरों का संवर्द्धन संयुक्त राष्ट्र का एक मूल उद्देश्य
और वह अपनी स्थापना के समय से ही इस दिशा में अग्रसर है।’’ आज आवश्यकता इस बात की है
कि राज्य अपनी जिम्मेदारी को समझे और सम्पूर्ण मानव समाज अपने अधिकारों के साथ दूसरे
के अधिकारों की रक्षा को अपना कर्तव्य समझे, क्योंकि मानावधिकरों का संरक्षण एवं संवर्द्धन
किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है। एक बार तत्कालीन
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान-की-मून ने ‘मानवाधिकार दिवस’ पर अपने सन्देश में कहा था
कि हर वर्ष 10 दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 2013 के
नारे ‘मानवाधिकार 365’ में यह सोच शामिल की गई है कि प्रत्येक दिन मानवाधिकार दिवस
मानव अधिकार के संरक्षण में युवाओं की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया गया है। अतः मानवाधिकार
दिवस, 2019 विषय था- ‘‘मानव अधिकारों के लिए युवा चेतना।’’ संयुक्त राष्ट्र महासचिव
ने कहा है, ‘‘मैं देश की सरकारों से आग्रह करता हूॅ कि वे वर्ष में हर दिन मानवाधिकारों
का संरक्षण देने का अपना दायित्व निभाएँ।’’ यह तभी सम्भव है जब सभी संकल्पनाएँ ‘‘सर्वे
भवन्तु सुखिनः’’ में विश्वास और उसे आचरण में शामिल करें। क्रियान्वयन सम्बन्धी उपाय
राज्य की अपनी सम्प्रभुता में निहित हैं। आज जरूरत इस बात की है कि पूरी निष्ठा एवं
तत्परता से मानवाधिकार की सुरक्षा करें और मानवाधिकार हनन करने वालों के खिलाफ उचित
दंडात्मक कार्यवाही करें ताकि लोगों में मानवाधिकार के प्रति जागरूकता का भाव पैदा
हो सके। जनतन्त्र की अवधारणा मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने की बढ़ती हुई आवश्यकताओं
से जुड़ी है। इसके बिना तो व्यक्तित्व का विकास सम्भव है और न ही सुखी जीवन व्यतीत कर
पाना। मानवाधिकार के अभाव में जनतन्त्र की कल्पना निरर्थक है। यद्द्पि कुछ वैश्विक
रिपोर्टों में भारत की मानवाधिकार की स्थिति को चिंताजनक बताया गया है फिर भी भारत
मानवाधिकारों के प्रति दिन प्रतिदिन सजग हो रहा है । मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना
है कि इसका मूल कारण सभी प्रान्तों में मानवाधिकार आयोग का न होना। अतः भारत में मानवाधिकरों
की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए इसके सभी प्रान्तों में मानवाधिकार आयोग का गठन अनिवार्य
है। मानव परिवारों के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव, सम्मान तथा अविच्छिन्न अधिकार की
स्वीकृति विश्व-शान्ति, न्याय और स्वतन्त्रता की बुनियाद है। अतः सम्पूर्ण मानवता की
रक्षा के लिए विश्व समुदाय को खुली मानवाधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। हमें कन्हैया
लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की इस पंक्ति को सर्वदा याद रखना चाजिए। |
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निष्कर्ष |
अतः भारत में मानवाधिकरों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए इसके सभी प्रान्तों में मानवाधिकार आयोग का गठन अनिवार्य है। मानव परिवारों के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव, सम्मान तथा अविच्छिन्न अधिकार की स्वीकृति विश्व-शान्ति, न्याय और स्वतन्त्रता की बुनियाद है। अतः सम्पूर्ण मानवता की रक्षा के लिए विश्व समुदाय को खुली मानवाधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। हमें कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की इस पंक्ति को सर्वदा याद रखना चाजिए। जो जीवन में दूसरों के प्रति न अपने अधिकार मानता है और न कर्तव्य, वह पशु समान है।’’ |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. शर्मा रमा एवम् मिश्रा एम0के0: महिला एवं मानवाधिकार, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2015
2. श्रीवास्तव सुधा रानी: भारत में मानवाधिकार की अवधारणा, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 2016
3. शर्मा कृष्ण कुमार: सामाजिक न्याय और मानवाधिकार, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 2018
4. शर्मा कृष्ण कुमार: मानवाधिकार और कर्तव्य, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली, 2016
5. अग्रवाल एच0ओ0: मानव अधिकार, सेन्ट्रल लाॅ पब्लिकेशन इलाहाबाद, 2015
6. तारकुण्ड वी0एम0: मानवाधिकारों का दर्शन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017
7. त्रिपाठी डी0पी0: मानवाधिकार, इलाहाबाद लाॅ एजेन्सी, पब्लिकेशन, इलाहाबाद 2016
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