P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IV December  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
प्राचीन भारतीय शिक्षा में लेखन कला के देशज प्रमाणः एक अवलोकन
Indigenous Evidence of Writing in Ancient Indian Education: An Overview
Paper Id :  16779   Submission Date :  2022-12-12   Acceptance Date :  2022-12-23   Publication Date :  2022-12-25
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अलका तिवारी
प्रवक्ता
प्राचीन इतिहास
इलाहाबाद डिग्री कालेज
प्रयागराज,उत्तर प्रदेश, भारत
नीतू त्रिपाठी
सहायक प्रोफ़ेसर

एम0 के0 पी0 , पी0 जी0 कालेज
देहरादून, उत्तराखंड, भारत
सारांश
भारत में प्राचीन काल में लेखन कला का विकास नहीं हुआ था। पहले आर्य लोग मौखिक रूप से अपने विषयों को सुरक्षित रखते थे। कलान्तर में लेखन कला का विकास ब्राह्मणी लिपि के माध्यम से हुआ। उस समय की भाषा प्राकृत थी। ब्राह्मणी लिपि में प्रत्येक अक्षर एक ध्वनि का सूचक होता है। प्राचीन काल में कहा जाता है कि इस लिपि का विकास स्वयं ब्रह्मा ने किया है। अतः ब्राह्मणी कहलाई। कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि भारतीय आर्यो को लेखन कला का ज्ञान नहीं था। इन्होंने यह विदेशियों से सीखा था। यह कथन सही नहीं है। वर्तमान समय में प्राप्त प्राचीनतम भारतीय लिपियों में ब्राह्मणी और खरोष्ठी है। इन लिपियों के उद्भव पर विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The art of writing was not developed in India in ancient times. Earlier the Aryans used to preserve their subjects orally. Later, the art of writing was developed through the Brahmin script. The language of that time was Prakrit. Each letter in the Brahmin script represents a sound. In ancient times, it is said that this script was developed by Brahma himself. That's why called Brahmin. Some European scholars are of the opinion that the Indian Aryans did not have knowledge of the art of writing. He had learned this from foreigners. This statement is not correct. The oldest Indian scripts found at the present time are Brahmani and Kharosthi. Scholars have presented different views on the origin of these scripts.
मुख्य शब्द लेखन कला का विकास, लिपि, भाषा, ताड़ पत्र, अभिलेख, भूर्जपत्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Development of writing, script, language, palm leaf, inscription, birch leaves
प्रस्तावना
प्राचीन भारतीय शिक्षा के अन्तर्गत भारत के प्राचीनकाल में मानव लेखन कला का विकास नही कर सका। अतः लेखन कला का विकास धीरे-धीरे हुआ। लेखन कला की प्राचीनता के स्थिर प्रमाण नहीं मिलते, वर्तमान समय में प्राचीनतम भारतीय लिपियों में ब्राह्मणी और खरोष्ठी है।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत लेख पाठकों को प्राचीनकाल में भारतीय लिपि की उत्पत्ति, विकास एवं उसके विभिन्न-प्रारूप की जानकारी देता है। प्राचीन समय की असंख्य पुस्तके लिपि के प्राचीन इतिहास का स्रोत हैं एवं लिपिबद्ध रूप में उपलब्ध है। आज डिजिटल दुनिया में लेखन कला का नया रूप देखने को मिलता है। भावों और विचारों की अभिव्यक्ति अब नए आयामों को छू रही है। इंटरनेट के माध्यम से लेखों को पढ़ने के नए-नए माध्यम उपलब्ध है। लेखन की अशुद्धियाँ भी पाठकों और आलोचकों की दृष्टि से बच नहीं सकती है। लेखन कला में भाषा की शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस लेख के माध्यम से लेखक पाठकों को प्राचीन भारतीय शिक्षा में लेखन कला के विकास की ओर एक अवलोकन द्वारा जानकारी देना चाहते है।
साहित्यावलोकन
भारत में प्राचीन काल में लेखन कला का विकास नही हुआ था। पहले आर्य लोग मौखिक रूप से अपने विषयों को सुरक्षित रखते थे। कालान्तर में लेखन कला का विकास ब्राह्मणी लिपि के माध्यम से हुआ। उस समय की भाषा प्राकृत थी। ब्राह्मणी लिपि में प्रत्येक अक्षर एक ध्वनि का सूचक होता है। प्राचीन काल में कहा जाता है कि इस लिपि का विकास स्वयं ब्रह्मा ने किया है। बुद्धजीवियों का मानना था कि सभी लेखन प्राचीन सुमेर (मेसोपोटामिया) में उत्पन्न हुए और सांस्कृतिक प्रसार द्वारा दुनियाभर में फैल गए।[1] कांस्य युग में कई प्रकार की लेखन कलाओं का उदय हुआ। लगभग 3400-3200 ईसा पूर्व लेखन के सबसे पुराने रूपों का प्रमाण मिलता है जिसमें मिट्टी के टैग का इस्तेमाल हुआ।[2,3,4] कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि भारतीय आर्यो को लेखन कला का ज्ञान नहीं था। इन्होंने यह विदेशियों से सीखा था। इसके सम्बन्ध में मैक्समूलर का कथन है कि ‘‘मेरे विचार से पाणिनि की पारिभाषिक शब्दावली में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो लेखन के अस्तित्व की पूर्व-कल्पना करता हो।’’ उनके अनुसार पाणिनि का काल चौथी शताब्दी ई0पू0 है। इस प्रकार उनके विचार से लेखन कला का प्रारम्भ 400 ई0पू0 के भी पश्चात् हुआ।[5] डॉ0 बर्नेल ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि भारतीयों ने फिनेशियन लोगों से लिखना सीखा और फिनेशियन अक्षर से दक्षिणी तथा अशोक लिपि ब्राह्मणी व्युत्पन्न हुई। भारत मे विदेशी 500 ई0पू0 से पहले नहीं आए और न वे 400 ई0पू0 के बाद आए।[6] यूरोपीय विद्वानों के अन्तर्गत विलियम जोन्स, कापलेसियस, डेके, टेलर, व्युलर बर्नेल आदि विद्वान सम्मिलित है। इस मत के अनुयायियों के भी दो दल है। प्रथम दल ब्यूलर आदि की मान्यता है कि भारतीय लिपि की उत्पत्ति उत्तरी सिमेटिक से हुई। द्वितीय दल टेलर व उनके अनुयायियों का है, जो कि भारतीय लिपि को दक्षिण फिनेशियन लिपि से व्युत्पन्न मानता है। इन दोनों दलों का आपसी मतभेद भी इतना तीव्र है कि इनसे किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता क्योंकि दोनों मतों के मतानुयायियों ने अपने-अपने मतों की पुष्टि में जो प्रमाण दिए हैं वे ठोस नहीं है। मात्र कल्पना व अटकलबाजी विधियों से ही उन्होंने अपने मतों को प्रस्तुत किया है। इन दोनो मतों के अनुयायियों द्वारा अपनाई गई शोध पद्धति भी वैज्ञानिक नहीं है। इन्होंने जिस शोध पद्धति को अपनाया है, उससे तो किसी भी लिपि से व्युत्पन्न साबित किया जा सकता है। मेरा विषय उनकी शोध पद्धति की विवेचना करना नहीं है। टेलर और ब्यूलर के मतों की आलोचना के लिए सबसे ठोस साक्ष्य भारत में सिन्धु सभ्यता की खुदाई से प्राप्त मुद्राएँ प्रकट कर देती है। यदि भारतीय लिपि फिनेशियन लिपि से ही व्युत्पन्न है तो निःसन्देह सिन्धु लिपि भी फिनेशयन लिपि से ही उत्पन्न नहीं हुई थी। मध्य कांस्य युग में लगभग 3000 ईसा पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता से मिले भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी स्तर पर सिंधु लिपि के प्रमाण मिलते हैं।[7,8]
मुख्य पाठ

वर्तमान समय में प्राप्त प्राचीनतम भारतीय लिपियों में ब्राह्मणी और खरोष्ठी है। इन लिपियों के उद्भव पर विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये है। ब्राह्मणी लिपि के उद्भव के कुछ विचारकों का मत है कि यह लिपि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुई। अतः ब्राह्मणी कहलाई। ब्रह्मा से उत्पत्ति की बाल मनु संहिता के नूतन संस्करण नारद-स्मृति मनु पर बृहस्पति के वार्तिक, ह्वेनसांग तथा जैनों के समवायांग सूत्र में मिलती है। समवायांग सूत्र की ही कथा पण्णावणा सूत्र में भी दुहराई गई।

बादामी में ब्रह्मा की एक मूर्ति मिली है। इसमें ब्रह्मा के एक हाथ में ताड़-पत्र है।[9] बाद की मूर्तियों में ताड़ पत्र के स्थान पर कागज मिलता है जिसमें लिखावट दिखलाई गई है। इन मूर्तियों में भी इसी कथा की ओर संकेत है।[10] ब्राह्मणी लिपि की उत्पत्ति की कथा चीनी ग्रन्थ फवाङशुलिंन में भी मिली है। ललित विस्तार तथा अशोक के अभिलेख में भी ब्राह्मणी लिपि के उत्पत्ति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।

आधुनिक काल के आलोचक लिपि की उत्पत्ति और विकास के सम्बन्ध में इस ईश्वरीय सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार मानव के विकास के साथ-साथ लिपि का भी विकास हुआ। आदिम मानव को न तो भाषा का ज्ञान था और न ही लिपि का। पहले धीरे-धीरे भाषा विकसित हुई। उसके बाद भावों की भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति होकर, उनको सुरक्षित रखने के लिए लिपि का अविष्कार हुआ। प्राचीन काल में स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए स्मृति-चिन्ह बनाए गये होंगे। आवश्यकता और सुविधा के अनुसार इन चिन्होें में परिवर्तन और परिवर्धन होते रहें। इन्हीं के परिणामस्वरूप लिपि का विकास हुआ।

भारत वर्ष में लेखन और लिपि का विकास अति प्राचीन काल में ही हो गया था। इस तथ्य को प्रायः सभी विचारशील लोगों ने स्वीकार किया है। प्राचीन साहित्य के विकसित और विशाल परिमाण को देखकर जो कि बहुत कुछ मौर्य युग से पहले का है, यह धारणा सही प्रतीत होती है। इस साहित्य की रचना और पठन-पाठन केवल स्मृति के सहारे नहीं हो सकते। वेद-वेदांग, उपवेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि साहित्य इतना व्यापक, बहुमुखी और विस्तृत है कि इसको लेखबद्ध किये बिना सुरक्षित रखना सम्भव नहीं है। प्राचीन साहित्य स्वयं भी लेख प्रणाली की विद्यमानता को संपुष्ट करता है।

प्राचीन व्याकरण, विशेष रूप से पाणिनी व्याकरण विकसित लेखन-प्रणाली का साक्षी है। लेखन के लिए शब्द का प्राचीनतम निर्देश 8000पू0 के पाणिनी प्रणीत व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी में हुआ है।[11]

उस काल में भारत में कितनी लिपियाँ प्रचलित थी उनके क्या नाम थे। इन प्रश्नों के उत्तर के लिए अष्टाध्यायी में कुछ भी नहीं मिलता है। पाणिनि केवल एक यवनावी लिपि का निर्देश करते है। जिसका अस्तित्व उन्हें विदित था। उपनिषदों में वर्णित है कि अक्ष शब्द ब्रह्म के साथ ही वर्णो की ओर भी संकेत करता है।

प्राचीन साहित्य में राजा के कर्मचारियों में ‘‘पुस्तपाल’’ नाम के अधिकारी का उल्लेख है। यह राजकीय आदेशों और कार्यवाहियों को लेखों के रूप में सुरक्षित रखता है।

बौद्ध प्रमाण इस बात के परिचायक है कि भारत में ईसा पूर्व चौथी और छठी शताब्दी के मध्यकाल में, लेखन-कला का व्यापक प्रसार था एवं सामान्य जनता इससे सुपरिचित थी। यह नई वस्तु नहीं थी। इसके विकास में लम्बा समय लगा होगा। बौद्ध साहित्य में लेखन सम्बन्धी लेख, लेखक, अक्षर आदि शब्द तथा काष्ठ, पत्र आदि उपकरणों का उल्लेख है। लेखन साम्रगी के रूप में स्मारको परचित्रित लकड़ी की  गिल्लयाँ पाई गई है।[12]

विद्यारम्भ संस्कार को अक्षरस्तीकरणम्ंभी कहते है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा का आरम्भ वर्णमाला सीखने से होता था। मौर्य युग से पहले के भी शिलालेख प्राप्त हुए है। इनमें एक तो नेपाल की तराई में पिपरवा के स्तूप से और दूसरा अजमेर के समीपवर्ती स्थान से मिला है। राजशेखर ने भारत वर्ष में 18 लिपियों के प्रचलन का वर्णन किया है। संस्कृत काव्य-साहित्य में लेखन प्रणाली के विकास के प्रचुर प्रमाण है। वैदिक साहित्य में बड़ी-बड़ी संख्याओं का भी निर्देश है जो लिखित गणना की सूचक है। एक ओर लेखन के लिए ताड़पत्र का भी प्रयोग प्राचीन भारत में किया जाता था। बौद्ध जातक लेखन सामग्री के रूप में पर्ण का निर्देश करते है। सारे भारत में ताड़पत्र के प्रयोग का सबसे प्राचीन साक्षी ह्वेनसांग सातवी सदी के समय में स्पष्ट है।[13] ताड़ नामक वृक्ष की दो भिन्न जातियो के पत्ते है। ताड़ के वृक्ष दक्षिण भारत का ही देशज वृक्ष था।

अतः अनुमान कर सकते है कि लिखने के लिए इसका उपयोग दक्षिण में प्रचलित था, फिर भारत के दूसरे मार्ग में फैला कश्मीर, पंजाब और राजपूताना में इसका प्रयोग बहुत कम हुआ था। ताड़पत्र पर लिखा हुआ सबसे प्राचीन पुराना हस्तलेख एक नाटक के खण्ड का है जो मोटे तौर पर दूसरी शताब्दी का है।[14] पुस्तकें एवं स्थायी लेख लिखने के लिए ताड़पत्र पहले सुखाये जाते थे और अन्त में चिकने पत्थर से घोटे जाते थे तथा उपयुक्त टुकड़ों में काटे जाते थे।

संस्कृत का भूर्जपत्र भोजपत्र का पत्ता है। हिमालय में उत्पन्न होने वाले भूर्ज की भीतरी छाल को वांछित आकार में काटकर इसका उपयोग किया जाता था। इसके सम्बन्ध में ग्यारहवीं शती में अलबरूनी ने इस प्रकार लिखा है मध्य और उत्तरी भारत में लोग भूर्ज वृक्ष की छाल का प्रयोग करते है।[15] जिसका एक भाग धनुषों पर आवरण चढ़ाने के काम आता है। इसे भूर्ज कहा जाता है। वे एक गज लम्बा और अंगुलिपर्यन्त एक हाथ चौड़ा टुकड़ा लेते है और उसे अनेक ढंगों से तैयार करते है।

भारत में कागज का प्रथम प्रवेश मुसलमानों के द्वारा हुआ तथा सर्वप्रथम 1050 में चीनियों ने इसका निर्माण किया।[16] ग्रीक लेखक निआर्कस् जो ईसा पूर्व 327 में सिकन्दर के भारतीय अभियान में उसके साथ आया था, लिखता है कि भारतीय लोग कपास को काटकर लिखने का कागज बनाते रहे थे।[17] कागज कोई लोकप्रिय लेखनोपयोगी वस्तु न था। ककलीया ककरीका भी वाचक है। जो वस्तुतः कागज के लिए संस्कृत में गढ़े गये शब्द है।[18] सूती कपड़ा भी लेखनीयकरण के रूप में प्रयुक्त होता था और अब भी विशिष्ट कार्यो के लिए विशिष्ट शब्द पट या कार्पासिक पट थे।[19] पट के प्राचीनतम निर्देश आन्ध्रकालीन नासिक अभिलेख में प्राप्त होते है।

इसका प्रयोग भी काष्ठपट्ट लेखन उपकरण के रूप में प्राचीनकाल में बनाया जाता था। यह बांस का होता था। जातकों में लेखन-पट्ट को फलक कहा गया है जो वर्णमाला सीखने के लिए प्रयुक्त होता था।[20] कुछ चिन्हों या अक्षरों से युक्त बांस की शलाकाएं बौद्ध भिक्षुओं के लिए यात्रार्थ पासपोर्ट का काम करती थी।

प्राचीनकाल तथा मध्यकाल में पश्चिमी एशिया तथा यूरोप में लेखन-सामग्री के रूप में प्रायः चर्मपत्र का प्रयोग होता था। भारत में इसका प्रयोग नहीं के बराबर था। बौद्ध साहित्य में लेखन-सामग्री के रूप में चमड़े के प्रयोग का उल्लेख अवश्य मिलता है।[21]

प्रारम्भिक युग से ही उत्कीर्ण-लेखन के लिए तथा उसे चिरस्थाई बनाने की दृष्टि से पाषाण का उपयोग होता था।[22] अभिलेख प्रायः शिलाओं पाषाण-स्तम्भों, फलकों, पाषाण मूर्तियों और पत्थर की वस्तुओं जैसे कलश आदि पर उत्कीर्ण किये जाते थे। बौद्ध सम्राट अशोक विशेष रूप से निर्देश करते है कि उन्होंने अपने आदेशों को पत्थर पर इसलिए खुदवाया  कि वे बहुत समय तक बने रह सके।

मेसोपोटामिया तथा पश्चिमी एशिया के अन्य देशों में लिखने के लिए लोग ईंट का सामान्य उपयोग करते थे। किन्तु भारत में बहुत कम मात्रा में उपयोग किया जाता था। ईंटों पर लिखे कुछ अभिलेख मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। ईटों के अतिरिक्त मृतपात्र तथा मृत्रिका की मुद्राएं भी लेखनोपकरण के रूप में प्रयुक्त होती थी।

पत्थर और ईंट से अधिक स्थाई और सुविधा जनक सामग्री धातु थी। धातु का प्रयोग प्राचीनकाल में बहुत कम प्रयोग किया जाता था। लेखक के लिए प्रयोग होने वाली धातुएं सोना, चांदी, तांबा, जस्ता, पीतल, लोहा और रांगा आदि थे। धनी लोग लिखने के लिए स्वर्णपत्रों का प्रयोग करते थे। [23] उन्हें अक्षर खोदने की रूखानी से खोदा जाता था। पत्थर, ईट, धातु इत्यादि कड़े पदार्थों पर लिखने के लिए जहाँ खुदाई आवश्यक थी, वहां स्याही की आवश्यकता नहीं थी परन्तु भूर्जपत्र, ताड़पत्र, कागज, कपड़ा, चमड़ा इत्यादि कोमल पदार्थों पर लिखने के लिए किसी न किसी प्रकार की स्याही का प्रयोग होता था। भारत में स्याही के लिए प्रयुक्त शब्द मसी था।[22,23,24]

लिखने के औजार साधारण रूप से लेखनी कहे जाते थे। यह शब्द भारत के बड़े-बड़े महाकाव्यों में आता है। कलम, लौह लेखनी, पेन्सिल, नरकुल लकड़ी, लोहा, ब्रुश आदि का प्रयोग हुआ है। औजार के लिए प्राचीन शब्द में वर्णक, वर्णिका, तूलिका, शलाका शब्द का प्रयोग हुआ है। सीधी और समानान्तर रेखाओं को खींचने के लिए रूल का भी प्रयोग होता था। यह लकड़ी का एक टुकड़ा था जिस पर बराबर दूरी पर डोरिया लगी रहती थी। इसे रेखापट कहते थे।[24]

पुस्तकों को लिपिबद्ध कराने की परम्परा के स्पष्ट प्रमाण मिलते है। प्राचीनकाल का सारा साहित्य लिपिबद्ध होने के कारण ही वर्तमान समय में उपलब्ध है। लिपिबद्ध करने वाले को लिपिकार कहते थे। महाभारत लिखते समय व्यास मुनि ने गणेश देवता को लिपिकर के रूप में नियुक्त किया था। विद्यालयों के आचार्य पुस्तकों को लिपिबद्ध कराते थे। बाल्मीकि ने रामायण की रचना अभिनय-प्रबन्ध के रूप में लिखकर और पुस्तकाकार बांधकर शिष्य के द्वारा भरत मुनि के पास भेजी थी। प्राचीन समय में विशाल पुस्तकालय थे जिनमें बहुत अधिक संख्या में लिपिकर होते थे और वे निरन्तर पुस्तकों को लिपिबद्ध करते रहते थे। प्राचीन समय की असंख्य पुस्तकें आज भी लिपिबद्ध रूप में उपलब्ध है।

निष्कर्ष
प्रस्तुत लेख में भारतीय लेखन कला का प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। भारत के प्राचीन काल में लेखन कला की प्राचीनता के स्थायी प्रमाण नहीं मिलते परन्तु आरम्भिक विचारकों ने यह माना कि भारत में लेखन कला का विकास धीरे-धीरे हुआ। इससे पूर्व पठन-पाठन श्रवण परम्परा पर अधारित थी। नवीन शोधकर्ता मानते हैं कि भारतीय आर्यों में लेखन कला की ज्ञान अत्यंत प्राचीन है। ‘ब्राह्मी लिपी’ को सबसे सरल व प्रचलित माना गया। इस प्रकार भारत में लेखन कला का विकास धीरे-धीरे हुआ था। इसके प्रमाण वर्तमान समय में भी उपलब्ध है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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