P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IV December  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
स्त्री पीड़ा का आख्यान बाबल तेरा देस में
Narrative of Female Suffering in Babal Tera Des Mein
Paper Id :  16801   Submission Date :  2022-12-07   Acceptance Date :  2022-12-07   Publication Date :  2022-12-13
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वन्दना शर्मा
सहायक आचार्य
हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग
जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय
जम्मू,जम्मू-कश्मीर, भारत
सारांश
हिंदी साहित्य में भगवानदास मोरवाल का उपन्यास साहित्य स्त्री शोषण को विभिन्न संदर्भों में परखता है। कभी लिंग, कभी धर्म और कभी बनी बनाई पारंपरिक परिपाटियों पर स्त्री का शोषण होता आया है। इस शोध-पत्र में लेखक के ‘बाबल तेरा देस में’ उपन्यास को आधार बनाया गया है जिसमें स्त्री पीड़ा की परख की गई है। लेखक ने विवेच्य उपन्यास में मुस्लिम धर्म में विभिन्न स्थितियों में हो रहे स्त्री-शोषण की आवाज़ को बुलंद किया हे। अपनी लेखनी के माध्यम से उपन्यासकार ने प्रत्येक कोण से स्त्री-शोषण की आवाज़ उठाने के साथ-साथ उसकी स्थिति में सुधार कैसे किया जाए इस गंभीर समस्या की ओर समाज का ध्यान खींचा है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Bhagwandas Morwal's novel in Hindi literature examines female exploitation in different contexts. Women have been exploited sometimes on the basis of gender, sometimes on religion and sometimes on ready-made traditional practices. In this paper, the basis of the author's novel 'Babal Tera Des Mein' has been made, in which the suffering of women has been examined. The author has raised the voice of women-exploitation happening in different situations in Muslim religion in the novel novel. Through his writing, the novelist has raised the voice of women-exploitation from every angle as well as drawn the attention of the society towards this serious problem of how to improve its condition.
मुख्य शब्द स्त्री-शोषण, अभिशाप, दहेज, शोषण, लिंग-भेद, रूढ़ मानसिकता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Women-Exploitation, Curse, Dowry, Exploitation, Gender-Discrimination, Stereotypical Mentality.
प्रस्तावना
भगवानदास मोरवाल हिंदी साहित्य में समाज के यथार्थ को अभिव्यक्ति देने वाले रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। उपन्यास और कहानी लेखन के माध्यम से समाज के सत्य को उद्घाटित कर कई प्रश्नों को उठाते हैं। इनके उपन्यास हैं - ‘काला पहाड़’ (1999), ‘बाबल तेरा देस में’ (2004), ‘रेत’ (2008), ‘नरक मसीहा’ (2014), ‘हलाला’ (2015), ‘सुर बंजारन’ (2017), ‘वंचना’ (2019), ‘शकुंतिका’ (2020), ‘खानज़ादा’ (2021)। इनके उपन्यासों में समाज के विभिन्न पक्षों यथा - ग्रामीण जीवन, राजनैतिक स्थितियाँ, स्त्री जीवन, जनजातीय जीवन को अभिव्यक्ति मिली है। यह शोध-पत्र उनके उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित) पर केन्द्रित है। इस उपन्यास में लेखक ने स्त्री पीड़ा का चित्रण विभिन्न पक्षों से किया है। दहेज प्रथा, लिंग-भेद इत्यादि के माध्यम से स्त्री जीवन उपेक्षा का शिकार होता है। विवेच्य उपन्यास मुस्लिम धर्म में स्त्री की स्थिति पर केन्द्रित है। उपन्यास समाज की उन परतों को उधेड़ता है जिस कारण स्त्री शोषण का शिकार होती है। शोषण को सहन कर वह जीवन भर उठा-पटक में जीवन जीती है। विवेच्य उपन्यास में स्त्री शोषण के साथ-साथ स्त्री-चेतना को भी बुलन्द आवाज़ मिली है।
अध्ययन का उद्देश्य
समाज में स्त्री शोषण अनेक धरातलों पर होता है। साहित्यकार भगवानदास मोरवाल ने अपने उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ में मुस्लिम समाज में स्त्री की स्थिति और पीड़ा का चित्रण किया है। लेखक ने स्त्री पीड़ा और शोषण का चित्रण किस धरातल पर किया है यह विश्लेषण कर स्त्री शोषण के विभिन्न संदर्भों की पड़ताल विवेच्य उपन्यास के आधार पर करना इस शोध-पत्र का उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

नेहा गुप्ता, “भगवान दास मोरवाल के उपन्यासों में ग्रामीण जीवनशब्द-ब्रह्म, भारतीय भाषाओं की अंतर्राष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका, 17 मई  2016, Vol.-4, Issue-7, EISSN 2320-0871 में प्रकाशित अपने शोध-पत्र में लेखक के संपूर्ण उपन्यासों का ग्रामीण जीवन के संदर्भ में अवलोकन करती हैं।

चंद सिंह, "भगवान दास मोरवाल के उपन्यास बाबल तेरा देस मेंसामाजिक सरोकार का अध्ययनशोध-प्रबन्ध 2017, हिंदी विभाग गुरू काशी विश्वविद्यालय के अन्तर्गत बाबल तेरा देस मेंउपन्यास में स्त्री संबंधित चित्रित समस्याओं यथा शोषण, संघर्ष और चेतना का आकलन करते हैं।

डॉ. वरिन्दरजीत कौर, “भगवान दास मोरवाल के कथा साहित्य में मेवाती समाज के सम्बन्धों का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन” Review of Research' पत्रिका के  जुलाई - 2018, Vol.-7,Issue- 10, ISSN 2249.894X में  प्रकाशित शोध-पत्र में मेवाती समाज के चित्रण के संदर्भ में बाबल तेरा देस मेंउपन्यास की समीक्षा करती हैं।

रुमैसा नज़ीर, “भगवान दास मोरवाल के उपन्यासों में राजनीतिक चित्रण” Journal of Emerging Technoligies and innovative Research पत्रिका के मई - 2019, Volume 6, Issue-5,, ISSN- 2349.5162 में प्रकाशित शोध लेख में स्त्री की राजनीतिक स्थिति का चित्रण बाबल तेरा देस मेंहुआ है के विषय में कहती हैं - बाबल तेरा देस मेंमें स्त्री को लेकर संकीर्ण मानसिकता का दर्शन हमें देखने को मिलता है।

मुख्य पाठ

बाबल तेरा देस मेंउपन्यास में लेखक ने दहेज-प्रथा की प्रताड़ना झेलती स्त्री का चित्रण किया है। दहेज-प्रथा हमारे समाज में सदियों से स्त्री जीवन के लिए अभिशाप सिद्ध हो रही है। इस कुप्रथा के दुष्प्रभाव और इससे स्त्री के जीवन में उपजे दर्द का चित्रण विवेच्य उपन्यास में हुआ है। स्त्री के साथ-साथ उसका परिवार भी इस पीड़ा को झेलकर भी विवशतः दहेज देकर बेटी के वैवाहिक जीवन को बचाए रखना चाहता है। जैनब इस उपन्यास में दहेज के चलते प्रताड़ित होती है और उसे मायके भेज दिया जाता है तब वह खुलासा करती है कि उसकी ननद और सास शादी में मोटर साइकिल लेना चाहती थीं - हाँ, एक दिन मेरी सास और नणद में कुछ ऐसी बात हो रही ही के बिहा में मोटर साइकिल और मिल जाती तो ...।“[1] विवेच्य उपन्यास में स्त्री मानसिकता पर प्रहार है जो स्त्री का ही शोषण करने से नहीं चूकती। जैनब के घर को बसाए रखने के लिए परिवार झुकने के लिए तैयार हो जाता है। जैनब की माँ जमीला अपने जेवर बेचने को तैयार हो जाती है। और खेत गिरवी रखने की बात करती है - बूढ़ी माई, मैं अपणा सारा जेवर बेच दूंगी, एकाध खेत ए गिरवी रखबा दूंँगी पर अपणा या जिगर का टुकड़े की जिन्दगी सगुफ्ता ताईं ख्वार न होण दूँगी।“[2] इस कुप्रथा के विरुद्ध युनुस और जैनब के दादा वली मोहम्मद आवाज़ उठाना चाहते हैं कि यह माँग पूरी न की जाए परन्तु स्थिति यह कि जैनब को पूरा जीवन झेलना न पड़े इसके चलते सब चुप्पी साध लेते हैं - कानून तो दहेज को लेकर भी बहुत सख़्त बने हुए हैं और वह चाहेे तो दहेज-निरोधक के तहत मौलवी अख़्तर अली  सहित, उसके पूरे परिवार को जेल की सलाखों के पीछे भी करवा सकता है लेकिन अन्ततः इसका परिणाम बेकसूर जैनब को ही भुगतना पड़ेगा।“[3] यह विडम्बना है हमारे समाज की कि कुप्रथा के लिए बने बड़े-से-बड़े कानून के बावजूद समाज आवाज़ उठाने से डरता है क्योंकि समाज नहीं चाहता कि स्त्री को जीवन भर तानों का सामना करना पड़े।

स्त्री उत्पीड़न घर की चारदीवारी के भीतर ही शुरू हो जाता है। शोषण करने वाले भी इस चारदीवारी के भीतर अपने ही होते हैं जिन पर वह आँख मूंद भरोसा करती है। इस पर भी इस पीड़ा को वह किसी से कहे उसे मुँह बंद रखने को कहा जाता है। विवेच्य उपन्यास में इसका यथार्थ चित्रण हुआ है। उपन्यास की पात्र जुम्मी अपने ससुर के शारीरिक शोषण की शिकार है। मुँह बंद रख ये सब सहन कर वह जीवन भर प्रताड़ित होती है - मैं चाला सू पीछे आई ही तो एक दिन वली मोहम्मद खेत में सू या हाजी ने घर भेज दियो और इकली पाके मैं धर दबोची। मैंने छुटना की खूब कोशिश करी, लाख दुहाई दी, खूब हाथ-पाँव मारा पर सब बेकार।“[4] अपनों से ही अपनी रक्षा करना कितना मुश्किल हो जाता है स्त्री के लिए कि वह चाहकर भी अपने साथ हुए शोषण को कह नहीं पाती। शोषण सहन करके भी न कहने में भी उसकी विवशता है क्योंकि समाज स्त्री को दोषी ठहराता है। जुम्मी इसी विवशता में बोलने से रह जाती है - एक बार सोची भी के रौल मचा दूँ पर फिर ई सोच के चुप लगागी के या मरद को तो कुछ न बिगड़ेगो ... उल्टी दुनिया मेरो ही मुँ काला करेगी के जब खसम सू पेट न भरो तो सुसरा जा पकड़ो। बस याही बदनामी का डर सू खून को घूँट पीके रहगी ...।“[5] हसीना उपन्यास की एक अन्य स्त्री पात्र है जिसकी इज्जत पर हाथ उसका ससुर ही डालता है परन्तु घर की औरतें ही परिवार की इज्जत का हवाला देकर चुप रहने को कहती हैं। दादी जैतूनी हसीना को समझाते हुए कहती है - हसीना, बेटी अगर तू चाहवे है के या हवेली का पाड़-तिवाड़ (बँटवारा) न होएँ और हम बड़ा-बूढ़ान की पाग न उछले, तो मेरी हाथ जोड़ा सू गुजारस है के अपणी छाती पे घूँसो मार ले। तू यही सोच के सबर कर ले के तेरे साथ कुछ हुओई ना।“[6] हमारे समाज की मानसिकता का खुलासा यहाँ लेखक कर रहे हैं कि स्त्री का शोषण पुरुष करे तब भी बदनामी और लांछनों का डर स्त्री को ही है क्योंकि स्त्री ही दोषी कही जाती है। परिवार की इज्जत का हवाला देकर स्त्री को ही चुप रहने के लिए भावनात्मक स्तर पर विवश किया जाता है। इस विडंबना का चित्रण उपन्यासकार ने किया है।

समाज के यथार्थ को लेखक ने बेबाकी से चित्रित किया है। उपन्यास की एक अन्य पात्र चन्द्रकला भी इस पीड़ा और शोषण को घर में ही होते देखती है और घर जहाँ स्त्री अपने को सुरक्षित समझती है वहीं घर उसके शोषण के अभेद्य किले में तबदील हो जाता है। चन्द्रकला की पीड़ा उसके शब्दों में अभिव्यक्त होती है - कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि अपना ही घर अवैध सम्बन्धों का एक अभेद्य किला बन जाएगा। घर की दीवारें आदमखोर और हिंस्र भेड़ियों की शरणस्थली बन जाएँगी।“[7]

परिवारजनों के इस शोषण को स्त्री बोलेगी भी तो कैसे इसका चित्रण चन्द्रकला की भाभियों के हो रहे शोषण के माध्यम से लेखक ने स्पष्ट किया है। चन्द्रकला अपनी भाभियों के कहने पर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु घर से भाग जाती है।

दूसरी तरफ उपन्यास में लिंग-भेद की समस्या पर भी लेखक ने अपनी लेखनी से यथार्थ स्थिति को चित्रित किया है। बेटे की चाह ही प्रत्येक स्त्री के जीवन को कष्ट में डालती है। बेेटा ही चाहिए की भावना इस तरह समाज की मानसिकता में घर कर गई है कि स्त्री स्वयं भी इससे अछूती नहीं रही। बत्तो के तीन बेटियां हैं परन्तु बेटा न होने से वह अपने आप को समाज की बनी बनाई परिपाटी के अनुसार ही देखती है और दादी जैतूनी से कहती है - नां काकी, या बीरबानी की जात की बिना सपूत जने कोई कदर ही ना है।“[8] सामाजिक ढाँचा ही ऐसे पक्के गढ़ की तरह मजबूत है कि जहाँ पुत्र को जन्म दिए बिना स्त्री का महत्व नहीं।

स्त्री चेतना के सन्दर्भ भी विवेच्य उपन्यास में चित्रित हुए हैं। स्त्री जहाँ रूढ़ मानसिकता के कारण शोषण की शिकार है वहीं उसकी चेतना उसे इन विपरीत स्थितियों में भी बल देती है। यदि स्त्री चेतन हो तो वह इन परिस्थितियों से ऊपर उठकर अपने जीवन को महत्व दे सकती है। शिक्षा प्राप्त कर वह जीवन को नए आयाम दे सकती है। इसलिए आवश्यक  है कि स्त्री शिक्षा के महत्व को समझा जाए। आलोच्य उपन्यास में लेखक ने शकीला के माध्यम से स्त्री शिक्षा को महत्व देने का प्रयास किया है। वह अपने मोहल्ले में लड़कियों को इकट्ठा कर पढ़ाती है ताकि वे अपने पैरों पर खड़ी हो जिम्मेदार और चेतन बनें परन्तु इस कार्य में बाधा भी है क्योंकि  समाज स्त्री-शिक्षा को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं करता है। उपन्यास कथा में बत्तो की बेटी मैना की पढ़़ाई को रोककर उसके गौने की बात की जाती है परन्तु आढ़े आती है वही दकियानूसी सोच। मैना के ससुर को समझाने पर जो  उत्तर मिलता है वह हतप्रभ कर देने वाला है - आखिर हमारी भी कोई इज्जत-आबरू है। एक तो जुआन छोरी ऊपर सु पढ़ी-लिखी। कल कू कोई ऐसी-वैसी बात होगी तो हम कहीं मुँ दिखाण लायक भी न रहंगा।“[9]

धर्म को आधार बनाकर स्त्री जीवन को सदैव पीड़ा देने का सुरक्षित रास्ता निकाल लिया जाता है। विवेच्य उपन्यास में मुस्लिम धर्म के द्वारा बनाई गई नियम-व्यवस्था उनके जीवन में महत्वपूर्ण है जिसका विरोध और समाप्ति संभव नहीं। विवेच्य उपन्यास में विभिन्न मुस्लिम नियमों का चित्रण हुआ है जहाँ स्त्री को मुस्लिम कानून बताकर उसे चुप करवा दिया जाता है। शकीला जब संपत्ति पर अपना अधिकार जताना चाहती है तो युनुस उसे मुस्लिम कानून का हवाला देता हुआ कहता है - मुस्लिम कानून के मुताबिक बेसक एक बेवा को अपना मरहूम शौहर की जादाद में हक हासिल है, पर याहे ई भी बता देओ के हमारा या मेवात में मेवन के रिवाजे-आम के मुताबिक बेटी ए अपना बाप की जादाद में कोई हक हासिल न है।“[10]

शरीअत के कायदों की बात भी आलोच्य उपन्यास में की गई है। मुमताज का वैवाहिक जीवन शरीअत की इन ताकीदों के औरत के हक में होते हुए भी आज पुरुषों को इसको हासिल करने का हक है। मुमताज का शौहर अखलाक नामर्द है। शकीला दादी जैतूनी को बताती है - आपा, कुछ हालात में जिस तरह मर्द को बीवी से तलाक का हक दिया गया है, उसी तरह कुछ हालात में औरत को भी मर्द से खुलअ का हक दिया गया है।“ ... क्योंकि शरिअत के कायदों के खिलाफ इसको हासिल करना आज मर्दों की मरज़ी पर छोड़ दिया गया है।“[11]

पुरुष मानसिकता का चित्रण भी विवेच्य उपन्यास में हुआ है। स्त्री जहाँ सफलता प्राप्त करती है वहीं पुरुष उस पर अपनी नकेल कसे रखना चाहता है ताकि वह उसके हाथ की कठपुतली बनी रहे। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को आरक्षित रखा जाता है परन्तु पुरुष मानसिकता स्त्री को कभी इन कार्यों के लिए स्वीकार नहीं करती। उपन्यास में चाँदमल को जब पता चलता है कि चुनावों में उनके इलाके की सीट महिला के लिए आरक्षित की गई है तो वह छटपटा उठता है। उसका कथन पुरुष मानसिकता को स्पष्ट करता है - तो याको मतलब ई हुओ रामचन्दर के ई मुलक में तो अब इन गाँवन में भी ये बीरबाणी करंगी हमारे ऊपर राज। अब ये देंगी हमन्ने हुकम के हमन्ने कहा करनो है।“[12] इस आरक्षण के हो जाने पर जब शकीला को सरपंच चुनाव के लिए खड़े करने की बात चलती है तो शकीला का पति दीन मोहम्मद पूर्ण विश्वास के साथ उसे अपने हाथ में रखने की बात करता है - बाप, बेसक पढ़ी-लिखी है पर है तो बीरबाणी। तम याकी फिकर मत करो। आखिर याकी नकेल रहेगी तो मेरा हाथन में।“[13]

जहाँ उपन्यास में शोषण की शिकार स्त्री का चित्रण है वहीं शोषण के विरुद्ध प्रतिकार कर स्त्री का अपनी अस्मत बचाने का चित्रण भी दर्ज है जो इस उपन्यास की सफलता है। फत्तू की पत्नी पारों को घर में अकेला पाकर चाँदमल जब उसकी इज़्जत के साथ खिलवाड़ करना चाहता है तो पारो उस पर टूट पड़ती है - फिर क्या था। पारो, पारो नहीं रही। शेरनी की तरह वह चाँदमल पर इनती तेज़ी से झपटी कि जब तक वह कुछ समझ पाता, सिर पर बँधे फेंटे का एक सिरा पारो के हाथ में था और बाकी जमीन पर गिरकर दूर तक खुलता चला     गया।“[14]

शकीला के सरपंच बनने के बाद जब उसका पति दीन मोहम्मद अपने हाथ में ही सब कुछ रखना चाहता है तो वह जागृत होती है अपने इस्तीफा देने के निर्णय को बदल कर बी.डी.ओ ऑफिस जाती है और सभी महिला पंचों को जागृत करती है।

स्त्री यदि आगे बढ़कर कार्य करती भी है तो पुरुष उस पर लगाम रखना चाहता है। शकीला सरपंच बनती है किंतु उसका पति दीन मोहम्मद उसे अपने अनुसार चलाना चाहता है। उपन्यासकार इस पर प्रकाश डालते हैं - पंचायत की जो भी कारवाई होती सरपंच के रूप में दीन मोहम्मद ही उसका प्रतिनिधित्व करता। ... शकीला तथा अन्य महिला पंचों की भूमिका केवल उनके अँगूठे-दस्तखत तक सिमटकर रह गई।“[15]

निष्कर्ष
विवेच्य उपन्यास में भगवानदास मोरवाल ने मुस्लिम धर्म के भीतर हो रहे स्त्री शोषण, स्त्री की सामाजिक स्थिति, स्त्री की पीड़ा और दर्द को तो उकेरा ही है साथ ही स्त्री चेतना को स्वर दिया है ताकि समाज में उसकी स्थिति को सुधारा जा सके। यह तो सत्य है कि सबसे पहले स्त्री को स्वयं जागरुक होना होगा लेकिन समाज में भी जागरुकता आवश्यक है। समाज को उसके शोषण पर चुप्प न साध कर प्रतिकार करना होगा जिससे स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा हो सके और उसे पीड़ा से मुक्त किया जा सके। विवेच्य उपन्यास इन्हीं धुरियों के इर्द-गिर्द घूमता स्थितियाँ स्पष्ट करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.378 2. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,पृ.379 3. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.378 4. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.131 5. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.131 6. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.102 7. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.137 8. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.217 9. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.294 10. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.456 11. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.456 12. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ,पृ.310 13. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.316 14. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ,पृ.39 15. मोरवाल भगवनदास (2004), बाबल तेरा देस में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 318