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विवेकानंद के चिंतन में महिला सशक्तीकरण | |||||||
Women Empowerment in The Thought of Vivekananda | |||||||
Paper Id :
16894 Submission Date :
2022-11-03 Acceptance Date :
2022-11-20 Publication Date :
2022-11-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
भारत में महिला सशक्तीकरण का प्रश्न अब भी ज्वलंत है। हालांकि भारत में स्त्रियों की यह दशा वर्षों तक रही विपरीत परिस्थितियों की देन है। स्वामी विवेकानंद ने नारी प्रगति व नारी को गरिमामय स्थान दिलाने के महत्वपूर्ण प्रयास किए। उन्होंने स्त्रियों की निम्न दशा के कारणों को बताते हुए स्त्री पुरूष की आध्यात्मिक समानता का आह्वान किया। समाज निर्माण में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकारते हुए नारी स्वाधीनता पर बल दिया साथ ही नारी को पूजनीय बता कर उसके मातृरूप को सर्वोच्च स्थान पर रखा। सशक्तीकरण हेतु उन्होंने स्त्रियों में बाल विवाह का निषेध, ब्रह्मचर्य के प्रसार, अंतर्निहित नैतिक गुणों के विकास, शिक्षा, धर्म, निर्भीकता, आत्मरक्षा, कार्यकुशलता व स्वावलंबन के सुझाव दिए व तदर्थ कार्य योजना प्रस्तुत की।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The question of women empowerment is still burning in India. However, this condition of women in India is the gift of adverse circumstances prevailing over the years. Swami Vivekananda made important efforts for the progress of women and to give a dignified place to women. Explaining the reasons for the low condition of women, he called for the spiritual equality of men and women. Recognizing the important role of women in the construction of the society, he emphasized on the independence of women, as well as keeping the motherly form of the woman at the highest place by telling her to be worshipable. For empowerment, he gave suggestions for prohibition of child marriage, spread of celibacy, development of inherent moral qualities, education, religion, fearlessness, self-defense, efficiency and self-reliance among women and presented an ad-hoc action plan. | ||||||
मुख्य शब्द | विवेकानंद, महिला सशक्तिकरण, आध्यात्मिक समानता, समाज निर्माण, नारी स्वाधीनता ,स्त्री शिक्षा, ब्रह्मचर्य, स्त्री दशा, भारतीय समाज। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Vivekananda, Women Empowerment, Spiritual Equality, Society Building, Women's Independence, Women's Education, Celibacy, Women's condition, Indian Society. | ||||||
प्रस्तावना |
एक विकसित समाज का रेखाचित्र महिलाओं के उचित गरिमामय स्थान के बिना हरगिज पूरा नहीं होता। विशेष रूप से भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए यह स्थान लंबे समय तक एक बड़ी चुनौती रहा है। प्रमुख भारतीय चिंतक स्वामी विवेकानंद (1863-1902) ने नारी प्रगति व नारी को समाज में गरिमामय स्थान दिलाने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए इस संदर्भ में उन्होंने स्त्रियों को अधिक दायित्वपूर्ण कर्तव्य युक्त बनाते हुए उनको अधिक सक्षम, अधिक शिक्षित व अधिक सशक्त व स्वावलंबी होने का आह्वान किया। उनके चिंतन में ऐसे अनेक सूत्र विद्यमान है जो वर्तमान समय में भी स्त्री जाति के सशक्तीकरण के लिए उपयोगी व प्रासंगिक हो सकते है।
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अध्ययन का उद्देश्य | विवेकानंद के विचारों द्वारा महिला वर्ग के सशक्तीकरण की संभावनाओं को उजागर करना। उनके चिंतन में अभिव्यक्त भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा के कारणों पर विचार करना एवं उनके विचारों से स्त्रियों के उत्थान हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करना। |
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साहित्यावलोकन | विवेकानंद चिंतन पर
अद्वैत आश्रम कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का ¬प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है इसके अतिरिक्त विवेकानंद चिंतन पर
उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीका जैसे सिस्टर निवेदिता द्वारा लिखित द मास्टर एज़ं आई
सॉ हिम, जी. एस. बनेठी लिखित लाइफ एंड फिलॉसफी ऑफ स्वामी
विवेकानंद, रोमां रोलां लिखित द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द
यूनिवर्सल गोस्पेल आदि पुस्तकों का अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त कतिपय शोध
पत्रों जैसे ‘स्वामी विवेकानंदः सोशल रिफॉर्मर‘ - जग बंधु सरकार (2020), ‘द सोशियो -पॉलीटिकल
मेग्नीट्यूड ऑफ ह्यूमैनिज्म ऑफ स्वामी विवेकानंद‘-
राहुल राजन (2021), ‘स्वामी विवेकानंद
अ पाथ फाउंडर ऑफ मॉडर्न इंडिया‘- हुमायूँ कबीर विश्वास(2021) का भी अध्ययन किया गया। इस संदर्भ में
कई अन्य लेख भी विद्यमान हैं किंतु यह पत्र इस बिंदु पर अधिक शोध परक दृष्टि से
विवेकानंद चिंतन के विश्लेषण का प्रयास करता है। |
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मुख्य पाठ |
विवेकानंद के चिंतन में महिला सशक्तीकरण भारत में नारी सशक्तीकरण का प्रश्न अब भी ज्वलंत है। वर्षों की चर्चाएँ व
प्रयास स्त्रियों की दशा में कुछ सुधार तो अवश्य लाए हैं पर उतना नहीं कि इस
प्रश्न की प्रश्न सूचकता को कम कर दें। समाज का यह अधिक संवेदनशील, अधिक सहिष्णु आधा भाग अब भी
असमानता, अधिकार विहीनता और समाज में अपनी कमतर स्थिति के साथ जी रहा है। हालाँकि भारत में स्त्रियों की यह दशा वर्षों तक रही विपरीत परिस्थितियों की
देन है। इन परिस्थितियों से संघर्ष करने में सहयोग हेतु आधुनिक काल में विभिन्न
धर्म व समाज सुधारक आगे आये। उनके प्रयास प्राचीन भारतीय नारी के गौरव की पुनः
प्राप्ति तो नहीं करवा सके पर मध्यकालीन दुर्दशा से कुछ हद तक निजात दिलाने में
कामयाब अवश्य रहे। राजा राम मोहन राय व ब्रह्म समाज, केशवचन्द्र सेन, गोविन्द रानाडे व प्रार्थना समाज, दयानंद सरस्वती व आर्य समाज इस
क्षेत्र के कुछ महत्वपूर्ण नाम हैं। स्वामी विवेकानंद ने भी नारी प्रगति और नारी को
गरिमामय स्थान दिलाने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। उन्होंने न सिर्फ उन कतिपय
सामाजिक कुरीतियों को दूर करने की कोशिश की जो नारी प्रगति के मार्ग में बाधक थीं
बल्कि उससे कहीं अधिक समाज निर्माण के महत्वपूर्णघटक के रूप में नारी के
महत्वपूर्ण स्थान से उन्हें परिचित कराया तथा इस संदर्भ में उन्होंने नारियों को
अधिकदायित्वपूर्ण व कर्तव्ययुक्त बनाते हुए उनके अधिक सक्षम, अधिक सशक्त, अधिक शिक्षित व स्वावलंबी होने
का आह्वान किया। उन्होंने नारी जाति की विभिन्न समस्याओं, उसके आदर्श, भारतीय नारी, उसका भूत, भविष्य व वर्तमान, पाश्चात्य व प्राच्य नारी की स्थिति, स्त्री व पुरूष कार्यक्षेत्र पर विचार प्रकट किए। स्वामी
विवेकानंद ने पूर्व की स्त्रियों के वर्तमान व भविष्य पर विचार करते हुए एक बार
कहा था- “किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहाँ की महिलाओं के साथ होने
वाला व्यवहार।” भारतीय नारी की स्थिति से विवेकानंद कदापि संतुष्ट नहीं थे जो कि उनके
वक्तव्यों में यदा-कदा इस प्रकार व्यक्त हुई, ‘‘वर्तमान समय में तो स्त्रियों को काम करने का यंत्र सा बना
रखा है। राम! राम!! तुम्हारी शिक्षा का क्या यही फल है ?’’[1] तत्कालीन समाज
में विद्यमान स्त्री पुरूष असमानता से व्यथित विवेकानंद ने कहा, “इस देश में स्त्री व पुरूष में
इतना अंतर क्यों समझा जाता है यह समझना कठिन है, उनकी उन्नति के लिए तुमने क्या किया बताओ तो ?[2]......स्मृति
आदि लिखकर नियम नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरूषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा
पैदा करने की मशीन बना डाला है।”[3] उनका मानना था कि “दो बड़े सामाजिक अनर्थ भारत की
प्रगति में रोड़ा अटका रहे हैं। ये दो कुत्सित अनाचार हैं- स्त्री जाति के पैरों
में पराधीनता की बेड़ी डाले रखना और निर्धन जनता को जाति भेद के नाम पर समस्त मानवी
अधिकारों से वंचित रखना।”[4] स्त्री की निम्न दशा का कारण विवेकानंद की नजर में स्त्रियों की यह दशा किसी हीनता की वजह से नहीं है बल्कि
उनके अनुसार पिछली कई सदियों से देश की राजनीतिक व सामाजिक स्थिति ऐसी थी जिसमें
स्त्रियों को विशेष संरक्षण की आवश्यकता थी। उन्होंने कहा कि “भारतीय स्त्री की वर्तमान दशा
का मूलभूत कारण हमारी संस्कृति में स्त्री जाति की हीनता नहीं प्रत्युत देश की
उपर्युक्त परिस्थिति ही है।”[5] इसके अतिरिक्त विवेकानंद ने बौद्धमत के प्रभाव को भी एक
प्रमुख कारण माना। उनके अनुसार हीनता का प्रादुर्भाव ही बौद्ध धर्म के पतनकाल में
हुआ। क्यों कि उनका धर्म भिक्षुओं का (स्त्री विहीन) धर्म था इसी का स्वाभाविक
कुपरिणाम यह हुआ कि प्रत्येक पीत वस्त्रधारी भिक्षु सम्मानास्पद हो गया। बौद्ध
विहारों के सामूहिक जीवन की वजह से भी भिक्षुणियों का स्थान भिक्षु से निम्न हो
गया क्यों कि श्रेष्ठ भिक्षु की आज्ञा के बिना भिक्षुणियाँ कोई महत्वपूर्ण निर्णय
नहीं ले सकतीं थीं।[6] (विवेकानंद मानते थे कि आधुनिक हिन्दू धर्म
अधिकांशतः एक पौराणिक धर्म है जिसका उद्गम बौद्धकाल के बाद हुआ।)[7] भारतीय नारियों की हीन दशा से असंतुष्ट स्वामी
विवेकानंद ने महिलाओं को सशक्त बनाने वाली वैचारिक आधार भूमि प्रस्तुत की।
यत्र-तत्र बिखरे हुए उनके तत्संबंधित विचारों को कतिपय बिन्दुओं में रखा जा सकता
है- 1. आध्यात्मिक आधार पर समानता का आह्वान वेदांत से प्रभावित विवेकानंद का मानना था कि एक ही चित् सत्ता सर्वभूतों में
विद्यमान है फिर स्त्री व पुरूषों में असमानता कैसे हो सकती है ? श्वेताश्वतर उपनिषद् से उद्धरण
देते हुए उन्होंने कहा, “त्वं स्त्री त्वं पुमान् असि, त्वं कुमारं उत वा कुमारी।”[8] अर्थात् परमात्मा तुम्ही स्त्री हो, तुम ही पुरूष का रूप धारण करते
हो और तुम्ही कुमार या कुमारी हो। इसलिए स्वयं विवेकानंद की अपेक्षाएँ व संदेश
स्त्री व पुरूष दोनों के लिए समान थे।[9] आध्यात्मिक आधार पर समान होने की वजह से किसी को भी समान महत्व, समान अधिकारों से वंचित नहीं
किया जा सकता। ज्ञानार्जन में स्त्रियों के समान अधिकारों की पैरवी करते हुए व
उन्हें इसके लिए उपयुक्त मानते हुए वे हमेशा गार्गी, मैत्रेयी आदि का उदाहरण दिया करते थे। उन्होंने अपेक्षा की-
“इन सब आदर्श विदुषी स्त्रियों
को जब उस समय अध्यात्म ज्ञान का अधिकार था तब फिर आज भी स्त्रियों को यह अधिकार
क्यों न रहेगा।”[10] 2. नारी पूजनीय है स्त्रियों को माया व मनुष्य के अधः पतन का कारण मानने का निषेध करते हुए
उन्होंने स्त्रियों को जगदम्बा की साक्षात् मूर्ति व पूजनीय कहा। उन्होंने चेताया
कि “जिस देश, जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं होती वह देश, वह जाति कभी बड़ी नहीं बनी और न
कभी बन ही सकेगी। तुम्हारी जाति का जो इतना अधः पतन हुआ है, उसका प्रधान कारण है इन सब
शक्ति मूर्तियों का अपमान करना।”[11] विवेकानंद प्रायः मनु के कथन ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता। यत्रेतास्तु
न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।’ (जहाँ पर स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, जहाँ वे दुखी रहती हैं उस
परिवार की, देश की उन्नति की आशा कभी नहीं की जा सकती) का उल्लेख किया करते थे। 3. समाज निर्माण में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका विवेकानंद का मानना था कि समाज के सृजन के साथ साथ एक श्रेष्ठ और आदर्श समाज के
निर्माण में नारी का महत्वपूर्ण योगदान है। उनका कहना था कि संतानोत्पत्ति से लेकर
बालक के लालन-पालन व उचित संस्कार देकर आदर्श नागरिक व व्यक्ति बनाने की प्रक्रिया
माता द्वारा ही संपन्न होती है। मातृत्व महान उत्तरदायित्व पूर्ण कृत्य है। माता इसीलिए इतनी पूजनीय है।
विवेकानंद मानते थे कि व्यक्तित्व निर्माण में शिक्षा आदि तत्व गौण हैं जन्म पूर्व
प्रभाव ही बालक को शुभ या अशुभ प्रवृत्ति वाला बनाता है। उनका कथन था “आप सैकड़ों, महाविद्यालयों में अध्ययन करें, लाखों ग्रंथ पढ़ डालें, संसार के समस्त विद्वानों के
संसर्ग का लाभ उठायें किन्तु यदि आपने शुभ संस्कार लेकर जन्म लिया है, तो आप इन सबसे अच्छी रहेंगी।
.......... शास्त्रों का मत है कि बालक जन्म से ही देव या असुर पैदा होता है, शिक्षा आदि का स्थान बाद में
आता है .... यदि आपको माता ने रोगी शरीर दिया है तो आप कितने ही औषधि भण्डारों का
थोक निगल लीजिए फिर भी क्या आप अपने को स्वस्थ रख सकती हो।” उन्होंने कहा, “जिनकी माताएँ शिक्षित और
नीतिपरायण हैं, उनके ही घर में बडे़ लोग जन्म लेते हैं।[12] 4. नारी स्वाधीनता पर बल भारतीय व पाश्चात्य स्त्रियों की तुलना करते समय वे सर्वदा अमेरिकी स्त्रियों
की स्वाधीनता की प्रशंसा किया करते थे। सभी सामाजिक व नागरिक कर्त्तव्यों की
बागडोर सँभाले हुए, जीविकोपार्जन करते हुए, बाजार, शालाओं, महाविद्यालयों में स्वाधीन रूप से जाते हुए, गरीबों की सहायता करते हुए उन्हें देखकर विवेकानंद भारतीय
स्त्रियों की पराधीन स्थिति पर दुखी होते थे। अमेरिकी स्त्रियों के लिए उनके
उद्गार थे- “वे कितनी स्वाधीन हैं!......... किन्तु हमारे देश में स्त्रियों को सड़कों पर
अरक्षित नहीं छोड़ा जा सकता”[13] यहाँ तक कि नारी उत्थान के क्षेत्र में भी स्वाधीनता समर्थक
विवेकानंद ने हस्तक्षेप को अनुचित माना और कहा, “सर्वप्रथम स्त्रीजाति को
सुशिक्षित बनाओ, फिर वे स्वयं कहेंगी कि उन्हें किन सुधारों की आवश्यकता है, तुम्हें उनके प्रत्येक कार्य
में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है?”[14] उन्होंने कहा, “उन्नति के लिए सबसे पहले स्वाधीनता की आवश्यकता है यदि तुम
लोगों में से कोई यह कहने का साहस करे कि मैं अमुक स्त्री अथवा अमुक लड़के की
मुक्ति के लिए काम करूँगा तो यह अत्यन्त अन्याय और भूल होगी ...... अलग हो जाओ। वे
अपनी समस्याओं की पूर्ति स्वयं कर लेंगी।”[15] उन्होंने कहा कि स्वातंत्र्य से ही उद्धार एवं उन्नति होती है, पराधीनता और दासता से हीनता की
वृद्धि व पतन होता है।[16] हालाँकि स्वतंत्रता की उनकी धारणा कभी भी नकारात्मक नहीं रही। समाज की
सुव्यवस्था के साथ स्वाधीनता के सामंजस्य की उनकी विशेषता नारी स्वाधीनता पर भी
लागू होती है। उच्छृंखलता से परे वे भारतीय नारी को विभिन्न मर्यादाओं, जिम्मेदारियों व नैतिक गुणों से
युक्त ही देखना चाहते हैं यहाँ तक कि विवाह इत्यादि तय करने की जिम्मेदारी भी वे
समाज के पास ही रखना चाहते हैं। 5. मातृ रूप सर्वोपरि है भारतीय स्त्री के आदर्श, मातृत्व की चर्चा करते हुए उन्होंने सर्वदा मातृत्व को सर्वोच्च स्थान पर रखा। उन्होंने कहा कि प्रत्येक हिन्दू के मन में स्त्री शब्द के उच्चारण से मातृत्व
का स्मरण हो आता है, हमारे यहाँ ईश्वर को माँ कहा जाता है। माँ के रूप में स्त्री का योगदान
अतुलनीय है। स्त्री को मातृ रूप में प्रतिष्ठित करते हुए उन्होंने कहा, “क्या स्त्री संज्ञा केवल भौतिक
शरीर मात्र को ही दी जाने के लिए है ...... नहीं, नहीं, देविः! माँसलता से संबद्ध किसी भी वस्तु से संलग्न नहीं किया जाएगा, तुम्हारा नाम तो सदा ही
पवित्रता का प्रतीक रहा है। विश्व में जननी नाम से अधिक पवित्र व निर्मल दूसरा
कौनसा नाम है?”[17] मातृपद परम श्रद्धेय है। उन्होंने बताया कि भारत में बाल्यावस्था में प्रत्येक
हिन्दू बालक प्रतिदिन प्रातः काल एक कटोरी में जल भरकर अपनी माता के पास ले जाता
है माता उसमें अपने पैर का अँगूठा डुबो देती है और पुत्र उस जल का पान कर हर्षित
होता है।[18] माता को सर्वोच्च स्थान देते हुए विवेकानंद ने कहा कि हमारे स्वर्गस्थ पिता के
बदले में हम सदा माता ही कहते हैं, एक हिन्दू के लिए उस शब्द और भाव में अनंत प्रेम भरा है, इस नश्वर संसार में ईश्वर के
प्रेम के समीप माता का ही प्रेम है। इस तरह स्त्री की मातृ रूप में प्रतिष्ठा व मातृत्व को सर्वोपरि मानना समाज
में स्त्री का सम्माननीय स्थान सुनिश्चित करता है। सशक्तीकरण हेतु प्रयास/सुझाव नारी समस्याओं पर चर्चा करते समय विवेकानंद ने समय-समय पर जो समाधान दिए तथा
उत्थान के लिए जो योजना प्रस्तुत की वे महिला सशक्तीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण
हैं- 1. बाल विवाह की समाप्ति व ब्रह्मचर्य का प्रसार नारी की दुर्बल स्थिति, अशिक्षा का एक मुख्य कारण विवेकानंद ने बाल विवाह को माना तथा बाल विवाह के
विरूद्ध जागृति लाने की कोशिश की। “बाल विवाह से असामयिक संतानोत्पत्ति होती है और अल्पायु में
संतान धारण करने से हमारी स्त्रियाँ अल्पायु होती हैं, उनकी दुर्बल और रोगी संतान देश
में भिखारियों की संख्या बढ़ाने का कारण बनती है, क्योंकि यदि माता पिता बलवान व स्वस्थ न हों तो उनकी संतान
कैसे स्वस्थ और शक्तिशाली होगी ? घर-घर इतनी विधवाएँ पाये जाने का मूल कारण बाल विवाह ही हैं यदि बाल विवाहों
की संख्या घट जाए तो विधवाओं की संख्या भी स्वयमेव घट जाएगी।“[19] विवेकानंद ने तत्कालीन शोचनीय दशा का उल्लेख किया– “माता पिता येन केन प्रकारेण
कन्या को आठ या दस वर्ष की आयु में किसी के गले बाँधकर अपने उत्तरदायित्व से छूटना
चाहते हैं यदि उसे तेरह वर्ष की आयु में ही संतान उत्पन्न हो जाए तो परिवार में
आनन्द का सागर उमड़ पड़ता है। यदि हम इस विचारधारा के प्रवाह को परिवर्तित कर सकें
तो जनता में पुनः उस पुरातन श्रद्धा के जागृत होने की कुछ आशा है।”[20] वे चाहते थे कि विवाह की आयु में वृद्धि हो और यथा संभव कुछ स्त्रियाँ तो
ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करें, आजीवन देश सेवा का प्रण लें और अपनी सारी शक्ति मातृभूमि की सेवा में अर्पण कर
दें।[21] इससे उनमें श्रद्धा व आत्मविश्वास
बढ़ेगा। स्वामी विवेकानंद द्वारा ब्रह्मचर्य पर जोर दिए जाने की पृष्ठभूमि में
स्त्रियों को सीमित कार्यक्षेत्र से परे विस्तृत कार्य क्षेत्र में ले जाने व अधिक
समय तक शिक्षा प्राप्त करवाने की चाह विद्यमान थी। 2. अंतर्निहित नैतिक गुणों का विकास विवेकानंद प्रायः परंपरागत भारतीय नारी के गुणों जैसे पवित्रता, सतीत्व, त्यागशीलता, लज्जाशीलता, सेवाभाविता, प्रेमपूर्णता, संतोष, मातृत्व और इनको धारण करने वाली
भारतीय नारी की सर्वत्र सराहना करते थे। किसी भी समाज सुधारक और स्त्री स्वाधीनता
के समर्थक का इस तरह के गुणों पर जोर दिया जाना विरोधाभास पूर्ण लग सकता है किन्तु
तह में जाने पर स्पष्ट होता है कि यह गुणसंपन्नता के जरिये निर्विवाद रूप से नारी
को समाज में गरिमामय स्थान दिलाने का ही एक प्रयास था। स्त्री मठ पर चर्चा करते
समय उनका यही मंतव्य स्पष्ट होता है- “धर्मपरायणता, त्याग, संयम यहाँ की छात्राओं के अलंकार होंगे और सेवाधर्म उनके जीवन का व्रत होगा।
इस प्रकार का आदर्श जीवन देखने पर कौन उनका सम्मान न करेगा और कौन उन पर अविश्वास
करेगा? देश की स्त्रियों का इस प्रकार जीवन गठित हो जाने पर ही तो तुम्हारे देश में
सीता, सावित्री, गार्गी का फिर से आविर्भाव हो सकेगा।”[22] परिपूर्णता के लिए इन्हीं गुणों का चयन करने का संभवतः यह कारण था कि भारतीय
नारियों में ये गुण स्वाभाविक हैं उनके आदर्श सीता और सावित्री ही हैं। वे कहते थे, “भारत की स्त्रियाँ पवित्रता व
त्याग की मूर्ति हैं क्यों कि उनके पास वह बल और शक्ति है जो सर्वशक्तिमान
परमात्मा के चरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण से प्राप्त होती है।”[23] उनका कथन था “भारत की इस पवित्र भूमि में
सीता और सावित्री के देश में, आज भी स्त्रियों में वह चरित्र, वह सेवाभाव, वह प्रेम, वह दया, वह संतोष और भक्ति पाई जाती है, जो विश्व में मुझे कहीं अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं हुई
....... इतनी गुण सम्पन्न और सुयोग्य स्त्रियों के होते हुए भी भारतवासी स्त्री को
उन्नत नहीं बना सके! ... भारतीय स्त्री को यदि उचित शिक्षा मिले तो वह संसार की
सर्वश्रेष्ठ आदर्श नारी बन सकती है।”[24] 3. स्त्री शिक्षा स्त्री से संबंधित सभी समस्याओं की जड़ में विवेकानंद को मात्र एक कारण नजर आया
वह था स्त्री शिक्षा का अभाव। उनका मानना था कि जब से स्त्रियों को उच्च शिक्षा से
वंचित होना पड़ा है तब ही से उनकी दशा में पतन होता गया है किन्तु शिक्षा का प्रसार
सारी समस्याओं को दूर कर देगा। उनका कथन था, “उन्हें कई गंभीर समस्याएँ सुलझानी हैं, परन्तु उनमें से एक भी ऐसी नहीं
जो शिक्षा द्वारा सुलझाई न जा सके।”[25] इसीलिए विवेकानंद ने स्त्री शिक्षा की एक वृहद् योजना प्रस्तुत की थी। वे कुछ
ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणियाँ बनाना चाहते थे जो गाँव गाँव जाकर सर्वसाधारण व
स्त्रियों में विद्या का प्रसार करेंगे। वे एक स्त्री मठ बनाना चाहते थे जिसमें स्त्रियाँ रहेंगी, उसमें एक स्कूल होगा जिसमें
लगभग सभी विषयों की शिक्षा स्त्रियों को दी जाएगी। वहाँ रहने वाली स्त्रियों के
भोजन, वस्त्र का इंतजाम मठ करेगा। 5-7 वर्ष तक शिक्षा लेने के उपरांत अभिभावक
कन्याओं का विवाह कर सकेंगे। जो ब्रह्मचर्य को अपनाएँगी वे ही मठ की शिक्षिकाएँ बन
जायेंगी और गांव-गांव, नगर-नगर में शिक्षा केन्द्र खोलकर स्त्री शिक्षा के विस्तार की चेष्टा करेंगी।
उन्होंने कहा कि समय आने पर यदि एक भी स्त्री ब्रह्मज्ञ बन सकी तो उसकी प्रतिभा से
हजारों स्त्रियाँ जाग उठेंगी और देश व समाज का बहुत कल्याण होगा।[26] 4. धर्म, निर्भीकता, आत्मरक्षा, कार्यकुशलता व स्वावलंबन की शिक्षा स्त्री मठ के माध्यम से विवेकानंद धर्मशास्त्र, साहित्य, व्याकरण, अंग्रेजी, घर गृहस्थी के सभी नियम, शिशु पालन, स्वास्थ्य, जप, ध्यान, पूजा, सीना पिरोना, रंजन सभी की शिक्षा चाहते थे। जिससे स्त्रियाँ बुद्धिमती, कार्यकुशल व स्वावलंबी बनें।
शिक्षा केवल नाटक-उपन्यास पढ़ने व आधुनिक पहनावा अपनाने मात्र तक ही सीमित न हो।
शिक्षा रचनात्मक हो जो चरित्र निर्माण व बौद्धिक विकास करे तथा जो पैरों पर खड़ा
होने की शक्ति प्रदान करे। वे कहते थे कि उपर्युक्त प्रकार की शिक्षा होने पर
स्त्रियाँ अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा लेंगी। “आज तक तो उन्हें दासता व परवशता की ही शिक्षा मिलती रही है
जिसका परिणाम यह हुआ है कि छोटी सी आपत्ति अथवा दुर्घटना आने पर वे अश्रुपात के
अलावा और कुछ नहीं कर पातीं ...... आज की परिस्थिति में यह अनिवार्य हो गया है कि
वे आत्मरक्षा की शिक्षा प्राप्त करें। क्या आपको झाँसी की रानी की वीरता विदित
नहीं हैं ?”[27] उन्होंने इच्छा प्रकट की, “हम चाहते हैं भारत की स्त्रियों
को ऐसी शिक्षा दी जाए जिससे वे निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्य को भली
भाँति निभा सके और संघमित्रा, लीला, अहिल्याबाई और मीराबाई आदि की परंपरा को आगे बढ़ा सके।”[28]
स्त्री की महानता का उद्घोष कर स्त्रियों को वैचारिक स्तर पर पोषण प्रदान करने
वाले विवेकानंद ने स्त्री शिक्षा व स्त्री मठ के माध्यम से अपनी कार्य योजना
प्रस्तुत की जो कि स्त्री उत्थान की एक सम्पूर्ण योजना थी। अपनी योजनाओं की पूर्ण
क्रियान्विति तो विवेकानंद नहीं कर सके पर स्त्री उत्थान हेतु उनकी व्यग्रता उनके
इस कथन में प्रकट होती है, “स्त्रियों की दुर्दशा के लिए तुम ही लोग जिम्मेदार हो। देश की स्त्रियों को
जागृत करने का भार भी तुम्हीं पर है इसलिए तो मैं कह रहा हूँ कि बस काम में लग जाओ, क्या होगा व्यर्थ में केवल कुल
वेद वेदान्त को रट कर।”[29] देश व समाज सेवा में
स्त्रियों से पुरूषों के समान ही भागीदारी की अपेक्षा रखने वाले विवेकानंद का भारत
की स्त्रियों के लिए संदेश था ‘‘मेरा तो इस देश की स्त्रियों के लिए वही संदेश है जो
पुरूषों के लिए है। भारत में और भारतीय धर्म में पूर्ण श्रद्धा व विश्वास रखो। तेजस्वी
बनो, अपने गौरवशाली भविष्य में विश्वास रखो।”[30] |
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सामग्री और क्रियाविधि | प्रमुख रूप से विषय वस्तु विश्लेषण को महत्व दिया गया है एवं आवश्यकतानुसार दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पद्वतियों का प्रयोग किया गया है। |
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निष्कर्ष |
विवेकानंद नारी के गौरवपूर्ण अस्तित्व को तथा समाज निर्माण में उनके अतुलनीय योगदान को स्वीकार करते थे। नारी सशक्तीकरण पर उनके विचार महत्वपूर्ण हैं। आध्यात्मिक आधार पर स्त्री पुरूष की समानता का आव्हान एवं मातृरूप में नारी की महत्वपूर्ण स्थिति को स्वीकारना नारी सशक्तीकरण को महत्वपूर्ण वैचारिक आधार प्रदान करता है।
उन्होंने नारी स्वाधीनता पर बल दिया। हालांकि वे उसे अति स्वतंत्र न बनाकर दायित्व पूर्ण बनाना चाहते हैं यह निश्चय ही वर्तमान स्थिति में अनुकरणीय है। ब्रम्हचर्य का प्रसार, अंतर्निहित गुणों का विकास, स्त्री शिक्षा, धर्म, निर्भीकता, आत्मरक्षा, कार्यकुशलता एवं स्वावलंबन की शिक्षा के उपाय अपेक्षित, प्रासंगिक व अनुकरणीय है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-6, कोलकाता, अद्वैत आश्रम, 1989, पृ. 37
2. शर्मा, उर्मिला एवं शर्मा, एस.के., इंडियन पॉलिटिकल थॉट, न्यू देहली, अटलांटिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 1997, पृ. 162
3. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-6, पूर्वोक्त, पृ. 13
4. विवेकानंद, स्वामी, भारतीय नारी, नागपुर, रामकृष्ण मठ, 2003, पृ. 47
5. उपर्युक्त, पृ. 51
6. उपर्युक्त, पृ. 52
7. उपर्युक्त, पृ. 50
8. उपर्युक्त, पृ. 96
9. रे., बी.एन., टेªडीशन एंड इनोवेशन इन इंडियन पॉलिटिकल, थॉट, देहली, अजंता, 1998, पृ. 317
10. विवेकानंद, स्वामी, भारतीय नारी, पूर्वोक्त, पृ. 14
11. उपर्युक्त, पृ. 14
12. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-6, पूर्वोक्त, पृ. 37
13. विवेकानंद, स्वामी, भारतीय नारी, पूर्वोक्त, पृ. 33
14. उपर्युक्त, पृ. 22
15. उपर्युक्त, पृ. 22
16. उपर्युक्त, पृ. 47
17. उपर्युक्त, पृ. 39
18. उपर्युक्त, पृ. 37
19. उपर्युक्त, पृ. 28
20. उपर्युक्त, पृ. 27
21. उपर्युक्त, पृ. 26
22. उपर्युक्त, पृ. 17
23. उपर्युक्त, पृ. 11
24. उपर्युक्त, पृ. 46
25. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-4, पूर्वोक्त, पृ. 268
26. विवेकानंद, स्वामी, भारतीय नारी, पूर्वोक्त, पृ. 19
27. उपर्युक्त, पृ. 25
28. उपर्युक्त, पृ. 11
29. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-6, पूर्वोक्त, पृ. 184
30. उपर्युक्त, भाग-4, पृ. 269 |