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भारत में केन्द्र-राज्य सम्बन्धः - सहकारी संघवाद के संदर्भ में एक अध्ययन | |||||||
Centre-State Relations in India: A Study in the Context of Cooperative Federalism | |||||||
Paper Id :
16932 Submission Date :
2022-11-06 Acceptance Date :
2022-11-19 Publication Date :
2022-11-25
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सारांश |
सहकारी संघवाद एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें केन्द्र व राज्य क्षैतिज संबंध स्थापित करते हुए एक दूसरे के सहयोग से अपनी समस्याओं का समाधान करते हैं, जिसके मूल में यह निहित होता है कि केन्द्र और राज्यों में से कोई किसी से श्रेष्ठ नहीं है। ग्रेनविल ऑस्टिन ने भारतीय संघवाद को सहकारी संघवाद कहा है। ऑस्टिन के अनुसार ‘‘भारत की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संविधान सभा ने एक विशिष्ट प्रकार के संघवाद को जन्म दिया है। ‘भारत नई दिल्ली नहीं है, बल्कि राज्यों की राजधानियाँ भी है। राज्य केन्द्रीय सहायता के आकांक्षी है, किन्तु राज्यों के सहयोग के बिना संघ बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकता।’’[1] राज्यों की सहायता के बिना केन्द्रीय सरकार अपनी योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं कर सकती । वस्तुतः दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर है। सहकारी संघवाद एक अच्छी स्थिति कह सकते हैं, जिसमें केन्द्र और राज्य एक साथ मिलकर अपनी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर नीति और प्रशासनिक संबंधी व्यवस्थाओं में एकरूपता स्थापित करने का प्रयास करती है और केन्द्र - राज्य के मध्य जो खाई होती है, उसे पाटने का काम करती है। सहकारी संघवाद की अवधारणा में एकता, अखण्डता, बन्धुत्व के लिहाज से बहुत ही उपयुक्त प्रतीत होती है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Cooperative federalism is such a concept, in which the center and the states establish horizontal relations and solve their problems with the help of each other, the core of which lies in the belief that neither the center nor the states is superior to the other. Grenville Austin has called Indian federalism as cooperative federalism. According to Austin, “The Constituent Assembly has given birth to a specific type of federalism to meet the specific needs of India. 'India is not New Delhi, but also the capitals of the states. The states are desirous of central assistance, but without the cooperation of the states, the union cannot last long.”[1] Without the assistance of the states, the central government cannot implement its plans. In fact both are dependent on each other. Cooperative federalism can be said to be a good situation, in which the center and the state together rise above their party politics and try to establish uniformity in policy and administrative arrangements and work to bridge the gap between the center and the state. Does In the concept of cooperative federalism, unity, integrity and fraternity seem very appropriate. | ||||||
मुख्य शब्द | केन्द्र - राज्य सम्बन्ध, सहकारी संघवाद, संघवाद के विभिन्न रूप, नीति आयोग, लोकतंत्र। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Centre-State Relations, Cooperative Federalism, Different Forms of Federalism, Policy Commission, Democracy. | ||||||
प्रस्तावना |
संघवाद शब्द एक राष्ट्र में सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच शक्तियों के वितरण को संदर्भित करता है। संघवाद शब्द लेटिन भाषा के शब्द “फोएडस” से लिया गया है, जिसका अर्थ है सन्धि / समझौता। ‘‘भारत के संविधान के अंग्रेजी संस्करण में फैडरेशन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, बल्कि (यूनियन) शब्द का प्रयोग किया गया है। हालांकि हिन्दी भाषा में फैडरेशन और यूनियन दोनों के लिए एक ही संघ शब्द का प्रयोग होता है, लेकिन संविधान भारत का वर्णन इन शब्दों में करता है।
अनुच्छेद-1 - (1) भारत अर्थात् इण्डिया, राज्यों का संघ (यूनियन) होगा। (2) राज्य और उनके राज्य क्षेत्र वे होंगे, जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।’’[2]
एक देश को प्रशासनिक सुविधा के लिए विभिन्न प्रान्तीय उपइकाईयों में विभाजित किया जाता है और ये छोटी इकाईयाँ मिलकर राष्ट्र का निर्माण करती है। भारत के पास पूरी तरह से संघीय संविधान नहीं है। इसके बजाय भारत के संघीय ढाँचे में संघ के प्रति एक अन्तर्निहित पूर्वाग्रह है। भारतीय संविधान के निर्माताओं का मानना था कि राजनीतिक रूप से स्थिर देश बनाने के लिए संघ को राज्यों की तुलना में अधिक अधिकार देय होंगे। संघवाद के भारतीय मॉडल में सरकार के दो स्तर हैं । एक संघ / केन्द्र और दूसरा राज्य । इसलिए भारत में एक केन्द्रितकृत संघवाद है, जिसमें जब भी राज्य और केन्द्र के बीच हितों का टकराव होता है तो केन्द्र का पलड़ा भारी होता है।
के.सी. व्हीयर - पुस्तक - फैडरल गर्वनमेन्ट (1963) -
‘‘के.सी. व्हीयर के अनुसार, भारत मुख्यतः एकात्मक राज्य है, जिसमें संघीय विशेषताएँ नाममात्र है। भारत का संविधान संघीय कम है और एकात्मक अधिक है। अर्थात् अर्द्ध-संघात्मक है।’’[3] डेनियल जे. एलाजार के अनुसार ‘‘संघीय पद्धति ऐसी व्यवस्था प्रदान करती है जो अलग अलग राज्य व्यवस्थाओ को बाहर से घेरने वाली राजनीति पद्धति मे इस प्रकार संगठित करती है कि इनमे से हर एक अपनी-2 मूल राजनीतिक अखंडता को बनाए रखती है।’’[4] गार्नर ‘‘संघात्मक सरकार वह पद्धति है जिसमे समस्त शासकीय शक्ति एक केन्द्र सरकार तथा उन विभिन्न राज्यो अथवा क्षेत्रीय उपविभागो की सरकारो के बीच विभाजित एवं वितरित रहती है जिनको मिलाकर संघ बनता है।’’[5] संघीय व्यवस्था मे दो प्रकार की सरकारे होती है केन्द्र सरकार और राज्य सरकारे तथा शक्तियो का विभाजन इन दोनो के मध्य होता है। संघीय सरकार / शासन के विषय राष्ट्रीय महत्व के होते है जबकि राज्य सरकारो के विषय स्थानीय महत्व के होते है। ‘‘चूंकि संघीय पद्धति एक संधि का रूप धारण कर लेती है अतः संविधान मे या तो उन अधिकारो का उल्लेख किया जाना चाहिए जिन्हें संघ मे शामिल होने वाली इकाईयां बनाए रखना चाहती है या उन अधिकारो का उल्लेख किया जाना चाहिए जिन्हें संघीय प्राधिकरण अपने पास रखेगा।’’[6] नॉर्मन डी. पामर भारतीय संघीय व्यवस्था प्रशासनिक संघ है, क्योंकि संकटकाल में केन्द्र का राज्यों पर प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित हो जाता है। सर आइवर जेनिंग्स-पुस्तक-सम कैरेक्टरिटिक्स ऑफ इण्डियन कांस्टिट्यूशन 1953 भारत एक ऐसा संघ है, जिसमें केन्द्रीयकरण की तीव्र प्रवृत्ति पायी जाती है। मोरिस जोन्स के अनुसार भारत मे सौदेबाजी संघवाद है।
डॉ. भीमराव अम्बेड़कर के अनुसार शांतिकाल में भारतीय संविधान संघीय (फैडरल) है तथा आपातकाल के दौरान यह एकात्मक (यूनियन) हो जाता है
राजेन्द्र प्रसाद- व्यक्तिगत रूप से मैं इस बात को कोई महत्व नहीं देता कि इसे आप संघीय संविधान या एकात्मक संविधान अथवा किसी अन्य नाम से पुकारते हैं । यदि संविधान हमारे उद्देश्यों को पूरा करता रहे तो नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता।
डायसी का मानना है कि ‘‘शक्तियों का विभाजन सहकारी संघवाद का आवश्यक लक्षण है एक संघीय राष्ट्र जिस उद्देश्य से बनाया जाता है वह राष्ट्रीय सरकार व पृथक राज्यो के बीच सत्ता का विभाजन करना है।’’[7]
ग्रेनविल ऑस्टिन ‘‘भारत की विशिष्ट आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए संविधान सभा ने एक विशिष्ट प्रकार के संवाद को जन्म दिया है तथा भारत मे सहकारी संघवाद है।’’[8]
भारतीय संघ में संघात्मक व्यवस्था के लक्षण -
1. दो सरकारें
2. शक्तियों का विभाजन
3. लिखित संविधान
4. संविधान की सर्वाेच्चता
5. संविधान की कठोरता
6. स्वतंत्र न्यायपालिका
7. संसद के दो सदन, उच्च सदन राज्य सभा राज्यों का सदन
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अध्ययन का उद्देश्य | भारत मे सहकारी संघवाद की पृष्ठभूमि, के महत्व, आवश्यकता, एवं चुनौतियो का पता लगाकर उनका विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष एवं सुझाव प्रस्तुत किए गए है। |
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साहित्यावलोकन | पवनप्रीति सिंह, ‘‘भारत मे सहकारी संघवाद: एक संवैधानिक वास्तविकता या
एक मिथक’’[9]
लेक्स फोर्टी, लीगल
जर्नल, वोल्यू-1, आईएसएसएन:- 25822942 इस शोधपत्र मे लेखक ने भारत मे सहकारी संघवाद के बारे
मे संविधान मे क्या उपबंध है और इन उपबंधो के तहत सहकारी संघवाद किस स्तर तक
स्थापित हो पाया है एवं इसके साथ ही सहकारी संघवाद का भारत मे इतिहास क्या रहा है
बताया गया है तथा लेखक के अनुसार भारत मे सहकारी संघवाद की भावना निम्नलिखित द्वारा
देखी जा सकती है। 1. शक्तियो का वितरण 2. संविधान की सर्वोच्चता 3. एक
लिखित संविधान 4. कठोरता और 5. न्यायालयो का अधिकार एवं केन्द्र राज्यो और स्थानीय
स्तरो के बीच संबंध भारत की राष्ट्रीयता के भावना के केन्द्र मे बताया है। अंबर कुमार घोष, ‘‘द पेराडाक्स ऑफ सेन्ट्रलाइज्ड फेडरलिज्म: एन एनलाइसिस
ऑफ द चैलेन्जेस टू इंडियाज फेडरल डिजाइन’’[10], ओआरएफ, सितम्बर
2020 आईएसबीएन:- 9788194778394, कोलकाता इस शोधपत्र मे लेखक द्वारा केन्द्रीकृत संवाद का
विरोधाभास एवं इसके समक्ष चुनौतियो को बताया है भारतीय संघवाद का मॉडल दुनिया का
अनोखा मॉडल हो सकता है जिसकी विशेषता विरोधाभास से है जिसकी शुरूआत केन्द्रीकृत
संघवाद से होती है कि किस प्रकार भारतीय राजनीति की केन्द्रीकृत संवैधानिक
व्यवस्था के बावजूद इनमे से प्रत्येक चरण मे प्रचलित राजनीतिक कारको ने भारतीय
संघीय विमर्श को मजबूत करने का काम किया है इस पेपर मे समय के साथ विभिन्न
राजनीतिक कारको द्वारा आकारित भारतीय संघ प्रतिक्रिया के विभिन्न पेटर्न पर प्रकाश
डालता है और भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करने के लिए सिफारिशे प्रदान करता है। प्रकाशचन्द्र झा,‘‘इडियाज कॉर्पोरेटिव फेडरलिज्म डयूरिंग कोविड-19
पेन्डेमिक[11]’’ जून
2022 आईआईपीए, 68(2) 245-256, 2022 रिप्रिंट एण्ड परमिशन्सः-सेज पब्लिकेशन्स इस लेख मे भारत मे कोविड 19 महामारी की चुनौतियो और
आर्थिक संकट एवं बडे पैमाने पर मानव प्रवासन जैसे प्रभावो से निपटने मे सहकारी
संघवाद की भूमिका का परीक्षण किया गया है महामारी प्रतिक्रिया के प्रारंभिक चरणो
ने भारतीय संघीय ढांचे मे एकात्मक झुकाव को उजागर किया है। इस संकट के बाद के चरणो
मे सहकारी संघवाद भी दिखाई देता है फिर भी राज्यो के मध्य सहयोग की कमी और इस
उद्देश्य के लिए किसी भी अंन्तरसरकारी एजेन्सी को शामिल किए बिना क्षैतिज संघवाद
को सुविधाजनक बनाने मे केन्द्र की विफलता ने प्रवासी श्रमिको के जीवन को दयनीय बना
दिया तथा महामारी ने भारत के जमीनी स्तर के महत्व को सामने ला दिया। महेन्द्र प्रसाद सिंह ‘‘फेडरलिज्म इन इंडिया’’[12] सेज पब्लिकेशन्स, प्राइवेट लिमिटेड, फर्स्ट एडिशन, आईएसएसएन 9789354790096, 25 जनवरी 2022 इस पुस्तक मे लेखक द्वारा भारत मे संघवाद के वैश्विक
तुलनात्मक परिपेक्ष्य के साथ भारतीय संघीय व्यवस्था का एक व्यापक नवसंस्थागत
विश्लेषण प्रस्तुत करता है राष्ट्रमंडल संसदीय संघीय मॉडल के एक प्रकार के रूप मे
शुरूआत करते हुए भारत ने अपनी अनूठी विशेषताओ को अपनाया है और साथ ही साथ ऐसा
पाठ्यक्रम भी तैयार किया है जो कुछ मानको मे इसे कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे
राष्ट्रमंडल देशो से विशेष रूप से अलग करता है भारतीय संघीय प्रणाली को समझने और
उसका विश्लेषण करने के लिए यह पुस्तक उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी युरोप, एशिया और अफ्रीका मे सरकार के संघीय रूप
की उत्पत्ति और पदचिन्हो की जांच करती है। यह इतिहास और समकालीन राजनीति मे इसकी
उत्पत्ति पर चर्चा करती है। रेखा सक्सेना, ‘‘न्यू डायमेन्शन इन फेडरल डिर्स्कोस इन इंडिया’’[13], रोटलेंड इंडिया पब्लिकेशन, आईएसबीएन 9781032045818, 21 दिसम्बर 2022 इस पुस्तक मे लेखिका के द्वारा भारत मे संघवाद के
अध्ययन मे अब तक अनसुलझे आयामो की पडताल की गई है यह स्वतंत्रता और विशेष रूप से
आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारतीय संघवाद मे निरन्तरता और परिवर्तन का पता लगाया
है 1990 के दशक मे बहुदलीय प्रणाली, गठबंधन सरकारो के उद्भव, न्यायिक स्वभाव मे बदलाव और अर्थव्यवस्था
के निजीकरण और वैश्विकरण की शुरूआत के कारण भारत मे अधिक से अधिक संघीयकरण की ओर
रूझान रहा है हालांकि 2014 से गठबंधन सरकार मे एक दल के बहुमत के संदर्भ मे भारतीय
संघवाद मे नए पहलू सामने आये है यह पुस्तक संघवाद के कई पहलूओ के बारे मे बताती है
जैसे प्रशासनिक संघवाद, पर्यावरणीय
और संसाधन संघवाद, राजकोषीय
संघवाद की बदलती गतिशीलता और बहुस्तरीय शासन आदि इस पुस्तक मे विभिन्न राज्यो के
तुलनात्मक और केश स्टडीज के साथ यह अनुच्छेद 356 और इसके सहित कई मुद्दो का विवेचन
करती है। |
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विश्लेषण | समस्या- सहकारी संघवाद वर्तमान दौर मे एक जटिल समस्या है
क्योकि विभिन्न राजनीतिक दलो की सरकार विभिन्न राज्यो मे होने के कारण आपसी सहयोग
नही हो पाता इसके कारण सहकारी संघवाद कमजोर होता प्रतीत होता है एवं अनेक समस्याए
है जो निम्नलिखित है - 1. अति केन्द्रीयकरण- भारत संघ सरकार के हाथों में
राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ है। केन्द्र के कई नियम व योजनायें राज्यों को
भेदभावपूर्ण लगते हैं। इससे राज्य और केन्द्र के बीच टकराव उत्पन्न होता है। 2. क्षैत्रवाद- भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहाँ अनेक संस्कृतिक, बोलियाँ, परम्पराएं हैं, जो क्षैत्रवाद को मजबूत करती है, जिससे क्षेत्रवाद की भावना प्रबल होती है
और यह ही अलगाववाद को जन्म देती है ‘‘आर्थिक स्त्रोत कम है और मांगो मे निरंतर वृद्धि हो
रही है मांग और उत्पादन मे अंतर का एक प्रभाव यह है कि व्यक्तित्व समुदाय, वर्ग और क्षेत्र सभी स्तरो पर
प्रतिस्पर्धा होती है।’’[14] 3. राष्ट्रपति शासन- केन्द्र व राज्यों के बीच टकराव
का एक कारण राष्ट्रपति शासन भी है। केन्द्र द्वारा अपने विपक्षी दल की सरकार वाले
राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर केन्द्र द्वारा राज्य सरकार को भंग करने और सत्ता
को अपने हाथों में लेने के लिए राष्ट्रपति शासन के तहत शक्तियों का दुरूपयोग करने
की कोशिश की जाती है। 4. कराधान- वित्त हमेशा से ही राज्य और केन्द्र के
बीच विवादास्पद मुद्दा रहा है केन्द्र द्वारा भेदभावपूर्ण नीति इसका कारण है। 5. एक समान दृष्टिकोण- केन्द्र नीतियाँ बनाते समय
भारत की विविधता को ध्यान में रखने में विफल रहता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश
में एक समान नीतियाँ इतनी प्रभावशाली नहीं होती। 6. राज्यपाल की भूमिका- केन्द्र राज्य संबंधो मे
राज्यपाल की अहम भूमिका होती है लेकिन राज्यपाल के पदावधि, योग्यता एवं नियुक्ति के संबंध मे संविधान
मे कुछ उपबंध न होने के कारण केन्द्र सरकार द्वारा राज्यपाल को एक मोहरे के रूप मे
प्रयोग किया जाता है कुछ केन्द्र राज्य संबंध को प्रभावित करता है सरकारिया आयोग
ने राज्यपाल के निश्चित कार्यकाल, योग्यता एवं नियुक्ति के संदर्भ मे संविधान मे उपबंध करने की सिफारिश की थी। 7. नदी जल विवाद- केन्द्र राज्य संबंधो मे नदी जल को
लेकर भी समस्याए उत्पन्न होती है जिसके कारण केन्द्र का हस्तक्षेप स्वाभाविक हो
जाता है इससे केन्द्र राज्य संबंध प्रभावित होते है। 8. अलगाववाद की समस्या- केन्द्र राज्य संबंधो मे
अलगाववाद भी एक समस्या है जैसे इन्दिरा गांधी के समय मे पंजाब मे उठी समस्या, एवं अभी हाल ही मे कुछ राज्यो मे नए राज्य
बनाने की मांग एवं क्षेत्रीयता की बढती भावना केन्द्र राज्य संबंधो को प्रभावित
करती है। सहकारी संघवाद के सुदृढ़ीकरण हेतु कारक- 1. अन्तर्राज्यीय परिषद्-
अनुच्छेद 263 के अनुसार इस परिषद् की स्थापना की गई, जिससे राज्यों के मध्य आपसी सहयोग बढ़ सके । 2. क्षेत्रीय परिषदें- 3. राष्ट्रीय एकता परिषद्- 4. नीति आयोग- स्थापना 1 जनवरी, 2015, आयोग की एक गवर्निंग कौंसिल है, जिसमें सभी राज्यों व संघ के मुख्यमंत्री
तथा उपराज्यपाल हैं। आयोग सहकारी संघवाद को बढ़ावा देगा। आयोग पॉलिसी थिंक टैंक का
कार्य करेगा। इसमें विभिन्न क्षेत्र के विशेषज्ञ होंगे, जो राष्ट्र के सामाजिक व आर्थिक विकास के
लिए राज्यों के साथ मिलकर नीतियाँ बनायेंगे। नीति आयोग राष्ट्रीय व
अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न नीतिगत मुद्दों पर केन्द्र व राज्य सरकारों को
राजनीतिक व तकनीकी परामर्श देगा। नीति आयोग, योजना आयोग के विपरीत टॉप टू बॉटम की बजाय बॉटम टू
टॉप के तरीके पर कार्य करेगा। 5. वित्तीय सहयोग की राजनीति- राज्य
अपना प्रशासन एवं योजनाओं के क्रियान्वयन के वित्त के लिए केन्द्र सरकार द्वारा
मिलने वाले अनुदान एवं सहायता पर निर्भर है। इन सभी कारकों से सहकारी संघवाद की कल्पना की जाती
है। आमतौर पर एक ही समय में संघवाद के सभी आयामों को देखा जा सकता है । जैसे कि
केन्द्र में भाजपा की सरकार है और कई राज्यों में भी भाजपा की सरकार है। ऐसे में
भाजपा शासित राज्यों और भाजपा शासित केन्द्र के साथ स्वाभाविक रूप से सहयोग का भाग
दिखता है। केन्द्र की योजनाओं, विधियों या आदेश आदि को इन राज्यों में अच्छे से पालन किया जाता है। इसी तरह
केन्द्र भी इन राज्यों की सुनती है और बहुत सारी चीजों में इन राज्यों को
प्राथमिकता भी मिलती है। कुल मिलाकर ये सहकारी संघवाद का एक बढ़िया उदाहरण पेश करता
है। वहीं अगर उन तथ्यों को देखें जिसमें भाजपा की सरकार नहीं है तो वहाँ पर एक
प्रतियोगिता का भाव दिख सकता है। किसी चीज में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ दिख
सकती है। यानी की प्रतियोगी संघवाद का रूप दिख सकता है । उदाहरण के लिए जीएसटी आने
से पहले की स्थिति को देखा जा सकता है । जहॉ राज्यों को अपने हिसाब से चीजों पर कर
लगाने का अधिकार था और उन्हें पूरी छूट थी कि वो अपने राज्य में किसी खास वस्तु पर
जितना चाहे उतना कर लगा सकती थी, पर एन.डी.ए. सरकार आने के लिए जीएसटी लाया गया। इस व्यवस्था को लाने के पीछे
सहकारी संघवाद भी एक कारण था, जिसमें सभी राज्यों के सहभागिता पर जोर दिया गया तथा कर उगाही में एकरूपता
करने का प्रयास किया गया। अगर उन राज्यों को देंखे जिसमें भाजपा की सरकार नहीं
तो वहाँ पर कई मुद्दों पर केन्द्र के साथ एक संघर्ष / विवाद की स्थिति दिख सकती
है। जैसे कि केन्द्र ने सीएए पारित किया, लेकिन कई राज्यों ने उसे मानने से इंकार कर दिया और
बाकायदा उसके लिए अपने विधानसभा में प्रस्ताव भी पारित किया। हालांकि राज्यों के
ऐसे रवैये से कुछ होना नहीं है, फिर भी दोनों के संबंध में एक प्रकार की कड़वाहट दिखती है और कम से कम सहयोग की
भावना तो ऐसे मुद्दों पर बिल्कुल नहीं दिखती । इस तरह की स्थिति को संघर्षात्मक
संघवाद कहा जाता है। कई बार स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि केन्द्र और राज्य
में मारा-मारी उतर आती है। राज्य सरकार व केन्द्र सरकार के दलों के बीच कभी-कभी
हिंसा भी हो जाती है। इस तरह की स्थिति को आक्रामक संघवाद कहा जाता है। केन्द्र राज्य संबंधों पर गठित आयोग- 1. राजमन्नार आयोग- 1969
में तमिलनाडु की डी.एम. के. सरकार (मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि) ने केन्द्र-राज्य
संबंधों पर जॉच समिति का गठन किया। इसके अध्यक्ष डॉ. पी.वी. राजमन्नार थे, इसलिए इसे राजमन्नार समिति भी कहा जाता है
केन्द्र ने इस समिति की सिफारिशों को खारिज कर दिया। 2. पश्चिम बंगाल सरकार का मेमोरेण्डम या
स्मरण पत्र- 1977 यह मेमोरेण्डम पश्चिमी बंगाल की वामपंथी सरकार ने दिया, जिसमें राज्यों की शक्तियां बढ़ाने तथा संघ
की घटाने की मांग थी। 3. सरकारिया आयोग- 1983
केन्द्र की इन्दिरा गांधी सरकार ने केन्द्र-राज्यों के मध्य बढ़ते विवादों के
मद्देनजर जून-1983 में सर्वाच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश रणजीत सिंह
सरकारिया की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग बनाया। आयोग के दो अन्य सदस्य थे शिवरमण
व डॉ. एस. आर. सेन। 4. सरकारिया आयोग की मुख्य सिफारिशें-
अनुच्छेद 263 के अनुसार अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना की जाए। आयोग की अनुशंषा
मान 1990 में वी. पी. सिंह की सरकार ने अन्तर्राज्यीय परिषद् का गठन किया। 1. सरकारिया आयोग के केन्द्रीयकृत नियोजन (योजना आयोग), अखिल भारतीय सेवाओं, अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) व राज्यों
में केन्द्रीय बल भेजने आदि को आवश्यक माना । 2. राष्ट्रीय विकास परिषद् का पुनर्गठन कर इसे राष्ट्रीय आर्थिक
एवं विकास परिषद् बनाने का सुझाव दिया । 3. अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) का प्रयोग अन्तिम विकल्प के
रूप में किया जाए तथा राज्य विधानसभा को संसद की स्वीकृति के बाद ही भंग किया जाए
। 4. क्षेत्रीय परिषदों का गठन किया जाना चाहिए । 5. अखिल भारतीय सेवाओं को आवश्यक माना तथा कुछ नई अखिल भारतीय
सेवाओं के निर्माण की सिफारिश की जैसे - इंजीयनिंग चिकित्सा तथा शिक्षा के लिए
अखिल भारतीय सेवा का गठन किया जाना चाहिए । 6. अनुच्छेद 200, 356, 365 को हटाने की आवश्यकता नहीं है। 7. अनुच्छेद 200 के अन्तर्गत यदि राज्यपाल किसी विधेयक को
राष्ट्रपति की राय के लिए आरक्षित करें, तो इस पर चार महीने के अन्दर निर्णय लिया जाना चाहिए
। 8. भारत में त्रिभाषा फार्मूले को लागू किया जाना चाहिए। 9. राज्य में केन्द्रीय सशस्त्र बलों को तैनात करते समय सम्भव
होने पर परामर्श कर लेना चाहिए, किन्तु यह परामर्श केन्द्र के लिए बाध्यकारी नहीं हो
सकती है। 5. पूंछी आयोग 2007 (रिपोर्ट सौंपी -
2010)- 1. केन्द्र-राज्य संबंधों पर विचार हेतु मनमोहन सिंह की सरकार
ने 2007 में सर्वाेच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मदन मोहन पूंछी की
अध्यक्षता में आयोग का गठन किया। 2. आयोग पाँच सदस्यीय था, अन्य चार सदस्य - धीरेन्द्र सिंह, विनोद कुमार दुग्गल, माधव मोहन, अमरेश बागची। आयोग की मुख्य सिफारिशें - 3. चुनावपूर्ण गठबंधन को एक दल माना जाए ताकि मुख्यमंत्री
नियुक्ति में ज्यादा विवाद न हो। 4. वर्ष 2000 में गठित संविधान समीक्षा आयोग जिसे वैंकटचलैया
आयोग भी कहा जाता है। इस आयोग की सिफारिश को आधार मान पूंछी आयोग से भी कहा कि
राज्यपाल की नियुक्ति एक समिति की सिफारिश पर हो जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री वगैरा हो। 5. राज्यपाल को हटाने के लिए विधानसभा में महाभियोग की
प्रक्रिया हो। 6. आयोग के राज्यपालों के मनमानी तरीके से बर्खास्तगी की आलोचना
की । आयोग के अनुसार, राज्यपालों को राजनीतिक फुटबाल की तरह प्रयोग नहीं करना चाहिए। 7. अनुच्छेद-200 के तहत राष्ट्रपति के लिए आरक्षित विधयेक चार
माह से ज्यादा ना रोका जाए। 8. राज्यों को ज्यादा वित्तीय स्वायतता दी जाए तथा पंचायती राज
को मजबूत किया जाए। 9. आयोग के अनुसार, अनुच्छेद 355, 356 में संशोधन होना चाहिए। विश्लेषण- भारत एक विविधतापूर्ण देश है और यहां पर भाषा के स्तर
पर, धर्म के स्तर पर, संस्कृृति के स्तर पर, आदि रूपो मे विविधताएं पाई जाती है और इस
बहुसांस्कृतिक देश मे हर वर्ग अपनी स्वायत्ता बनाए रखना चाहता है जिसके कारण वह
कुछ अपने मूलभूत अधिकारो की मांग करता है और यह अधिकार राज्यो द्वारा प्राप्त करते
है और इसी कारण विकेन्द्रीकरण और साथ ही सत्ता का स्थानांतरण आवश्यक हो जाता है
इसी को ध्यान मे रखते हुए भारत मे संविधान निर्माताओ ने संघ सूची एवं राज्य सूची
अलग-2 सूचियो का निर्माण किया एवं 1994 मे संपूर्ण भारत मे पंचायत राज्य व्यवस्था
लागू होने के कारण कुछ हद तक राज्यो को स्वायत्ता प्रदान की गई। अमल रे. के अनुसार
‘‘संघवाद की नवीन
धारणा के अंतर्गत संघीय व्यवस्था मे दो तरह की सत्ताओ को राष्ट्रीय उद्देश्यो की
पूर्ति मे सहयोगी बनाया जाता है तथा एकीकृत समाज का निर्माण होता है।’’[17] केन्द्र राज्य
मे विवाद की स्थिति हो तब न्यायपालिका द्वारा इस विवाद का हल किया जाता है इसके
लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई तथा इसीलिए भारत देश के विकास हेतु
सहकारी संघवाद आवश्यक हो जाता है आजादी के उपरांत भारत मे सहकारिता संघवाद की
स्थापना हुई क्योकि उस समय एक दलीय व्यवस्था विद्यमान थी जिसे एक दलीय प्रभूत्व
व्यवस्था का नाम भी दिया जाता था जिससे संघ एवं राज्य मे समान दल का प्रभूत्व
स्थापित था जो आपसी सहयोग से विकास मे योगदान देते थे लेकिन 1967 मे केरल मे
विपक्षीय दल की सरकार बनने तथा 1977 तक आते आते अनेक दलो के अस्तित्व मे आने के
बाद केन्द्र व राज्यो मे अलग अलग दलो की सरकार बनने के बाद तथा दलो मे आपसी
प्रतिस्पर्धा एवं उच-नीच की भावना के कारण संघ एवं राज्यो मे आपसी सहयोग मे कमी
दिखाई देने लगी जिससे केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजनाए, नीतियां राज्यो मे सही तरीके से लागू नही
हो पाती तथा वे योजनाए एवं नीतियां जो विकास को ध्यान मे रखकर बनाई गई थी वे धरातल
पर उतरती प्रतीत नही होती है। सुझाव- सहकारी संघवाद के लिए यह जरूरी शर्त हो जाती है कि
केन्द्र व राज्य आपसी सहयोग एवं मिलकर कार्य करे किसी भी देश की प्रगति उसकी
ईकाईयो या राज्यो की प्रगति पर निर्भर करती है यदि राज्य खुशहाल एवं प्रगति के
मार्ग पर होगे तो देश स्वतः ही प्रगति करेगा। केन्द्र द्वारा राज्य मे अनुचित
हस्तक्षेप विवाद की स्थिति उत्पन्न करता है राज्य को अपने मामलो मे स्वतंत्र रूप
से कार्य करने देना चाहिए क्योकि राज्य ही धरातल स्तर पर देश की कमजोरियो एवं
मजबूती का पता लगा सकते है। केन्द्र द्वारा बनाई गई योजना के क्रियान्वयन मे
राज्यो की अहम भूमिका होती है वे किसी केन्द्र द्वारा प्रयोजित योजना को अच्छी या
गलत सिद्ध कर सकते है इसके लिए राज्यो को क्रियान्वयन के स्तर पर पूरे तरीके से
स्वतंत्र छोड दिया जाना चाहिए अभी हाल ही मे आयी वैश्विक महामारी कोरोना का
प्रबंधन राज्यो ने भलीभांति किया यह तभी संभव हो पाया जब राज्य इस संबंध मे
स्वतंत्र निर्णय ले सके जैसे राजस्थान मे मुख्यमंत्री द्वारा कोरोना के समय लागू
भीलवाडा मॉडल को सभी राज्यो ने सराहना की अतः संघ एवं राज्यो को आपसी प्रभूत्व की
होड छोडनी होगी तथा सभी राजनीतिक दलो को देश की समस्या पर एकजुट होकर कार्य करे तब
ही इस महामारी से निजात पाया गया। अतः जिस भावना से संविधान निर्माताओ ने संविधान
की रचना की उस भावना के अनुसार सहयोग एवं शासन स्थापित करना होगा। |
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निष्कर्ष |
संघवाद एक इन्द्रधनुष की भांति होता है, जहाँ प्रत्येक रंग का अलग अस्तित्व होता है, लेकिन वे सभी रंग मिलकर एक सुन्दर और सद्भावपूर्ण दृश्य उपस्थित करते हैं । संघीय व्यवस्था केन्द्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाये रखने का कार्य करती है । कोई भी कानूनी या सांस्थानिक फार्मूला संघीय के सुचारू रूप से कार्य करने की गारन्टी नहीं दे सकता। सहकारी संघवाद की सफलता के लिए जनता और राजनीतिक प्रक्रिया को पारम्परिक विश्वास, सहनशीलता तथा सहयोग की भावना पर आधारित कुछ गुणों, मूल्यों और संस्कृतिक का विकास करना चाहिए । सहकारी संघवाद एकता और अनेकता दोनों का आदर करता है। अनेकता और विविधताओं को समाप्त कर राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ऐसी बाध्यकारी एकता वास्तव में और ज्यादा सामाजिक संघर्ष तथा अलगाव को जन्म देती है, जो अंत में एकता को ही नष्ट कर देती है। विभिन्नता और स्वायत्ता की मांगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोग संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है ।
सहकारी संघीय व्यवस्था का मूल तत्व केन्द्र और राज्योंके आपसी सहयोग को दर्शाता है। केन्द्र व राज्यों के आपसी सहयोग के लिए दोनों इकाईयों को साथ मिलकर या सहयोगी की भूमिका निभानी होगी तथा केन्द्र द्वारा प्रायोजित नीतियां व योजनाऐं प्रत्येक राज्य को ध्यान में रखते हुए बनाई जानी चाहिए । राष्ट्रपति शासन का प्रयोग सीमित रूप में किया जाना चाहिए, इसका प्रयोग राजनीतिक दलों का हित साधन नहीं होना चाहिए। जब तक सभी राजनीतिक दल एक साथ मिलकर या सहयोगी की भूमिका को नहीं अपनायेंगे तब तक पूर्ण रूप से सहयोगी संघवाद नहीं लाया जा सकता, क्योंकि केन्द्र व राज्यों के आपसी मुद्दे नहीं सुलझ पायेंगे और विवाद की स्थिति रहेगी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. ग्रेनविल ऑस्टिन, ‘‘द इण्डियन कॉन्स्टीटयूशन’’, पृ.सं. - 187
2. डी.डी.बसु, ‘‘इन्ट्रोडक्शन टू द कॉन्स्टीटयूशन ऑफ इंडिया’’, पृ.सं.-59
3. के.सी.व्हीयर,’’फेडरल गर्वनमेंट’’, 1953, पृ.सं. - 11
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9. पवनप्रीत सिंह ‘‘भारत मे सहकारी संघवाद एक सवैधानिक वास्तविकता या एक मिथ्यक लेक्स फोर्टी लीगल जर्नल अप्रैल 2020
10. अम्बर कुमार घोष ‘‘द पेराडाक्स ऑफ सेन्ट्रलाइज फेडरलिज्म: एन एनलायसिस ऑफ द चैलेंजेस टू इंडियाज फेडरल डिजाइन’’, ओआरएफ सितम्बर 2020
11. प्रकाशचन्द्र झा ‘‘इंडियाज कॉर्पोरेटिव फेडरलिज्म डयूरिंग कोविड-19 पेन्डेमिक’’ आईआईपीए जून 2022
12. महेन्द्र प्रसाद सिंह ‘‘फेडरलिज्म इन इंडिया’’ सेज पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड फर्स्ट एडिशन 20 जून 2022
13. रेखा सक्सेना ‘‘न्यू डायमेन्शन इन फेडरल डिस्कोर्स इन इंडिया’’ रोटलेंड इंडिया, 21 दिसम्बर 2020
14. रजनी कोठारी ‘‘पोलिटिक्स इन इंडिया’’ पृ.सं.-330-312
15. केन्द्र राज्य संबंधो पर सरकारी आयोग रिर्पोट 1988
16. पूंछी आयोग रिर्पोट 2010
17. अमल रे:- ‘‘इन्टर गर्वमेनटल रिलेशन इन इंडिया - ए स्टडी ऑफ इंडियन फेडरेशन’’, एशिया पब्लिकेशन हाउस, बॉम्बे, 1966, पृ.सं.-67 |