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धर्मवीर भारती का अन्धायुग: आधुनिक सन्दर्भों में | |||||||
Dharmvir Bharati’s Anda Yug : In Modern Contexts | |||||||
Paper Id :
16839 Submission Date :
2022-11-17 Acceptance Date :
2022-11-22 Publication Date :
2022-11-25
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सारांश |
‘अन्धायुग‘ नाम उस सांस्कृतिक विघटन का प्रतीक है जब द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के परिणामस्वरूप जीवन-मूल्य, नैतिक मानदंड, व्यवस्थाएँ व मर्यादाएं विकृत हो चुकी थीं। युद्धोपरांत जिस परिवेश में मनुष्य संत्रस्त व हीन-सा हो जाता है उसी के परिप्रेक्ष्य में इस रचना के अन्तर्गत सांस्कृतिक विघटन को दर्शाया गया है। ‘अन्धायुग‘ में पौराणिक पात्रों को माध्यम बनाकर वर्तमान समाज में व्याप्त कुंठा व संत्रास को सशक्त अभिव्यक्ति दी गई है। चाहे द्वितीय विश्वयुद्ध हो या महाभारत का युद्ध, युद्ध की विभीषिकाएं समान होती हैं। ‘अन्धायुग‘ में डॉ भारती ने कौरवों-पांडवों के संघर्ष के उस दुष्परिणाम को दर्शाया है जिसमें न्यूनाधिक रूप में दोनों ही पक्षों ने मर्यादाओं को खंडित किया।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The name 'Andha Yug' signifies that cultural disintegration when life-values, moral norms, systems and norms were distorted as a result of the horrors of the Second World War. After the war, in the context of the environment in which man becomes scared and inferior, the cultural disintegration has been shown under this work. In 'Andhayug', the frustration and panic prevailing in the present society has been given strong expression by making mythological characters a medium. Whether it is World War II or the war of Mahabharata, the horrors of war are the same. In 'Andhayug', Dr. Bharti has shown the ill-effects of the Kaurava-Pandava conflict in which both the parties violated the norms in more or less form. | ||||||
मुख्य शब्द | संत्रास, साहित्याकाश, प्रयोगधर्मी, प्रणयन। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Panic, Literary, Experimental, Romantic. | ||||||
प्रस्तावना |
धर्मवीर भारती आधुनिक हिन्दी साहित्याकाश के एक ऐसे नक्षत्र हैं, जिनकी काव्य-यात्रा छायावाद से प्रारम्भ हो कर प्रगतिवाद व प्रयोगवाद के सोपानों को पार करती हुई नई कविता तक पहुंचकर सम्पूर्णता को प्राप्त करती है।
”तार सप्तकी कवि वृन्दों में है इनका स्थान महान
पौराणिक औ नव लेखन में किया समन्वय भाव प्रधान।“[1]
भारती जी एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार हैं। उन्होंने एक साथ काव्य एवं नाटक के क्षेत्र में प्रयोग करते हुए ‘अन्धायुग‘ नामक काव्य-नाटक का प्रणयन किया। सन् 1954 में प्रकाशित ‘अन्धायुग‘ महाभारत के उत्तरार्द्ध की घटनाओं पर आधारित है जिसमें महाभारत युद्ध के 18वें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु तक की घटनाओं का वर्णन है। सूने गलियारों में पहरा देते प्रहरियों के आपसी वार्तालाप के माध्यम से जहाँ एक ओर कौरव वंश के विगत वैभव का वर्णन है, वहीं दूसरी ओर कौरव वंश के विनाश का भयावह चित्रण भी किया गया है। इसकी कथावस्तु के माध्यम से आधुनिक युग-मूल्यों के विघटन को व्यंजित करने का सुन्दर प्रयास भारती जी ने किया है। सच तो यह है कि ‘अंधायुग’ युद्धों की विभीषिका दर्शाने वाली आधुनिकताबोध से सम्पन्न रचना है। पौराणिक कथानक को आधार बनाकर 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लड़े गए दोनों महायुद्धों की विभीषिका पर प्रकाश डाला गया है। भारती जी ने युद्धोपरांत की समस्याओं को आधुनिकता बोध के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। वस्तुतः ‘अंधायुग’ नाम प्रतीकात्मक रूप में आधुनिक युग की मूल्यहीनता का प्रतीक है। मिथक का आश्रय लेकर भारती जी ने युद्धोपरांत होने वाले सांस्कृतिक विघटन को दर्शाया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के परिणामस्वरूप जीवन-मूल्य, नैतिक मानदंड व मर्यादाएं विकृत हो चुकी थीं। धर्मवीर भारती जी ने उसी सांस्कृतिक विघटन को महाभारत के युद्ध के पश्चात् की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में चित्रित किया है जब मूल्यहीनता के परिवेश में मनुष्य संत्रस्त व हीन-सा हो जाता है। |
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साहित्यावलोकन | आधुनिक सन्दर्भो से जुड़े भारती जी के ‘अन्धायुग’ पर निश्चय ही विपुल शोध-कार्य हुआ है। साहित्य-समीक्षा के फलस्वरूप विभिन्न शोध-पत्रों व पुस्तकों का अध्ययन किया, जिसमें प्रो0 एस0 वी0 एस0 नारायण राजू की पुस्तक ‘अंधायुग में चित्रित मानव विवेक’ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कु0 लक्ष्मी किसनराव मनशेट्टी का शोध-सार ‘डॉ0 धर्मवीर भारती का कथेत्तर गद्य-साहित्य: एक अनुशीलन’ व डॉ0 नीना शर्मा के शोध-आलेख ‘अंधायुग: कल, आज और कल' से आगे कार्य करने में सफलता मिली। दीपाली डी0 मिरेकर का दिसम्बर, 2021 को ‘आखर हिन्दी पत्रिका’ में प्रकाशित शोध-पत्र ‘धर्मवीर भारती काव्य-सृजनः एक समीक्षा’ से भी कवि के वर्तमान स्थितियों के प्रति दृष्टिकोण व पात्रों के प्रतीकात्मक पहलू को जानने में मदद मिली। |
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सामग्री और क्रियाविधि | विभिन्न शोध-पत्रों व पुस्तकों का अध्ययन किया गया है। |
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विश्लेषण | चाहे द्वितीय विश्वयुद्ध हो या महाभारत का युद्ध, युद्ध की विभीषिकाएं समान होती हैं। इस सन्दर्भ में डॉ0 गरिमा तिवारी लिखती हैं - ”धर्मवीर भारती जी ने महाभारत के युद्ध के परिणामों की चर्चा बीसवीं शताब्दी के विश्व युद्धों के परिणामों के संदर्भ में की है और इसीलिए महाभारत की कथा का यह मिथकीय आख्यान वर्तमान के परमाणु हथियार सम्पन्न देशों की विवेक-शून्यता के कारण उत्पन्न मनुष्य की अस्मिता के संकट एवं प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष उपस्थित अनेकानेक संकटों को समेटता है।“[2] ‘अन्धायुग‘ में डॉ भारती ने कौरवों-पांडवों के संघर्ष के उस दुष्परिणाम को दर्शाया है जिसमें न्यूनाधिक रूप में दोनों ही पक्षों ने मर्यादाओं को खंडित किया। अतः दोनों ही पक्षों में विवेक की पराजय और अन्धत्व की विजय हुई- ‘‘टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है। X X X अंधों से सुशोभित था युग का सिंहासन दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा दोनों ही पक्षों में जीता अंधापन।‘‘[3] यह नितान्त सत्य है कि युद्ध में सदैव मानव-मूल्यों का विघटन होता है। ‘अन्धायुग‘ में विवेकहीनता से उत्पन्न विसंगतियों, मुख्यतः आधुनिक युग-बोध की सारी विसंगतियों-भय, संत्रास, अनास्था व आक्रोश को अत्यन्त व्यापकता के साथ दर्शाया गया है। पौराणिक कथा का आश्रय लेकर आधुनिक भावबोध की अभिव्यक्ति इस रचना की विशेषता है। आधुनिक भौतिकतावादी युग में विघटित होते जा रहे मानव-मूल्यों की समस्या को अत्यन्त व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। आधुनिक युग की ज्वलंत समस्या युुद्ध के विध्वंसकारी परिणाम व राजनैतिक क्षेत्र में व्याप्त भाई-भतीजावाद एवं अनैतिक व अमर्यादित आचरण का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विरोध इस रचना की विशेषता है। अन्धायुग‘ की ‘स्थापना‘ के अन्तर्गत धर्मवीर भारती स्वयं लिखते है- ‘‘युद्धोपरान्त, यह अन्धा युग अवतरित हुआ जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं। X X X यह कथा उन्हीं अन्धों की है, या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से।‘‘[4] सही अर्थों में ‘अन्धायुग‘ एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें इंसानी मूल्यों को पैनी दृष्टि से आँका गया है। वर्तमान राजनीतिज्ञों ने शोषण, अपराध, अन्याय, अत्याचार व हिंसा का जाल-सा बिछा रखा है। सम्पूर्ण तन्त्र ही बेईमानी, अवसरवादिता व विवेकहीनता जैसी खोखली प्रवृत्तियों का शिकार हो चुका है। ‘अन्धायुग‘ में वर्णित धृतराष्ट्र का शासन इन प्रवृत्तियों का पूरा प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है। प्रहरियों के आपसी संवाद में धृतराष्ट्र के शासन की मर्यादाहीनता उजागर हो उठती है ‘‘रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ.... संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अंधे की जिसकी सन्तानों ने महायुद्ध घोषित किए, जिसके अन्धेपन में मर्यादा गलित अंग वेश्या-सी प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी उस अन्धी संस्कृति, उस रोगी मर्यादा की रक्षा हम करते रहे सत्रह दिन।‘‘[5] यही मर्यादाहीनता समूचे कुरुवंश के विनाश का कारण बनती है। सत्ता के नशे में मदान्ध धृतराष्ट्र व दुर्योधन हर प्रकार की मर्यादा का उल्लंघन करते हुए अन्ततः समूची मानवता के विनाश का कारण बनते हैं। दुर्योधन की मृत्यु पर विलाप करते धृतराष्ट्र को स्मरण दिलाते हुए विदुर कहते हैं- ‘‘भीष्म ने कहा था, गुरु द्रोण ने कहा था, इसी अन्तःपुर में आ कर कृष्ण ने कहा था -. मर्यादा मत तोड़ो तोड़ी हुई मर्यादा कुचले हुए अजगर-सी गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेट कर सूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।‘‘[6] युद्ध का प्रभाव मानव-जीवन के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि सभी पक्षों पर पड़ता है। युद्ध के दुष्परिणामों को रेखांकित करते हुए ओंकारनाथ श्रीवास्तव लिखते हैं- ‘‘युद्ध सदा ही घातक सिद्ध होते हैं, इसमें न केवल जन-धन की ही हानि होती है, बल्कि समाज में अनास्था, कुण्ठा, निराशा, अनिश्चितता को भी बढ़ावा मिलता है। सामाजिक अराजकता और मर्यादा-हीनता की भयंकर परिणति होती है। विश्व युद्धों में मानव अपने में भयंकर खोखलापन और नैतिक दीवालियापन अनुभव करने लगता है।‘‘[7] ‘अन्धायुग‘ में युद्धोपरान्त के अनेक नकारात्मक पहलू सहज ही देखे जा सकते हैं। भारती जी ने ‘अन्धायुग‘ में महाभारत युद्ध के पश्चात हुए मानव-मूल्यों के विघटन को केन्द्र में रखा है। उन्होंने इसे आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ने का स्तुत्य प्रयास किया है। दो विश्व युद्धों ने आज जिस प्रकार से मानव-मूल्यों को ध्वस्त किया है, जिस प्रकार आज का मानव टूटन, घुटन, बिखराव, अनास्था व संत्रास को झेल रहा है, ऐसी ही सामाजिक स्थिति महाभारत युद्ध के पश्चात थी। पिता द्रोणाचार्य की अन्यायपूर्ण हत्या से अश्वत्थामा में प्रतिहिंसा जनित बर्बरता का प्राधान्य हो जाता है। छल-कपट से की गई पिता की हत्या से वह हताशा, कुण्ठा व अनास्था-बोध से ग्रस्त होकर पांडवों के वध के लिए उतारू हो उठता है। उसका हृदय आक्रोश से भर उठता है ”भूल नहीं पाता हूँ मेरे पिता थे अपराजेय अर्द्धसत्य से ही युधिष्ठिर ने उनका वध कर डाला।“[8] सुरेश गौतम अश्वत्थामा के व्यक्तित्व के इसी पक्ष का विश्लेषण करते हुए उसे आधुनिक मानव का प्रतिनिधि मानते हुए लिखते हैं- ‘अंधायुग’ के अश्वत्थामा के अन्दर की कुरूपता आधुनिक मनुष्य की कुरूपता है, उसके अन्दर की पाशविकता आधुनिक मानव की पाशविकता है उस आधुनिक मानव की, जिसके अन्दर निरन्तर एक युद्ध-वृत्ति विद्यमान रहती है। इस तरह अश्वत्थामा केवल पौराणिक पात्र नहीं, आधुनिक मानव का प्रतिनिधि अथवा प्रतीक बन जाता है। आजीवन गलित कुण्ठा की दारूण यातना झेलने के लिए अभिशप्त अश्वत्थामा मर नहीं सकता, क्योंकि उसे आजीवन पीड़ा पानी है। निरन्तर पीड़ा उसकी नियति है।[9] समसामयिक स्थितियों के प्रति अनास्थावादी दृष्टिकोण के कारण एवं कुण्ठा व निराशा से ग्रस्त अश्वत्थामा का सर्वांग जब-तब क्रोध से जलने लगता है। अपने मृत पिता का स्मरण करते हुए सोचता है- ”तुमको मारा धृष्टद्युम्न ने अधर्म से भीम ने दुर्योधन को मारा अधर्म से दुनिया की सारी मर्यादा बुद्धि केवल इस निपट अनाथ अश्वत्थामा पर ही लादी जाती है।“[10] कृपाचार्य के समझाने पर अश्वत्थामा कहता है ”दूसरा पथ! पांडवों ने क्या कोई दूसरा पथ छोड़ा है? पांडवों की मर्यादा मैंने आज देखी द्वन्द्वयुद्ध में, कैसे अधर्मयुक्त वार से दुर्योधन को नीचे गिरा दिया भीम ने।“[11] घोर मर्यादाहीनता के ऐसे युग में कृष्ण का व्यक्तित्व भी इससे अछूता नहीं रहा। कवि गांधारी के मुख से कहलवाते हैं- ”उसने कहा है यह, जिसने मर्यादा को तोड़ा है बार-बार ।‘‘[12] आगे वस्तुस्थिति स्पष्ट करती हुई वह कहती है - ‘‘सब ही थे अन्धी प्रवृत्तियों से परिचालित जिसको तुम कहते हो प्रभु उसने जब चाहा मर्यादा को अपने ही हित में बदल दिया । वंचक है।‘‘[13] द्वन्द्वयुद्ध में दुर्योधन के मारे जाने पर कृष्ण व बलराम के आपसी वार्तालाप में इसी मर्यादाहीनता के दर्शन होते हैं- ‘‘तुम कुछ भी कहो कृष्ण निश्चय ही भीम ने किया है अन्याय आज उसका अधर्म वार अनुचित था।‘‘[14] सत्य तो यह हैं कि महाभारत राजनीतिक उठा-पटक का अखाड़ा है। इसलिए उसमें हमारे देश की वर्तमान राजनीतिक विसंगतियां भी अपने सम्पूर्ण रूप में दृष्टिगोचर होती हैं, क्योंकि यह सत्य है कि मनुष्य की मूल प्रकृति वही है, केवल काल बदलता है। महाभारत युग की भांति ही आज भी अधर्म व अन्याय फल-फूल रहे हैं। महाभारत जैसे भीषण युद्ध की भांति ही इस युग में भी दो महाविनाशकारी विश्व युद्ध हो चुके हैं। इन युद्धों ने मानवीय आस्था को इतनी बुरी तरह से झकझोर कर रख दिया है कि मनुष्य के जीवन में प्रेम, दया, करूणा आदि सद्भावों के स्थान पर अनास्था, नैराश्य और व्यर्थता-बोध व्याप्त होता जा रहा है। विजयोपरांत अपने राज्य में व्याप्त अनाचार का विश्लेषण करते हुए युधिष्ठिर चिन्तन करते हैं - ‘‘ऐसे भयानक महायुद्ध को अर्द्धसत्य, रक्तपात, हिंसा से जीत कर अपने को बिलकुल हारा हुआ अनुभव कर यह भी यातना ही है।‘‘[15] सच तो यह है कि महाभारत के पात्रों व घटनाओं को लेखक के द्वारा आधुनिक संदर्भो में पुनः सृजित किया गया है, क्योंकि आज के हालात महाभारत युद्ध से कम विध्वसंक नही हैं, समूची मानव-जाति विनाश के कगार पर खड़ी है। वस्तुतः यह रचना मनुष्य के अन्तः जगत् का उद्घाटन करते हुए युद्ध की भयावहता का उद्घाटन करने वाली एक सशक्त रचना है। यह किसी काल-विशेष की कथा न हो कर मानव-जाति की कथा है। इसमें कहीं-न-कहीं मानव-मन की उन सच्चाइयों को उद्घाटित किया गया है जिसे आज का सभ्य मानव सभ्यता का आवरण ओढ़कर छिपाने का प्रयास करता है। अंधों के माध्यम से ज्योति की कथा कहना ही कवि का उद्देश्य रहा है, जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। वे वर्तमान की स्थितियों से चिन्तित हैं, हताश हैं। उनकी यह चिन्ता युयुत्सु के कथन में सहज ही देखी जा सकती है- ‘‘किन्तु रक्षा कैसे होगी अन्धे युग में मानव भविष्य की.....................।“[16] आधुनिक युगीन परिस्थितियाँ भी महाभारत युगीन स्थितियों से पृथक नहीं हैं। इतिहास बार-बार स्वयं को दोहराता है। भारती परिवेशगत स्थितियों के प्रति सजग हैं, सचेत हैं- ‘‘उस दिन जो अन्धा युग अवतरित हुआ जग पर बीतता नहीं रह-रह कर दोहराता है हर क्षण होती है प्रभु की मृत्यु कहीं-न-कहीं हर क्षण अंधियारा गहरा होता जाता है।“[17]
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परिणाम |
‘अधायुग’ के माध्यम से भारती जी आधुनिक मानव को युद्ध से विरत करने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं। युद्ध से विजित और विजेता दोनों ही पक्षों को बहुत कुछ खोना पड़ता है। सत्य तो यह है कि युद्ध की विभीषिका मानवीय मूल्यों को ध्वस्त कर देती है। युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर का पश्चाताप व ग्लानि का भाव मनुष्य को सोचने-विचारने के लिए विवश करता है - ”विदुर मैं करूँगा क्या, माता कुंती, गांधारी और महाराज हो गए भस्म उस दावाग्नि में तर्पण करने के बाद घाव खुल गए फिर युयुत्सु के और इतने दिनों बाद उसका वह आत्मघात फलीभूत हो कर रहा प्राण नहीं उसके बचा सका अब भी मैं जीवित रहूँगा क्या देखने को प्रभु का अपमान इन आँखों से नहीं! नहीं जाने दो मुझको गल जाने दो हिमालय के शिखरों पर।“[18]
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जाँच - परिणाम | ‘अधायुग’ के माध्यम से भारती जी आधुनिक मानव को युद्ध से विरत करने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं। | ||||||
निष्कर्ष |
युद्ध से विजित और विजेता दोनों ही पक्षों को बहुत कुछ खोना पड़ता है। सत्य तो यह है कि युद्ध की विभीषिका मानवीय मूल्यों को ध्वस्त कर देती है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. अलका रानी वर्मा, धर्मवीर भारती का काव्य-शिल्प, पृ0 36
2. डॉ0 गरिमा तिवारी, ‘अन्धायुग’: कथ्य एवं शिल्प, पृ0 8
3. धर्मवीर भारती, अन्धायुग, पृ0 3
4. धर्मवीर भारती, अन्धायुग (स्थापना), पृ0 2
5. उपरिवत्, पृ0 4
6. उपरिवत्, पृ0 8
7. डॉ0 ओंकारनाथ श्रीवास्तव, हिन्दी साहित्य परिवर्तन के सौ वर्ष, पृ0 8
8. धर्मवीर भारती, अन्धायुग, पृ0 25
9. सुरेश गौतम, अंधायुग: एक सृजनात्मक उपलब्धि, पृ0 51
10. धर्मवीर भारती, अन्धायुग, पृ0 50
11. उपरिवत्
12. उपरिवत्, पृ0 12
13. उपरिवत्, पृ0 13
14. उपरिवत्, पृ0 48
15. उपरिवत्, पृ0 85
16. उपरिवत्, पृ0 105
17. उपरिवत्, पृ0 108
18. अंधायुग, डॉ0 धर्मवीर भारती, पृ0 69 |