P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IV December  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
विश्व में मानवाधिकार का परिदृश्य एवं भारत
Human Rights Scenario in The World and India
Paper Id :  16857   Submission Date :  2022-12-06   Acceptance Date :  2022-12-20   Publication Date :  2022-12-25
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हंसा शर्मा
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय, चिमनपुरा
शाहपुरा, जयपुर,राजस्थान, भारत
सारांश
मानवाधिकार की संकल्पना विश्व समुदाय के समक्ष एक ऐसी कसौटी है, जिसके आधार पर व्यक्ति, समुदाय, व्यवस्था व राज्यों के उचित व अनुचित होने का निर्णय किया जाता है। मानवीय जीवन को सुरक्षित, शांतिपूर्ण, सद्भावी तथा समाज के लिए सार्थक बनाने की दिशा में मानवाधिकार राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु 1215 के मेग्नाकार्टा से लेकर 10 दिसम्बर 1948 तक UNO द्वारा मानवाधिकारों के अंगीकरण एवं विभिन्न संगठन व संस्थाओं के निर्माण की व्यवस्था के बावजूद भी मानवाधिकारों का प्रश्न समस्त विश्व के लिए चुनौती का प्रश्न बना हुआ है। भारत हो या विश्व अधिकांश राष्ट्रों में मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हो या जीवन काअधिकार, कानून के समक्ष समानता का अधिकार हो या शोषण के विरूद्ध अधिकार,धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार हो या संस्कृति व भाषा के संरक्षण का अधिकार प्रत्येक राष्ट्र का परिवेश, जाति, समाज और राष्ट्रहित मानवाधिकार की संकल्पना को सीमित कर ही देते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The concept of human rights is such a test in front of the world community, on the basis of which it is decided to be fair and unfair of individuals, communities, systems and states. Human rights play an important role at the national and international level in the direction of making human life safe, peaceful, harmonious and meaningful for the society. For the protection of human rights at the international level, the question of human rights remains a question of challenge for the whole world, despite the adoption of human rights by the National Council of India from 1215 to 10 December 1948 and the arrangement for the creation of various organizations and institutions. Human rights are being violated in most of the nations be it India or the world. Whether it is the right to freedom of expression or right to life, right to equality before law or right against exploitation, right to religious freedom or right to protection of culture and language, the environment, caste, society and national interest of each nation, limits the concept of human rights.
मुख्य शब्द मानवाधिकार, राज्य, सरकार, समाज, कानून।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Human Rights, State, Government, Society, Law.
प्रस्तावना
किसी भी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता और सम्मान का अधिकार ही मानवाधिकार है। मनुष्य योनि में जन्म लेने के साथ मिलने वाला प्रत्येक अधिकार मानवाधिकार की श्रेणी में आता है। सभी व्यक्तियों को गरिमा व अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता व समानता प्राप्त है। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर को प्राप्त करने का अधिकार है जो उसे व उसके परिवार के स्वास्थ्य, कल्याण व विकास के लिए आवश्यक है। मानवाधिकारों में आर्थिक, सामाजिक एवं शिक्षा का अधिकार आदि नागरिक और राजनीतिक अधिकार भी शामिल है। मानवाधिकारों व मूल अधिकारों मे के मध्य शरीर व आत्मा का सम्बंध है। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक विधिक व संस्थानिक प्रयासों द्वारा मानवाधिकारों के संरक्षण का प्रयास किया जाता रहा है। भारतीय संविधान में भी मूल अधिकारों के प्रावधान द्वारा न सिर्फ मानवाधिकारों की गारंटी दी गई है, अपितु इनका अल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान भी किया गया है। भारतीय संविधान का उद्देश्य एक ऐसे समाज की स्थापना करना था जो विधि संगत होने के साथ ही मानव हित में भी हो। जिसके अन्तर्गत समस्त देशवासियों को बिना किसी भेद-भाव के समान अवसर, शांति व सुरक्षा के वातावरण में गरिमामयी रूप से जीने का अधिकार मिल सके। किन्तु भारत के विशाल आकार और विविधता, संप्रभुता सम्पन्न, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में प्रतिष्ठा तथा भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप मानवाधिकार की स्थिति जटिल हो गई है।
अध्ययन का उद्देश्य
समसामयिक दृष्टिकोण से मानवाधिकारों का सम्मान गम्भीर चिंतन का विषय बना हुआ है। चूंकि मानव समाज में मौजूद समस्याओं का निराकरण करना मानवाधिकार की संकल्पना का लक्ष्य है, इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मानवाधिकार की संकल्पना का वैश्विक व भारतीय परिप्रेक्ष्य में विश्लेषणात्मक अध्ययन कर मानवाधिकार सम्बंधी घोषणा के वास्तविक क्रियान्वयन सम्बंधी आवश्यकता का प्रकटीकरण प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

उपर्युक्त विषय से सम्बंधित विचारों पर शोधात्मक दृष्टि से अत्यधिक कार्य हो चुका है। विभिन्न पुस्तकों, शोधकार्यों, अनुसंधान अध्ययन व परियोजनाओं के माध्यम से बहुआयामी विचारों का प्रकटीकरण किया गया है। यथा- डॉ. आर कासिलिंगम के अनुसंधान परियोजना ‘प्रवासी कामगारांे को सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने के लिए मानवाधिकार मुद्दों व समस्याओं की पहचान’ (पांडिचेरी विश्वविद्यालय-2022) में प्रवासी कामगारों के मानवाधिकार का विशद् वर्णन किया गया है। सेंटर फॉर एडवांस्ट स्टडीज इन ह्यूमन राइट्स, राजीव गांधी नेशनल यूनिर्सिटी ऑफ लॉ, पंजाब के अनुसंधान परियोजना ‘भारत में स्कूलों में मानवाधिकार शिक्षा’ (2018) में राज्य शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। डॉ. एच.ओ. अग्रवाल की पुस्तक ‘इन्टरनेशनल लॉ एण्ड ह्यूमन राइट्स (सेंट्रल लॉ पब्लिकेशन, 2018) में अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के संदर्भ में मानवाधिकारों का वर्णन किया गया है। डॉ. एस.के. कपूर की पुस्तक’ मानवाधिकार व अन्तर्राष्ट्रीय विधि’ (सेंट्रल लॉ एजेन्सी, 2017) में मानवाधिकार का विधिक परिप्रेक्ष्य वर्णित किया गया है।

मुख्य पाठ

अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं है, जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है। अधिकारों के बिना मानव जीवन के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।[1] प्रारम्भ से ही मानव जाति अपने अस्तित्व को बनाए रखने और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं के प्रति चिन्तित रही है। मानव जाति की इन चिन्ताओं को जब राज्य की मान्यता मिल गई तो वे अधिकार बन गए। अतः मानवधिकारों से तात्पर्य उन अधिकारों से है जो मानव जाति के विकास के लिए मूलभूत है तथा यह मानव को केवल इस आधार पर मिलने चाहिए कि वह मात्र मानव है। मानव द्वारा जो नैतिक, मौलिक अधिकार धारण किये जाते हैं, उन्हें मानवाधिकार कहा जाता है। इस प्रकार वे पारिस्थितियाँ जो मानव को उसके जीवन की रक्षा, व्यक्तित्व के विकास एवं निर्माण के लिए आवश्यक होती हैं, मानवाधिकार की श्रेणी में आती हैं। मानवाधिकारों की परिधि में केवल प्राकृतिक उपहार-हवा, जल इत्यादि ही नहीं आते बल्कि वे सभी उपागम आते हैं जो मनुष्य की प्रतिभा एवं व्यक्त्वि के निर्माण के लिए अनिवार्य होते हैं। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नैतिकता के कुछ मापदण्ड तथा व्यवहार के कुछ नियम है, जिनके आधार पर एक राष्ट्र के व्यवहार के प्रति दूसरे राष्ट्र में प्रतिक्रिया होती है तथा उसके प्रति दृष्टिकोण बनता है। इस मापदण्ड का आधार मानवाधिकार होते हैं।[2] आज विश्व के प्राय सभी लोकतांत्रिक देशों मे न केवल मानवाधिकारों को मान्यता दी गई है अपितु उनके संरक्षण के प्रावधान भी किये गए है।

मानवाधिकार शब्द की मूल संकल्पना में 1215 का मेग्नाकार्टा, 1628 का पिटीशन ऑफ राइट, 1689 का बिल ऑफ राइट्स, 1776 का अमरीकी स्वतंत्रता का घोषणा पत्र, 1789 का फ्रासीसी मानव व नागरिक अधिकार पत्र 1920 में राष्ट्र संघ की स्थापना और 24 अक्टूबर 1945 संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इत्यादि आते हैं। बीसवीं सदी के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंधों के इतिहास में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ने एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा।[3] संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के पीछे का उद्देश्य मानवाधिकारों की रक्षा व शांति की स्थापना है। न्छव् के चार्टर की धारा 68 के तहत 1946 में श्रीमती एलोनोर रूजवेल्ट की अध्यक्षता में एक मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा जून 1948 में तैयार की। इस घोषणा को विश्व शांति की भावना का विकास करने वाले वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबल के जन्म दिवस 10 दिसम्बर, 1948 को स्वीकार कर लिया गया। इस दिवस को मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्व के सभी लोकतांत्रिक देशों ने इन मानवाधिकारों को एक आधारभूत उद्देश्य के रूप में अपने अपने संविधान में प्रतिष्ठित किया।

मानवाधिकार घोषणा पत्र में प्रस्तावना सहित 30 अनुच्छेद हैं। इस घोषणा पत्र में लिखा गया है कि सभी मनुष्य स्वतंत्र  पैदा हुए हैं और उनके समान अधिकार हैं। अतः उन्हें हर प्रकार की स्वतंत्रता व अधिकारों को प्राप्त करने का हक है। अनुच्छेद 1 व 2 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, लिंग, रंग, भाषा व जन्म आदि को लेकर किसी तरह का पक्षपात न किया जाय। अनु. 3 से 21 तक नागरिक व राजनीतिक अधिकारों की घोषणा की गई है। इसके अन्तर्गत जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, कानून के समक्ष सुरक्षा का अधिकार, घूमने फिरने, विचार अभिव्यक्ति एवं धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। अनु. 22 से 27 तक सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसके अन्तर्गत सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम करने व आराम पाने का अधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, स्वास्थ्य व कल्याण का अधिकार आदि हैं। अनुच्छेद 28 से 30 तक इन अधिकारों एवं स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था बनाने की बात कही गई है, साथ ही समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार व कर्त्तव्यों का वर्णन भी किया गया है।[4]

मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर निम्नलिखित संस्थाएं कार्यरत है-

1.1952 में स्थापित इंटरनेशनल कमीशन फॉर ज्यूरिस्ट्स।

2. 1962 में स्थापित इंटरनेशनल लीग फॉर ह्मूमन राइट्स।

3. एमेनेस्टी इंटरनेशनल

4. वर्किंग गु्रप ऑफ दी कमीशन ऑफ ह्यूमन राइट्स

5. दी पालिटिकल कमीशन ऑफ जस्टिस एण्ड पीस

उपर्युक्त संस्थानिक प्रयत्नों के अतिरिक्त 16 दिसम्बर 1966 को महासभा के प्रस्ताव द्वारा मानव अधिकार सम्बंधी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्रों को राज्यों के हस्ताक्षर व पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया गया जिससे अनेक मानवाधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं की अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा संभव हो सके।[5] इस प्रतिज्ञापत्र मंे जिन मानवाधिकारों को प्रोत्साहित व संरक्षित किया गया वे तीन प्रकार के हैं-

1. न्यायपूर्ण व उचित परिस्थिति में काम का अधिकार।

2. सामाजिक संरक्षण, उचित जीवन स्तर और शारीरिक व मानसिक सुरक्षा के लिए उपलब्ध किये जा सकने वाले उच्चतम स्तरों का अधिकार।

3. शिक्षा व सांस्कृतिक स्वतंत्रता एवं वैज्ञानिक प्रगति से मिले लाभांे का आनन्द लेने का अधिकार।[6]

मानवाधिकारों की घोषणाओं पर समय-समय पर वाद-विवाद व संगोष्ठी आयोजित होती रही है, जिन्होंने विश्वभर में मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने का काम किया है। जहाँ जनाधारित सरकारों ने अपनी शासन पद्धति में इन मानवाधिकारों को गरिमापूर्ण स्थान दिया वहीं अनेकानेक मानवीय संगठनों जैसे- एशिया वॉच-एमेनेस्टी इंटनेशनल ने भी इनके संरक्षण हेतु प्रभावी कदम उठाये। अप्रेल 1993 का बैंकाक घोषणा पत्र, जून 1993 में वियना सम्मेलन, मार्च 1994 का जिनेवा सम्मेलन ने भी मानवाधिकारों के संरक्षण की दिशा में कार्य किया। 15 मार्च 2006 को सामान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् की स्थापना की। आज मानवाधिकारों के सम्बंध में सात संघ निकाय स्थापित है-

1.  मानव अधिकार संसद

2.  आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की संसद

3.  जातीय भेदभाव निष्कासन संसद

4.  नारी विरूद्ध भेदभाव निष्कासन संसद

5.  यातना विरूद्ध संसद

6.  बच्चों के अधिकारों का संसद

7.  प्रवासी कर्मचारी संसद।

 इनके अतिरिक्त महिलाओं के समानता व स्वतंत्रता जैसे अधिकारों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र महिला (यूएन वूमेन)  के गठन को जुलाई 2010 में स्वीकृति प्रदान की गई। 1 जनवरी 2011 को वास्तविक तौर पर यूएन वूमेन की स्थापना की गयी। संस्था का प्रमुख कार्य महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को दूर करने तथा उन्हें सशक्त बनाने हेतु कदम उठाना है।

इन सभी प्रयासों के बावजूद मानवाधिकारों को प्रभावी बनाना आज समस्त विश्व के लिए चुनौती का प्रश्न बना हुआ है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में मानवधिकारों का हनन हो रहा है। भुखमरी के कारण लोग जीने के अधिकार से वंचित हो रहे हैं। सोमालिया की भुखमरी, इथोपिया का अकाल, सूडान व अन्य अफ्रीकी देशों की भूख, विकासशील देशों की गरीबी, बाल शोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएँ, बंदियों को बिना मुकदमा चलाये वर्षों तक जेल में रखना, कोड़े लगाना, हाथ काट देना आदि ने मानवाधिकारों की धजिज्याँ उड़ा दी है। विकसित राष्ट्रों में भी कैदियों के साथ बर्बरतापूर्वक व्यवहार, रोगियों को फांसी देना, इत्यादि घटनाएं देखी जा सकती है। एमेनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी रिपोर्ट में पाकिस्तान की सरकार पर फर्जी मुठभेड़, निर्दोष लोगों पर अत्याचार, पुलिस हिरासत में मौत जैसे गम्भीर मानवाधिकारों के हनन के आरोप लगाए हैं।

विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय घोषणाएँ एवं नीतियाँ मानवाधिकारों को सुरक्षित करने के लिए बनाई गई, लेकिन फिर भी समस्त विश्व में मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ देखी जा सकती है। यदि हम मानवाधिकारों के उल्लंघन के कारणों पर दृष्टिपात करें तो पाएंगें कि अज्ञानता, आत्मप्रतिष्ठा और अभिमान इत्यादि दुर्भावना के परिणामस्वरूप मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। इसके अतिरिक्त सत्ता का दमन चक्र, आतंकवादी गतिविधियाँ, बडे़ देशों द्वारा छोटे देशों के संसाधनों का दोहन आदि भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए उत्तरदायी है। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री वारेन क्रिस्टोफर का मानना था कि ‘‘उत्पीड़न, बलात्कार, नस्लवाद, एक पक्षीय हिरासत, जातीय उन्मूलन, राजनीति से अभिप्रेरित हत्यायें आदि मानवाधिकारों के हनन के रूप हैं। अतः संयुक्त राष्ट्र द्वारा विनिर्दिष्ट परम्पराओं के आधार पर मानवधिकारों की अनेक श्रेणियाँ हो सकती है। इनमें नागरिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार, आर्थिक अधिकार, सामाजिक अधिकार और सांस्कृतिक अधिकार प्रमुख है।’’

भारत के संविधान के अध्याय 3 में अनुच्छेद 14 से 30 तथा 32 से 35 तक मानवाधिकारों को मौलिक अधिकारों के रूप में संरक्षित किया गया। मूल अधिकारों को संविधान में स्थान देकर व्यक्ति की स्वतंत्रता व समानता का एक विशिष्ट क्षेत्र स्थापित किया गया है। संविधान में मूल अधिकार वे यंत्र हैं, जिनके द्वारा सरकार की निरंकुशता रोकी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार को राजनीतिक हस्तक्षेप से सुरक्षित किया जाता है। ये अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं। इन अधिकारों में समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार इत्यादि प्रमुख है। मानवीय जीवन को सुखी व समृद्ध बनाना ही इन अधिकारों का उद्देश्य है। विश्व के विभिन्न देशों में जो राजनीतिक व संवैधानिक परिवर्तन हुए हैं। उनसे मानवाधिकारों का महत्व बढ़ा है। विश्व जगत मानवाधिकारों के प्रति सजग होता जा रहा है इसलिए भारत मानवाधिकारों की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध राष्ट्र है। भारत सरकार ने मानवाधिकारों की रक्षा को ध्यान में रखते हुए न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन किया। मई 1993 में मानवाधिकारों के हनन को रोकने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया तथा कई प्रादेशिक आयोग भी गठित किये गए है।[7] अधिकारों के संरक्षण के लिए गठित किये गए इन आयोगों को ना तो बाल शोषण में कमी आयी है और ना ही महिलाओं के उत्पीड़न में। आज भी हम मासूम बच्चों को कारखानों और दुकानों पर काम करते हुए देखते हैं जो कि जीवन के अधिकार का प्रत्यक्षतः उल्लंघन है। महिला उत्पीड़न व महिलाओं के प्रति दुष्कर्म के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगर हो या छोटे गांव सभी जगह महिलाओं की गरिमा और अस्मिता को तार-तार किया जा रहा है। कैदियों की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं हुआ तथा समाज से सामाजिक व आर्थिक शोषण भी समाप्त नहीं हुआ। आज भी भूख व कर्ज के कारण कई लोग आत्महत्या करते हैं। समानता की स्थापना के लिए कई कानून बनंे लेकिन ये कानून लोगों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं ला सके। आज भी समाज में जातिभेद और लिंग भेद जैसी कुप्रवृत्तियाँ विद्यमान है। ‘‘यूएन वूमेन,’ राष्ट्रीय महिला आयोग, घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम जैसे प्रावधान भी नारी की स्थिति में सार्थक सुधार नहीं कर सकें। भारतीय संविधान विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, किन्तु भारतीय परिवेश जाति, समाज व राष्ट्र के हित में उसे सीमित कर देता है। संविधान नागरिकों को कानून के समक्ष समानता व कानून का समान संरक्षण देता है किन्तु कानून व न्याय प्रणाली का दुश्चक्र व न्याय व न्याय पाने के लिए पीढ़ियों का इंतजार इस कानूनी अधिकार को भी छीन लेता है। संविधान शोषण के विरूद्ध अधिकार देता है, किन्तु भाषा, जाति, लिंग भेद की सच्चाई व पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था इसे छीन लेती है। संस्कृति के संरक्षण का अधिकार संसाधनांे के अभाव, उपभोग का विकल्प और की संस्कृति के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया के कारण बेमानी लगता है।

मानवाधिकारों के उल्लंघन का यह सिलसिला भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में जारी है। विश्व में एक भी ऐसा देश नहीं जिसमें नागरिकों को वे सब अधिकार प्राप्त डॉ. जिसका उल्लेख सार्वभौम घोषणा पत्र में है। इस असफलता के पीछे कई कारण देखे जा सकते है-

1. मानवाधिकारों के मुद्दे को राजनीतिक बहस का प्रश्न बनाया जाना।

2. मानवाधिकारों के उल्लंघन की दोषपूर्ण जांच प्रक्रिया।

3. मानवीय अधिकारों के रक्षण हेतु ठोस संगठनात्मक व्यवस्था का अभाव।

4. विकसित राष्ट्रों द्वारा मानवाधिकारों की आड़ में विकासशील राष्ट्रों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना।

मानवाधिकारों की स्थापना तथा उनके संरक्षण व संवर्धन हेतु जो प्रयास अपेक्षित है, उनमें मुख्य है-

1. व्यक्ति व संस्थान के स्तर पर मानवाधिकार के विषय में साक्षरता व जागरूकता बढ़ाना।

2. मानवाधिकारों के मार्ग में उपस्थित बाधाओं को दूर करना।

3. मानवाधिकारों की अवमानना पर कठोर दण्ड का प्रावधान।

4. मानवाधिकारों की स्थापना के प्रयासों की निगरानी, प्रोत्साहन व सकरात्मक उपायों को अपनाने पर जोर।

मानवाधिकारों की घोषणा शांति, सहिष्णुता व सहयोग के लिए की गई थी ताकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास संभव हो सके, लेकिन यह प्रयास असफल हो रहा है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जरूरी है कि मानवाधिकारों के इस घोषणा पत्र को अंतर्राष्ट्रीय कानून का स्वरूप प्रदान करते हुए विश्व के सभी देशों को इस कानून के पालन हेतु बाध्य किया जाये। कई देशों में मानवाधिकार शिक्षण सर्वथा उपेक्षित विषय रहा है, इसलिए यह अनिवार्य कर दिया जाये कि प्रत्येक देश शिक्षण संस्थाओं में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करें। विकसित राष्ट्रों द्वारा मानवाधिकारों की राजनीति का खेल ना खेला जाय, मानवाधिकारों के क्रियान्वयन हेतु देश अपनी राजनीतिक प्रक्रिया पर नहीं अपितु सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था पर पुनर्विचार विचार करें। आदर्श व यथार्थ में अन्तर समाप्त हो। सम्पूर्ण मानवीय जगत के प्रति संवेदना रखते हुए जब हम प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व व अस्तित्व को समानता के स्तर पर लाकर खड़ा करेंगे, अपने अधिकार के प्रति मानव में जागरूकता पैदा करेंगे तभी विश्व में मानवाधिकार अपनी वास्तविक प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकते हैं।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोधपत्र के अध्ययन की विधि विश्लेषणात्मक एवं वर्णात्मक है। अध्ययन सामग्री की प्राप्ति शोधग्रंथों, संदर्भ ग्रंथों एवं प्रतिष्ठित लेखकों की पुस्तकों, आलेखों से की गई है। ‘‘अधिकार मानव जीवन की वे परिस्थितियाँ है जिनके बिना सामान्यतः कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।’’ प्रो. लास्की
निष्कर्ष
मानवाधिकार की अवधारणा सभी प्रकार के विभाजन व वर्गभेद से ऊपर उठकर सहअस्तित्व व गरिमामय जीवन जीने के अधिकार से सम्बंधित है। मानव को मानवीयता के गुण से परिपूर्ण कर तथा मानवीयता कहां तक अखंडित व संरक्षित है के निर्धारण में मानवाधिकार निर्णायक भूमिका निभाते हैं। सम्पूर्ण विश्व में मानवाधिकार गम्भीर चिंतन का विषय बना हुआ है और इसका प्रमुख कारण है- इन अधिकारों का हनन या उनकी अवहेलना। मानवाधिकारों की यह अवहेलना तब अधिक शोचनीय हो जाती है जब किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा जानबूझकर अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए की जाती है। अतः मूलभूत आवश्यकता ऐसा मानदण्ड निर्धारित करने की है, जो मानवाधिकारों की अनुपालना को सुनिश्चित कर सके। मानवाधिकार का क्षेत्र व्यक्ति, समुदाय, संस्था, पर्यावरण आदि विभिन्न स्तरों का स्पर्श करता है। अतः इसके अन्तर्गत आने वाले घर, कार्यालय, बाजार तथा उन सभी संस्थओं के आचरण व व्यवहार की जांच एवं मूल्यांकन की अवधारणा इस परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है ताकि मानवाधिकारों की अनुपालना की वस्तुस्थिति का पता किया जा सके। शासन की ओर से भी यह सुनिश्चित करने का प्रावधान होना चाहिए कि विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी संस्थाएं या विभाग मानव अधिकारों के विषय में कितने सजग है और किस सीमा तक उनकी रक्षा के लिए कटिबद्ध है। मानवाधिकारों की अनुपालना को सामाजिक, ओद्यौगिक, शैक्षिक, कानूनी तथा स्वास्थ्यविषयक सेवा देने वाले संस्थानों की अनिवार्य शर्त बनाया जाये। तथा जो संस्थान या संगठन मानवीय अधिकारों की अनुपालना में असमर्थ सिद्ध होते है, उन्हें दण्डित करने की व्यवस्था भी की जाय तभी मानवाधिकारों की प्राप्ति व संरक्षण की दिशा में किये गए प्रयास सार्थक हो सकते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. फड़िया बी.एल. (2007) ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध’ साहित्य भवन पब्लिकेशन आगरा, पृ.सं. 309 2. पंत पुष्पेश (2010) ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध सिद्धान्त व व्यवहार’ एकेडमिक प्रेस मेरठ, पृ.सं. 569 3. शर्मा प्रभुदत्त (2018) ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध सिद्धान्त व व्यवहार’ कॉलेज बुक डिपो जयपुर, पृ.सं. 271-272 4. न्छव् महासभा की रिपोर्ट, 10 दिसम्बर 1948 5. फड़िया बी.एल. (2007) ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध’ साहित्य भवन पब्लिकेशन आगरा, पृ. सं. 313 6. उपर्युक्त, पृ.सं. 313 7. विदेश मंत्रालय, भारत सरकार, वार्षिक रिपोर्ट 1994, पृ.सं. 701