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पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में महात्मा गाँधी का दृष्टिकोण | |||||||
Approach of Mahatma Gandhi in The Context of Environmental Protection | |||||||
Paper Id :
16863 Submission Date :
2022-12-10 Acceptance Date :
2022-12-22 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
महात्मा गाँधी का मानना था कि लोग अपनी असीमित इच्छाओं के गुलाम होते हैं एवं अधिक से अधिक उपभोग की लालसा रखते हैं जिससे अधिक उत्पादन की माँग होती है। जैसे-जैसे हम विलासिता की वृद्धि की माँग को आगे बढ़ाते हैं, वैसे-वैसे हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जाता है। इस तरह लोगों का लालच पारिस्थितिक समस्याओं का कारण बनता है। गाँधी-दर्शन सादा जीवन और अपनी इच्छाओं को सीमित करने का आह्वान करता है। उनका दर्शन यह मूलमंत्र देता है कि हम किसी भी कार्य को करते समय प्रश्न करें कि इससे स्वयं पर, अपने साथियों पर, समाज और दुनिया पर इसका क्या प्रभाव होगा। उनका जीवन का समग्रतापूर्ण दृष्टिकोण हमें प्रकृति के प्रति करूणामय होने में मदद करता है। गाँधी का आत्मसाक्षात्कार (स्ववचेतना) का विचार मानवीय मूल्यों का एक सूत्र है जो मानव के कार्यों को नियंत्रित करता है और समाज, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के बीच एक संतुलित अन्त र्संम्बन्धं की ओर प्रेरित करता है। यदि मानव-प्रकृति सम्बन्ध असंतुलित होगा तो मनुष्य को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इस प्रकार गाँधी की विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की गहरी शिक्षा एक नैतिक अनिवार्यता बन जाता है। गाँधी को सतत् विकास के मार्ग का वास्तविक अन्वेषक कहा जा सकता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Mahatma Gandhi believed that people are slaves of their unlimited desires and crave for more and more consumption which leads to demand for more production. As we pursue increased demand for luxuries, so does the pressure on our natural resources. In this way the greed of people causes ecological problems. Gandhi-philosophy calls for simple living and limiting one's desires. His philosophy gives the basic mantra that while doing any work, we should question what effect it will have on ourselves, on our fellows, on the society and the world. His holistic approach to life helps us to be compassionate towards nature. Gandhi's idea of self-realization (self-consciousness) is a set of human values that govern human actions and lead to a balanced interrelationship between society, economy and environment. If the human-nature relationship is imbalanced, then man will have to face many challenges. Thus Gandhi's deep teaching of balance between development and environment becomes a moral imperative. Gandhi can be called the real discoverer of the path of sustainable development. | ||||||
मुख्य शब्द | महात्मा गाँधी, सतत् विकास, पर्यावरण, उपभोग, आध्या्त्मिकता। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Mahatma Gandhi, Sustainable Development, Environment, Consumption, Spirituality | ||||||
प्रस्तावना |
विकास का पश्चिमी प्रतिमान प्रत्येक वस्तु को एक संभावित संसाधन के रूप में देखता है। इसलिए पर्यावरणीय संकट उत्पिन्न करके यह पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्वन के लिए विनाशकारी साबित हुआ है। पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता ने मनुष्य का मनुष्य के साथ एवं प्रकृति के साथ सम्बन्धों का व्यावसायीकरण कर दिया है। यह सभ्य्ता भौतिकवाद पर आधारित है एवं प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन को बढ़ावा देकर वर्तमान पर्यावरणीय संकट के लिए जिम्मेदार है। भौतिक प्रगति अपने आप में हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य बन चुका है। भौतिक उन्नति की यह बेलगाम दौड़ मानवता के साथ-साथ हमारे ग्रह के लिए संकट बनती जा रही है। ऐसे में हमें विकास के एक वैकल्पिक मार्ग की आवश्यकता है। वैकल्पिक सतत् विकास के लिए सह खोज हमें गांधी-दर्शन की ओर ले जाती है। गाँधवादी दर्शन मानव जाति की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या पर्यावरणीय सभी समस्याओं का प्रभावी समाधान हो सकता है।
इन समस्याओं का मूल कारण नैतिक समस्याा है। व्यापक रूप से गाँधी दर्शन का उद्देश्य व्यक्तियों की नैतिकता को मजबूत करना है। उनके अनुसार जो अर्थशास्त्र किसी व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को चोट पहुँचाता है, वह अनैतिक है। इस प्रकार गाँधीवादी दर्शन को अपनाना जीवन का एक तरीका है जो निश्चित रूप से सतत् विकास के लक्ष्यै की प्राप्ति की ओर ले जाएगा। गाँधी ने मानवता को सतत् विकास के व्यावहारिक विकल्प दिखाए जो रचनात्मक और टिकाऊ है। उन्होंने चेतावनी दी कि जब आधुनिक सभ्यता प्रकृति के साथ सद्भाव नहीं रखती है और मानव अपनी जरूरतों को कम नहीं करता है, तो सामाजिक, राजनीतिक उथल-पुथल, पारिस्थितिकीय तबाही और अन्य मानवीय त्रासदियाँ एक श्रृंखला के रूप में हमारे सामने उत्पन्न होती है।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. वर्तमान पर्यावरणीय समस्याँओं की समीक्षा करना।
2. महात्मा गाँधी के चिंतन के विभिन्न आयामों को प्रकट करना।
3. पर्यावरण के बारे में महात्मान गाँधी के दृष्टिकोण को स्पष्ट करना।
4. पर्यावरण के विभिन्नं पहलुओं के बारे में महात्मा गाँधी के विचारों की समीक्षा और विश्लेषण करना।
5. वर्तमान में महात्मां गाँधी के पर्यावरण सम्बन्धी विचारों की प्रासंगिकता को स्पष्ट करना। |
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साहित्यावलोकन | शशिकला अलप्पट (2012) ने अपने शोध अध्ययन इन्वाइरनमेन्टल थॉट्स ऑफ गाँधी फॉर ए ग्रीन फ्यूचर में इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि महात्मा गाँधी के समय में पर्यावरण का
मुद्दा इतना गंभीर नहीं था जितना आज है, परन्तु उनके विकास,
प्रौद्योगिकी, आत्म-सुष्टि, ग्राम-स्वराज सम्बन्धी विचार उनकी पर्यावरण सम्बन्धी गंभीरता को
प्रकट करते हैं। उनकी पर्यावरणीय गंभीरता के लिए पर्यावरणीय दर्शन एवं विभिन्न
पर्यावरणविद् उनके आभारी हैं। ब्रज किशोर साहू (2015) ने अपने शोध अध्ययन रीइन्वेंटिंग गांधियन आइडियाज इन
मिटिगेटिंग दि एन्वाइरनमेन्टल क्राइसिस में लिखा है कि पर्यावरण की
वर्तमान स्थिति विकसित प्रौद्योगिकी, वैज्ञानिक खोजों और
आविष्कारों का परिणाम है जिन्होंने मानव को सीमित रूप से प्रकृति के शोषण और
विदोहन हेतु सशक्त बना दिया है। प्रकृति के साथ मानव का दुर्व्यवहान पर्यावरण
प्रदूषण का प्रमुख कारण है। कौशिक दास गुप्ता (2017) ने रेलेवंस ऑफ गांधियन एन्वाइरनटलिज्म में लिखा है कि महात्मा गाँधी
आधुनिकता के आलोचक थे और उनकी आधुनिकता की आलोचना ऐसी सामाजिक व्यवस्था के भविष्य
में प्रकट होने की संभावना व्यक्त करती है कि आने वाले समय में मानव न्यूनतम
समय अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए प्रकृति का शोषण करेगा और स्वयं को अधिकतम
सुख प्रदान करने हेतु वह प्रकृति के विदोहन की सभी सीमायें लांघ देगा। डॉ. मंजुला उपाध्याय (2018) ने महात्मा गाँधी पर्सपेक्टिव ऑन एनवायरनमेंट में गाँधीजी की पर्यावरणीय गंभीरता
को प्रकट करते हुए लिखा है उनका यह विचार था कि लोगों को अधिक से अधिक उत्पादन
करने और अधिक से अधिक उपभोग करने की प्रवृत्ति ने एवं उनकी असीमित इच्छाओं ने
उनको अपना गुलाम बना लिया है। संसाधनों का अति-दोहन पर्यावरणीय संकट उत्पन्न
करता है जो आगे चलकर मानव-अस्तित्व को खतरे में डाल देता है। मिशेल एन.नागलर (2020) ने दि थर्ड हारमनी में लिखा है कि आज युद्ध, गरीबी
और जलवायु संकट जैसी कई समस्याएँ हैं जिनसे निपटने और परिवर्तन की ओर हृदय को स्थानान्तरित
करने के लिये अहिंसा ही एकमात्र शक्ति है, जिसको लेखक तीसरे
सद्भाव के रूप में सन्दर्भित करते हैं। जयतीर्थ राव (2021) ने इकोनोमिस्ट गाँधी में लिखा है कि महात्मा गाँधी को एक प्रबंधन गुरू
और मूल विचारक के रूप में देखने की आवश्यकता है। धर्म, नैतिकता,
मानव, प्रकृति, शिक्षा
और समाज पर उनके विचार समय की बड़ी चुनौतियों के कारण और भी प्रासंगिक हो चले हैं।
डॉ. सतीश चन्द्र कुमार (2022) द्वारा सम्पादित पुस्तक इनहेरेटिंग गाँधी इन्फ्लूएंसेज एण्ड
एक्टीविज्म यह
जाँच करती है कि कैसे महात्मा गाँधी के सिद्धान्त शाश्वत है और उनकी आज विशेष
प्रासंगिकता है। आज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय संकटों के बीच हमें गाँधी में मौलिक करूणा की
विरासत और टिकाऊ दुनिया का सबक मिलता है। |
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मुख्य पाठ |
पर्यावरण पर महात्मा गाँधी के
विचार- आधुनिक युग में मनुष्य जिस तरह से खुद को दुनिया और
पर्यावरण के साथ जोड़ता है, उसके बारे में गाँधी आलोचनात्मक है। यहाँ
प्रकृति को मनुष्य से अलग समझा गया है जिसे मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और चाहतों
को पूरा करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। वे मनुष्य की पशु प्रवृत्ति के बारे
में चिंतित थे जो अपनी भूख की कोई सीमा नहीं जानता। गाँधी के लिए हिन्द स्वराज
स्वैच्छिक सादगी, गरीबी और धीमेपन में सुंदरता देखने का
प्रयास है। गाँधी ने प्रकृति के करीब और साहचर्य में रखने का प्रयास किया। प्रकृति
के साथ साहचर्य की प्राचीन परम्पराओं ने उन्हें आकर्षित किया।उन्होंने कहा कि
अपने पूर्वजों का सम्मान करो कि कैसे उन्होंने प्रकृति के साथ धार्मिक भावनाओं
को जोड़ा ताकि यह संरक्षित, पोषित और सम्मानित हो, जो उनकी दूरदर्शिता का प्रतीक है। मानव जीवन प्रकृति के अक्षुष्ण नियमों
द्वारा शासित होने के कारण उन्हें यह विश्वास हो गया कि इसकी पृष्ठभूमि में ईश्वरीय
शक्ति निहित है। वे चाहते थे कि लोग प्राकृतिक नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करे
ताकि वे हमेशा खुश, समृद्ध और स्वस्थ रहें। यदि मनुष्य
आन्तरिक रूप से प्रकृति के नियमों से जुड़ता है तो वह ईश्वर के साथ होने को अनुभव
कर सकता है। वे प्रकृति के गहरे रहस्यों को ईश्वर की अलौकिक शक्तियों का
प्रतिबिम्ब मानते थे। प्रकृति से सम्बन्धित उनके विचारों को पर्यावरण-आध्यात्मिकता
कहा जा सकता है जिसे मानव और पर्यावरण के बीच आध्यात्मिक सम्बन्ध की अभिव्यक्ति
के रूप में परिभाषित किया गया है। वर्तमान समय के पारिस्थितिक संकट और इसके
संभावित खतरों की चिंता ने इस अवधारणा को और अधिक प्रासंगिक बना दिया है। इस
अवधारणा को एक उपभोक्तावादी और भौतिक समाज से खुद को मुक्त करने की इच्छा के
रूप में समझा जा सकता है। इसमें सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रकृति
संरक्षण के महत्वपूर्ण तत्वों के रूप में मान्यता दी गई है। आध्यात्मिकता हमें
प्रकृति के प्रति करूणा का भाव सिखाती है। गाँधी का आत्मसाक्षात्कार (स्वचेतना)
का विचार मानवीय मूल्यों का एक मुद्दा है जो मानव के कार्यों को इस प्रकार
नियंत्रित करता है जिससे समाज, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण
के बीच एक संतुलित अन्तर्संम्बन्ध बना रहता है। यदि यह असंतुलित होगा तो
प्राकृतिक विक्षोभ का सामना करना पड़ेगा। इस प्रकार यह गहरी शिक्षा विकास की अनिवार्यता बन
जाती है। गाँधी को सतत् विकास की शिक्षा का वास्तविक प्रेरक कहा जा सकता है।
दुनिया को बनाये रखने की जिम्मेदारी के इंसानों की है। हम मानते हैं यह पृथ्वी
और इसके विविध जैविक और अजैविक तत्व ईश्वर की पवित्र रचना है। गाँधी का मानना था
कि जिन वस्तुओं को हम बना नहीं सकते, उनको नष्ट
करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। गाँधी ने अहिंसा का पालन करने पर बल दिया,
जिससे किसी प्राणी या मनुष्य को हानि न हो। अर्नेनेस के अनुसार,
गाँधी ने किसी भी व्यक्ति के हितों या जरूरतों के लिए जीने और आत्मसाक्षात्कार
के लिए पल्लवित होने के एक बुनियादी सामान्य अधिकार को मान्यता दी। गाँधी ने
आत्म–साक्षात्कार, अहिंसा और जिसे
कभी-कभी जैवमंडलीय समतावाद कहा जाता है, के बीच आन्तरिक
संबंध को प्रकट किया। 'हिन्द स्वराज' में उन्होंने
कहा कि सिद्धान्तहीन विकास मानवता को आपदा के कगार पर पहुँचा देगा। अधिकांश
पश्चिमी विचारक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण 'प्रकृति पर विजय'
में विश्वास करते थे जो प्रकृति में विद्यमान अन्य सभी कृतियों पर
मनुष्य की श्रेष्ठता और प्रभुत्व को दर्शाता है। लेकिन भारतीय दर्शन पृथ्वी के
पोषण और सुरक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है और जीवन के सभी रूपों और उनके
अन्तर्सम्बन्धों को मान्यता देता है। मानव और गैर मानव सभी जीवन समान मूल्य के हैं और सभी
को अस्तित्व का समान अधिकार है। एक अन्य पारिस्थितिक आयाम 'मनुष्य और प्रकृति की एकता' की अवधारणा है। प्रकृति
जीवन का स्रोत है। अथर्ववेद में कहा गया है "माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:"
अर्थात् पृथ्वी माता है मैं इस पृथ्वी का पुत्र हूँ। इस प्रकार हम कह सकते हैं
कि पारिस्थितिक संकट मूल रूप से एक सांस्कृतिक और दार्शनिक संकट है। हमारा
प्राचीन दार्शनिक चिन्तन जीवों के अस्तित्व को महत्व देता है। केवल मनुष्य ही
नहीं बल्कि जीवन के सभी रूपों, यहाँ तक कि समस्त भौतिक
संसार को महत्व देता है। ईश्वर हर जगह और पदार्थ के कण-कण में व्याप्त है।
गाँधी जी कहते थे कि ईश्वर स्वयं को ब्रह्मांड के असंख्य रूपों में प्रकट करता
है और इस तरह की प्रत्येक अभिव्यक्ति मेरी सहज श्रृद्धा का कारण है। उन्होंने
एक ऐसे विकास पथ की सिफारिश की जिसमें निम्नलिखित सिद्धान्तों को शामिल किया गया
था – (अ) स्थानीय निर्भरता, विशेष रूप
से ग्रामीण क्षेत्रों में, (ब) आधुनिकीकरण और मशीनरी की अस्वीकृति
- गाँधी ने उच्च आर्थिक विकास के लक्ष्य की तुलना में रोजगार को प्राथमिकता दी,
(स) सरल जीवन-शैली जिस पर भौतिकवाद का प्रभाव न हो, (द) पर्यावरणीय स्थिरता के मुद्दे पर संवेदनशीलता। वे वसुधैव कुटुम्बकम और
सर्वोदय में विश्वास करते थे इसलिए संकीर्ण राष्ट्रवाद के स्थान पर प्रगतिशील
अन्तर्राष्ट्रीयतावाद चाहते थे। पर्यावरणीय समस्याओं को अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण
से भी देखने और समग्र समाधान खोजने की आवश्यकता है। वे पाते हैं कि इसके लिए गांव
के हस्तशिल्प और मानव की वास्तविक जरूरतों के लिए श्रम सबसे सटीक उपाय है।
हालांकि जहाँ भी अपरिहार्य हो, वे मशीनरी के उपयोग को स्वीकार करने
के लिए तैयार थे, परन्तु वे उस पर अत्यधिक निर्भरता का
विरोध करते थे। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से वे देखते है कि मशीनरी पर इस निर्भरता ने
प्रकृति के साथ मनुष्य के अविभाज्य संबंध को नष्ट कर दिया था। उनके अनुसार
शारीरिक श्रम में ऐसा स्वाभाविक सम्बन्ध पाया जाता है, जहाँ
उनके बीच कोई मशीन नहीं आती। वे कहते है कि मिट्टी को खोदना और मिट्टी की देखभाल
करना भूल जाना अपने आप को भूल जाना है। मशीनीकरण, जो
पर्यावरण को असंतुलित नहीं करता और शेष प्रकृति के साथ मनुष्य के घनिष्ठ सम्बन्ध
में हस्तक्षेप नहीं करता, उन्हें स्वीकार्य है। ग्रामीणों
को उन मशीनों और औजारों का उपयोग करना चाहिए, जिन्हें वे स्वयं
बना सकते हैं, और वहन कर सकते हैं। वे उत्पादकता बढ़ाने के
लिए रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के खतरों से भी समान रूप से अवगत थे। वे चेतावनी
देते हैं कि ज्यादा और जल्दी मुनाफा कमाने के लिए मिट्टी की उर्वरता का व्यापार
करना एक विनाशकारी और अदूरदर्शी नीति है। गाँधी के अनुसार हमारी प्राथमिक चिंता यह
नहीं है कि दुनिया पर नियंत्रण कैसे किया जाए बल्कि यह है कि प्रकृति के साथ कैसे
रहना है और खुद को कैसे नियंत्रित करना है। भीखू पारेख ने कहा है कि गाँधी का पसंदीदा प्रतिमान
यह है कि ब्रह्मांड कोई पिरामिड नहीं है जिसका आधार भौतिक संसार या प्रकृति है और
मनुष्य शीर्ष, बल्कि यह विभिन्न अवयवों की विस्तृत
श्रृंखला है। उन्होंने हर जीव के लिए सम्मान दिखाया है। धार्मिक अनुष्ठानों के
नाम पर वे जानवरों की हत्या के खिलाफ थे। उन्होंने घोषणा की कि कोई भी धर्म जो
इस तरह की प्रथाओं पर जोर देता है, भगवान की गरिमा को कम
करता है। "यहाँ तक कि वे आधुनिक दवाओं के उपयोग की निंदा करते है क्योंकि
इसमें शोध प्रक्रिया में जानवरों के विरूद्ध हिंसा शामिल है। पर्यावरणीय अवनयन का मूल कारण तेजी से औद्योगीकरण और
भौतिक विकास के जुनून में निहित है। इसने मानव समाज को भौतिक आनंद और समृद्धि तो
दी है लेकिन संसाधनों में कमी और पर्यावरणीय असंतुलन के कारण तथाकथित विकास और
समृद्धि विनाश की ओर जा रही है। इसका स्थायी समाधान प्रकृति के अनुरूप उपयुक्त
वैकल्पिक जीवन शैली में निहित है। हिंद स्वराज में गाँधी ने मानव जाति को आधुनिक
सभ्यता के दुष्प्रभावों के प्रति आगाह किया है। पूर्ण और सार्थक अस्तित्व
प्रकृति के साथ सामंजस्य और अनुरूपता में ही संभव है। गाँधी उस विचारधारा से सम्बन्धित
है जो इलाज के बजाय बचाव में विश्वास करते हैं। गाँधी के अनुसार औद्योगीकरण
प्रकृति और मनुष्य दोनों के शोषण से फल-फूल रही आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण की
ओर ले जाता है। यह प्रदूषण का बड़ा स्त्रोत है। औद्योगीकरण शहरीकरण की ओर ले जाता
है और जीवन को दयनीय बना देता है। आधुनिकता जीवन की दैनिक आवश्यकताओं को कई गुना
बढ़ाकर जटिल बना देती है। यह लोगों की अधिक से अधिक भौतिक सम्पत्ति प्राप्त करने
की अन्धी दौड़ है। इसलिए उन्होंने सरलता, धीमेपन और
लघुता पर आधारित जीवन का सुझव दिया। इसी बात को बाद में ई.एफ. शुमाकर ने अपनी पुस्तक
'स्माल इज ब्यूटीफुल' में अभिव्यक्त
करते हुए कहा कि पूंजीवाद बिगड़ती संस्कृति और पर्यावरण की कीमत पर उच्च जीवन स्तर
लाया है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि विशालता विशेष रूप से बड़े उद्योग, बड़े शहर प्राकृतिक संसाधनों की कमी का कारण बनेंगे। आज भौतिकवाद की भूख
किसी को भी शांति से नहीं दे रही और हम अधिक से अधिक के पीछे भाग रहे हैं।
आधुनिकता जीवन को तेज बना देती है। समय बचाने के लिए इतने सारे उपकरणों का आविष्कार
होने के बाद भी हर किसी के पास समय कम लगता है। गाँधी ने बताया कि गाँव जैसे छोटे
समुदाय में भी अच्छा जीवन व्यतीत किया जा सकता है। यहाँ जीवन में शांति, सादगी और प्रकृति से निकटता रहती है। अत: यह नैतिक है। कृषि और वानिकी स्वाभाविक रूप से नवीकरणीय संसाधन है
जो प्रकृति के साथ सहयोग करते हैं। लेकिन तेल-कोयला-धातु की अर्थव्यवस्था गैर
नवीकरणीय संसाधनों पर आधारित है। गाँधी न केवल दृष्टि से बल्कि मानव-प्रकृति
संबंधों की सही मसझ के मामले में भी पर्यावरणविद् थे। उन्होंने अपने कार्यों से
सन्देश दिया। इसने उन्हें एक भिन्न पर्यावरणविद् बना दिया। लोग अपनी असीमित इच्छाओं के गुलाम होते हैं, जो अधिक से अधिक उपभोग की लालसा करते हैं, जिससे
अधिक उत्पादन की माँग होती है। लोगों के इस लालच को पूरा करने के लिए हमारे
संसाधनों पर दबाव पड़ता है। इसलिए गाँधीवादी दर्शन सादा जीवन और अपनी इच्छाओं को
सीमित रखने का आह्वान करता है, जो हमें सिखाता है कि हम किसी
भी कार्य को करने से पहले सोचे कि इससे स्वयं के लाभ के साथ अपने साथियों,
समाज और राष्ट्र पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। गाँधी के अनुसार उपभोग में संयम होना चाहिए। उन्होंने
लोगों से आग्रह किया कि वे जरूरत से ज्यादा उपभोग न करें। यहाँ आत्मानुशासन का
नियम होना चाहिए। गाँधी के अनुसार आवश्यकता से ज्यादा उपभोग करना दूसरे के प्रति
चोरी है, जिसे इसकी आवश्यकता हो सकती है। उनके
करीबी और सहयोगी जे.बी.कृपलानी बताते हैं कि उन्हें चार-पाँच नीम के पत्तों के
लिए पूरी टहनी तोड़ने की आदत थी। गाँधी जी ने यह देखा तो उन्होंने टिप्पणी की कि
यह हिंसा है। हमें ऐसा करने के लिए पेड़ से माफी मांगने के बाद आवश्यक संख्या में
पत्तियाँ तोड़नी चाहिए। लेकिन आपने तो पूरी टहनी तोड़ दी, जो
बेकार और गलत है। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए व्यापक गरीबी के
साथ आर्थिक विकास का बोझ अनिवार्य वास्तविकता है। यहाँ उपभोग को सीमित करने का
गाँधी का समाधान और भी अधिक प्रासंगिक है। गाँधी जी ने व्यक्तिवाद को ज्यादा
महत्व नहीं दिया। उनका मानना था कि सबकी भलाई में ही व्यक्ति की भलाई निहित है।
इसलिए जब तक जनसंख्या का बड़ा हिस्सा गरीब और भूखा रहेगा, हमारे सामूहिक आत्मसुधार का कार्य अधूरा रहेगा। इन समस्याओं को नजरअंदाज करने से सामाजिक अलगाव पैदा
होगा, भले ही भारतीय अरबपतियों की संख्या में
वृद्धि हो। गरीबों के लिए आर्थिक अवसर सृजित करने का उत्तरदायित्व ग्रहण करने के
लिए हमें गांधीवादी 'सादा जीवन उच्च विचार' अपनाना होगा। चरखा भले ही आज आर्थिक रूप से व्यवहार्य न हो लेकिन जिस
कार्य के लिए गांधी ने इसकी परिकल्पना की थी अर्थात् रोजगार और लोगों के आर्थिक
समावेशन जिन्हें इसकी आवश्यकता है, अभी भी पूरा किया जाना
बाकी है। अमीरों को न केवल अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना चाहिए, बल्कि अपने धन को गरीबों के ट्रस्ट के रूप में मानना चाहिए। यह तभी किया
जा सकता है जब लोग अपनी वास्तविक जरूरतों और कृत्रिम इच्छाओं के बीच अंतर कर
सकें और उन्हें नियंत्रित कर सकें। वास्तविक आवश्यकता का मतलब केवल उस वस्तु
से है जो इस समय के लिए नितांत आवश्यक है। यह विचार न केवल आज के वंचितों की मदद
करेगा बल्कि अगली पीढ़ी के लिए पर्यावरण की रक्षा करने में मदद करेगा, क्योंकि पृथ्वी, हवा, जमीन
और पानी हमारे पूर्वजों की विरासत नहीं, बल्कि हमारे बच्चों
का ऋण है। इसलिए हमें अगली पीढ़ी को वैसे ही सौंपना होगा, जैसे
वह हमें मिली थी। उनकी चिंताएँ केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं थी। उनमें समस्त
जीवन की एकता की प्रबल भावना थी। उनका मानना था कि सभी प्राणियों को भी उतना ही
जीने का अधिकार है जितना की मनुष्यों को। मनुष्य को अपने परिवेश के साथ सद्भावना
से रहना चाहिए। वे अद्वैतवादी भारतीय दार्शनिक प्रणाली के प्रस्तावक के रूप में
मनुष्य और प्रकृति की आवश्यक एकता में विश्वास करते थे। उन्होंने लिखा कि मैं
अद्वैत में विश्वास करता हूँ। मैं मनुष्य की आवश्यकता एकता में विश्वास करता
हूँ और इसके लिए जो कुछ भी है इसकी अनिवार्य एकता में विश्वास करता हूँ। इसलिए,
मेरा मानना है कि यदि एक व्यक्ति आध्यात्मिकता प्राप्त करता है
तो दुनिया उसके साथ लाभ उठाती है और यदि एक आदमी असफल होता है तो पूरी दुनिया उस
सीमा तक असफल होती है। उन्होंने आत्मविकास को सहयोग के बिना असंभव माना। गाँधी
पर्यावरण प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य को इसके नुकसान के बारे में गहराई से जानते
थे। वे विशेष रूप से उद्योगों में काम करने की भयावह स्थिति के बारे में चिंतित थे,
जिनमें श्रमिकों को दूषित, जहरीली हवा में
सांस लेने के लिए मजबूर किया जाता था। गाँधी के मितव्ययिता और सरल जीवन पर जोर
देने का यह मतलब नहीं कि पर्यावरण नैतिकता आनंद की विरोधाभासी है। हमें यह समझ
जाना चाहिए कि व्यर्थ उपभोग में कोई आनंद नहीं है। आनंद प्रकृति के साथ रहने में
निहित है। सुख प्राणियों के शोषण पर आधारित नहीं होना चाहिए। आनंद पृथ्वी को
नुकसान पहुँचाने और प्रकृति को जीतने में नहीं बल्कि रचनात्मक गतिविधियों,
सहयोग और प्रकृति के साथ सामंजस्य में निहित है। पर्यावरणीय
नैतिकता हमें प्रकृति और उसके उपहारों में सामंजस्य की सराहना करना भी सिखाती है।
संवृद्धि और विकास के लिए पर्यावरणीय आयामों को सभी योजनाओं का एक अभिन्न अंग
बनाना चाहिए। यह दृष्टि गांधी के पास थी। एक पर्यावरणविद् के रूप में गाँधी का वास्तविक महत्व
न केवल उनकी दृष्टि और मानव-प्रकृति सम्बन्धों की उनकी समझ में निहित है, बल्कि इस तथ्य में भी है कि उन्होंने इन आदर्शों पर अपने व्यक्तिगत
जीवन को प्रतिरूपित किया। उन्होंने अपनी शिक्षाओं को उदाहरण के रूप में रखा। उनके
आश्रम के पास साबरमती नदी में प्रचुर मात्रा में पानी था, परन्तु
उन्होंने अपने लिए न्यूनतम आवश्यक पानी का उपयोग किया, यह
मानते हुए कि नदी उनकी नहीं है, उन्हें जो आवश्यक है उसका
उपयोग करना चाहिए और बाकी दूसरों के लिए छोड़ देना चाहिए। यह उनकी अपरिपग्रह की
विचारधारा है। पृथ्वी को धरती माता के रूप में माना जाता है, जो जीवों को आश्रय देती है। इसलिए सभी जीवों में देवत्व है। अहिंसा और
शाकाहार में उनकी आस्था ने जीवन के सभी रूपों, समाजों,
संस्कृतियों सहित विविधताओं के संरक्षण के प्रति उनके झुकाव को
निहित किया। उनके लिए जैव विविधता के संरक्षण का सीधा तर्क था कि मनुष्य के पास
जीवन बनाने की कोई शक्ति नहीं है इसलिए उसे जीवन नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं
है। उनका विकास मॉडल ग्रामोन्मुखी विकास पर आधारित था, जहाँ स्थानीय संसाधनों के उचिततम उपयोग से उचित तकनीक के माध्यम से जनता द्वारा उत्पादन किया जाना चाहिए न कि बड़े उद्योगों में बड़े पैमाने पर उत्पादन। यह एक समग्र दृष्टिकोण पर आधारित है जहाँ पर्यावरण अनुकूल शिक्षा, तकनीक एवं संसाधन पर बल दिया गया है। इसके लिए हमारा ध्यान गाँवों पर होना चाहिए, जो आत्मनिर्भर हो। यदि इस विकास प्रतिमान को अपनाया जाता है तो हो सकता है कि आधुनिक अर्थशास्त्र के संकेतकों के अनुसार यह धीमा हो, लेकिन इससे पर्यावरणीय चिंताओं का समाधान, सभी का उत्थान और कम असमानताओं के साथ सतत् विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। |
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निष्कर्ष |
दशकों पहले महात्मा गाँधी ने जिन चुनौतियों की पहचान की थी वे अभी भी गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और सबसे अधिक पर्यावरणीय गिरावट के रूप में हमारे सामने अनसुलझी है। जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़ी आपदाएँ भयानक रूप से मंडरा रही है। यह बात सत्यी है कि आर्थिक विकास की एक सदी के बाद भी, भौतिक प्रगति और उपभोग के उच्चह स्ततर का मतलब विकसित देशों में मानव सुख के उच्च, स्तरर से नहीं है। इतने लम्बेए समय तक इन समस्याओं का बने रहना इस बात का प्रमाण है कि गाँधी ने व्याववसायीकरण और औद्योगीकरण की अन्ततर्निहित आर्थिक प्रक्रियाओं के मूल में जिन मूलभूत कमजोरियों की पहचान की थी, वे आज भी मौजूद हैं। इसलिए गाँधी हमें हमारी आर्थिक प्रक्रियाओं की मूलभूत विशेषताओं को फिर से परखने के लिए प्रेरित करते हैं। गाँधीवादी विचारों को दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में लागू करने से समाज की जीवन शैली अधिक खुशहाल हो सकती है। यह पर्यावरणीय क्षरण को कम करके स्था यी विकास की प्राप्ति का मार्ग है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. टॉफ्लर, एल्विन, फ्यूचर शॉक, रेन्ड म हाऊस, न्यूयार्क, 1970
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