P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IV November  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
गीतिकाव्य-परम्परा: एक अवलोकन
The Lyric Tradition: An Overview
Paper Id :  16838   Submission Date :  2022-11-18   Acceptance Date :  2022-11-21   Publication Date :  2022-11-25
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पूनम काजल
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
हिन्दू कन्या महाविद्यालय
जींद,हरियाणा, भारत
सारांश
अनादि काल से ही मनुष्य अपने भावों को गीतों में संजोकर व्यक्त करता रहा है। कविता वास्तव में मानव के अन्तःकरण में विद्यमान भावों की ही अभिव्यक्ति है। जीवन और जगत् के विभिन्न पहलुओं की प्रतिक्रिया स्वरूप मानव-मन में जो जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं, यदि उन्हें ही विशिष्ट शैली में कह दिया जाए, तो वही काव्य हो जाता है। वही कथन जब लयात्मकता व गीतात्मकता आदि लक्षणों से युक्त हो जाए, तो वह गीतिकाव्य में परिणत हो जाता है। डॉ0 रामकुमार वर्मा के अनुसार - ”गीतिकाव्य की रचना आत्माभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से होती है। उसमें विचारों की एकरूपता रहती है।“[1]
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Since time immemorial, man has been expressing his feelings by cherishing them in songs. Poetry is actually the expression of the feelings existing in human heart. The curiosities that arise in the human mind as a reaction to various aspects of life and the world, if they are told in a specific style, then they become poetry. When the same narration is imbued with the characteristics of lyricism and lyricism, then it turns into lyric poetry. According to Dr. Ramkumar Verma - "Geetikavya is composed from the point of view of soul expression. There is uniformity of thoughts in it.”[1]
मुख्य शब्द अन्तर्निहित, इतिवृत्तात्मकता, भावान्विति, साधारणीकरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Implicit, Episodic, Sentimental, Generalization.
प्रस्तावना
भारतीय साहित्य में गीतिकाव्य का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यह सत्य है कि मानव-सभ्यता के विकास के साथ-साथ गीतिकाव्य का स्वरूप भी बदलता रहा है, परन्तु गीतिकाव्य में निहित भावप्रवणता व लयात्मकता का महत्व आज भी उतना ही है, जितना प्राचीन काल में समझा जाता था। डॉ0 रामेश्वर द्विवेदी गीतिकाव्य को पारिभाषित करते हुए लिखते हैं- ”गीतिकाव्य वह काव्य है जिसकी आत्मा अन्तर्निहित संगीत से युक्त अपने स्रष्टा की हृदयानुभूतियों का सहज विस्फोट हो और जिसका कलेवर अपनी रचना में किसी नियम का अनुगामी न हो कर भी इतना सुगठित एवं स्वस्थ हो कि भाव के आकलन व विकास में स्वतः समर्थ बने रह कर रसानुभूति कर सके।“[2] एक ओर जहाँ डॉ0 श्याम सुन्दर दास आत्माभिव्यंजन-प्रधान काव्य को गीतिकाव्य मानते हैं, वही डॉ0 नगेन्द्र आत्मनिवेदन और मनोरंजन को गीतिकाव्य के प्रमुख तत्व स्वीकार करते हैं। समग्रतः कहा जा सकता है कि तीव्र भावावेग की अवस्था में कवि के मन में जो विचार आते हैं, उन्हीं सरस व कोमल भावों को संक्षिप्त रूप में लयात्मकता के साथ चित्रण करना ही गीतिकाव्य है। कवि एक ही भाव का चित्रण गीत में करता है क्योंकि तीव्र भावावेग की अवस्था में ही गीत की रचना होती है और ऐसी अवस्था में अन्य भाव गौण होते हैं। अन्तर्मुखी प्रकृति की प्रधानता के कारण ही गीतों का साधारणीकरण शीघ्रता से होता है।
अध्ययन का उद्देश्य
सत्य तो यह है कि काव्य-साहित्य का आदि स्वरूप गीति काव्य है। सुख या दुख की तीव्र भावावेश की अवस्था में मानव की वाणी में लयात्मकता का समावेश स्वतः ही हो जाता है। शब्द के रूप में मानव की अनुभूति का व्यक्त रूप सर्वप्रथम वेदों में ही उपलब्ध होता है। अतः गीतिकाव्य की परम्परा भी वैदिक युग से ही प्रारम्भ होती है।
साहित्यावलोकन
गीतिकाव्य परम्परा पर विपुल शोध कार्य हुआ है, अनेक शोध-पत्र लिखे गए हैं। साहित्य-समीक्षा के फलस्वरूप विभिन्न शोधों एवं पुस्तकों का अध्ययन किया गया, जिसमें हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य परम्परा, उसके स्वरूप व विकास के सन्दर्भ में चर्चा समाहित है। इन अध्ययनों से अपने शोध-पत्र का कार्य आगे बढ़ाने में सहायता मिली। इनमें  डॉ. आर. पी. वर्मा (2016) का शोधपत्र ‘गीतिकाव्य स्वरूप और विकास’ प्रमुख है, जिसके अध्ययन के अन्तर्गत लेखिका ने गीतिकाव्य के स्वरूप के बारे में विस्तार से जाना। डॉ0 शैलेन्द्र कुमार शर्मा (2019) का शोध-पत्र ‘मध्यकालीन कृष्ण-काव्य में संगीतात्मकता’ द्वारा भक्तिकालीन कवियों के काव्य में गीतितत्व का अध्ययन किया व जगदानन्द झा के ‘गीति काव्य परम्परा’ शोध-पत्र के माध्यम से गीति काव्य के उद्भव व विकास के बारे में जाना।
मुख्य पाठ
ऋग्वेद व सामवेद में गीतों का प्रारम्भिक रूप प्राप्त होता है। कही-कहीं तो व्यक्तिगत भावनाओं की भावपूर्ण व्यंजना की गई है। ऊषा को सारी ज्योतियों में श्रेष्ठ बताकर इसे जीवन के अंधकार को दूर करने वाली, सबको जगाने वाली व प्रेरणा देने वाली कहा गया है। वैदिक साहित्य के पश्चात् लौकिक संस्कृत में कहीं-कहीं गीतिकाव्य के चिह्न देखे जा सकते हैं। कालिदास के ‘मेघदूत’ में गीतिकाव्य के कुछ तत्व परिलक्षित होते हैं। वस्तुतः गीतिकाव्य की दृष्टि से जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ को सर्वोतम रचना माना जाता है। हिन्दी गीतिकाव्य की रचना आदिकाल से शुरू होकर आधुनिक काल तक निरन्तर होती रही है। आदिकालीन गीतिकाव्य को धार्मिक और लौकिक में विभाजित किया जा सकता है। धार्मिक साहित्य में सिद्ध, नाथ व जैन साहित्य व लौकिक काव्यधारा के अन्तर्गत वीरगाथा साहित्य की गणना की जा सकती है।
सिद्ध साहित्य के 64 सिद्धों में सरहपाद सर्वप्राचीन हैं। उपदेश गीति, सरहपाद गीतिका, अमृतवज्र गीति इनके प्रसिद्ध गीतिग्रन्थ है। सरहपाद के शिष्य शबरपा ने भी महामुद्रा वज्रगीति व गम्भीरार्थ गीति आदि गीति रचनाएँ लिखीं। इन सिद्धों की भांति ही अन्य सिद्धों ने भी गीति तत्व से ओत-प्रोत साहित्य लिखा है, जिनकी गीति प्रवृत्तियों ने परवर्ती हिन्दी कवियों को प्रभावित किया।
राहुल जी नाथ पन्थ को सिद्धों की परम्परा का विकसित रूप मानते हैं, परन्तु सिद्धों की राग पद्धति का विकसित रूप इनके साहित्य में नहीं मिलता, परन्तु टेक यहाँ एक नई वस्तु है, जिसका प्रभाव परवर्ती कबीर, दादू आदि कवियों पर भी लक्षित होता है। यद्यपि गीतिकाव्य की दृष्टि से नाथ साहित्य का बहुत महत्व नहीं है, परन्तु सन्त साहित्य पर सिद्ध साहित्य के प्रभाव को देखने के लिए नाथ साहित्य कड़ी का काम करता है। जैन साहित्य का भी गीतिकाव्य की दृष्टि से ज्यादा महत्व नहीं है।
हिन्दी साहित्य के आदिकाल में वीर रस प्रधान गीतों की रचना हुई। कवि अपने आश्रयदाता की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते हैं जिस कारण इन वीर गीतों में अनुभूति की वह तीव्रता नही है जो गीतिकाव्य का महत्वपूर्ण लक्षण है, परन्तु चन्द बरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ व नरपति नाल्ह कृत ‘बीसलदेव रासो’ गीतिकाव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस दृष्टि से जगणिक के गेय काव्य ‘आल्हाखंड’ की गणना भी की जा सकती है। खड़ी-बोली काव्य भाषा अपना कर गीत रचना करने वाले अमीर खुसरो की गणना भी गीति कवियों में की जा सकती है। भक्तियुगीन गीतिकाव्य के लिए आदर्श रूप प्रस्तुत करने वाले मैथिल कोकिल विद्यापति हिन्दी गीति परम्परा के इतिहास में जयदेव के समान ही वन्दनीय हैं। इनके गीतों में भावुकता, गेयता, तन्मयता आदि अनेक गुण विद्यमान हैं। ”वस्तुतः विद्यापति हिन्दी के प्रथम सशक्त गीतिकार हैं और हिन्दी गीति परम्परा के पथ-प्रदर्शक भी हैं। परवर्ती कवि कबीर, दादू, रैदास, मलूकदास, नानक, सूरदास तथा अष्टछाप के अन्य कवि व मीरा आदि इनके भाव, छन्द, शैली और संगीत के ऋणी हैं।“[4]
आदिकाल के पश्चात् भक्तिकाल के अनन्तर कवियों ने आत्मा-परमात्मा के विविध सम्बन्धों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। सन्त कवि कबीरदास के गीतों की अनुभूति की तीव्रता उन्हें हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान पर प्रतिष्ठापित कर देती है। उनके विरह-मिलन के आध्यात्मिक गीत अत्यन्त स्वाभाविक व सहज हैं। कबीरदास के अतिरिक्त दादू दयाल, रैदास, नानक, सुन्दरदास, मलूकदास व भक्तिकाल के अन्य अनेक कवियों के काव्य में भी गेयता का गुण विद्यमान है, हालांकि भक्तिकाल में निर्गुण भक्ति की धारा सूफी काव्य में गीतात्मकता नहीं पाई जाती, क्योंकि सूफी कवि मुख्यतः प्रबन्ध काव्य की ही रचना करते रहे।
रामभक्ति काव्यधारा की ‘विनय पत्रिका’ व ‘कृष्ण गीतावली’ गीतिकाव्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। संगीतात्मकता, आत्माभिव्यक्ति आदि विशेषताओं से ओत-प्रोत ‘विनय पत्रिका’का हिन्दी गीति-काव्य साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। यह सत्य है कि तुलसीदास के गीतों में सूर के समान गीतात्मक उन्मेष नहीं मिलता, लेकिन उनकी ‘गीतावली’ व ‘कृष्ण-गीतावली’ गीतिकाव्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण  हैं। इस सन्दर्भ में डॉ0 मंजु गुप्ता लिखती है - ”तुलसी के गीतों में सूरदास की-सी एक रस भावप्रवणता और तन्मयता तथा मीरा की सी भावाकुलता चाहे न मिले, किन्तु तुलसी में वह है जो और किसी में नहीं। भक्त हृदय की दीनता की भाव भरी उच्छल तरंगों का अविरल प्रस्फुरण उन्हें अन्य गीतकारों से भिन्न व्यक्तित्व प्रदान करता है।“[5]
तुलसीदास के अतिरिक्त राम भक्ति काव्य धारा में प्राणचन्द चौहान, नाभादास, लालदास, हृदयराम आदि ने रामकाव्य पर काफी लिखा है, परन्तु वहाँ गीतिकाव्य का विकास नहीं हो सका। सगुण भक्ति काव्य में कृष्ण-भक्ति काव्यधारा का गीतिकाव्य के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इस काव्यधारा के कवियों ने राधा और कृष्ण के प्रेम एवं माधुर्य रूप का वर्णन किया है। ऐसा वर्णन करते हुए कवि अत्यन्त भावुक व संवेदनशील हो जाता है। यही भावुकता व संवेदनशीलता गीतिकाव्य के महत्वपूर्ण उपादान हैं। सूरदास एवं अष्टछाप के अधिकांशतः कवियों के काव्य में गीतितत्व की प्रधानता है। सूर कृत ‘सूरसागर’ गीतिकाव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। गीतिकाव्य के विकास में मीराबाई का स्थान भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तीव्र भावान्विति तथा अनुभूति की तन्मयता के कारण उनके पदों में गीतात्मकता का समावेश स्वतः ही हो गया है।
रीतिकालीन साहित्य में गीति तत्व उतना व्यापक रूप में दिखाई नहीं देता, जितना भक्तिकालीन साहित्य में विद्यमान है। घनानन्द, आलम, बोधा, ठाकुर आदि कवि राज्याश्रय से दूर रह कर जिस स्वतन्त्र काव्य की रचना कर रहे थे, उन्हीं रचनाओं में गीतितत्व की कुछ रक्षा की जा सकती। ”गीतिकाव्य के विकास की दृष्टि से भक्तिकाल के पश्चात भाषा के जिस परिमार्जन और व्यक्ति की जिस व्यंजना शक्ति तथा लौकिक भावभूमि पर भावना की जिस उत्कट आत्मविह्लता का स्वरूप प्राप्त करने की आशा हो चली थी, वह समस्त निधि घनानन्द में एक साथ मिल जाती है।“[6]
घनानन्द के समान बोधा व आलम की रचनाओं में भी भावों की उत्कृष्टता, सरलता और स्वाभाविकता विद्यमान है। इनके अतिरिक्त सहजोबाई, दयाबाई, प्रतापबाला आदि कवयित्रियों ने भी गीतिकाव्य को सुरक्षित रखने में सहयोग दिया।
रीतिकाल के पश्चात् भारतेन्दु युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कविता में देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता तथा सामाजिक चेतना का स्वर मुखरित किया। उन्होंने अपने नाटकों में परिस्थिति को उभारने तथा भावपूर्ण मनोवृत्तियों को प्रस्तुत करने के लिए गीतों की रचना की। इस दृष्टि से उनके विद्यासुन्दर, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, सत्य हरिश्चन्द्र आदि नाटक महत्वपूर्ण हैं। यह भी सत्य है कि परिस्थितियों की बाध्यतावश इस युग के कवि नवीन विषयों पर काव्य-रचना तो करते रहे, परन्तु रचना-शिल्प की दृष्टि से गीतों का कलात्मक विकास इस युग में नहीं हो पाया। ”भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अतिरिक्त रामकृष्णदास, पं0 सुधाकर द्विवेदी, अंबिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमधन, राधाचरण गोस्वामी, बालमुकुन्द गुप्त आदि कवियों की रचनाएँ भी गीतिकाव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, परन्तु इनकी गीति रचनाओं में भाव प्रवणता की अपेक्षा इतिवृत्तात्मकता अधिक है।“[7]
द्विवेदी युग में श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त आदि ऐसे प्रतिनिधि गीतकार हैं, जिन्होंने अपने देश की संस्कृति, भाषा, वेश-भूषा, आचार-विचार आदि का वर्णन अपनी कविताओं में किया है। इनके अतिरिक्त गयाप्रसाद शुक्ल ‘स्नेही’, पं0 बद्रीनाथ भट्ट, सियारामशरण गुप्त आदि कवियों ने राष्ट्र प्रेम तथा दार्शनिक भावनाओं से ओत-प्रोत कुछ अच्छे गीत लिखे हैं।
छायावादी कवियों ने व्यक्तिगत भावनाओं व अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए कल्पना का आश्रय लेते हुए गीतात्मकता से ओत-प्रोत काव्य लिखा। छायावाद के प्रवर्त्तक जयशंकर प्रसाद के गीत उनके काव्य-संग्रहों, नाटकों व महाकाव्यों में भी मिलते हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य, राष्ट्रीय भावना, दार्शनिकता तथा रहस्य-भावना से ओत-प्रोत गीत प्रसाद की रचनाओं में उपलब्ध होते हैं-
”बीती विभावरी जाग री
अम्बर पटघट में डुबो रही तारा घट ऊषा नागरी।“[8]
‘चन्द्रगुप्त’ नाटक के अनेक गीत राष्ट्रीय-भावना से ओत-प्रोत हैं। प्रसाद की रचना ‘लहर’ में उनकी गीतकला का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। गीत रचना की दृष्टि से निराला का नाम भी उल्लेखनीय है। उनकी अर्चना, बेला, परिमल, अनामिका आदि रचनाओं में कहीं-न-कहीं गीतों का समावेश किया गया है। ‘सरोज-स्मृति’ इनका महत्वपूर्ण शोकगीत है जो इन्होंने अपनी पुत्री की मृत्यु पर लिखा। ‘सन्ध्या-सुन्दरी’, विधवा, भिक्षुक आदि भी इनके महत्वपूर्ण गीत हैं। पन्त ने भी प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म, राष्ट्रीयता और प्रगतिवादी भावनाओं से ओत-प्रोत अनेक गीत लिखे हैं। इनके गीतों के विपुल भंडार को देखते हुए डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - ”सुमित्रानन्दन पन्त का सम्पूर्ण व्यक्तित्व गीतिमय है। मूलतः गीतिकाव्य के कवि हैं।“[9] छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा के गीतों में विस्मय, जिज्ञासा, आध्यात्मिकता, रहस्यात्मकता व वेदना आदि भाव मिलते है। डॉ0 रामकुमार वर्मा तथा जानकी वल्लभ शास्त्री भी छायावाद के ऐसे कवि है, जिन्होंने रहस्य-भावना प्रधान गीत प्रचुर मात्रा में लिखे हैं।
छायावादी युग के पश्चात प्रगतिवादी युग में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जैसे अनेक कवि उभर कर आए, जिन्होंने गीतात्मकता से ओत-प्रोत कविताएँ लिखीं। इसी संदर्भ में यदि प्रयोगवादी काव्यधारा का विश्लेषण किया जाए, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अति बौद्धिकता के कारण प्रयोगवादी काव्य में गीतात्मकता का उतना निर्वाह नहीं हो पाया, परन्तु गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, भारत भूषण अग्रवाल जैसे अनेक कवि हैं, जिन्होंने मानव-जीवन के विविध पक्षों को लेकर सुन्दर गीतों की सृजना की है। नई कविता तक आते-आते बौद्धिकता के प्रति अत्यधिक आग्रह के कारण व्यक्तिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का अवकाश कवि के पास नहीं रह गया था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि छायावादी युग के पश्चात् गीत लिखे ही नहीं गए, बल्कि नवगीतकार ने मानव-मन के संवेगों को नए-नए रूपों में व्यक्त किया है। ”आज की संवेदना आदिकालीन, मध्ययुगीन और आधुनिक काल के रूमानी गीतों की संवेदना की तरह एक लय में नहीं फूट निकलती, बल्कि वह एक विशिष्ट मानसिक स्थिति में अपने अनुकूल बिखरे हुए संवेगों से जुड़ती है।  आज का यह भावसत्य नयी कविता और नवगीत दोनों में व्यक्त हो रहा है।“[10]
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गीतों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यद्यपि इसका प्रारम्भ विद्यापति से होता है, परन्तु आदिकाल में कोई अन्य सशक्त गीतकार कवि नहीं हुआ। भक्तिकाल इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसने कबीर, मीरा, सूर व तुलसी जैसे महान् कवि हिन्दी साहित्य को दिए। तत्पश्चात् रीतिकाल में गीतितत्व फिर से गौण हो गया। आधुनिक युग में भारतेन्दु व द्विवेदी युग भी गीतिकाव्य के विकास की दृष्टि से विशेष महत्व नहीं रखते। छायावाद ने ही निष्प्राण एवं नीरस गीत को सजीवता एवं सरसता दी। प्रकारान्तर में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद व नई कविता के युग में गीतों का निरन्तर विकास होता चला गया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ0 रामकुमार वर्मा, पृ0 56 2. डॉ0 रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी गीतिकाव्य, पृ0 17 3. जयनाथ ‘नलिन’, विद्यापति-एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ0 104 4. डॉ0 मंजु गुप्ता, आधुनिक हिन्दी गीतिकाव्य का शिल्प, पृ0 39 5. सुमन, समग्र 3, पृ0 251 6. डॉ0 हरदेव बाहरी, हिन्दी की काव्य शैलियों का विकास, पृ0 165 7. जयशंकर प्रसाद, लहर, पृ0 19 8. डॉ0 हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास, पृ0 465 9. डॉ0 नगेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, 163