ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- IX October  - 2022
Innovation The Research Concept
भारतीय परिप्रेक्ष्य में साहित्य और कृषि जीवन के सहसंबंध का अध्ययन
Study of Correlation of Literature and Agricultural Life in Indian Perspective
Paper Id :  16748   Submission Date :  2022-10-05   Acceptance Date :  2022-10-21   Publication Date :  2022-10-25
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जय बहादुर उत्तम
शोधार्थी
राजनीति शास्त्र विभाग
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (केन्द्रीय विश्वविद्यालय)
लखनऊ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
आज का युग विज्ञान का युग है इस युग में व्यक्ति, हमारा समाज बहुत प्रगति कर रहा है, यह प्रगति इतना अधिक हो गयी है कि मनुश्य ही मनुश्य को खा जाने का तैयार है। इगलैंड से भारत तक का औद्योगिक क्रांति का सफर और भारत में हरित क्रांति होने से कृशि उत्पादन में काफी बदलाव आया है परन्तु किसान किसी न किसी रूप से शोशित और प्रताड़ित रहा है। जिसकी अभिव्यक्ति उपन्यासकारो ने की है। किसानो के संघर्शमय जीवन को केन्द्रीय बिंदु बनाकर बहुत सारे विधाओ में कृशि जीवन की गाथा को गाया गया है। इस आर्टिकल में किसानो के जीवन एवं साहित्य के सहसंबंध के बारे में चर्चा की गयी है। यह सहसंबंध सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों को केंन्द्र बिंदु बनाकर किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Today's era is the era of science, in this era man, our society is progressing a lot, this progress has become so much that man is ready to eat man. The journey of industrial revolution from England to India and the green revolution in India has brought a lot of change in agricultural production, but the farmer has been exploited and oppressed in one way or the other. expressed by the novelists. The story of agricultural life has been sung in many genres by making the struggling life of farmers the central point. In this article, the correlation between the life and literature of farmers has been discussed. This correlation has been done by making both the positive and negative sides as focal points.
मुख्य शब्द साहित्य, किसान, कृषक जीवन, सहसंबंध।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Literature, Farmer, Farmer life, Correlation.
प्रस्तावना
साहित्य समाज को देखने का एक अच्छा जरिया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में साहित्य और कृषक के कृषि जीवन पर बहुत सारे शोध और चर्चाए हुई है, इन चर्चाओं से देखने को मिलता है कि कृषक उचित श्रम के बाद भी सामाजिक शोषण का शिकार होता था। हमारी संस्कृति का मूल स्रोत कृषि है भारत में 900 ईसा पूर्व तक पौधे उगाने फसलें उगाने का काम शुरू हो गया था। आज वैज्ञानिक प्रगति ने मानव को अभूतपूर्व साधन दिए हैं, जिसके कारण मानव ने आसाधारण सफलता प्राप्त की। समय की मांग के अनुसार कृषि के उत्पादन मे परिर्वतन होना लाजमी है, क्यिोकि आज का भारत प्रेमचन्द्र के भारत से काफी बदला हुआ है। किसान हम सिर्फ उसी को नही कहते जिसके पास भूमि है, अपितु वे लोग भी किसान है जिनके पास भूमि नही है, लेकिन फिर भी खेती करते है-खेतिहर मजदूर, पटृटेदार, बटाई, चरवाहे भूमिहीन किसान है, इसके साथ मुर्गीपालक, मधुम्खीपालक, मछुवारे, बागवान, गैर-कार्पोरेट, बगान मलिक, रेशम उत्पादक, वर्मीकल्चर और कृषीवानिकी जैसे विभिन्न खेती सम्बन्धी व्यवसायों आदि मे लगे व्यक्ति। हलांकि किसान कौन है? सरकार कि कोई स्पष्ट परिभाषा नही है।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य साहित्य और कृषि जीवन के सहसंबंध का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

साहित्य और समाज परस्पर अन्योन्याश्रित हैं साहित्य का समाज की अनुपस्थिति में कोई महत्त्व नही है और समाज का साहित्य की अनुपस्थिति में। मूलरूप से साहित्य का उद्देश्य  जन-कल्याण से संबंधित विचारो को अभिव्यक्ति करना हैं। सबका साथसबका विकास व सबका विश्वास  की वास्तविकता जिस साहित्य में समायी होती हैवह साहित्य समाज को एक नयी दिशा देता है। साहित्य बदलाव की शक्ति रखता हैवह समाज की मनोदशा के साथ चलता हैयह समाज में निर्मित विकृत व्यवस्था के विरूद्ध वातावरण के सृजन का कार्य करता है। कृषि  भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरूदण्ड है। कृषि का  सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका योगदान भले ही लगभग 16 प्रतिशत हैलेकिन देश की विशाल जनसंख्या को रोजगार प्रदान करने एवं समाज में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने में प्रथम स्थान पर है।

मुख्य पाठ

साहित्य को किसी परिभाषा में समेटना कठिन काम हैपरंतु कुछ विद्वानो एवं विचारको ने अपनी-अपनी दृष्टि से साहित्य को परिभाषित करने की कोशिश की है जिसमें धूमिल ने लिखा है- ‘‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है’’ यहीं पर मैथ्यू अर्नाल्ड ने लिखा है- ‘‘कविता जीवन की व्याख्या करती है अतः साहित्य जीवन की व्याख्या खुद है’’, इसके बावजूद कालरिज ने साहित्य के बारे में लिखा -‘‘सर्वोत्तम शब्दो का सर्वोत्तम क्रम है’’। एक पाश्चात्य विद्वान लुई द बानोने ने कहा है- ‘‘साहित्य समाज की अभिव्यक्ति है’’

किसी भी राज्य तथा देश के विकास में किसानो की अहम् भूमिका होती है। इनकी उपस्थिति संसार को सततता प्रदान करती हैजिससे देश विकास के मार्ग पर हमेशा गतिशील रहता हैपरंतु देश और दुनिया को गति प्रदान करने वाले इस घटक को जो सम्मान हमारे देश मे मिलना चाहिए था वह अधिकारिक सम्मान केवल बौद्ध कालीन भारत को छोड़कर दूसरे किसी काल में नही मिला। ज्योतिबा राव फूले की अमर कृति किसान का कोड़ा’ का उल्लेख करना उपयुक्त मालूम पड़ता है फूले ने 19वीं शताब्दी में किसानो और मजदूरों की इस दीन-हीन अवस्था के कारणो को जांचा उन्होने इन कारणो का खुलासा करके तथा शूद्र किसानो के रक्षार्थ एवं उनकी समस्या की ओर ध्यान खींचने के लिए 1883 में इस पुस्तक का लेखन किया।

शूद्र किसान बनावटी व अत्याचारी हिंदू धर्मसरकारी विभागो में ब्राह्मणो की बहुलता एवं भोग बिलासी अंग्रेजसरकारी अधिकारी बाह्मण कर्मचारियो की सलाह के सहारे रहते थेऔर इस कारण किसान ब्राह्मण कर्मचारियो द्वारा सताए जाते रहे है। फूले के अनुसार किसानों की दुर्दशा का मूल ‘‘अविद्या‘‘ है उनके अनुसार किसानों के तीन प्रकार हैं शूद्र किसान अर्थात कुर्मी (कुनबी)माली और गडरियें। फुले ने अपनी पुस्तक  के प्रथम भाग में ब्राह्मणों द्वारा किसानो के शोशण की करुड़ व्यथा कही है। वे कहते हैं की ब्राह्मण पुरोहित धर्म के नाम पर इन निरक्षर शूद्र किसानों को साल भर  बचपन से लेकर मृत्यु तकगर्भावस्था से लेकर तीर्थयात्रा तक किसी न किसी पाखडी अंतहीन कर्मकांड में उलझा कर रखते है और उससे दान दक्षिणा उगाहते हैं। किसानों के पास उनके परिवारों के भोजन के लिए ना तो पर्याप्त अन्न है और न पहनने के लिए वस्त्र।

अतः कहा जा सकता है कि फूले द्वारा किसानों  की जीवन से संलग्न समस्याओं का लेखन आधुनिक भारत का सर्वप्रथम प्रभावशाली एवं प्रेरणादायी प्रयास था। किसान कोई साधरण मनुष्य नही होता वह एक ऐसा प्राणी होता हैजिसमें समूचे जगत को पालने की क्षमता उसे संस्कारों से मिली होती है। मुंशी  प्रेमचन्द जी ने अपनी विभन्न कृतियों में किसान की गाथा को इस प्रकार उकेरा हैजिससे पता चलता है कि किसान अपनी जमीन के मालिकाना हक से मजदूर बनने तक के सफर को तय किया परंतु उन्होंने आत्महत्या की बात नहीं कही। बीती सदी के दूसरें व तीसरे दशक की औपनिबेशिक व्यवस्था में किसानों की जों स्थिति थी आजादी के 75 साल बाद क्या हालात हैं उसके बारे में हमें रोज संचार के माध्यम से रुबरु होने का अवसर मिलता है।

प्रेमचन्द ने 1918 में प्रेमाश्रय में किसानों के दूसरे वर्ग के लोगों के साथ संबंध का वर्णन किया है। इसमें किसान का पहला शोषक चपरासीदूसरा जमीदारतीसरा ब्रिटिश नौकरशाही करती है। किसान के जीवन का महाकाव्य गोदान का नायक होरी मात्र उपन्यास  का नायक नहीं हैवरन वह भारतीय किसान का प्रतिनिधि चरित्र भी है। वह ईश्वरवादीमानवतावादीपरंपराओं तथा रुढियों का पालन करने वालाभीरु एवं व्यवहार कुशल है। ग्रामीण परिवेश में बदलाव हो रहे हैं किसान और जमीदार दोनों टूट रहे हैंहोरी अपनी मरजाद को बचाने के लिये हाड़तोड़ परिश्रम करता है क्योंकि भारत जैसे कृषि  प्रधान देश में खेती केवल जीविका का साधन नही हैंसम्मान की वस्तु भी हैं। होरी अपने 3 बीघा खेत बचाने के लिये तमाम ऐसे कार्य करता हैं जो उसकी मरजाद के प्रतिकूल हैं। उसका विश्वास हैं कि खेती में जो मरजाद हैंवह नौकरी में तो नही हैं। होरी न अपनी मरजाद को संभाल पाता हैंना भूमि कोउसका पुत्र गोबर शहर का रूख करता हैं। किसान मरजाद की रक्षा समूचे जीवन कष्ट सहकर भी करता है। इस मेहनतकश वर्ग को लूटने के लिए शासनजमीदारपूंजीपतिपुरोहितधर्मगुरूमहाजन आदि षड्यंत्र करते रहते है। इन विकट परिस्थितियो का किसान डटकर मुकाबला करता है।

साल 1924 मे प्रेमचंद ने 3 कहानियां लिखी मुक्तिमार्गमुक्तिधन और सवा सेर गेहूं। मुक्ति मार्ग में स्पष्ट  किया है कि खेत में फसल तैयार होने से उसे गर्व की अनुभूति होती है तथा फसल नष्ट होने से वह मुरझा जाता है। मुक्तिधन में खेती करना कितना दुसाध्य होता जा रहा है। उसमें नैतिक चिंता भी बनी थी कि किसानो को किस तरह बचाया जाए इसके लिए समस्याओं के कारणों को इंगित करना आवश्यक  है।

‘‘सवा शेर गेहूँ‘‘ में 20 वर्श तक गुलामी करने के बाद शंकर के देहान्त पर तो सवा शेर गेहूँ के कर्ज में रूपये 120 उसके सिर पर सवार थें जिसके भुगतान के लिए उसके बेटे की खबर ली जाती है। इन कहानियों में किसान अंततः हारकर मालिक से मजदूर बन जाते हैं। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक शिवपूजन सहाय का उपन्यास ‘‘देहाती दुनिया’’ किसानों के जीवन का वास्तविक रेखांकन करता है। इसमें पटवारी व दरोगा द्वारा मासूम किसानों पर किये जाने वाले शोशण का वर्णन किया गया है।

कैलाश वनवासी की कहानी ’’बाजार में रामधन’’ इसमें लेखक ने रामधन की कहानी उकेरी है जिसके पास थोड़े से खेत हैं उसका भाई ने दो वर्श पहले 12वीं पास कर ली थीं तथा कॉलेज में इस लिए नहीं पढ़ा क्योंकि बेरोजगारी की मार इतनी है कि वह पढ़ लिखकर नौकरी नहीं कर सकता और नौकरी मिलती भी नहीं। परिवार में बूढ़ी माँ दो बच्चे और एक छोटा भाई मुन्नाकिसानों की स्थिति इतनी दयनीय है कि वह अपने बच्चों को अच्छा भविष्य देने की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

फणीश्वर नाथ रेणु ने बिहार राज्य के पूर्णियां जिला के मेरीगंज की दशा का बखान अपने उपन्यास ‘‘मैला आंचल’’ में बताया है कि अनाज के दाम बढ़ने के फायदा बड़े-बड़े व्यापारी जमीदार तथा साहूकार उठा लेते हैं और छोटे किसान खलिहान से ही जिस दाम पर जमीदार फसल लेता है उस दाम पर उसे बेच देते हैंकर्ज लेने की मजबूरी में ऐसा सब कुछ करना पड़ता है। हिंदी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार लेखक ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने उपन्यास ‘‘दंगे में मुर्गा’’ में लिखा है कि प्रशासन जानता है कि भरे पेट बदमाशी सूझती है जब खाली पेट ही किसान बदमाशी कर रहा है तो पेट भर जाने पर ना जाने क्या करेगा। प्रशासन ऐसा अंधेर नहीं होने देगा। देश को भुखा किसान चहिए जो खाने की आशा में चुपचाप खेतों मे मरता और खपता रहे। देश को नंगा किसान चाहिए जो शर्म से झोपड़ी में छुपा रहे।

चतुर्वेदी जी ने अपने इस व्यंग के माध्यम से यह खुलासा करना चाहा है कि हमारा शासन प्रशासन हमारे किसान बंधुओं के प्रति कितना उपेक्षा पूर्णएवं नकारात्मक नजरिया रखता है। बाबा नागार्जुन कृषक के जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं  वे कृषक के साथ पूरी दयाद्रिता के साथ है। राजकुमार अंबुज लिखते है कि किसान मजदूर में शोषण विरोधी चेतना पनप रही है मजदूर हड़ताल पर लेकिन मजदूरिन काम पर है घर चलाने की मजबूरी है।

‘‘30 साल का सरफनामा‘‘ नामक कहानी में संजीव कहते हैं कि सुरजा का गांव कुसुमपुर स्वतंत्रता के बाद के गांव का एक चलता फिरता दस्तावेज है। साधारण किसान किस प्रकार इस दौर में बद से बदतर जीवन की राह पर है तथा संपन्न किसान और संपन्न होता जा रहा है उनकी इस दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेंदार है। संजीव की कहानी ‘‘पिशाच‘‘ में ढहते हुए समंतवाद की करूण त्रासदी है। कहानी ‘‘राख‘‘ में भारत के गांव के गरीब किसानों की दयनीय स्थिति का वर्णन है। कहानी में लिखते हैं कि मुझे पशुओं के साथ-साथ गांव वाले का इंसानो का भी इलाज करना पड़ता थायदि मैं मना भी करता तो मुझे बाध्य करते और अक्सर लोग ठीक भी हो जाते।

वैज्ञानिकों का मानना है कि पशु से मनुष्य बनने के लिए लाखों वर्शों का सफर तय कियालेकिन गरीबी की मार उन्हें तुरंत ही इन्सान से पशु बनाने पर मजबूर कर देती है। संजीव का उपन्यास ‘‘फांस‘‘ भुमंडलीकृत भारत में किसानों की त्रासदी पर केंद्रित हिंदी का पहला उपन्यास है। यह महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के बनगांव के किसानों एवं मजदूरो के दर्द को बया करता है। शिबू बैंक का पूरा कर्ज चुकाने के बाद भी शोषण तंत्र से हार कर आत्म हत्या कर लेता हैफिर भी शिबू को किसान आत्महत्या की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता हैकारण बताया कि उस पर कोई कर्ज नहीं था। जमीन बाप के नाम पर और आत्महत्या बेटा करें तो किसान द्वारा की गई आत्महत्या नहीं मानी जायेगीऔर न ही सरकारी मुवाअजा मिलेगा। सरकारी अधिकारिओं द्वारा अनेको दाव-पेच लगाकर किसान आत्महत्या के आंकड़ो में कमी की जाती है एवं रकम बचा ली जाती है।

पंकज सुवीर के उपन्यास ’’अकाल में उत्सव’’ में मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के गांव सूखापानी गांव का उल्लेख है। इस गांव का किसान रामप्रसाद दो एकड़ जोत का मलिक है। रामप्रसाद बैंक द्वारा लिये गये कर्ज के फर्जीवाडे़ का शिकार होता है दूसरी तरफ प्रकृति की मार से उसकी सारी फसल बरबाद हो जाती है। बैंक के कर्ज को सुनकर उसे ऐसा सदमा लगता है कि वह आत्महत्या कर लेता हैऔर अंत में भ्रष्ट शासन तंत्र के चलते उसे पागल प्रमाणित कर दिया जाता है।

निष्कर्ष
भारतीय किसान के यथार्थ जीवन का सहित्यिक संसार में विभिन्न विद्वानों एवं चिंतकों ने अपनी कलम से जुबान दी है। ज्योतिबा फूले एवं प्रेमचन्द्र से लेकर संजीव और पंकज सुबीर आदि ने कृषक जीवन का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया गया है। पूर्व में किसान, साहूकार, जमीदार एवं ब्रिटिश सरकार के चन्गुल में फंसा था, तो आज का किसान बिचौलियों, पूंजीपति, कारपोरेट व बैंक अधिकारियों, मीडिया, स्वदेशी सरकार, विश्व व्यापार संगठन आदि के जबड़े में फंसा है। देश तो आजाद हो गया परंतु देश का किसान अभी भी ठीक से आजाद नहीं हो पाया है। ‘जय जवान जय किसान’ का नारा लाल बहादुर शास्त्री द्वारा दिया गया जिससे एक रैंक एक पेंशन (ओ.आर.ओ.पी.) की सहूलियत पाकर जवान तो संवर गए जबकि किसान अभी भी एम.एस.पी. के कानूनी दर्जें की मांग पर अटके हुए हैं। दिल्ली में लगभग एक वर्ष चले किसान आन्दोलन के बाद किसानो के मामले में समिति बनाने का आश्वासन मिला और समिति बन भी गयी, हालांकि किसानों ने विरोधवश अपने प्रतिनिधि समिति मे नहीं सामिल किये। यह किसान ही है, जिन्होंने सर्दी, गर्मी और बारिश तीनों मौसमो एवं कोरोना महामारी की मार झेलते हुए सरकार को 12 बार वार्ता करने एवं तीन कृषि कानून रद्द करने के लिए बाध्य किया। किसानो का यह प्रयास सरकार का किसानों के प्रति संवेदनशील होने एवं भारत में लोकतंत्र के जिंदा होने का परिचायक है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. https://www.vivacepanorama.com/the-importense-and-role-of-agriculture/ 2. राव योगेश, कृषक जीवन की त्रासद महागाथा: किसान का कोड़ा , किसान विशेषांक अपनी माटी अंक-25 अप्रैल-सितम्बर , 2017। 3. शर्मा इन्द्रदेव, किसान के जीवन संघर्ष की त्रिवेणी, किसान विशेषांक, अपनी माटी अंक-25 अप्रैल-सितम्बर, 2017 । 4. कौर संदीप, प्रेमचन्द्र कथा साहित्य: भारतीय किसान की स्थिति, किसान विशेषांक, अपनी माटी अंक-25 अप्रैल- सितम्बर 2017। 5. देवी शर्मिला, हिन्दी साहित्य में किसान विमर्श आई.जे.एच.आर., वोल-7 इस्सयु 5,2021. 6. पाण्डेय प्रतिभा, भारतीय किसान साहित्य के परिप्रेक्ष्य में, शब्द ब्रम्हा, भारतीय भाषाओं की अंतर्राष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अप्रैल 2016। 7. सुवीर पंकज उपन्यास अकाल में उत्सव, ग्यारवां संस्करण, शिवना प्रकाशन, सीहोर म0प्र0, जनवरी 2012।