ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- X November  - 2022
Innovation The Research Concept
उर्वशी की प्रेम व्यंजना
Love Euphemism of Urvashi
Paper Id :  16768   Submission Date :  2022-11-08   Acceptance Date :  2022-11-21   Publication Date :  2022-11-25
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शंभुलाल मीना
सह आचार्य
हिंदी विभाग
स्वर्गीय पंडित नवल किशोर शर्मा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
दौसा,राजस्थान, भारत
सारांश
'उर्वशी' रामधारी सिंह दिनकर की अद्भुत काव्य कृति है। इसमें दिनकर ने प्राचीन कथा स्रोतों को के माध्यम से आधुनिक मनुष्य की पीड़ा को उजागर किया है। दिनकर ने स्त्री- पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना है। उन्होंने आध्यात्मिक अनुभव को साध्य और इंद्रिय भोग को साधना माना है। मनुष्य सन्यास और प्रेम के बीच उलझा रहता है। उर्वशी और पुरूरवा के माध्यम से आधुनिक मनुष्य के द्वंद को प्रकट किया गया है। प्रेम जीवन की आवश्यकता है। दिनकर का पुरूरवा सनातन मनुष्य का प्रतीक है जो रूप ,रस, गंध, स्पर्श और शब्दों से मिलने वाले सुखों से उद्वेलित हैं जबकि उर्वशी सनातन नारी की प्रतीक है जो चक्षु,रसना, घ्राण, त्वचा, स्रोत की कामनाओं का प्रतीक है। इस रचना के माध्यम से वह काम आध्यात्म का संदेश देते हैं। दिनकर पुरुष के भीतर एक ओर पुरुष व नारी के भीतर एक ओर नारी की कल्पना करते हैं। यह स्थिति तब पैदा होती है जब मनुष्य इंद्रियों से परे अतींद्रिय धरातल का स्पर्श करने लगता है। यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद 'Urvashi' is a wonderful poetic work by Ramdhari Singh Dinkar. In this, Dinkar has exposed the suffering of modern man through ancient story sources. Dinkar has considered men and women to be complementary to each other. He has considered spiritual experience as an end and sensual enjoyment as a practice. Man remains entangled between renunciation and love. The conflict of modern man has been revealed through Urvashi and Pururva. Love is a necessity of life. Dinkar's Pururava is the symbol of the eternal man who is excited by the pleasures of form, taste, smell, touch and words, while Urvashi is the symbol of the eternal woman who is the symbol of the desires of the eye, taste, smell, skin, source. Through this creation, he gives the message of Kama spirituality. Dinkar imagines a man within a man and a woman within a woman. This state arises when man starts touching the transcendental plane beyond the senses. This is the spiritual glory of love.
मुख्य शब्द कदर्य (भगवान कृष्ण) मधवा (इंद्र) स्यंदन(रथ) व्रीडा (लज्जा) कुंजी (सरल साधन)।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Kadarya (Lord Krishna) Madhva (Indra) Syandan (chariot) Vrida (shame) Kunji (simple instrument).
प्रस्तावना
'उर्वशी' में दिनकर ने पुरूरवा और उर्वशी के जिस आख्यान को आधार बनाया है उसकी परंपरा वैदिक साहित्य में मिलती है। इस प्रबंध काव्य ( काव्य रूपक) का प्रकाशन 1961 में हुआ था। इसमें 5 अंक है। दिनकर ने उर्वशी की भूमिका में लिखा है कि "आदमी हवा और पत्थर के दो छोरों के बीच झटके खाता है और झटका खाकर कभी इस ओर कभी उस ओर मुड़ जाता है। प्रेम कभी संन्यास और संन्यास कभी प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर सकता क्योंकि प्रेम प्रकृति और संन्यास परमेश्वर है। मनुष्य को सिखाया जाता है कि एक ही व्यक्ति परमेश्वर और प्रकृति दोनों को प्राप्त नहीं कर सकता है।[1] अतः कहा जा सकता है कि दिनकर ने उर्वशी काव्य संग्रह में पुरूरवा और उर्वशी के माध्यम से प्रेम और शृंगार के साथ -साथ आध्यात्मिक पक्ष का निरूपण किया है । उर्वशी में दिनकर ने काम के स्थूल से सूक्ष्म स्तर का वर्णन किया है। इस कृति में पात्र और घटनाएं पौराणिक है किंतु युगानुकूल तथ्यों की व्यंजना की गई है।
अध्ययन का उद्देश्य
उर्वशी और पुरूरवा के माध्यम से दिनकर आज के मनुष्य के द्वंद को उजागर करना चाहते हैं। उर्वशी का नायक एन्द्रिय सुख को महत्व देता है इसलिए देह का तिरस्कार नहीं करता। जीवन में काम की अनिवार्यता को दिनकर भी स्वीकार करते हैं। देवत्व 'गंध' की सीमा में कैद है। इस कैद से मुक्त होना ही मनुष्य होना है। काम का यह निकष देवों को हीन और मनुष्यों को श्रेष्ठ साबित करता है। प्रतिबंध रहित प्रेम नश्वरता का वरदान है। इसी वरदान को प्राप्त करने के लिए उर्वशी अमरत्व की ऊंचाई से उतर कर नश्वरता के धरातल पर कदम रखती है। ऊपर से नीचे की ओर आना हमेशा पतन की व्यंजना नहीं करता। ढलान में भी एक किस्म की गरिमा हो सकती है ।
साहित्यावलोकन

उर्वशी में धरती और स्वर्ग, देव और आत्मा ,मही और आकाश, देव और मनुज मातृ सुख से वंचित अप्सरा नारी और मातृ सुख  भोगने वाली साधारण नारी के द्वन्द्व को उकेरा गया है। मूलत: यह द्वन्द्व काम और योग का द्वन्द्व है। पुरूरवा कहता है-                            

मैं मनुष्य, कामना वायु मेरे भीतर बहती है

              कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन पुलक जगा कर;               

              कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से

              मन का दीपक बुझा, बना कर तिमराच्छन्न हृदय को।

उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा है किंतु वह पृथ्वी पर माँ बनने को तैयार है । माँ बनने में नारीत्व  की गरिमा छिपी है।  पुरूरवा- उर्वशी का आख्यान भावना , हृदय कला और निरुद्देश्य आनंद की महिमा का आख्यान है। वह पुरुषार्थ के काम पक्ष का महात्म्य बताता है। उर्वशी पुरुष अध्यात्म की ओर संकेत करती है। देह में डूब कर ही अदेह तक पहुंचा जा सकता है।

मुख्य पाठ

'उर्वशी' काव्य रूपक का प्रकाशन 1961 ईस्वी में हुआ और 1972 में इसे भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस काव्य  रूपक में 5 अंक है। दिनकर के अनुसार काव्य के दो पात्र उर्वशी और पुरूरवा अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना और पुरूरवा शब्द नाना प्रकार के रव और ध्वनियों से आक्रांत है।[2] उर्वशी के प्रेम के विषय मे संपादक प्रताप जैसवाल कहते हैं कि" उर्वशी में जिस प्रेम का निरूपण किया गया है वह सात्विक है, आध्यात्मिक है, शाश्वत है, सत्य है, वस्तुतः वही प्रेम है, उससे पूर्व कुछ भी है वह प्रेम तक पहुंचने का सोपान मात्र है।[3]  उर्वशी का आख्यान पौराणिक है और इसकी परंपरा वैदिक काल में मिलती है। दिनकर स्त्री- पुरुष को एक दूसरे का पूरक मानते हैं। उन्होंने उर्वशी में प्रेम और श्रृंगार के साथ काम आध्यात्म पर बल दिया है। पुरूरवा और उर्वशी की प्रेम कथा के साथ औशीनरी की दाम्पत्य कथा, च्यवन -सुकन्या की प्रासंगिक कथा का भी उल्लेख किया है। इस कृति के पात्र और घटनाएं पौराणिक है किंतु युगानुकूल तथ्यों की व्यंजना की गई है। संक्षेप में कथावस्तु का सार निम्नानुसार है-(1) प्रथम अंक - इस अंक में पृथ्वी और आकाश की गतिविधियों का पता लगता है। रंभा, सहजन्या और मेनका स्वर्ग और पृथ्वी की प्रेम  कथा को व्यक्त करती है। प्रथम अंक का प्रारंभ महाराजा पूरूरवा  की राजधानी प्रतिष्ठानपुर के सूत्रधार और नटी से होता है ।सूत्रधार कहता है कि" ये अप्सराएं अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए पृथ्वी पर उतरा करती है। अप्सराएं एक सामवेत गान गाती है और वार्तालाप करती है। इसी बीच सहजन्या, उर्वशी और स्वयं को पुरूरवा द्वारा दैत्य से मुक्त करने की कथा सुनाती है। वह कहती है कि मुक्ति के पश्चात उर्वशी पुरूरवा से प्रेम करने लगी है और पुरूरवा भी उसके प्रेम में मग्न हैं।"[4] मेनका रात्रि के समाप्त होने की ओर संकेत करती है ।तभी अप्सराएं समवेत गान गाती हुई आकाश में विलीन हो जाती है। इसके साथ प्रथम अंक समाप्त हो जाता है।


द्वितीय अंक

इस अंक में उर्वशी और पुरूरवा के पुर्वराग का वर्णन है। नारी का लज्जाशील रूप पुरुष को गुमराह भी बना देता है। इस प्रसंग में नारी की भूल का अहसास मदनिका और निपुणिका द्वारा कराया गया है।[5] इस अंक का प्रारंभ राजा पुरूरवा के प्रतिष्ठानपुर के राजमहल में होता है। रानी औशीनरी और उसकी सखियां राजा पुरूरवा के उर्वशी के साथ चले जाने के विषय में वार्तालाप कर रही है। निपुणिका रानी को बताती है कि आप तो राजा पर ही अनुरक्त हो और उन्हीं के लिए पूजा अर्चना करती हो किंतु महाराजा आपको विस्मरण कर गंधमादन पर्वत पर उर्वशी के साथ विचरण के लिए चले गए हैं। महारानी को यकायक विश्वास नहीं होता फिर कहती है कि उर्वशी ने उन पर जादू- टोना कर उन्हें अपने वश में कर लिया है। निपुणिका जब कहती है कि राजा जीवनभर उर्वशी के साथ रहेंगे तो औशीनरी का हृदय कांप उठता है। वह मरने की सोचती है किंतु निपुणिका कहती है कि महाराज लौटकर पुत्र प्राप्ति के लिए नैमिषय यज्ञ आपके साथ करेंगे। यज्ञ में प्रेमिका ही नहीं अपितु अर्द्धागिनी की आवश्यकता होती है। अतः आपको धर्म के लिए जीना पड़ेगा। औशीनरी को इन बातों से प्रबल आघात पहुंचता है। वह नारी को अत्यधिक असहाय एवं निरुपाय कहती है।[6]

तृतीय अंक

इस अंक में प्रेम, सौंदर्य और काम की व्याख्या की गई है। इसमें प्रेम को दैहिकता से लेकर आत्मिक स्तर तक परखा गया है। तृतीय अंक उर्वशी  के कथानक का मेरुदंड है।[7] इसका आरंभ गंधमादन पर्वत पर उर्वशी और पुरूरवा की प्रेम क्रीड़ाओं के साथ होता है। पुरूरवा का मानना है कि कालचक्र बड़ी तीव्रगति से चल रहा है और वह उर्वशी के प्रेम में डूबना चाहता है। उर्वशी के प्रथम साक्षात्कार से ही वह हृदय से उसका हो गया था। इंद्र से उसे मांगना चाहता था लेकिन क्षत्रियोचित भाव के कारण ऐसा नहीं कर पाया।अब मुझे उम्मीद है कि मेरा प्रेम तुम्हें स्वत: ही धरा पर खींच लाएगा और अब मेरी आशा फलवती हो गई है। प्रेमी-युगल प्रेम-समाधि की दशा में निमग्न रहने लगते हैं। उत्तर प्रत्युत्तर  के रूप में उनमें जो प्रेम संवाद छिड़ता है उसमें उर्वशी स्वयं को सनातन नारी का प्रतीक मानती है।[8]

चतुर्थ अंक

इस अंक में उर्वशी का मानवी रूप चित्रित है। यह अंक नारी की पूर्णता का अंक है। नारी परिस्थितियों से मजबूर है, पिता एवं पुत्र में से किसी एक को चुनने की मजबूरी है। वह अपने नवजात शिशु को सुकन्या के पास छोड़कर चली जाती है। सुकन्या बच्चे का पालन- पोषण करती है। वह चित्रलेखा से कहती है "कि पृथ्वी और स्वर्ग के मधुर -मिलन की निशानी उर्वशी के पुत्र में जाने किस के गुणों का प्राधान्य होगा।"[9] सुकन्या को अपने प्रेमी ऋषि के क्रोध की याद आती है। उसी समय उर्वशी का आगमन होता है और उसका मातृ हृदय फूट पड़ता है। उसे भरत के शाप का पता है कि पति के पुत्र को देखते ही उसका पति से विछोह हो जाएगा। उर्वशी अपने अभिशप्त मातृत्व को कोसती है जिसमें पुत्र व पति से बिछुड़ जाएगी। मुझ जैसा दुर्भाग्य अन्य किसी को न भोगना पड़े।[10]

पंचम अंक

इस अंक में सुकन्या और औशीनरी जैसी एकनिष्ठ और सती नारियों के धर्म और कर्तव्य का वर्णन है। इसमें नारी  के त्यागमय , प्रेममय और प्रेरक रूप की प्रतिष्ठा हुई है। इस अंक का प्रारंभ महाराज पुरूरवा के राज प्रसाद में होता है। महामात्य महाराज से प्रश्न करता है कि आपके नेत्रों से चिन्ता की झलक क्यों दिखाई देती है? महाराज इसका कारण एक विचित्र स्वप्न बताते हैं। उस स्वप्न में प्रतिष्ठानपुरवासी  प्रांगण में एक वट पादप लगाते हैं, जिसे महाराज दूध से सींचते हैं। हाथीपर बैठकर महाराज च्वयन ऋषि के आश्रम में पहुंच जाते हैं। आश्रम में एक सभ्य युवक से भेंट होती है, किन्तु महाराज उसे छू नहीं पाते हैं।"[12] ज्योतिषी विश्वमना द्वारा स्वप्न के पल की गणना की जाती है और इस निश्चय पर पहुंचते हैं कि राजा को पुत्र का राज्याभिषेक कर सन्यास ग्रहण करना चाहिए।[13] उसी समय सुकन्या आयु के साथ दरबार में प्रवेश करती है और महाराज को बताती है कि आयु उनका ही पुत्र है। महाराज खुश होते हैं और उर्वशी अदृश्य हो जाती है। सुकन्या महाराज को भरत शाप के विषय में बताती है। महाराज आयु का राज्याभिषेक कर सन्यास ग्रहण कर लेते हैं। उनकी पत्नी महारानी यह सोच कर पछताती है कि महाराज उससे मिलकर नहीं गए।[14] औशीनरी और सुकन्या पत्नी के उत्तरदायित्वों को लेकर वार्तालाप करती है और कथा समाप्त हो जाती है ।

उर्वशी गीतिनाट्य का मूल भाव काम है। पौराणिक संदर्भों से आधुनिक युग की समस्याओं को उजागर किया गया है। पुरूरवा और उर्वशी के माध्यम से आधुनिक युग के द्वन्द्व को प्रकट किया गया है। काम कला की विभिन्न स्थितियों को गीतिनाट्य के माध्यम से दिखाया गया है। लेखक इस नाटक के माध्यम से प्रेम की महत्ता को स्वीकार कर मन के द्वन्द्व को प्रगट किया है। उर्वशी प्रेमपरक गीतिनाट्य है, जिसमें प्रेम के सुकुमार सुमधुर भावों का उत्कर्ष दिखाई देता है। कथावस्तु के नायक- नायिका मिथकीय  प्रेम युगल है।[15]

दिनकर ने प्रतीकों का प्रयोग किया है। निरुक्त के अनुसार आयु का अर्थ मनुष्य भी होता है। इस दृष्टि से मनु और इड़ा तथा पुरूरवा और उर्वशी यह दोनों कथाएं एक ही विषय को व्यंजित करती है। सृष्टि के विकास की प्रक्रिया में कर्तव्य पक्ष का प्रतीक मनु और इड़ा का आख्यान है उसी प्रक्रिया का भावना पक्ष पुरूरवा और उर्वशी का आख्यान है। दिनकर का पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी की प्रतीक है ।उर्वशी की रचना काव्य नाटक के रूप में की गई है और अंको में विभाजन किया गया है। डॉ. सावित्री सिन्हा ने उचित ही कहा है कि "उर्वशी को काव्य रूपकों में भी एक नया प्रयोग माना जाएगा जिसमें कवि ने आख्यान और दर्शन को प्रतीक प्रबंध और दृश्यता के माध्यम से व्यक्त करना चाहा है। इस प्रकार के प्रयोगों की सीमा में भी यह काव्यरूप आकर्षक और सफल बन पड़ा है।"[16] दिनकर के काव्य में क्रोध और भाव दोनों का मिश्रण है। वे अन्याय, शोषण और अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का स्वर सतत उठाते रहे हैं। साहस और कर्मठता उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं हैं। वे ऐसे कर्मठ साधकों में से थे जो अपनी साधना को ही साध्य मानते है। वे न कभी तृप्त होते हैं न कभी थकते हैं ।वे जनता की भावनाओं को वाणी देते रहे हैं। इसीलिए उनकी कविताएं चिंतन परक न होकर देश के लिए जुड़ी हुई है।[17] उर्वशी दिनकर की श्रेष्ठ रचना है। दिनकर ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि "वर्तमान संग्रह उनके लिए है जो उर्वशी को पढ़कर नहीं सूंधकर इसका स्वाद लेना चाहते हैं और वह उनके लिए भी है जो यह भूल गए हैं की श्रृंगारी कविताएं मैंने भी चढ़ती जवानी में लिखी थी।"[18] पुरूरवा-उर्वशी का मिथक उर्वशी में निरुद्देश्य नहीं है। उसका एक स्पष्ट उद्देश्य है- सनातन समझे जाने वाले वेदांती मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा। उर्वशी का काव्य देह से अदेह में संक्रमित हो जाता है, महज  भावोच्छवास द्वारा। अत: उर्वशी वास्तविकता के किसी धरातल को तोड़ने की बजाय हवाई किले बनाने लगती है। उर्वशी का आरंभ नारी सौंदर्य के संबंध में जिस नई संवेदना की उम्मीद जगाता है ,उसका अंत नारीत्व की पिटी- पिटाई सनातनी अवधारणा का साक्ष्य बनता है। दिनकर उर्वशी की भूमिका में लिखते हैं कि यह सृष्टि वास्तव में पुरुष की रचना है इसलिए रचयिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किंतु पुरुषों की रचना यदि नारियां करने लगे तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भाव प्रवण एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा। पुरुष की रचना पुरुष से होगी तो वह त्रासक हो जाता है। पुरुष की रचना नारी करें तो युद्ध की आवश्यकता नहीं होगी। उर्वशी के माध्यम से दिनकर प्राचीन कथानक को आधार बनाकर आधुनिक मनुष्य को 'काम अध्यात्म' का संदेश देते हैं। प्रेम की सार्थकता वात्सल्य की परिणति में है। वात्सल्य में हृदय का विभाजन होता है और यही विभाजन प्रेम की अंतिम सफलता है। नारी पति के समान अपनी संतान को भी चाहती है। संसार के संपूर्ण वैभव को ठुकरा सकती है किंतु इन दोनों से दूर रहना उसके लिए संभव नहीं है।  नारी के भीतर एक ओर  नारी ओर पुरुष के बीच एक ओर पुरुष है। यह स्थिति तब पैदा होती है जब इंद्रियों का अतिक्रमण कर अतींद्रिय  धरातल का स्पर्श करने लगते हैं। यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।

'उर्वशी' काव्य रूपक में मानवीय मूल्यों के उदात्तीकरण पर बल दिया गया है। पुरूरवा - उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर नहीं रुकता, वह शरीर से जन्म लेकर मानव प्राण के गहन गुह्य लोकों में प्रवेश करता है, रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अंतरिक्ष में विचरण करता है। पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए मर्त्यलोक के नाना सुखों  में वह व्याकुल और विषण्ण है। उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज  निश्चिंत भाव से पृथ्वी के सुखों को भोगना चाहती है ।पुरूरवा की वेदना समस्त मानव जाति की वेदना है। आत्मा का धरातल मनुष्य को ऊपर की ओर खींचता है और जैव धरातल नीचे की ओर खींचता है। मनुष्य जब पशुता से अलग हो गया तभी वेदना उसके साथ हो गई। संघर्ष करना मनुष्य का स्वभाव है स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मनुष्य झूलता रहता है। मनुष्य प्रेम और सन्यास के बीच खोया रहता है। उर्वशी पूछती है कि ईश्वर और प्रकृति दो है, क्या ईश्वर प्रकृति का प्रतिबल है, उसका प्रतियोगी है? क्या दोनों एक साथ नहीं चल सकते? प्रेम और सन्यास में संतुलन बिठाना कठिन कार्य है। देवता वह है जो सारी आसक्तियों के बीच अनासक्त है, सारी स्पृहाओं को भोगते हुए भी निस्पृह और निर्लिप्त है। कविता की भूमि केवल दर्द और बेचैनी को जानती है, वासना की लहर और उत्ताप को पहचानती है। मनुष्य समाज की बनी परंपराओं का पालन करता है। बघनखा, नकाब पहनने को अच्छा नहीं मानते हुए भी दूसरों को देखकर पहनता है।  

निष्कर्ष
दिनकर ने'उर्वशी' के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि काम जीवन की अनिवार्यता है ।नर -नारी के बीच प्रेम ही सृष्टि का आधार है। प्रेम जीवन की अनिवार्यता है ।काम अध्यात्म से जीवन को सुखी बनाया जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. राष्ट्रकवि दिनकर और उनकी साहित्य साधना- प्रताप चंद जैसवाल 2. नए सुभाषित प्रेमपद- रामधारी सिंह दिनकर 3. उर्वशी की भूमिका से- दिनकर 4. उर्वशी एक विवेचन- डॉ. कृष्ण देव शर्मा और डॉ. माया अग्रवाल पृ. 11 से 13 5 . दिनकरके प्रबंध काव्य, लोकतत्व एवं शिल्प - डॉ. आर॰पी॰ एस चौहान पृ. 20 6. उर्वशी एक विवेचन-डॉ. कृष्णदेव शर्मा एवं डॉ .माया अग्रवाल पृ. 23,25 7. दिनकर के प्रबंध काव्य, लोकतत्व एवं शिल्प - डॉ. आर॰पी॰ एस चौहान पृ. 20 8. उर्वशी एक विवेचन- डॉ. कृष्ण देव शर्मा और डॉ. माया अग्रवाल पृ.20 9. वही -पृष्ठ 25,27 10 . वही- पृ.17-19 11. दिनकर के प्रबंध काव्य, लोकतत्व एवं शिल्प - डॉ. आर॰पी॰ एस चौहान पृ.20 12. उर्वशी एक विवेचन- डॉ. कृष्ण देव शर्मा एवं डॉ . माया अग्रवाल 19-20 13. दिनकर के प्रबंध काव्य, लोकतत्व एवं शिल्प - डॉ. आर॰पी॰ एस चौहान पृ. 20 14. उर्वशी एक विवेचक- डॉ. कृष्ण देव शर्मा एवं डॉ. माया अग्रवाल पृ .19-20 15. वही- पृ. 19-20 16. वही- 40 17 . दिनकर सृष्टि और दृष्टि- डॉ. छोटेलाल दीक्षित पृ..27 18. उर्वशी की भूमिका रामधारी सिंह दिनकर 1974