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भारत की अंतर्राष्ट्रीय पहचान: विवेकानंद चिंतन के विशेष संदर्भ में | |||||||
International Identity of India: With Special Reference to Vivekananda Thought | |||||||
Paper Id :
16893 Submission Date :
2022-12-10 Acceptance Date :
2022-12-19 Publication Date :
2022-12-24
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सारांश |
विवेकानंद का मानना था कि भारत धर्म और आध्यात्मिकता के मामले में अन्य राष्ट्रों की तुलना में अधिक समृद्ध है जिसका परित्याग न करने बल्कि उसे पुष्ट बनाने से भारत विश्व में अपना खोया हुआ स्थान पुनः प्राप्त कर सकता है। विवेकानंद की दृढ़ मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति की चाहे वह व्यक्ति हो या राष्ट्र एक खास अंतर्निहित स्वभाव गत विशेषता होती है जिसका परित्याग उसके वजूद को शून्य कर सकता है उस विशेषता को पहचान कर उसे पुष्ट बनाने से ही व्यक्ति या राष्ट्र प्रभावपूर्ण बन सकता है क्योंकि वही उसके लिए सहज और स्वाभाविक होता है इसी आधार पर उन्होंने भारत के लिए धर्म को चुना।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Vivekananda believed that India is more prosperous than other nations in terms of religion and spirituality, which by not abandoning but by strengthening it, India can regain its lost place in the world. Vivekananda had a strong belief that every person, whether it is a person or a nation, has a special inherent characteristic, the abandonment of which can nullify its existence, only by recognizing that characteristic and strengthening it, a person or a nation can become effective because He chose the religion for India on the basis of what is easy and natural for him. | ||||||
मुख्य शब्द | भारत, अंतर्राष्ट्रीय पहचान, धर्म, आध्यात्मिकता, विवेकानंद, जीवनी शक्ति, राजनीति, संस्कृति, योग, विश्व गुरु। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | India, International Identity, Religion, Spirituality, Vivekananda, Biography Power, Politics, Culture, Yoga, Vishwa Guru | ||||||
प्रस्तावना |
कभी विश्व गुरु कहलाया जानेवाला भारत लंबे समय से उस पद पर पुनः स्थापित होने के लिए लालायित है ।यह उत्सुकता और उत्साह वर्तमान में अपने पूरे जोर पर है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस हेतु नेतृत्व द्वारा भरपूर प्रयास किए जाते रहे हैं। भारतीय नेतृत्व ने कतिपय सफलताएं भी अर्जित की हैं। विद्यमान अंतरराष्ट्रीय विवादों में भारत से भूमिका निभाने का आग्रह, अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर उमड़ता वैश्विक उत्साह उसके कद को बढ़ाता हुआ प्रतीत होता है। स्वामी विवेकानंद (1863 -1902) के चिंतन में भारत को विश्व गुरु का पद पुनः दिलाने का आग्रह दिखाई देता है और उसके लिए वे धर्म या आध्यात्मिकता को पुनः पुष्ट बनाने का आह्वान करते हैं इस तकनीकी युग में यह भिन्न लग सकता है पर इस संदर्भ में विवेकानंद के तर्क अब भी सशक्त, उपयुक्त व प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | भारतीय चिंतन की गौरवशाली परंपरा की सशक्त कड़ी स्वामी विवेकानंद के विचारों में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सशक्त व महत्वपूर्ण बनाने हेतु उद्घाटित विचारों का विश्लेषण व प्रासंगिकता का प्रतिपादन। |
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साहित्यावलोकन | विवेकानंद चिंतन पर अद्वैत आश्रम
कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है
इसके अतिरिक्त विवेकानंद चिंतन पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीकाओं का जैसे रोमा
रोलां कृत 'द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल',ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स - लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द, कतिपय अन्य शोध पत्रों जैसे स्वामी विवेकानंद टुडे एंड टुमारो-भावेश
प्रामाणिक (2017), रिलीजन फॉर सेक्यूलर एज: मैक्स मूलर,
स्वामी विवेकानंद एंड वेदांता-जीन सी.मेकफॉल (2021)का भी अध्ययन किया गया है। अन्य शोध पत्रों से इतर यह शोध पत्र
विवेकानंद के चिंतन का अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में विश्लेषण करता है। |
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मुख्य पाठ |
विवेकानंद के चिंतन में जिन दो चीजों के लिए सर्वाधिक
आग्रह व असीम निष्ठा दिखाई देती है तथा जिन की प्रतिष्ठा व प्रभाव विस्तार के लिए
अथक प्रयास उन्होंने किये वे दो 'धर्म' व 'भारत' विवेकानंद
के अनुसार गहराई से संबंधित हैं। उन्होंने कहा कि धर्म भारत की आत्मा है जिसे उससे
पृथक् नहीं किया जा सकता। उनका मानना था कि भारत धर्म और आध्यात्मिकता के मामले
में अन्य राष्ट्रों की तुलना में अधिक समृद्ध है। जिसका परित्याग न करने बल्कि उसे
पुष्ट करने और उसका प्रसार करने से भारत विश्व में अपना खोया हुआ स्थान पुनः
प्राप्त कर सकता है। धर्म और भारत के अंतर्सम्बंध विषयक विवेकानंद के
विचारों में तीन बातें मुख्यतः दिखाई देती हैं पहली, कि धर्म भारत
की अंतर्निहित विशेषता है दूसरी, कि भारत की उन्नति भारत में
धर्म को पुष्ट बनाने से संभव है और तीसरी, कि यही धर्म या
अध्यात्म भारत को विश्व में महत्वपूर्ण स्थान दिलायेगा। विवेकानंद धर्म को भारत की मूलभूत अंतर्निहित विशेषता
मानते हैं और कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई विशेषता होती
है या उसका विशेष ओर झुकाव होता है या कहा जाये तो विशेष जीवनोद्देश्य होता है, भारत में वह धर्म है। भारत और धर्म में जीवन और जीवनी शक्ति का सा जुड़ाव
मानते हुए विवेकानंद कहते हैं कि पौराणिक कथाओं में जिस तरह प्राण शरीर के किसी
छोटे से अंश में आबद्ध बताये जाते हैं और जब तक वह अंश अस्पर्शित रहता है तब तक वे
अजेय होते हैं वैसे ही प्रत्येक जाति (राष्ट्र) में विशेष स्थान पर उसकी जीवनी
शक्ति संचित रहती है और जब तक वह स्थान अक्षुण्ण बना रहेगा, तब तक किसी प्रकार का दुख या विपत्ति उस जाति का विनाश नहीं
कर सकती। भारत की वह जीवनी शक्ति धर्म है और जब तक यह जाति पूर्वजों से प्राप्त इस
उत्तराधिकार को नहीं भूलेगी तब तक संसार में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है जो उसका
ध्वंस कर सके।‘’[1] उनका कहना था कि किसी राष्ट्र में राजनीतिक शक्ति
उसकी जीवनी शक्ति होती है जैसा कि इंग्लैंड में है, किसी में
कलात्मक शक्ति और अन्य में भी इसी तरह कोई और। उन्होंने कहा कि अमेरिकन्स को धर्म
का सामाजिक जीवन पर प्रभाव दिखाये बिना धर्म नहीं सिखाया जा सकता वैसे ही इंग्लैंड
में भी धर्म नहीं सिखाया जा सकता जब तक कि यह न सिखाया जाये कि यह कैसे उनकी
राजनीतिक व्यवस्था में आश्चर्यजनक रूप से परिवर्तन ला सकता है। जबकि भारतीय पवित्र
भूमि की रीढ़, जीवन केन्द्र धर्म और केवल धर्म है। भारत में
धर्म ही पूरे राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का मुख्य स्वर है। राजनीतिक श्रेष्ठता या
सामरिक शक्ति प्राप्त करना किसी भी काल में भारत का उद्देश्य न रहा है और न ही वह
समय कभी आगे आयेगा। विवेकानंद का यह कथन भारतीय राजनीतिक इतिहास के
परिप्रेक्ष्य में सत्य प्रतीत होता है। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, निरपेक्षता और विभिन्न राष्ट्रों से संबंधों में अपनाये जा
रहे उदारवादी रवैये में भी इसी भारतीय आध्यात्मिक जातिगत विशेषता के दर्शन होते
हैं। विवेकानंद कहते हैं कि धर्म और धार्मिकता से भारत और
भारतीय इतने ओत-प्रोत हैं कि यहाँ के बहुत से निवासियों को भले ही राजनीति या अन्य
विषयों के बारे में जानकारी न हो पर धर्म के विषय में हर एक व्यक्ति दो चार अच्छी बातें
जरूर बतायेगा। उनका कथन था- ‘’दूसरे राजनीति के बारे में, व्यापार में लगाये प्रचुर धन, व्यवसायों के प्रसार
और शक्ति के बारे में, भौतिक स्वतंत्रता के शानदार फव्वारों
के बारे में कितनी ही बातें करें, हिन्दू मन इसे नहीं समझता
और न ही समझना चाहता है। जबकि आध्यात्मिकता के बारे में, धर्म
के बारे में, ईश्वर के बारे में, आत्मा
के बारे में, अनंत के बारे में, आध्यात्मिक
स्वतंत्रता के बारे में उनके सामने बस जरा सी चर्चा छेड़ दो और मैं तुम्हें आश्वस्त
करता हूँ कि भारत में निम्न से निम्न किसान भी इन विषयों के बारे में दूसरे देशों
के तथाकथित दार्शनिकों में से बहुतों से अच्छा जानते हैं।‘’[2] उनका मानना था कि धर्म भारत की आत्मा है और भारत की
पतनावस्था व हीनावस्था का कारण है इसी धर्म या आध्यात्मिकता का परित्याग। यदि इस
मूलभूत विशेषता को पुष्ट बना लिया जायेगा तो बाकी चीजें तो स्वतः ही सही हो
जायेंगी। उन्होंने कहा- ‘’प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में एक
मुख्य प्रवाह होता है, भारत में वह धर्म है, उसे प्रबल बनाओ बस दोनों ओर के अन्यान्य स्रोत उसी के साथ-साथ चलेंगे।‘’[3] भारत की तत्कालीन दुर्दशा को दूर करने के लिए विवेकानंद ने राजनीतिक या
सामाजिक सुधारों के बजाय आध्यात्मिकता के प्रसार को ही प्राथमिकता देते हुए कहा कि
भारत में किसी भी तरह के समाजवादी या राजनीतिक विचारों के प्रवाह से पहले
आध्यात्मिक विचारों से पूरी तरह इस भूमि को आप्लावित हो जाने दो। विश्वनाथ नरवणे
लिखते हैं - विवेकानंद उन विचारकों और देशभक्तों से सहमत नहीं थे जो यह मानने लगे
थे कि सामाजिक प्रगति के साधन के रूप में धर्म की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। वे
तो गांधी के समान ही सोचते थे कि धर्म तो भारत की नियति के साथ ही जुड़ा हुआ है।[4] विवेकानंद ने भारतीयों को यह सोचने को विवश कर दिया कि यदि भारत ने
आध्यात्मिकता का परित्याग कर दिया तो उनका विनाश अवश्यंभावी है। उन्होंने कहा,
‘’ध्यान रखो, यदि तुम आध्यात्मिकता का
परित्याग कर दोगे और इसे एक ओर रखकर पश्चिम की जड़वाद पूर्ण सभ्यता के पीछे भागोगे,
तो परिणाम यह होगा कि तीन पीढ़ियों में तुम एक मृत जाति बन जाओगे
क्यों कि इससे राष्ट्र की रीढ़ टूट जाएगी, राष्ट्र की वह नींव
जिस पर इसका निर्माण हुआ है नीचे धँस जाएगी और इसका फल सर्वांगीण विनाश होगा।‘’[5] उनका मानना था कि धर्म और केवल धर्म ही भारत का जीवन
है और अगर ये चला जाता है तो राजनीति के बावजूद, सामाजिक सुधार
के बावजूद, प्रत्येक भारतीय पर उँडेले गये कुबेर के धन के
बावजूद यह मृत हो जायेगा पर मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि ये अल्प चीजें जरूरी
नहीं हैं या राजनीतिक और सामाजिक सुधार आवश्यक नहीं हैं मेरा मतलब है कि हमें यह
मस्तिष्क में रखना चाहिए कि ये चीजें गौण हैं, धर्म ही
प्राथमिक है क्यों कि जब जीवन रक्त मजबूत और शुद्ध होता है तो किसी भी बीमारी का
कीटाणु शरीर में नहीं रह सकता। हमारा जीवन रक्त आध्यात्मिकता है अगर यह स्वच्छता
से बहता है, अगर यह सशक्त शुद्ध और पुष्ट रहता है तो सब कुछ
ठीक रहता है। फिर राजनीतिक, सामाजिक व अन्य भौतिक कमियों
यहाँ तक कि इस भूमि की गरीबी से भी निजात पाया जा सकता है। उन्होंने इसे
समझाया-आधुनिक चिकित्सा शास्त्र से एक उपमा लेते हैं, हम
जानते हैं कि किसी भी बीमारी के उत्पन्न होने के दो कारण होते हैं कुछ विषैले
जीवाणु, जो बाहर होते हैं और एक शरीर की दशा। जब तक कि शरीर
उन जीवाणुओं को शरीर में घुसने देने की दशा में नहीं होता, जब
तक कि शरीर की जीवनी शक्ति कमजोर नहीं होती जिससे कि जीवाणु प्रवेश पा सकें,
फैल सकें और बढ़ सकें, तब तक किसी भी जीवाणु या
पूरी दुनिया में यह ताकत नहीं है कि शरीर में बीमारी उत्पन्न कर दे। वस्तुतः लाखों
जीवाणु लगातार हर एक के शरीर में से गुजरते रहते हैं पर जब तब कि वे पुष्ट न हों
डरने की जरूरत नहीं। और यह केवल तब ही होता है जब शरीर कमजोर हो। बिलकुल ऐसा ही
राष्ट्रीय जीवन के साथ भी है, जब राष्ट्र का शरीर कमजोर होता
है तब सभी तरह के जीवाणु राजनीतिक व्यवस्था में, सामाजिक
व्यवस्था में, बौद्धिक व शैक्षिक व्यवस्था में भीड़ की तरह बढ़
जाते हैं और बीमारी पैदा कर देते हैं। इसके इलाज के लिए इस बीमारी की जड़ में जाना
होगा और रक्त की सारी अशुद्धियों को साफ करना होगा। रक्त को शुद्ध और शरीर को दृढ़
बनाना होगा जिससे कि वह प्रतिरोध करने व बीमारियों को भगाने में समर्थ हो सके।[6] उन्होंने कहा कि हमारा उत्साह, हमारी शक्ति और केवल यही नहीं हमारा राष्ट्रीय जीवन हमारे
धर्म में है यही हमारी जाति का जीवन है और इसे सशक्त बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि
भारत विदेशी आक्रांताओं के बड़े-बड़े झटकों को इसीलिए झेल पाया कि हमारे पूर्वजों ने
सब कुछ त्याग दिया यहाँ तक कि मृत्यु को भी गले लगाया पर धर्म को सँभाल कर रखा।
विदेशी आक्रांताओं द्वारा मंदिर पर मंदिर तोड़े गये पर जब यह लहर चली गई तो मंदिरों
के शिखर फिर से उठ गये, पुनः युवा और शक्तिशाली, जैसे हमेशा से थे। यह ही राष्ट्रीय मन है, यह ही
राष्ट्रीय जीवन है। उनका मानना था भारतीय मन पहले धार्मिक है फिर कुछ और इसलिए इसे
मजबूत बनाना चाहिए। उनका आह्वान था - तुम्हारे सारे कार्यों को धर्म की शक्ति से
अनुप्राणित हो जाने दो, तुम्हारी नाड़ियों को धर्म की रीढ़ से
कंपित हो जाने दो। भारतीय आदर्श त्याग और सेवा हैं इन पर ध्यान दो और बाकी सब अपने
आप ठीक हो जाएगा। भारतीयों से उनकी यह अपेक्षा किसी भी समाज के संदर्भ
में उतनी ही सत्य है जितनी कि भारत के संदर्भ में, क्योंकि
अध्यात्म से परिपूर्ण समाज निश्चय ही अधिक परिष्कृत होगा यह भारत ही नहीं किसी भी
समाज के संदर्भ में कहा जा सकता है। पर विशेष रूप से भारत के लिए तो धर्म को अपनाना
विवेकानंद के अनुसार उसकी नियति है वह कोई और रास्ता अपना भी नहीं सकता। उन्होंने
कहा, ‘’चाहे भला हो या बुरा हमारी जीवनी
शक्ति हमारे धर्म में केन्द्रित है। तुम उसे परिवर्तित नहीं कर सकते, तुम इसे नष्ट भी नहीं कर सकते और न ही इसकी जगह किसी अन्य को रख सकते हो।
तुम एक बड़े वृक्ष को एक मिट्टी से दूसरी मिट्टी में लगाकर यह अपेक्षा नहीं कर सकते
कि वह अपनी जडें जल्दी जमा लेगा। चाहे भला हो या बुरा, धार्मिक
आदर्श भारत में हजारों वर्षों से प्रवाहमान रहा है, वह
वातावरण में व्याप्त है, हमारे रक्त में घुल गया है, हमारी नसों की प्रत्येक बूँद के साथ सनसनाता है, हमारी
शरीर रचना के साथ एकाकार हो गया है, हमारे जीवन का प्राणतत्व
बन गया है। क्या आप प्रतिक्रिया में उतनी ही ऊर्जा जागृत किये बिना, शक्तिशाली नदी ने हजारों वर्षों में अपने लिए जो सरणि काटी है उसे भरे
बिना, उसे त्याग सकते हैं? क्या आप
चाहते हैं कि गंगा अपने बर्फीले उद्गम को लौट जाए और नया मार्ग प्रारंभ करे ?‘’[7] और, उनके अनुसार धर्म का चयन भारत के लिए
उपयुक्त ही है उन्होंने तर्क दिया - ‘’प्रत्येक व्यक्ति को
अपनी स्वतंत्र इच्छा रखनी चाहिए उसी प्रकार राष्ट्रों के लिए भी वैसा ही उचित है।
हम युगों पहले अपने लिए यह चयन कर चुके हैं और हमें उस पर दृढ़ रहना चाहिए और आखिर
यह कोई बुरा चुनाव तो नहीं है। क्या पदार्थ के बजाय आत्मा के बारे में, मनुष्य के बजाय ईश्वर के बारे में सोचना बुरा है ? ईश्वर
में गहन विश्वास, आत्मा का तुममें मानना क्या गलत है ?
मैं चुनौती देता हूँ कि कोई भी इसे त्याग नहीं सकता। ......... तुम
भौतिकतावादी बनकर और भौतिकतावादी बातें करके केवल कुछ महीनों तक ही प्रभाव डाल
सकते हो। लेकिन यदि मैं ऐसा करूँ तो तुम वापस इतने अच्छे आस्तिक हो जाओगे जैसा
पहले कभी नहीं हुआ हो। तुम्हारी राजनीति की, सामाजिक
पुनर्निर्माण की, धन कमाने और व्यवसायीकरण की बातें, ये सब की सब बतख की पीठ पर रखे पानी की तरह लुढ़क जायेंगी।’’[8] वस्तुतः विवेकानंद की दृढ़ मान्यता थी कि प्रत्येक की
चाहे वह व्यक्ति हो या राष्ट्र एक खास अंतर्निहित, स्वभावगत
विशेषता होती है जिसका परित्याग उसके वजूद को शून्य कर सकता है। उस विशेषता को
पहचान कर उसे पुष्ट बनाने से ही वह व्यक्ति या राष्ट्र प्रभावपूर्ण बन सकता है
क्योंकि वह ही उसके लिए सहज और स्वाभाविक होता है। इसी तर्क के आधार पर संभवतः (जो
आधुनिक मनोविज्ञान के भी अनुरूप है) उन्होंने भारत के लिए धर्म को चुना।
उनका मानना था भारत आध्यात्मिक ज्ञान के मामले में सर्वश्रेष्ठ है। यही
आध्यात्मिकता उसे विश्व में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने वाली है, यह विवेकानंद का विश्वास था और उपनिषदों से प्रभावित जर्मन विद्वान शॉपेन
हॉवर का भी जिसे विवेकानंद ने उद्धृत किया, ‘’समस्त संसार
में उपनिषद् के समान हितकारी और उन्नायक अन्य कोई अध्ययन नहीं है।’’ उसने यह भी कहा, ‘’यूनानी साहित्य के पुनरूत्थान से
संसार के चिंतन में जो क्रांति हुई थी, शीघ्र ही विचार जगत्
में उससे भी शक्तिशाली और दिगंतव्यापी क्रांति का विश्व साक्षी होने वाला है।’’[9]
विवेकानंद भी कहते हैं कि यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध
हो रही है। ‘‘जो पाश्चात्य जगत् के विभिन्न
राष्ट्रों के मनोभावों को समझते हैं, वे देख पायेंगे कि
भारतीय चिंतन के इस धीर और अविराम प्रवाह के सहारे संसार के भावों, व्यवहारों, पद्धतियों और साहित्य में कितना बड़ा
परिवर्तन हो रहा है। हालाँकि विश्व पर यह प्रभाव धीरे-धीरे बिना कुछ मालूम हुए
जैसे एक सम्मोहन के जरिये विस्तृत हो रहा है।’’[10] और
फिलहाल तो यह वैश्विक सम्मोहन भारतीय अध्यात्म के साथ भारतीय योग, संगीत, संस्कृति और चिकित्सा पद्धतियों के प्रति भी
बड़े स्तर पर दिखाई दे रहा है। |
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निष्कर्ष |
यह अवश्य है कि वर्तमान समय विज्ञान और तकनीक का है और तकनीकी शक्ति बनना महत्वपूर्ण है। किंतु विश्व गुरु कहलाने के लिए तो हमें अपनी गौरवमय और श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत भारतीय दर्शन एवं आध्यात्मिकता का प्रसार करना होगा। वर्तमान समय में भारतीयों में तथा अन्य देशों में भी भारतीय संस्कृति, भारतीय चिकित्सा पद्धतियों, भारतीय दर्शन व अध्यात्म के प्रति अनुराग व्यापक तौर पर दिखाई दे रहा है इसलिए अगर विवेकानंद के विचारों का अनुसरण कर इस दिशा में पुनःऔर सशक्त प्रयास किए जाएं तो निश्चय ही भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान को और सशक्त कर सकता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-9, पृष्ठ 353
2. विवेकानंद, स्वामी, ऑन इंडिया एंड हर प्रॉब्लम्स, कोलकाता, अद्वैत आश्रम, 2001, पृ. 12
3. अवस्थी, अमरेश्वर एवं अवस्थी,रामकुमार, पूर्वोक्त, पृ. 87
4. उपर्युक्त, पृ. 77
5. उपर्युक्त, पृ. 89
6. विवेकानंद, स्वामी, ऑन इंडिया एंड हर प्रॉब्लम्स, पूर्वोक्त, पृ. 14
7. अवस्थी, अमरेश्वर एवं अवस्थी,रामकुमार, पूर्वोक्त, पृ. 77
8. विवेकानंद, स्वामी, ऑन इंडिया एंड हर प्रॉब्लम्स, पूर्वोक्त, पृ. 12
9. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-5, पूर्वोक्त, पृ. 110
10. उपर्युक्त, पृ. 110 |