|
|||||||
शिवमंगल सिंह सुमन के काव्य में सामाजिक चेतना | |||||||
Social Consciousness in The Poetry of Shivmangal Singh Suman | |||||||
Paper Id :
16698 Submission Date :
2022-11-14 Acceptance Date :
2022-11-21 Publication Date :
2022-11-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/innovation.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
कवि शिवमंगल सिंह ’सुमन’ की गणना हिन्दी के प्रगतिवादी कवियों में की जाती है। अपने लेखन के प्रारम्भिक दौर में वे प्रणय-भावना से युक्त गीतों की रचना करते रहे, लेकिन कालान्तर में वे समाज की ओर उन्मुख हो जाते है। यह सत्य है कि उनकी अनेक कविताओं का सम्बन्ध सामाजिक यथार्थ से है। यथार्थ से पृथक होकर वे कल्पना-लोक में विचरण नहीं करते। उन्होंने समाज के विविध पहलुओं को अपने गीतों में स्थान दिया है। किसानों व श्रमिकों की दयनीय स्थिति के चित्रण के साथ-साथ तत्कालीन नारी की शोचनीय अवस्था व पीड़ित-शोषित वर्ग की विडम्बनाओं का यथार्थ चित्रण उनकी अनेक कविताओं का वर्ण्य-विषय है।
|
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Poet Shivmangal Singh 'Suman' is counted among the progressive poets of Hindi. In the initial phase of his writing, he kept on composing songs with romantic sentiments, but later on he turned towards the society. It is true that many of his poems are related to social reality. Being separated from reality, they do not wander in the world of imagination. He has given place to various aspects of the society in his songs. Along with the depiction of the pitiable condition of farmers and laborers, the deplorable condition of the contemporary women and the realistic depiction of the irony of the victim-exploited class is the theme of many of his poems. | ||||||
मुख्य शब्द | शाश्वत, प्राक्कथन, विनष्ट, मधुरिमा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Shashwat, Preface, Vinasht, Madhurima. | ||||||
प्रस्तावना |
कोई भी रचनाकार अपने परिवेश से सम्पृक्त रहकर साहित्य-रचना नहीं कर सकता। समाज की धारणाएँ व मान्यतायें प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से रचना की विषय-वस्तु का निर्माण करती हैं। इसलिए युग और साहित्य परस्पर सापेक्ष होते हैं। वस्तुतः समाज किसी भी राष्ट्र का आविभाज्य एवं अनिवार्य अंग है। बूँद-बूँद एकत्रित होकर जैसे किसी सागर का निर्माण होता है, वैसे ही व्यक्ति-व्यक्ति के समूह से समाज का निर्माण होता है। सामान्य अर्थ में ’समाज’ शब्द का प्रयोग ’व्यक्ति-समूह’ के लिए किया जाता है, लेकिन अपने विशिष्ट अर्थ में ’समाज’ व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं, वरन् सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था होती है। व्यवस्था से अभिप्राय किसी भी संगठन में पाई जाने वाली विविध प्रकार की प्रणालियों या विधियों से होता है। डॉ महेन्द्रनाथ वर्मा के अनुसार- “एक ही प्रकार के उद्देश्यों और संस्कारों से जुड़े हुए व्यक्ति, जो एक देश या उसके किसी एक भू-भाग में रहते हैं तथा जिनकी एक स्वतन्त्र आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था होती है, मिलकर एक समाज का निर्माण करते हैं। ”[1]
वस्तुतः समाज व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं है, अपितु उनके सामाजिक सम्बन्धों एवं समस्याओं का गहन जाल है। समाज एक ऐसी संस्था है जो व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करती है और व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है। यह मानव-मूल्यों के स्थापन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति इन मूल्यों से अवश्य प्रभावित होता है। चूंकि कवि समाज का सबसे चेतन व सजग प्राणी होता है। अतः वह इन प्रभावों से कैसे अछूता रह सकता है?
|
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | यह सत्य है कि कोई भी संवेदनशील कवि अपने समाज से पृथक रहकर साहित्य-रचना कर ही नहीं सकता। राजनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक ’साहित्यिक निबन्ध’ में कवि और समाज का सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहा है कि- “कवि वास्तव में समाज की अवस्था, वातावरण, धर्म-कर्म, रीति-नीति तथा सामाजिक शिष्टाचार या लोक-व्यवहार से ही अपने काव्य के उपकरण चुनता है और उनका प्रतिपादन अपने आदर्शों के अनुरूप ही करता है। साहित्यकार उसी समाज का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें वह जन्म लेता है। वह अपनी समस्याओं का सुलझाव, अपने आदर्श की स्थापना अपने समाज के आदर्शों के अनुरूप ही करता है। जिस सामाजिक वातावरण में उसका जन्म होता है, उसी में उसका शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास भी होता है।” [2]
|
||||||
साहित्यावलोकन | कवि शिवमंगल सिंह ’सुमन’ के साहित्य पर विपुल शोध-कार्य हुआ है। उनके गीतों के विविध पक्षों को अनेक प्रकार से व्याख्यायित करने के प्रयास किए गए हैं। लेखिका का मानना है कि किसी भी विषय-विशेष को लेकर प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण व उसकी सोच का दायरा भिन्न-भिन्न होता है। कवि ’सुमन’ का समाज के प्रति नजरिया, शोषित वर्ग के प्रति गहरी संवेदना व सामाजिक विषमता को दूर करने हेतु कवि रूप में उनके प्रयास को व्याख्यायित करना ही प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का उद्देश्य है। |
||||||
मुख्य पाठ |
कवि शिवमंगल सिंह ’सुमन’ की रचनाओं में युगीन प्रभाव स्पष्टत: दृष्टिगोचर होता है। सुमन जी की ’जीवन के गान’, ’प्रलय-सृजन’ तथा ’विश्वास बढ़ता ही गया’ रचनाएँ सामाजिक-भावना के चित्रण की दृष्टि से
महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कवि समाज की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- “हमें अपनी सामाजिक परिस्थितियों पर दृष्टि डालना अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि किसी भी लेखक की रचना में परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप में उस समाज की
प्रतिच्छाया जिसमें वह रह रहा है अवश्य पड़ती है।”[3] समाज के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए कवि सुमन
कहते हैं- “आज जीवन के जिन उपकरणों के बीच हमारा साहित्य दमा के
मरीज के अस्वस्थ श्वास वेग के समान हाँफता-हाँफता आगे बढ़ रहा है, उनके प्रति हमें अपनी जिम्मेदारियों को समझ लेना नितान्त आवश्यक हो जाता है।
शाश्वत सत्यों का डंका पीटकर जीवन की वास्तविकता से आँखें मूँद लेना हमारी कायर
मनोवृत्ति का ही द्योतक नहीं, वरन् समाज को और साथ-ही -साथ अपने को भी धोखे में
डाले रखने की प्रवृत्ति का परिचायक है।“[4] भारत देश में शोषण, दमन और अत्याचार का इतिहास बहुत
पुराना है। प्रारम्भ से ही शक्तिशाली निर्बल का शोषण करता आया है। “उच्च वर्ग सदैव अपने को पूर्ण मनुष्य मानता आया है। ऐसे में वह अपने से निम्न
वर्ग को हीनता से देखता है। उसकी मनोवृत्ति ज्यादा-से-ज्यादा प्राप्त करने की होती
है। वह चाहता है कि उसके पास सभी साधन सुलभ हो जाएँ। फलतः वह सामूहिक तौर पर
अत्याचार करता है। उसकी प्रवृत्ति शोषण की होती है।”[5] कवि ’सुमन’ ने तत्कालीन समाज में व्याप्त शोषण का यथार्थ चित्रण अपनी कविताओं में किया
है। शोषक वर्ग के प्रति व्यंग्य करते हुए कवि की वाणी से क्रांति का स्वर फूट पड़ता
है। उनकी ’जीवन के गान’, ’प्रलय-सृजन’ तथा ’विश्वास बढ़ता ही गया’ काव्य-संग्रहों में शोषण के
प्रति कवि का आक्रोश सहज ही देखा जा सकता है। ’आज देश की मिट्टी बोल उठी है’ कविता में पूंजीपतियों पर व्यंग्य करते हुए कवि कहता है- “जर्जर कंकालों पर वैभव का प्रासाद बसाया भूखे मुख से कौर छीनते तू न तनिक शरमाया।” [6] कवि ’सुमन’ की काव्य-रचनाओं में निम्न वर्ग की दयनीय स्थिति के चित्रण के साथ-साथ उनके
प्रति सहृदयता की भावना भी सहज ही देखी जा सकती है। इस सन्दर्भ में ’प्रलय-सृजन’ के प्राक्कथन में राहुल सांकृत्यायन का कहना है- “कवि ने अपने आस-पास के संसार की अन्तर्वेदना को ही व्यक्त नहीं किया और न केवल
पीड़ितों के लिए आँसू बहा लेने भर से संतोष कर लिया है, बल्कि उस पीड़ा और दम घोंटने वाली परिस्थिति को बदलने का संदेश दिया है।” [7] फिर व्यर्थ मिला ही क्यों जीवन’ कविता में कवि अपनी वाणी को पीड़ित-शोषित मानवता की वाणी में विलीन कर देना
चाहता है। ठीक ऐसे ही भाव उनकी ’हिल्लोल’ और ’मैं बढ़ता ही जा रहा हूँ’ कविता में सहज ही देखे जा सकते हैं। सच तो यह है कि
विश्व में व्याप्त विषमता को देखकर कवि का हृदय व्यथित हो उठता है। वह सर्वहारा
वर्ग के प्रति सहानुभूति रखता है व शोषितों की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझता
है। समाज में व्याप्त विषमता को नष्ट करने के लिए कवि जागृति पैदा करना चाहता है
तथा स्वयं का जीवन भी निम्न वर्ग के उत्थान के लिए लगा देना चाहता है। पूँजीपतियों
के शोषण-चक्र को विनष्ट करने के साथ-साथ वह समाज का नव-निर्माण करना चाहता है। कवि
समाज के एक-एक व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत जरूरतों
की पूर्ति करना चाहता है व समूची सामाजिक विषमता को समाप्त कर देना चाहता है- “बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिसने न फेरी। यदि क्षमा कर दूँ इन्हें
धिक्कार माँ की कोख मेरी। चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता
की कहानी। हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी।” [8] कवि ’सुमन’ ने शोषित-पीड़ित वर्ग की दयनीय स्थिति के चित्रण के साथ-साथ उनकी जागरूकता का
चित्रण भी अपनी कविताओं में किया है क्योंकि पश्चिमी देशों के श्रमिक-आन्दोलनों के
फलस्वरूप भारत के किसानों-मजदूरों में भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता का
समावेश हो रहा था। साथ ही ’सुमन’ जी ने दलित एवं पीड़ित वर्ग की
जागरूकता का वर्णन भी अपनी कविताओं में किया है। कवि शोषित वर्ग के सुखद भविष्य के
प्रति आशावान है। उसे विश्वास है कि यह शोषित वर्ग एक दिन समाज के स्वरूप को बदल
देगा। ’नई आग है, नई आग है’ कविता में कवि यही कहता है कि जनता में जागृत्ति पैदा हो चुकी है और अब
नव-निर्माण का समय आ रहा है- “त्रस्त ध्वस्त हो रहा पुरातन नया वेष है, नया साज है सदियों से सोई मानवता अंगड़ाई ले रही आज है।“ [9] यह सत्य है कि समाज में सदैव ही अमीर-गरीब, शोषित-पीड़ित व उच्च वर्ग-निम्न वर्ग का संघर्ष चलता रहा है। इस संघर्ष के मूल
कारणों को रेखांकित करती हुई शशि जेकब लिखती हैं- “तालाब की हर बड़ी मछली छोटी
मछलियों को खा जाया करती है। यही स्थिति भारतीय समाज की है। ऊँचे धनिक वर्ग के लोग
अनीति का आश्रय ले, निम्न वर्गों को समाप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
इसका दुष्परिणाम संघर्ष होता है।” [10] यह नितान्त सत्य है कि नारी सृष्टि की आदिशक्ति होते हुए भी सदैव उपेक्षित एवं
पीड़ित होती रही है। भौतिक सभ्यता के बावजूद भारतीय समाज आज भी नारी-जीवन से
सम्बन्धित अनेक विसंगतियों और रुढियों को ढो रहा है। यह भी सत्य है कि
स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व हमारे देश में नारी की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी।
कवि ’सुमन’ की दृष्टि नारी की इस दुर्दशा
की ओर गई। यही कारण है कि उनकी अनेक कविताओं में नारी की इस दुर्दशा का चित्रण सहज
ही देखा जा सकता है। ’बे-घरबार’ में नारी की शोचनीय अवस्था का
वर्णन करते हुए कवि कहता है कि आज नारीत्व चाँदी के चन्द टुकड़ों में बिक रहा है।
निराश्रिता नारी की दयनीयता का चित्रण करते हुए कवि लिखते हैं-” आज कहाँ नारी की लज्जा, धर्म कर्म का जाल चौराहे पर माताएँ जनती हैं अपने लाल।” [11] इसी प्रकार ’गुनिया का यौवन’ कविता में भी कवि ने तत्कालीन नारी की शोचनीय अवस्था का चित्रण किया है। कवि ’सुमन’ की अनेक कविताओं में किसानों एवं श्रमिकों की दुर्दशा
का चित्रण भी सहज ही देखा जा सकता है। ’चल रही उसकी कुदाली’ में कवि ने जेठ माह की तपती दुपहरी में खेत जोतते हुए किसान का मार्मिक चित्रण
किया है। जीवन के समस्त विश्वास को समेटे हुए किसान सधे हाथों से खेत में कुदाली
लिए कठोर परिश्रम कर पसीना बहा रहा है। ’मेरे स्वर में जीवन भर दो’, ’यह किसका कंकाल पड़ा है’ तथा ’हाय नहीं यह देखा जाता’ आदि कविताओं में कवि ने श्रमिक वर्ग की दयनीयता का विशद चित्रण किया है। मानव
के द्वारा मानव से ही किया जाने वाला पशु-तुल्य व्यवहार देखकर कवि का हृदय कराह
उठता है। कवि कहता है कि श्रमिक वर्ग अपना खून-पसीना एक करके पूँजीपति वर्ग के लिए
महलों का निर्माण करता है, वहीं उच्च वर्ग श्रमिक वर्ग की जीर्ण-शीर्ण अवस्था के
प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं रखता- “जो मिट्टी खोद रहे होंगे ले आज फकीरी वेश कहीं जिनकी लाचारी पर कोई रोने वाला भी शेष नहीं।” [12] कवि ’सुमन’ ने तत्कालीन समाज में व्याप्त महाजनी शोषण का यथार्थ चित्रण किया है। शोषक
वर्ग पर व्यंग्य करते हुए कवि क्रांति का आह्वान करते भी प्रतीत होते हैं। ’प्रलय सृजन’ व ’जीवन के गान’ कविताओं में पूंजीपतियों को
धिक्कारते हुए कवि शोषित वर्ग के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं। ’बे-घरबार’ में कवि कहता है कि मई-जून के तपते हुए दिनों में
उच्च वर्ग खस की मधुरिमा तथा बिजली के पंखों की सन-सन में ठाठ का जीवन बिता रहा है, जबकि निम्न वर्ग फुटपाथों पर ही अपना जीवन काटने को विवश है। ’आज देश की मिट्टी बोल उठी है’ कविता में पूंजीपतियों पर व्यंग्य करते हुए कवि कहता
है कि जिस श्रमिक वर्ग ने अपने जीवन को दाँव पर लगा कर ऊँचे-ऊँचे महल खड़े किए हैं, उसी श्रमिक के मुख का निवाला छीनते हुए पूँजीपति वर्ग को तनिक भी लज्जा नहीं
आती। 'सुमन' जी ने अपनी कविताओं में देश की
दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया है। अंग्रेज़ी शोषण की चक्की में पिसते भारतीयों की
दुर्दशा के साथ-साथ अकाल की भयावहता का हृदय-विदारक चित्रण ’कलकत्ते का अकाल-1943’ में सहज ही देखा जा सकता है। पूँजीपतियों के जुल्मों
के कारण चारों ओर हाहाकार मच गया था। ब्रिटिश शासकों तथा मुनाफाखोरों ने अनाज
गोदामों में भर-भर कर सड़ा दिया, दूसरी ओर जनता भूख के कारण अन्तिम साँसें ले रही थी। “गलियों, सड़कों, फुटपाथों पर क्षुधा-ग्रस्त बेहाल जगह-जगह पर तड़प रहे हैं, मानव के कंकाल।” [13] पराधीन भारत में जब अंग्रेज़ शासकों ने अनेक देशभक्तों
को जेल में डाल दिया था, तो कवि के लिए यह सब असहनीय था। विद्रोह-भरे स्वर में
देशवासियों का आह्वान करते हुए कवि उन्हें जागरूक करने का प्रयास करते हैं।
पराधीनता तथा दासत्व का चित्रण करने के साथ-साथ उन्होंने देशवासियों के आपसी
वैर-भाव का भी चित्रण किया है। कवि का मानना है कि हमारी आपसी फूट ने ही हमें
दासता के दिन देखने के लिए विवश किया है। दासता के कारणों का विश्लेषण करने के
साथ-साथ कवि ने देश की स्वाधीनता की अभिलाषा भी प्रकट की है। “फूट आपस में हुई कोई गोरी आ धमका लूट-लिप्सा में फँसे नादिरी
खंजर चमका छाई ऐयाशी तो तैमूर की शमशीर
उठी
गाफिली आई तो अंग्रेज़ी तिजारत
चमकी।” [14] |
||||||
निष्कर्ष |
समग्रतः ’सुमन’ जी के गीतों में समाज के विभिन्न पहलुओं का यथार्थ चित्रण सहज ही देखा जा सकता है। कवि ने खेत गोड़ते किसान, फावड़े चलाते मजदूर, पसीना बहाता रिक्शावाला, घरों में चौका-बर्तन करने वाली, निर्धन वर्ग की नारी का प्रतिनिधित्व करने वाली गुनिया आदि का यथार्थ चित्रण किया है। कवि जर्जर व्यवस्था रूपी गिद्ध की खूनी चोंच और पैने पंजों को ध्वस्त करके हंसों और बगुलों रूपी सर्वहाराजन के लिए मुक्त आकाश की कामना करता है। इस प्रकार रूपक बाँधकर कवि ने अपने विद्रोही स्वर का सुन्दर परिचय इन शब्दों में दिया है-
“झपटूं शिकारी बाज बन
जर्जर व्यवस्था के जलपते गिद्ध पर
कर बिद्ध खूनी चंचु
पंजे तौड़ पैने
जीर्ण डैने ध्वस्त कर
दूँ मुक्त कर आकाश
हंसों औ’ बगुलियों के लिए।”
इसी प्रकार ’जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी’ शीर्षक कविता में भी कवि ने राम और रावण को क्रमशः सर्वहारा वर्ग और आभिजात्य वर्ग का प्रतीक मान कर विषमतापूर्ण समाज के विरूद्ध संघर्ष का सुन्दर चित्रण किया है। कवि समाज में फैले ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भेद को मिटाकर मानवता की भावना का प्रसार करना चाहता है। राम द्वारा रावण पर प्राप्त की गई विजय से व्याप्त मंगलमय वातावरण का चित्रण करके कवि समाज में सौहार्द्र और बंधुत्व की कामना करता है। जिस प्रकार फूल संसार को सौरभमय बनाता है, उसी प्रकार कवि अपने हृदय का प्रेम रूपी मकरंद सारे संसार में फैलाकर असहाय और निर्बलों को सुख प्रदान करना चाहता है। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. महेन्द्रनाथ वर्मा, समाजशास्त्र, पृष्ठ-29
2. राजनाथ शर्मा, साहित्यिक निबन्ध, पृष्ठ-372
3. सुमन, समग्र। (जीवन के गान) कुछ कहना आवश्यक था इसलिए, पृष्ठ 373
4. वही
5. शशि जेकब, महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में वैचारिकता, पृष्ठ 210
6. सुमन, समग्र1 ’विश्वास बढ़ता ही गया’ आज देश की मिट्टी बोल उठी है, पृष्ठ 247-248
7. सुमन समग्र-1, प्रलय-सृजन का प्राक्कथन; राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 384
8. सुमन समग्र1, ’विश्वास बढ़ता ही गया,’ ’मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ,’ पृष्ठ 219
9. वही; ’नई आग है, नई आग है’, पृष्ठ-232
10. शशि जेकब, महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में वैचारिकता, पृष्ठ 33
11. सुमन समग्र1, कलकत्ते का अकाल-1943, पृष्ठ 209
12. वही, ’मेरे स्वर में जीवन भर दो, पृष्ठ-126
13. वही, ’प्रलय सृजन’, ’कलकत्ते का अकाल-1943, पृष्ठ-206
14. वही, ’मिट्टी की बारात-जिसे मंजिल समझ रहे हो, पृष्ठ-210
15. सुमन समग्र-2, ’मिट्टी की बारात’ - आषाढ़ का पहला दिवस, पृष्ठ-110 |