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दुग्ध उत्पादक पशुधन के वितरण का बदलता प्रतिरुप हाड़ौती क्षेत्र के जिला कोटा (राजस्थान) का प्रतीक अध्ययन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
The Changing Pattern of Distribution of Milk Producing Livestock, A Case Study of District Kota (Rajasthan) of Hadoti Region | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Paper Id :
16697 Submission Date :
2022-11-11 Acceptance Date :
2022-11-21 Publication Date :
2022-11-25
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सारांश |
भारत की आर्थिक उन्नति में कृषि एवं पशुपालन व्यवसाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान वैश्वीकरण के इस युग में डेयरी उद्योग ने उल्लेखनीय प्रगति की है। विश्व के दुग्ध उत्पादक देशों में भारत का प्रथम स्थान है। देश में विगत तीन दशकों में दुग्ध उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई है। राजस्थान राज्य की पशुधन की दृष्टि से समृद्ध है। राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित हाड़ौती प्रदेश के कोटा जिले में भी पशुपालन हेतु समस्त भौगोलिक दशाएँ अनुकूल है किन्तु विगत 20वीं पशुगणना में 2019 के पशुधन के आँकड़ों से स्पष्ट हुआ कि कोटा जिले में 2012 की तुलना में कुल पशुधन में कमी आई है। यद्यपि राज्य में भी कुल पशुधन में कमी पायी गई है किन्तु राजस्थान में दुधारू पशुधन में वृद्धि हुई है। कोटा जिले में पीपल्दा व सांगोद को छोड़कर शेष तीनों (लाड़पुरा, दीगोद व रामगंजमण्डी) तहसीलों में दुधारू पशुधन में भी कमी आई है। यहाँ बढ़ती माँग व घटता पशुधन एक चिन्ताजनक स्थिति है। जिले में पशुपालन हेतु उचित वातावरण तैयार करके रोजगार सृजन व शुद्ध दुग्ध व दुग्ध उत्पाद उचित मूल्य पर प्राप्त किए जा सकते हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Agriculture and animal husbandry business has an important place in the economic progress of India. In the current era of globalization, the dairy industry has made remarkable progress. India ranks first among the milk producing countries of the world. Milk production in the country has increased rapidly in the last three decades. Rajasthan is rich in terms of livestock of the state. In the Kota district of Hadauti region situated in the south-eastern part of Rajasthan, all the geographical conditions are favorable for animal husbandry, but in the last 20th livestock census, it was clear from the statistics of 2019 that the total livestock in Kota district has decreased as compared to 2012. Although there has been a decrease in the total livestock in the state as well, there has been an increase in the milch livestock in Rajasthan. Except Peepalda and Sangod in Kota district, there has also been a decrease in milch livestock in the remaining three (Ladpura, Digod and Ramganjmandi) tehsils. Here the increasing demand and decreasing livestock is a worrying situation. Employment generation and pure milk and milk products can be obtained at a reasonable price by creating a proper environment for animal husbandry in the district. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द | पशुधन, पशुपालन, डेयरी उद्योग, जनसंख्या घनत्व, लिंगानुपात, गौवंश, भैंसवंश, दुग्ध उत्पादक/दुधारू पशुधन एवं दुग्ध उत्पाद। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Livestock, Animal Husbandry, Dairy Industry, Population Density, Sex Ratio, Cow Progeny, Buffalo Progeny, Milk Producer/Milch Livestock and Milk Products. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तावना |
भारतीय अर्थव्यवस्था में शताब्दियों से पशुधन का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पशुधन की महत्ता पर टिप्पणी करते हुए कहा था-
‘‘भारत की समृद्धि गाय तथा उसकी सन्तति की समृद्धि के साथ जुड़ी है।‘‘
वर्तमान में भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका का प्रधान स्रोत कृषि ही है। अतः ग्रामीण जनजीवन व कृषि व्यवस्था को अलग नहीं किया जा सकता। पशुपालन कृषि का ही एक सहायक स्वरुप है, विशेषकर दुग्ध उत्पादक पशुधन पालन आर्थिक क्रिया के रुप में, इसका एक अलग विशिष्ट स्थान है क्योंकि यह डेयरी उद्योग का आधार है।
राजस्थान की प्राकृतिक परिस्थितियाँ पशुपालन के अनुकूल है। यहाँ सदैव से ही कृषि के साथ-साथ पशुपालन किया जाता रहा है। पशुपालन का प्रारम्भिक स्वरुप जीवन-निर्वाह हेतु रहा है। किन्तु विगत दशकों में इसका व्यापारिक स्वरूप उभर कर आया है। वर्तमान में वैश्विक व्यापारिकता से पशुपालन अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। इसका प्रमुख कारण पशुओं से प्राप्त पदार्थ विशेषकर दुग्ध व इससे बनने वाले उत्पादों की मांग में वृद्धि से डेयरी उद्योग में उल्लेखनीय प्रगति हो रही है।
प्रकृति प्रदत्त उपादानों के पर्याप्त रुप में होने के कारण राजस्थान के कोटा जिले में पशुपालन को ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में अतिरिक्त आय के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। क्षेत्र में पठारी भू-भाग, जंगलात भूमि व चंबल नदी के बीहड़ क्षेत्र होने के साथ-साथ उपजाऊ मृदा का भू-भाग के साथ ही अपार जल राशि की उपलब्धता होने के कारण पशुपालन व्यवसाय परम्परागत रहा है। उन्नत पशुपालन हेतु प्रचुर सुविधाओं के कारण ही कोटा जिले में राजस्थान के मारवाड़ व मेवाड़ क्षेत्रों से गायें, भेड़-बकरियाँ व ऊँट आदि पशुओं का सामयिक प्रवास होता है। जिले में वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या और घटती भूमि ने पशुपालन के महत्त्व को द्विगुणित कर दिया है। सम्प्रति गाँवों में बसने वाले भूमिहीन विपन्न व्यक्ति भी वैज्ञानिक प्रविधियों से दुधारु पशुओं को पालकर स्फूर्तिवर्धक, स्वास्थ्यवर्धक व अमृत तुल्य दुग्ध की प्राप्ति के साथ-साथ अपनी आय में भी वृद्धि कर रहे हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य हाड़ौती क्षेत्र के कोटा जिले में कुल पशुधन व दुग्ध उत्पादक पशुधन के वितरण को जानना तथा इसके बदलते प्रतिरूप को चिन्हित कर उसका विश्लेषण करना रहा है। |
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साहित्यावलोकन | पशुपालन व डेयरी संबंधी अध्ययन भूगोल व अर्थशास्त्र के अतिरिक्त कृषि विज्ञान
में भी प्रमुखता से किया जाता है। भूगोलवेत्ताओं द्वारा दुग्ध उत्पादक पशुधन
सम्बन्धी शोध कार्य करना वर्तमान समय की मांग है। सम्प्रति डेयरी उद्योग विषय पर
महत्त्वपूर्ण अनुसंधान किए जा रहे हैं। कुरियन वर्गीज़ (1984) ने अपने शोध में
निष्कर्ष निकाला कि चारा फसलें सबसे सस्ता निवेश हैं, जिसे दूध में बदल सकते हैं।
उन्होंने दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक आहार तथा हरे चारे की आपूर्ति के लिए
ग्रामीण परत भूमि को समृद्ध चरागाह बनाने पर बल दिया। एन.एल.जोशी (2002) द्वारा
किए गए दक्षिणी राजस्थान के जनजातीय क्षेत्र में पशुधन उत्पादन एवं प्रबंधन के शोध
से स्पष्ट है कि डेयरी उद्योग में हानि का प्रमुख कारण पशुधन के उचित प्रबंधन के
अभाव में दुधारु पशुओं की कमजोर उत्पादन क्षमता है। एम.सिंह (2002) ने शोध में
राजस्थान में डेयरी पशुओं की वर्तमान स्थिति एवं भविष्य का विश्लेषण प्रस्तुत
किया। एम.के.गर्ग (2004) ने अपने शोध में राजस्थान के बारां जिले में गौ पशुओं की
प्रबन्ध पद्धतियों का अध्ययन किया है। देशमुख (2012) ने शोध में पाया कि ग्रामीण
क्षेत्र में पशुधन रोजगार की अपार संभावनाएँ हैं। डी.के.शर्मा (2021) ने बून्दी
जिले के अध्ययन में स्पष्ट किया कि डेयरी विकास द्वारा सामाजिक आर्थिक रूपान्तरण
संभव है। |
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मुख्य पाठ |
कोटा जिला राजस्थान के दक्षिण पूर्वी भाग में 24 डिग्री 25’ उत्तरी अक्षांश से 25डिग्री 51’ उत्तरी अक्षांश तथा 75डिग्री 37’ पूर्वी देशांतर से 77डिग्री 26’ पूर्वी देशान्तर के मध्य
अवस्थित है। कोटा जिला उत्तर में सवाई माधोपुर, उत्तर-पूर्व में मध्य प्रदेश राज्य, पूर्व में बारां, उत्तर-पश्चिम में बून्दी, पश्चिम में चित्तौड़गढ़ जिले, दक्षिण-पश्चिम में मध्यप्रदेश
तथा दक्षिण में झालावाड़ जिले से आवृत्त है। कोटा जिले का कुल क्षेत्रफल 5217.00
वर्ग किलोमीटर है। इसमें ग्रामीण क्षेत्र 4590.49 तथा नगरीय क्षेत्र 626.51 वर्ग किलो
मीटर है। यहाँ की कुल स्थानीय जनसंख्या 1951014 है जिसमें से 774410 ग्रामीण तथा
1176604 नगरीय जनसंख्या है। क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या में 1021161
पुरुष व 929853 महिलाएँ है। वर्ष 2011 की जनगणनानुसार जनसंख्या घनत्व 374 है जो कि
राजस्थान के जनसंख्या घनत्व 200 से अधिक है। जिले का लिंगानुपात 911 है जो कि
राजस्थान के औसतन लिंगानुपात 928 से कम है। यहाँ साक्षरता का प्रतिशत 76.60 जो कि
सर्वाधिक है। पशुधन वितरण एवं प्रतिरुप परिवर्तन भारत में 2019 की पशुधन गणना के अनुसार कुल पशुधन 535.78 मिलियन है जो गत पशुगणना
(2012) की तुलना में 4.6 प्रतिशत अधिक है। वर्ष 1998 से विश्व के दुग्ध उत्पादक
देशों में भारत का प्रथम स्थान है। देश में कुल दुग्ध उत्पादन का 55 प्रतिशत
भैंसों से, 42प्रतिशत गायों से और 3प्रतिशत भेड़ बकरियों से प्राप्त होता है। देश में गत
22 वर्षों में दुग्ध उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई है। 1950-51 से लेकर वर्ष
2017-18 तक की अवधि में भारत में दुग्ध उत्पादन 17 मिलियन टन से बढ़कर 176.4 मिलियन
टन हो गया है। देश में कुल दुधारु पशुधन 125.34 मिलियन है जो कि 2012 की तुलना में
6 प्रतिशत अधिक है। राजस्थान पशुधन की दृष्टि से समृद्ध है। यहाँ देश के कुल पशुधन का 11.27
प्रतिशत भाग पाया जाता है। वर्ष 2012 में पशुधन 57.7 मिलियन था, यह संख्या घटकर 2019 में 56.8
मिलियन अंकित की गई। इस अवधि में कुल पशुधन में 1.66 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है
किन्तु दुधारु पशुधन में गौवंश में 13.3 मिलियन से बढ़कर 13.9 तथा भैंस वंश में
13.00 से वृद्धि होकर 13.7 मिलियन की संख्या से क्रमशः 4.41प्रतिशत व 5.53प्रतिशत
की वृद्धि हुई है। राजस्थान के कोटा जिले का भौगोलिक वातावरण पशुधन पालन की दृष्टि से अनुकूल है।
जिले में पशुधन वृद्धि एवं वितरण का प्रतिरुप निम्न है- तालिका-1 कोटा जिला, तहसीलानुसार कुल पशुधन संख्या वितरण/परिवर्तन
स्रोत - कोटा जिला सांख्यिकी रुपरेखा, 2018 व 2021 तालिका-1 से स्पष्ट है कि कोटा जिले में कुल पशुधन में 2012 की तुलना में 2019
में सर्वाधिक कमी रामगंजमण्डी तहसील में हुई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार इसका
कारण पशुपालन व्यवसाय में अरुचि होना तथा अन्य व्यवसाय जैसे पत्थर उद्योग में
रुझान होना पाया गया है। न्यूनतम कमी प्रतिशत सांगोद तहसील में पायी गई है। यद्यपि
इस तहसील क्षेत्र में दुधारु पशुओं की संख्या में वृद्धि हुई है। वहाँ भैंसों, भेड़ों और घोड़े-खच्चरों की
संख्या में वृद्धि हुई है परन्तु गाय, बकरियों, गधों, ऊँटों, कुत्तों, सुअरों तथा खरगोशों की संख्या में कमी पायी गई है। दीगोद एवं लाड़पुरा तहसील में भी कुल पशुधन में क्रमशः 6.24 प्रतिशत तथा 7.62
प्रतिशत की कमी पायी गई है। पीपल्दा तहसील में कुल पशुधन में 8.89 प्रतिशत की वृद्धि पायी गई है। पीपल्दा
कोटा जिले की एकमात्र तहसील है जहाँ कुल पशुधन में वृद्धि हुई है। समेकित रुप से कोटा जिले में कुल पशुधन में 4.55 प्रतिशत की कमी पायी गई है।
कुल पशुधन में कमी तथा पशुओं की नस्ल की गुणवत्ता में कमी होने का एक कारण कुपोषण
भी है। अध्ययन क्षेत्र में अनाजों का भूसा परम्परागत चारा आहार रहा है। जिसमें
समुचित पोषक तत्व मौजूद नहीं है तथा पशुओं के लिए अलग से उचित व पौष्टिक हरा
चारा उगाने की व्यवस्था अतिन्यून है। केवल दुधारु पशुओं को ही पौष्टिक आहार व हरा
चारा खिलाया जाता है। शेष पशुओं को केवल सूखा चारा खिलाया जाता है। इससे पशुओं के
स्वास्थ्य में भी गिरावट आती है और प्रतिवर्ष कई पशु रोग ग्रस्त होकर मर जाते हैं। दुधारु पशुओं की प्रमुख नस्लें कोटा जिले में पशुधन गणना 2019 के अनुसार गौवंश 217376 व भैसवंश 229184 है
क्षेत्र में भैसों की तुलना में गायों की संख्या कम है। अध्ययन क्षेत्र में उत्तम
नस्ल के पशुओं की संख्या न्यून है। अधिकांश पशु स्थानीय देशी नस्ल के है। क्षेत्र
में पायी जाने वाली दुग्ध उत्पादक पशुधन की प्रमुख नस्लें निम्न है- गौवंश (क) गीर गाय - इस नस्ल की गाय राजस्थान में मुख्य रुप से भीलवाड़ा तथा अजमेर
जिले में अधिक संख्या में पायी जाती है। हाड़ौती क्षेत्र के कोटा जिले में भी इस
नस्ल की गायें पाली जाती है। इसको यहाँ स्थानीय भाषा में मारवाड़ी नस्ल जैसी कद
काठी होने के कारण मारवाड़ी गाय कहा जाता है। इसका
रंग लाल या कत्थई दाग सहित पीला होता हैं, आँखें बड़ी-बड़ी कान लम्बे व लटके हुए तथा सींग बड़े व पीछे की
ओर झुके होते हैं। इस नस्ल की गाय एक दुग्धकाल में 2000 लीटर तक दूध देती है। (ख) मालवी गाय - इस नस्ल की गायें हाड़ौती क्षेत्र में विशेषकर झालावाड़ जिले
में मिलती है तथा राजस्थान व मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र मालवा प्रदेश में
पायी जाती है। कोटा जिले में मालवी नस्ल
की गायें झालावाड़ जिले की सीमा से लगी रामगंजमण्डी तहसील क्षेत्र में पाली जाती
है। इसका रंग सफेद पर हल्का नीला और काला होता हैं इसके सींग ऊपर की ओर खड़े होते
हैं तथा कद काठी मजबूत होती है। यह एक दुग्ध काल में 1000 से 1200 लीटर तक दूध
देती है। विदेशी या संकर नस्ल की गायें (क) जर्सी गाय- यह विदेशी नस्ल है। इस नस्ल के नर पशुओं द्वारा कोटा जिले
की देशी नस्ल की मादा पशुओं से संकर नस्ल की उत्पत्ति की जा रही है। इस नस्ल की गाय का रंग भूरा या हल्का पीला होता
है। इस नस्ल का पशु अधिक गर्मी सहन कर सकता है। इसलिए इस क्षेत्र की जलवायु जर्सी
नस्ल की गाय के लिए अनुकूल है। जर्सी नस्ल की पहली बार प्रजनन की उम्र 20-24 महीना
होती है जो कि अन्य सभी नस्लों के पशुओं में सबसे कम है। यह गाय एक दुग्ध काल में
3000 से 4000 लीटर तक दूध देती है। कोटा शहर व उपनगरीय क्षेत्रों में पशुपालकों
द्वारा इस नस्ल की गाय को अधिक दुग्ध प्राप्ति के लिए पाला जाता है। (ब) हाॅल्सटीन फीजियन- यह भी विदेशी नस्ल की गाय है।
इसका रंग काला अथवा चितकबरी होता है। इस नस्ल के पशुओं को अधिक गर्मी सहन नहीं
होती है। इनको ठण्डा मौसम अधिक सुहाता है। इस नस्ल की गाय की दुध देने की क्षमता
एक दुग्ध काल में 5500 से 7500 लीटर तक है जो कि गौवंश में सर्वाधिक है। किन्तु इस
क्षेत्र की जलवायु एच.एफ.नस्ल के पशुओं के लिए अनुकूल नहीं है। वर्तमान में
प्रसारित संक्रामक बीमारी ‘‘लम्पी‘‘ से प्रभावित पशुओं में सर्वाधिक संख्या इसी नस्ल के पशुओं की है। भैसवंश भैसों की प्रमुख नस्लें मूर्रा, रावी, सूरती, जाफरावादी तथा मेहसाना है। किन्तु कोटा जिले में मुख्य रूप से देशी नस्ल की
भैसों की संख्या अधिक है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र में मूर्रा नस्ल की भैंसेे भी
पाली जाती है। मूर्रा नस्ल से प्रति दुग्धकाल में 2000 से 6000 लीटर औसतन दुग्ध
प्राप्त होता है। देशी नस्ल की भैसों में एक दुग्ध काल में 1200 से 1600 लीटर
दुग्ध की प्राप्ति होती है। यद्यपि गौवंश व भैसवंश से उचित व पौष्टिक आहार तथा
समुचित प्रबन्धन से दुग्ध प्राप्ति की मात्रा को 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जा
सकता है। कोटा जिला दुग्ध उत्पादक पशुधन वितरण इस अध्ययन में कोटा जिले में तहसीलानुसार दुग्ध उत्पादक पशुधन के अन्तर्गत
गौवंश व भैंसवंश को शामिल किया गया है। इसमें क्षेत्र में पायी जाने वाली सभी
नस्लों को सम्मिलित किया गया है- तालिका-2 कोटा जिला तहसीलानुसार दुग्ध उत्पादक पशुधन वितरण/परिवर्तन
स्रोत - कोटा जिला सांख्यिकी रुपरेखा, 2018 व 2021
तालिका-2 के अवलोकन से यह स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होता है कि कोटा जिले में
पीपल्दा और सांगोद तहसील में पशुगणना 2012 की अपेक्षा 2019 में दुधारु पशुधन की
संख्या में क्रमशः 9.91 प्रतिशत तथा 2.48 प्रतिशत
की वृद्धि हुई है। पीपल्दा तहसील में गौवंश व भैंसवंश दोनों की संख्या में
वृद्धि हुई है। जबकि सांगोद तहसील में केवल भैंसवंश की संख्या में वृद्धि हुई, जबकि सांगोद तहसील में केवल
भैंसवंश की संख्या में वृद्धि हुई है। इनकी संख्या 2012 में 50628 थी जो 2019 में
56163 हो गई है। भैंसवंश से गायवंश की तुलना में अधिक मात्रा में दूध की प्राप्ति
होती है। इसलिए पशुपालक भैंस को पालने में अधिक रुचि रखते हैं। कोटा जिले की शेष 3
तहसीलों- लाड़पुरा, दीगोद व रामगंजमण्डी में क्रमशः 8.18 प्रतिशत 7.14 प्रतिशत तथा 5.76 प्रतिशत
की कमी दुधारु पशुओं में पायी गई है। इसका मुख्य कारण आय व माँग की अनिश्चितता से
पशुपालकों का पशुपालन के प्रति मोह कम होना है। कुछ अन्य कारण भी हैं-जैसे हरे तथा
शुष्क चारे की समय पर उपलब्धि की अनिश्चितता, पशुओं की स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति जागरुकता व उपलब्धता की
कमी आदि। समेकित रुप से यह तथ्य सामने आया है कि राजस्थान प्रदेश में दुधारु पशुओं
की संख्या में लगभग 4.87 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि कोटा जिले में दुधारु पशुओं की संख्या में 2.81
प्रतिशत की कमी आई है, जो अत्यन्त विचारणीय और चिंताजनक है। |
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सामग्री और क्रियाविधि | प्रस्तुत शोध में कार्यालय- उपनिदेशक, आर्थिक एवं सांख्यिकी विभाग कोटा तथा पशुपालन विभाग कोटा से प्राप्त आँकड़ों का सारणीकरण द्वारा विश्लेषण किया गया है। सूचनाओं एवं तथ्यों की धरातलीय रूप में पुष्टि करने हेतु व्यक्तिगत रूप से क्षेत्र का पर्यवेक्षण करके प्राथमिक स्रोत से प्राप्त सूचनाओं एवं तथ्यों को भी समाहित किया है। |
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निष्कर्ष |
पशु सम्पदा की दृष्टि से राजस्थान भारत का एक प्रमुख सम्पन्न राज्य है। पशुपालन कृषि के सहायक उद्योग के रुप में न केवल कृषकों को पूर्ण रोजगार में मदद करता है, वरन् साथ ही साथ प्राकृतिक आपदाओं के समय पशुपालन से आय अर्जित कर जीवनयापन का अवसर प्रदान करता है। कोटा जिले में गत दशकों में लगातार कुल पशुधन में कमी आ रही है, जबकि दुधारु पशुओं को पालकर रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकते हैं। उपजाऊ खाद की आपूर्ति की जा सकती है। इसके अतिरिक्त गोबर से गोबर गैस तैयार की जा सकती है। पशुओं से माँस, ऊन, चमड़ा, हड्डियों आदि उत्पाद प्राप्त होते हैं जो विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चे माल के रुप में प्रयुक्त होते हैं। कोटा जिले की स्थानीय तथा कोटा शहर की सामयिक जनसंख्या के अनुसार दूध एवं उत्पादों की मांग में लगातार वृद्धि हो रही है। इस मांग की आपूर्ति हेतु शहर के निकट पशुपालन व्यवसाय के अवसर उपलब्ध हैं। उचित सरकारी व निजी भागीदारी, क्षेत्र में डेयरी विकास की भरपूर संभावनाओं को ठोस आधार प्रदान किए जाने में सहायक सिद्ध होगी। |
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