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भारत में लैंगिक समानता | |||||||
Gender Equality in India | |||||||
Paper Id :
16725 Submission Date :
2022-11-18 Acceptance Date :
2022-11-23 Publication Date :
2022-11-25
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सारांश |
’’किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहां की महिलाओं की स्थिति’’। सन् 2005 में यू.न.ओ. महासभा की बैठक में सतत् विकास का लक्ष्य रखा गया था और सतत् विकास में लैंगिक समानता को शामिल किया गया था। इसके बावजूद भी वैश्विक स्तर पर लैंगिक भेदभाव अनेक रूपों में विद्यमान हैं। जैसे - कार्यस्थल पर उत्पीड़न, राजनीतिक प्रतिनिधित्व में असमानता, घरेलू हिंसा, परिवारिक निर्णयों में महिलाओं का कोई स्थान नहीं देना, बॉडी सेमिंग, शिक्षा व पोषण में भेदभाव, अबला के रूप में पहचान, छेड़छाड़, बलात्कार, महिला अधिकारों पर बल देने वाली महिलाओं पर आक्रमण इत्यादि। आधुनिक जीवन शैली को अपनाने के बावजूद भारतीय समाज लैंगिक समानता के मामले में अत्यधिक पिछड़ा हुआ हैं। लैंगिक असमानता से ही समाज में असंतुलन व अपराध को बढ़ावा मिलता हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में लैंगिक समानता की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए इसके लिए किये गये संवैधानिक, कानूनी एवं संस्थागत प्रयासों की विवेचना की गई हैं समाज में व्याप्त लिंग भेदभाव पर प्रकाश डालते हुए इसके लिए उत्तरदायी कारणों की खोज करके सुधार के सुझाव दिये गये हैं।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | "The best thermometer of the progress of any nation is the condition of its women". In 2005, U.N.O. In the meeting of the General Assembly, the goal of sustainable development was set and gender equality was included in sustainable development. Despite this, gender discrimination exists in many forms at the global level. Such as - Harassment at the workplace, inequality in political representation, domestic violence, giving no place to women in family decisions, body shaming, discrimination in education and nutrition, identification as able-bodied, molestation, rape, women emphasizing on women's rights Attack etc. Despite adopting a modern lifestyle, Indian society is very backward in terms of gender equality. Gender inequality only gives rise to imbalance and crime in the society. Propounding the need for gender equality in the presented research paper, the constitutional, legal and institutional efforts made for this have been discussed, while highlighting the gender discrimination prevailing in the society, searching for the reasons responsible for it, suggestions have been given for improvement. | ||||||
मुख्य शब्द | थर्मामीटर, यू.न.ओ, सतत् विकास, लैंगिक समानता। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Thermometer, UNO, Sustainable Development, Gender Equality. | ||||||
प्रस्तावना |
वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति सुदृढ थी, परिवार एवं समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त था। शिक्षा का अधिकार था, सम्पत्ति में बराबरी का हक था। सभा, समितियों में वे स्वतंत्रतापूर्वक भाग ही नहीं लेती थी, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्हें समान रूप से आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उत्तर वैदिक काल तक आते-आते द्वंद महिलाओं की सामाजिक स्थिति को लेकर द्वंद की स्थिति दिखाई देती है, जिसमें अंतिम परिणति पुरुष की सर्वोच्चता व सत्ता के रूप में हुई। पौराणिक काल में जहां महिलाओं को शक्ति का स्वरूप मानकर आराधना की जाती थी। वही 11वीं से 19वीं शताब्दी के मध्य भारत में लिंग आधारित भेदभाव चरम पर पहुंचा और महिलाओं की स्थिति दयनीय होती गई। शिक्षा सुविधाओं से पूर्ण वंचित कर उन पर कठोर वर्जनाए आरोपित कर दी गई। मुगल शासन, सामंती व्यवस्था, केंद्रीय सत्ता का विनिष्ट होना, विदेशी आक्रमण और शासकों की विलासितापूर्ण प्रवृत्ति ने महिलाओं को उपभोग की वस्तु बना दिया। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, अशिक्षा आदि सामाजिक कुरीतियों का समाज में प्रवेश हुआ, परिणामस्वरूप महिलाओं की स्थिति दीन होकर उनका सामाजिक जीवन कुलषित हो गया। कालान्तर में महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर तक सीमित कर उन्हें पराधीन बना दिया। भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व महिलाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। अंग्रेजी शासन द्वारा सती-प्रथा पर रोक व विधवा विवाह जैसे महिला उत्थान के कार्य किये। स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी ने महिला उत्थान के अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् विधायन, सामाजिक जागरूकता, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, रोजगार, कृषि, राजनीति, वाणिज्य, व्यापार, आदि समस्त क्षेत्रों में लैंगिक समानता हेतु उपाय किये गये, परन्तु अभी तक लैंगिक भेदभाव को खत्म करने में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. सतत विकास में लैंगिक समानता की आवश्यकता प्रतिपादित करना।
2. लैंगिक भेदभाव के स्वरूप पर प्रकाश डालना।
3. लैंगिक समानता के लिए किये गये सरकारी प्रयासों की जानकारी प्रदान करना।
4. लैंगिक समानता में बाधक तत्वों का पता लगाना।
5. लैंगिक समानता स्थापित करने हेतु सहायक सुझाव देना। |
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साहित्यावलोकन | 1. नीरा देसाई, वुमन इन इंडियन सोसायटी: नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया 2001, पुस्तक में भारतीय समाज में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक परिस्थिति को
दर्शाया गया हैं।
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सामग्री और क्रियाविधि | सीकर जिले की शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं एवं पारिवारिक सदस्यों से व्यक्तिश: मिलकर सामाजिक स्तर पर विद्यमान लिंगाधारित भेदभाव की जानकारी प्राप्त की गई है। माध्यमिक स्तर एवं महाविद्यालयी स्तर पर अध्ययनरत छात्राओं से भी बातचीत करके तथ्य एकत्रित किये गये हैं। कामकाजी महिलाओं से भी व्यक्तिशः सम्पर्क किया गया हैं। इनके अतिरिक्त उपलब्ध साहित्य,विभिन्न विभागों के प्रतिवेदन, संवैधानिक प्रावधान, पत्र-पत्रिकाओं, तथा ई-संदर्भ से अध्ययन सामग्री प्राप्त की गई है। इस तरह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही स्रोतों से प्राप्त सामग्री विश्लेषण करके निष्कर्ष निकाले गये हैं। |
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विश्लेषण | लिंग आधारित भेदभावजेंडर समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की
प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों और नीति निर्देशक तत्व में
प्रतिपादित हैं। इसके बावजूद भी लिंग आधारित भेदभाव बहुत व्यापक स्तर पर व्याप्त
हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शिक्षा से लेकर रोजगार तक हर जगह
पर लैंगिक भेदभाव साफ नजर आता हैं। बेटे से वंश चलता है, बेटा होने पर ही माता-पिता को
मोक्ष मिलता है बेटा ही अग्नि देगा, इस तरह की सोच से बेटी के जन्म
पर ही भेदभाव शुरू हो जाता है। पुत्र जन्म पर खुशियां मनाई जाती है तथा पुत्री के
जन्म पर मायूसी छा जाती है। लड़की को पराया धन मानकर उसके साथ रहन-सहन, खान-पान, शिक्षा स्वास्थ्य तथा व्यवसाय के
क्षेत्र में खुला भेदभाव किया जाता है। स्वास्थ्य के क्षेत्र पर दृष्टि डालें तो, लैंगिक भेदभाव के कारण ही ज्यादातर बेटियां
एनीमिया की शिकार पाई जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में
लैंगिक भेदभाव स्पष्ट दिखाई देता हैं। बेटों को महंगी निजी स्कूलों में भेजा जाता
हैं। उन्हें ट्यूशन भी दिलवाई जाती हैं, पढ़ने के लिए टोका भी जाता हैं।
जबकि बेटियों को नजदीक के सरकारी विद्यालयों में प्रवेश दिलाकर इतिश्री कर ली जाती
हैं। स्कूल से आने के बाद उन्हें घर के कार्य, यथा भाई-बहनों को रखना जैसे कार्य करने होते हैं।
स्नातक स्तर तक आते-आते तो शादी करके ससुराल विदा कर दिया जाता हैं। शादी के बाद
भी ससुराल में उसके साथ लैंगिक भेदभाव जारी रहता हैं। पितृसत्तात्मक परिवार होने
के कारण निर्णय प्रक्रिया में उसकी भूमिका न के बराबर होती है। यहां तक कि बच्चे
पैदा करने में भी उसका स्वयं का निर्णय नहीं होता है। अनेक महिलाएं घरेलू हिंसा का
भी शिकार होती है और लोक-लिहाज के कारण शिकायत तक नहीं करती है। इस तरह लैंगिक
भेदभाव एक सोच-समझ कर बनाई गई खाई है जिसको तय कर समानता तक जाने का सफर बहुत मुश्किलों भरा है। आर्थिक क्षेत्र
की बात करें तो, सूचना एवं तकनीकी क्षेत्र से
लेकर मनोरंजन के क्षेत्र तक, हर जगह पर महिलाओं को पारिश्रमिक
से जुड़े भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एक तरफ तो वेतन में हो रहा भेदभाव और दूसरी
तरफ महिलाओं के काम को कम आंकना समानता में बाधक है। न केवल असंगठित क्षेत्र बल्कि
संगठित क्षेत्र भी भेदभाव पूर्ण व्यवहार से जकड़ा हुआ है। फिल्मों में अभिनेत्रियों
को मुख्य नहीं समझा जाता और उन्हें पारिश्रमिक भी अभिनेताओं से कम दिया जाता है।
कपड़े सिलाई करने वाली महिलाओं को दर्जी के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता और
उन्हें पुरुष दर्जी के मुकाबले कम पारिश्रमिक दिया जाता है। अनेक धार्मिक रूढ़िया
भी लिंग आधारित भेदभाव को बढ़ावा देती है। सबरीमाला मे भगवान अयप्पा के मंदिर के
गर्भगृह में जाकर महिलाओं द्वारा प्रतिमा छुने का मामला हो या शनि शिंगणपूर मंदिर
शनि देव के चबूतरे पर महिलाओं द्वारा तेल चढ़ाने के मामलों के मूल में लिंगाधारित
भेदभाव ही है। देश में राजनीतिक सहभागिता भी महिलाओं की लगभग 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रही है। 17 वी लोकसभा में महिलाओं की
संख्या 78 है जो महिला जनसंख्या के
हिसाब से कम हैं। सभी राजनीतिक दल बातें तो करते हैं लेकिन 33 प्रतिशत टिकट महिलाओं को नहीं देते
हैं। जेंडर गैप को भारत में 67 फीसदी ही भर पाये हैं जबकि
छोटे-छोटे देश आइसलैंड में 88 फ़ीसदी तथा फिनलैण्ड में 84.2 फ़ीसदी कम किया जा चुका है।
महिला साक्षरता 65.46 प्रतिशत है जबकि पुरुष साक्षरता 82.14 है। सन् 2001 की जनगणनानुसार लिंगानुपात 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं। कामकाजी
महिलाओं का प्रतिशत 27 ही है। इस तरह लिंग आधारित
भेदभाव एक चिन्तनीय विषय है, लैगिंक समानता के अभाव में सतत
विकास एक कल्पना हैं। भारत में लैंगिक समानता के कानूनी प्रावधानसंवैधानिक प्रावधानमहिलाओं की
प्रगति, बराबरी व उनके पिछड़ेपन को दूर कर
लैंगिक समानता की स्थापना हेतु भारतीय संविधान के भाग 3 एवं 4 तथा अनेकानेक अनुच्छेदों
में व्यवस्थाएं की गई है जैसे - 1.अनुच्छेद 14- राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में
विधि के समक्ष समान अधिकार व अवसर पर बल। 2.अनुच्छेद 15(1)- राज्य
किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव 3.अनुच्छेद 15(3)- राज्य को महिलाओं एवं बच्चों के लिए विशेष उपबंध करने का अधिकार। 4.अनुच्छेद 16- लोक नियोजन में अवसर की समानता। 5.अनुच्छेद 16(2)-
राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में कोई भी नागरिक लिंग के आधार पर न तो
अपात्र होगा, न ही उस में विभेद होगा। 6.अनुच्छेद 21- प्राण और
दैहिक स्वतंत्रता। 7.अनुच्छेद 23- मानव व्यापार और
बालात् श्रम का निषेध। 8.अनुच्छेद 24- 14 वर्ष से कम आयु के बालक/बालिका के नियोजन की मनाही। 9.अनुच्छेद 39(क)- महिला व पुरुष
को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन मिले। 10.अनुच्छेद 39(घ)- स्त्री व पुरुष
दोनों के समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हो। 11.अनुच्छेद 39(ड़)- पुरुष व स्त्री
कर्मकारों के स्वास्थ्य व शक्ति का दुरुपयोग नहीं हो। 12.अनुच्छेद 42- राज्य काम की न्याय संगत व मानवोचित दशाओं का निर्धारण तथा प्रसूति सहायता के लिए उपबंध
करेगा। 13.अनुच्छेद 47- पोषाहार और जीवन
स्तर सुधार के लिए लोक स्वास्थ्य सुधार। 14.अनुच्छेद 51(क)(ड़)- ऐसी प्रथा का
त्याग, जो स्त्रियों के
सम्मान के विरुद्ध 15.अनुच्छेद 243(घ-3)(घ-4)(न-3)(न-4)- महिलाओं के लिए स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाओं में एक तिहाई स्थान आरक्षित किये गये। 16.अनुच्छेद 325- बिना किसी भेदभाव के निर्वाचन नामावली मे
नाम सम्मिलित करने का अधिकार। 17.अनुच्छेद 326- वयस्क मताधिकार। अधिनियम एवं विधायनब्रिटिश भारत
एवं स्वतंत्रता के पश्चात लैंगिक समानता हेतु अनेक
कानूनी प्रयास किये गये- 1.सती प्रथा निषेध अधिनियम 1829, संशोधित 1987, 2.हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856, 3.बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929, 4.मुस्लिम शरीयत अधिनियम 1937, 5.मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939, 6.न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948, 7.हिंदू विवाह अधिनियम 1955, 8. अस्पृश्यता रोकथाम अधिनियम 1955, 9.हिन्दु नाबालिक एवं संरक्षित अधिनियम 1956, 10.वेश्यावृति निवारण अधिनियम 1956, - 2005 संशोधित 11.दहेज रोकथाम अधिनियम 1961, 12.प्रसूति सुविधा का अधिनियम 1961, 13.बाल विवाह निषेध अधिनियम 1976, 14.समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, 15.स्त्री अशिष्ट निरूपण अधिनियम 1986, 16.लिंग परीक्षण तकनीकी अधिनियम 1994, 17.भारतीय तलाक (संशोधन) अधिनियम 2001, 18.महिलाओं पर घरेलू हिंसा अधिनियम 2001, 19.परित्यक्ताओं के लिए गुजारा भत्ता संशोधन अधिनियम 2001, 20.बालिका अनिवार्य शिक्षा एवं कल्याण अधिनियम 2001, 21.घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005, 22.बाल विवाह निरोधक अधिनियम 2006, 23.कार्यस्थल पर यौन शोषण बचाव एवं निवारण अधिनियम 2013, 24.मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण अधिनियम 2019, 25.बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना 2015, 26.जेंडर बजटिंग योजना 2015, 27.उड़ान योजना-2022 संस्थागत प्रयास1.राष्ट्रीय
महिला आयोग एवं राज्यों में राज्य महिला आयोग की स्थापना 2.महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का गठन 3.केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना 4.राष्ट्रीय महिला कोष की स्थापना 5.महिलाओं के लिए राष्ट्रीय नीति का निर्माण 6.महिला पुलिस थानों की व्यवस्था 7.वुमेन हेल्पलाईन स्कीम 8.महिला दिवस, मातृत्व दिवस व बेटी दिवस मनाना 9.महिला पुरस्कारों की घोषणा 10.जन आधार कार्ड योजना, इत्यादि |
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निष्कर्ष |
आज भारतीय महिला संक्रमण काल से गुजर रही हैं। वह घर एवं ऑफिस दोनों की जिम्मेदारी निभा रही हैं। पुरुष मानसिकता के कारण पिता की दृष्टि में दान और पति की दृष्टि में भोग की वस्तु हैं। 8 मार्च 1975 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रतिवर्ष 8 मार्च को महिला दिवस मनाने की घोषणा की थी लेकिन 47 वर्ष बीत जाने के बाद भी महादेवी वर्मा की यह पंक्तिया लिंग समानता की सच्चाई बयां करती है ’’संसार परिवर्तनशील है यहां बड़े-बड़े साम्राज्य बह गये, संस्कृतिया लुप्त हो गई है, जातियां मिट गई, रीति रिवाज बदल गये, रूढ़ियां टूट गई। सब कुछ बदल गया पर स्त्रियों की दशा नहीं बदलती है’’ वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता के कानूनी रूप से कितने भी दावे किये जाये लेकिन विश्व में महिलाएं लैंगिक असमानता की शिकार हैं। आज हम विश्व स्तर पर सतत विकास में लैंगिक भेदभाव को दूर करने की बात कह रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ लैंगिक भेदभाव की जड़े सामाजिक और राजनीतिक कारणों से मजबूती पकड़ रही है और सतत विकास में एक चुनौति साबित हो रही हैं।
महिला और पुरुष एक समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। समाज रूपी गाड़ी तभी आगे जा सकती है जब दोनों पहियों में समानता हो। लैंगिक समानता एक सुंदर और सुरक्षित समाज की वो नींव है जिस पर विकास रूपी ईमारत बनाई जा सकती है। इस तरह किसी भी राष्ट्र की सतत प्रगति के लिए लैगिंक समानता एक जरूरी तत्व हैं। विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों एवं महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित करके ही राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। लैंगिक असमानता न केवल महिलाओं के विकास में बाधक है बल्कि किसी राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास को भी गहरे तौर पर प्रभावित करती हैं। अतः एक शांतिपूर्ण और सुंदर विश्व की स्थापना लैगिंक समानता से ही संभव हैं। पुरुषवादी पूर्वाग्रहों को समाप्त करके वास्तविक रुप से महिला समानता की स्थापना करनी होगी तभी आदर्श समाज व आदर्श राज्य का निर्माण किया जा सकता है लैगिंक समानता ही सतत विकास का आधार हैं। |
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भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव | अन्तर्राष्ट्रीय अभिकारणों, राष्ट्रीय सरकारों एवं गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों से सभी देशों में लैंगिक समानता के प्रयास किये जाने लगे हैं। महिलाओं के विकास, रोजगार, शिक्षा स्वास्थ्य से संबंधित योजनाएं और अभियान शुरू किये गए हैं। इन प्रयासों के सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं फिर भी लिंगाधारित भेदभाव को मिटाने हेतु बहुत कुछ किया जाना शेष है। 1. महिला शिक्षा से समाज एवं स्वयं महिलाओं के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जा सकता है। शिक्षित माता-पिता अपनी लड़कियों के साथ भेदभाव नहीं करते हैं। अतए शिक्षा का उच्च स्तर प्राप्त होने पर लड़कियों के साथ पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर होने वाला भेदभाव स्वतः समाप्त हो जाएगा। 2. महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता बढ़ाकर कानून, व नीतियों का निर्माण तथा उनकी क्रियान्विति सही ढंग से की जा सकती हैं। संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण बिल पारित किया जाना चाहिये। फिनलैण्ड में सना मरीन दुनिया की कम उम्र में प्रधानमंत्री बनी है इससे प्रेरणा लेते हुए अन्य देशों को भी महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि करनी चाहिए। 3. महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने में संचार माध्यमों की विशेषतौर पर टी.वी व सिनेमा की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। महिलाओं के प्रति सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने वाले धारावाहिक व फिल्में बने। 4. महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के लिए पृथक न्यायालय, त्वरित न्याय व अपराधियों के लिए कठोर सजा की व्यवस्था हों। 5. आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं को सशक्त बनाया जाना अति आवश्यक हैं। रोजगार में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के लिए कार्य स्थल पर अनुकूल वातावरण सृजन, आवागमन हेतु सुगम व सुरक्षित व्यवस्था हो। एक ही काम के लिए किसी महिला को कम और पुरूष को ज्यादा वेतन देने की प्रथा को अवैध घोषित किया जायें। आइसलैण्ड में ऐसा किया गया भी है। 6. अनेक बार महिला स्वंय भी शोषक की भूमिका में होती हैं। कन्या भ्रूण, हत्या, दहेज घरेलू हिंसा, लड़की लड़के की परवरिश में भेदभाव इत्यादि में परिवार की बुजुर्ग महिलाएं ही आगे रहती है। इससे यह बुराई समाप्त होने के बजाय बढ़ जाती है अतः महिला स्वयं भी अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाये, जागरूक बने, एकजुट होकर लैंगिक भेदभाव का विरोध करें 7. महिलाओं के साथ बराबरी का व्यवहार कर उन पर होने वाले अत्याचारों को रोकना है तो समाज की मानसिकता को बदलने का अभियान सतत चलाया जाना चाहिए। 8. लैंगिक भेद मिटाने के लिए बदलती हुई परिस्थितियों में पुरूषवादी मानसिकता में परिवर्तन करना होगा। 9. सदियों से चली आ रही दूषित परम्पराएं रूढ़ियां, मान्यता, धार्मिक विचार जो लैंगिक असमानता को बढ़ावा देती है। उन्हें एक दिन में समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसके लिए व्यापक पैमाने पर समाज का प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक माध्यम लिंगाधारित भेदभाव को समाप्त करने के अभियान में पूर्ण निष्ठा व शक्ति से साथ दे तो निश्चय ही इसे समाप्त किया जा सकता हैं। 10. स्त्री-पुरुष समानता स्थापित करने के लिए हमें उस प्रक्रिया को ही परिवर्तित करना होगा जो शारीरिक भेद को ’’सामाजिक विभेद’’ में बदल देती हैं। इस प्रक्रिया में सबसे अहम भूमिका परिवार और समाज की तो है ही साथ ही, शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो सकती हैं। स्वीडन के दूगालिया प्री-स्कूल ने इस दिशा में पहल की है वहां लड़का-लड़की तथा हिज व हर शब्द प्रतिबंधित है। इसके पीछे स्कूल का उद्देश्य यही है कि बच्चों में लैंगिक भेदभाव नहीं पनपे। 11. पुरुष प्रधान समाज की सोच बदलने हेतु स्वंय महिलाओं को ही आगे आना होगा। शिक्षित एवं जागरूक महिलाएं अपनी सोच को उदार बनाएं। एक बेटी, बहन, मां, पत्नी और सास के रूप में अपनी भूमिका में परिवर्तन लाएं। घर में पुत्र-पुत्री के बीच समान परवरिश ,समान कार्य विभाजन करें, पुत्र को भी घर के कार्य करने हेतु मानसिक रूप से तैयार करें, और पुत्र में स्त्री के प्रति सम्मान के भाव रखना सिखाना होगा। बेटी को बेटे के समान अधिकार देकर उसे शिक्षित एवं आत्मनिर्भर बनाएं। परिवार में बहू को उचित सम्मान देकर, स्त्रियों पर लगाई गई अनावश्यक वर्जनो को समाप्त करके स्त्रियां इस समस्या का समाधान कर सकती हैं। 12. समाज में सभी वर्गों के लोग अंधआस्था के स्थान पर तर्क का सहारा ले महिला विरोधी कुरीतियों, धार्मिक, मान्यताओं को तर्क से दूर करें। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. Astone Pande : Explaning Son Preference in Rural India 2007: The independent role of Structural versus individual factors : population Research and Policy Review 26%1%29
2. डी.डी. बासु: भारत का संविधान, Lexisnexis Delhi 2015
3. स्वामी विवेकानंद: कोलम्बो से अल्मोड़ा तक व्याख्यान - अद्वैत आश्रम अल्मोड़ा
4. वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट: सूचना एवं सांख्यिकी विभाग
5. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय: भारत सरकार - वार्षिक प्रतिवेदन
6. घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005
7. The Global Gender Gap Report 2013 : World Economic Forum, Switzerland
8. रीता सक्सेना: महिला अधिकार एवं कानून जागरूकता प्रावधान एवं उपयोगिता, रितु पब्लिकेशन्स जयपुर 2010
9. कमला भसीन: भला यह जेंडर क्या है ? अनु0 वीणा शिवपुरी जागोरी प्रकाशन, नई दिल्ली 2003
10. प्रो.एल.बी. शर्मा: संविधान और महिला अधिकार, भूषण साहित्य केंद्र दिल्ली 2012
11. आशा कौशिक: नारी सशक्तिकरण, विमर्श एवं यथार्थ पाईटर पब्लिर्शस जयपुर 2004
12. राम प्रसाद व्यास: भारतीय नारी परिवर्तन एवं चुनौतियां राजस्थान ग्रंथागार, जोधपुर 2009
13. लोकसभा सचिवालय: शोध एवं सूचना प्रभाग दिल्ली
14. एम.लक्ष्मीकांत: भारतीय राजव्यवस्था Mc graw Hill Delhi 2018
15. समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं
16. विभिन्न ई - संन्दर्भ |