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दलित कविता में जन-चेतना | |||||||
Public Consciousness in Dalit Poetry | |||||||
Paper Id :
16944 Submission Date :
2022-12-11 Acceptance Date :
2022-12-18 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
साहित्य का उद्देश्य, जो जैसा है, उसी का चित्रण करना नहीं है, अपितु कैसा होना चाहिए और क्या किया जा सकता है या क्या किया जाना चाहिए, इस पर भी साहित्य को विचार करना चाहिए। समाज में जो घटित हो रहा है उसका चित्रण करना साहित्य का उद्देश्य है, परन्तु साथ ही लोगों को परिवर्तन के लिए तैयार करना, उन्हें संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना भी साहित्य का उद्देश्य है। दलित कवियों ने दलित दमन और अन्याय अत्याचार को समाज के समक्ष रखने का काम किया है। दलित रचनाकारों का उद्देश्य केवल अन्याय-अत्याचार का चित्रण करना ही नहीं है, अपितु वे मानव समाज को संवेदनशील बनाने का कार्य कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज विभिन्न वर्गों के साथ ही वंचित वर्ग ने भी उन्नति की है परन्तु अभी बहुत कुछ होना और किया जाना शेष है। दलित सहित्य से प्रेरणा लेकर अन्य रचनाकारों को भी उस दलित-समाज की समस्याओं को अपनी रचनाओं विषय बनाना होगा। दलित रचनाकारों को भी समाज में आ रहे बदलाव और उन्नति को अपनी रचनाओं का विषय बनाकर वंचित दलितों में आशा का संचार होगा तभी वे उन्नति करने के लिए प्रेरित होंगे।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The purpose of literature is not to portray what it is, but how it should be and what can be done or should be done. The purpose of literature is to portray what is happening in the society, but at the same time it is also the purpose of literature to prepare people for change, to inspire them to struggle. Dalit poets have done the work of keeping Dalit oppression and injustice in front of the society. The aim of Dalit creators is not only to portray injustice and atrocities, but they are also working to make the human society sensitive. There is no doubt that today, along with various sections, the deprived sections have also progressed, but a lot remains to be done. Taking inspiration from Dalit literature, other creators will also have to make the problems of that Dalit society the subject of their creations. By making the changes and progress in the society the subject of their creations, the Dalit creators will instill hope among the deprived Dalits and they will also be inspired to progress. | ||||||
मुख्य शब्द | साहित्य, मानव समाज, दलित सहित्य, दलित रचनाकार। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Literature, Human Society, Dalit literature, Dalit Writers. | ||||||
प्रस्तावना |
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्य में जनकल्याण और जन-चेतना का समावेश होना चाहिए। साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है। प्रसिद्ध दलित साहित्यकार डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी साहित्य के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, ‘‘साहित्य देश में वैचारिक क्रांति कर सकता है, समाज की अवस्था में उलट-फेर कर सकता है और शीतल सुधा के समान रसपान कराकर विदग्ध हृदय को शान्ति प्रदान करा सकता है, यानी भयानक वर्ग-वर्ण संघर्ष की अग्नि को प्रज्ज्वलित करने की साहित्य में चिनगारी है, आग है तो शान्ति की शीतल छाया के अक्षय वट की क्षमता भी साहित्य में है।"[1] सच्चा साहित्य वही है, जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। मानव में ऊर्जा का संचार करे।
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अध्ययन का उद्देश्य | कोई भी कार्य निरुद्देश्य नहीं होता है। दलित साहित्य का प्रमुख लक्ष्य दलित समाज में नव चेतना का संचार करना है। लेख का उद्देश्य दलित काव्य में व्यक्त जन-चेतना को समझना है। इस लेख के माध्यम से दलित कवियों की क्रांति चेतना और समाज-सापेक्षता से परिचित हो पाएंगे। |
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साहित्यावलोकन | आज दलित साहित्य और
उससे संबंधित बहुत सी पुस्तके हैं, जिनके
माध्यम से हम इस साहित्य के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस
लेख के लेखन हेतु लेखक ने माता प्रसाद, हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, डॉ. बलवन्त
साधू जाधव, ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित चेतना', शरण कुमार लिम्बाले, ‘दलित साहित्य का
सौन्दर्यशास्त्र', डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, ‘दलित साहित्य रचना और विचार', डॉ. जयपंकाश
कर्दम, ‘दलित साहित्य' (वार्षिकी)
डॉ. धर्मवीर, ‘दलित चिंतन का विकास‘ (अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर), डॉ.
विरेन्द्र सिंह यादव, ‘इक्कीसवीं सदी का दलित आन्दोलन,
साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार‘, डॉ. रजत
रानी ‘मीनू‘, ‘नवें दशक की
हिन्दी दलित कविता‘, लक्ष्मीनारायण सुधाकर, ‘वामन फिर आ रहा है‘, मोहनदास नैमिशराय,
‘हिन्दी दलित साहित्य‘, ईश कुमार
गंगानिया, ‘हार नहीं मानूंगा‘, डॉ.
कुसुम वियोगी, ‘पीड़ा जो चीख उठी‘, आदि पुस्तकों का अवलोकन किया है। |
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मुख्य पाठ |
भक्तिकालीन संत कबीर, रैदास से लेकर
स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर', ओमप्रकाश वाल्मीकि, माताप्रसाद ‘मित्र‘, जयप्रकाष कर्दम, कर्मशील भारती, कंवल भारती, सुशीला टाकभौरे, असंग
घोष, चन्द्र कुमार वरठे, रामदास निमेष,
लक्ष्मीनारायण सुधाकर, सोहनपाल सुमनाक्षर,
डॉ. धर्मवीर, मंसाराम विद्रोही, डॉ. एन. सिंह, डॉ. एन. आर. सागर, डॉ. सुखबीर सिंह, मनोज सोनकर, डॉ.
कुसुम मेघवाल, दामोदर मोरे आदि अनेक दलित कवियों ने दलित
वर्ग में आत्मबल और चेतना का संचार करने का प्रयास किया है। दलित जागरण के प्रमुख हस्ताक्षर स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर' समाज में व्याप्त जातिवाद पर गहरी
चोट और तीखा प्रहार करते हुए मानव समाज के समक्ष सवाल खड़ा करते हैं, कि:- ‘‘मैं अछूत हूँ, छूत
न मुझमें फिर क्यों जग ठुकराता है। छूने में भी पाप मानता छाया से घबराता है।। मुझे देख नाक सिकोड़ता दूर हटा
वह जाता है। हरिजन भी कहता है मुझको ‘हरि’ से विलग कराता है।।’’[2] वंचित वर्ग ने सदियों से जातिगत प्रताड़ना को सहा है।
इसलिए दलित कवि इस अव्यवस्था को समाप्त करने का संदेश देता है। जाति-प्रथा के
विरुद्ध कभी-कभी तो कवि स्वयं से संघर्ष करने को तत्पर दिखता हैः- ‘‘मेरे हाथों की शक्ति सहनशीलता, फौलादी दृढ़ता हिला देगी जाति व्यवस्था को। बहुत हो चुका शोषण प्रताड़ना और उपेक्षा बस, अब मेरा ज्वालामुखी फट पड़ेगा।’’[3] दलित कविता में जातिगत अव्यवस्थाओं के साथ ही आर्थिक
शोषण का भी विरोध दिखाई देता है। दलित की पीड़ा गरीबी से अधिक उसे अछूत समझे जानेे
की है। दलित वर्ग के लिए यह समझ से परे है कि वे कौन से कारण हैं, जिनसे आर्थिक रूप से कमजोर अन्य जातियों के गरीबों को भी उच्च
वर्ग के लोगों की तरह सामाजिक बराबरी की सभी प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त हैं,
परन्तु दलितों (अछूतों) को जीवन जीने के लिए मूलभूत सुविधायें भी
नसीब नहीं हैं। समाज में जहाँ एक ओर सभी मनुष्यों को भाई-भाई बताने की बात की जाती
है, वहीं दूसरी ओर जातिगत भिन्नता के कारण विषमता का व्यवहार
किया जाता है। दलित कवि अस्पृश्यता को आदमी-आदमी के बीच असमानता की दीवार मानते
हैं, इसलिए दलित कवि इस जातिगत विषमता को समाप्त करना चाहता
है- ‘‘निर्बलों पर हर सबल करता है अत्याचार
क्यों ? आदमी का आदमी से है विषम
व्यवहार क्यों ? आदमी ही आदमी की पूछता है जाति
को, आदमी और आदमी के बीच दीवार
क्यों ?’’ [4] वंचित वर्ग को हर जगह समस्याओं का सामना करना पड़ता
है। दलितों के लिए जिन्दगी एक जंग है और यह जंग उनकी अपनी है, इसलिए इस जंग को लड़ने के लिए कवि दलित समाज से इस अन्यायपूर्ण
अव्यस्था को उखाड़ फैकने के लिए आह्वान करता हैः- "अपने फेफड़ों की पूरी ताकत के
साथ इसके खिलाफ उठानी है आवाज और खून की अंतिम बूंद तक लड़ना है यह युद्ध यह युद्ध मेरा अपना है।’’[5] दलित साहित्य वंचित वर्ग में स्वाभिमान जागृत करने का
काम करता है। दलित साहित्य की इस भावना के अनुरूप डॉ. माता प्रसाद ने दलित साहित्य
को दलितों में स्वाभिमान जागृत करने का माध्यम स्वीकार करते हुए लिखते हैं, ‘‘दलित साहित्य जहाँ एक ओर समाज की संवेदनाओं को झकझोरता है,
वहीं दूसरी ओर दलितों के स्वाभिमान की चेतना को भी जागृत करता है।
विषमताओं का जो भी संरक्षण करता है, यह उनका पुरजोर विरोध
करता है। दलितों के अधिकारों की लड़ाई कोई दूसरा नहीं लड़ सकता, इसे दलितों को स्वयं ही लड़ना है। दलित साहित्य दलितों के लिए संघर्ष करने
का एक बहुत बड़ा हथियार है।’’[6] दलित चिंतक कालीचरण स्नेही
दलित साहित्य को दलितों की अस्मिता से जोड़कर देखते हैं, ‘‘दलित
साहित्य, मात्र साहित्य ही नहीं है, दलितों
की अस्मिता का क्रांतिदर्शी आन्दोलन भी है। उनके अस्तित्व की उद्घोषणा भी इसी
साहित्य में है। साथ ही सामाजिक समरसता तथा खोई हुई मानवीय गरिमा को स्थापित करने
का संकल्प भी दलित साहित्य में मौजूद है। दलित साहित्य, शब्दों
का तिलिस्म या भाषिक घटना मात्र नहीं है, यह तो अनुभूति जन्य
संवेदना की चित्कार, सदियों से पीड़ा का सुप्त हाहाकार,
तिरष्कृत और बहिष्कृत जीवन की व्याख्या है। ऐसी व्याख्या, जिसे पुनः व्याख्यायित करने की आवश्यकता ही नहीं है। इस साहित्य में हमारे
समाज का, हमारे अपने समय का, हमारी
अपनी घुटन और पग-पग पर अपमान झेलती मानवता का आक्रोशपूर्ण संवेदना-मूलक शाब्दिक
उच्छवास है।’’[7] किंतु खेद है कि सामाजिक चेतना केवल
दलित-कविता में ही झलकती है...........। माना जातियों का मानचित्र मनुवादियों
द्वारा गढ़ा गया है परन्तु वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में दलित ही अपनी-अपनी जातियों
की खोज में जुटे हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर ने तो तमाम दलित और दमित को समेट कर ‘अनुसूचित जाति‘ में रख दिया था, किंतु अनेक अवसरों पर देखा जाता है कि दलित ही जातियों की खेमाबन्दी करने
के लिए प्रयासरत हैं। दलित कवि अन्याय और अत्याचार के लिए केवल सवर्णों को
ही जिम्मेवार नहीं मानता, वह दलित समाज को भी उतना ही
जिम्मेवार समझता है, जो जोर-जुल्म सहकर भी प्रतिकार नहीं
करता। डॉ. चन्द्र कुमार वरठे दलितों की इस स्थिति पर उन्हें साचेत करते हुए कहते
हैं- ‘‘ओ अनाम बस्तियों के लोगो मैं तुम्हें पत्थर भी नहीं
कहूँगा अरे! पत्थर तो शीश महलों को भी किरचों-किरचों में तब्दील कर
सकते हैं।’’[8] इतने अन्याय-अत्याचार के होते हुए भी दलित कवि निराश नहीं है। उसे पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन यह वंचित वर्ग अपने ऊपर होने वाले
जोर-जुल्म के खिलाफ उठ खड़ा होगा। डॉ. एन. सिंह ने दलितों के इस आक्रोश से शोषक वर्ग
को साचेत करते हुए लिखा है- ‘‘अब भूखे पेट की कराहें खाली हाथ तक आकर पत्थर में बदल गयी हैं जो सीधे तना है- व्यवस्था के शीशमहल की तरफ।’’[9] दलित कविता दलित और दमित वर्ग पर होने वाले
अन्याय-अत्याचार का चित्रण कर वंचित वर्ग को इस पर होने वाले जोर-जुल्म से परिचित
करवाती है। ‘दलित कविता’’ की
इस विशेषता को स्वीकार करते हुए श्रीराम दवे लिखते हैं, ‘‘दलित
कविताओं का कथ्य पाठक को इस तरह तन्मय कर देता है कि वह कविता पढ़ते-पढ़ते सुदूर
अतीत में घट चुके हादसों को खुली आँखों से देखने का उपक्रम करने लगता है और ऐसा
करते करते उसकी हथेलियाँ बंधी मुट्ठी में तब्दील हो जाती हैं,
होंठ भिंच जाते हैं और आँखे आग उगलने लगती हैं, शायद इसे ही कविता की सार्थकता कहा जाता है।’’[10] अक्सर
दलित कविता को लेकर आरोप लगाया जाता है कि यह समाज को तोड़ने का काम करती है जबकि
हकीकत इसके विपरीत है। दलित कवि की सोच समतावादी समाज का निमार्ण करने की है। वह समाज
को जोड़ना चाहता है। इस समतावादी सोच को उजागर करते हुए जयप्रकाश कर्दम ‘मेरी चाह’ कविता में लिखते हैं- ‘‘मैं विद्वेष नहीं सामंजस्य चाहता
हूँ बर्बरता और दमन का प्रतिकार चाहता हूँ मैं जेठ की लू नहीं सावन की बयार
चाहता हूँ भेदभाव का पतझड़ नहीं बंधुता की बयार चाहता हूँ मैं पशुता का जंगल
नहीं, मनुष्यता का संसार चाहता हूँ......स्वीकार नहीं मुझे
अब साँझ के सूरज सा ढलना मैं भोर के सूरज सा उदय होना चाहता हूँ अज्ञान के
अंधेरों से निकलना चाहता हूँ बहुत भटका हूँ असमानता और अन्याय की गलियों में
मैं समता के राजपथ पर चलना चाहता हूँ।’’[11] इसमें काई दो राय नहीं है कि दलित कविता ने वंचित
वर्ग में चेतना का प्रसार किया है परन्तु क्या इस आन्दोलन को केवल साहित्य तक ही
सीमित रहना चाहिए। दलित कविता को लेकर जिस तरह का आक्रोश या प्रतिक्रिया देखने को
मिलती है, उससे लगता है कि दलित कविता के एक ही
पक्ष को देखा गया है। दलित कवि समाज में समरसता स्थापित करना चाहता है। उसका सपना
है कि एक शोषण विहीन समाज का निमार्ण हो। जहाँ कोई उच्च और निम्न नहीं हो, परन्तु उसका यह सपना उसके अकेले के चाहने से पूरा नहीं होगा। जब समाज के
सभी वर्ग मिलकर इस भेदभाव को मिटाएं, तब मानवता के हित में
कुछ हितकर काम हो, परन्तु इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए
रात-दिन चिंतातुर दिखाई देने वाले लोग भी ईमानदारी से नहीं चाहते कि यह भेदभाव
समाप्त हो जाए......। समय के साथ परिवर्तन होना चाहिए। दलित कवि ने समय की परिवर्तनशीलता
को पहचानकर दलित समाज को अपने-आप में बदलाव करने केलिए, प्रेरित भी किया गया हैः- ‘‘बदल गया है आज जमाना, दलितो! होश संभालो। लादी गई व्यवस्थाओं से, अपना पिंड छुड़ालो।।’’[12] अत्याचारी का अत्याचार तब तक जारी रहता है जब तक कि
अन्याय सहने वाला उसका प्रतिकार न करे। इसलिए अन्याय सहने वाला भी उतना ही गुनहगार
होता है, जितना अन्याय करने वाला। दलित वर्ग
पर अन्याय का एक कारण यह भी है कि वह दलित अपने ऊपर होने वाले अन्याय और अत्याचार
को अब तक चुपचाप सहन करता रहा है, परन्तु यह चुप रहना खतरनाक
होता है और खामोशी के दुष्परिणाम दलित दीर्घकाल से भोगता आ रहा है। दलित सम्मान
एवं स्वाभिमान से जीना चाहते हैं। संघर्ष उनके जीवन की पहली शर्त है। इसके अलावा उनके
पास अन्य कोई विकल्प नहीं है- ‘‘कल तक शोषण के घूंट पीये, पर अब तो सह न पाऊँगा, जीवन जीने को आया हूँ, जीवन जीकर जाऊँगा।’’[13] दलितों की यह पीड़ा रही है कि वे भी इसी देश के वासी
हैं, इसी समाज में रहते हैं। इन सबकेे
बावजूद उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं दिया जाता, इसलिए
वे अपने आप को समाज से कटा हुआ, अलग-थलग
महसूस करते हैं। दलित कवि डॉ. सत्यनारायण जटिया सामाजिक समता को मनुष्य का
जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं- ‘‘मानव-मानव में भेद नहीं कर्म धर्म महान है, सामाजिक समता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है।’’[14] किसी भी समस्या से निपटने के लिए आत्मविश्वास जरूरी
है। जिस मनुष्य में आत्मविश्वास हो, वह हर मुश्किल
को आसान कर सकता है। दलित व्यक्ति किसी भी स्थिति में हार नहीं मानना चाहता है,
वह दलित समाज को विपरीत परिस्थितियों में भी मनोबल बनाए रखने का
सन्देश देता है- ‘‘मैं हार नहीं मानूगा अधिकार नहीं छोड़ूंगा चाहे रहूं बस्ती से कितनी दूर बेशक स्वाहा हो जाए झोंपड़ा मेरा कितनी बार कर दिया जाए - मुझे कितना ही नागरिक सुविधाओं से वंचित मनोबल नहीं हारूंगा।’’[15] परिवर्तन जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। डॉ. कुसुम
वियोगी समता के लिए परिवर्तन अनिवार्य मानते है। वे दलित समाज को आश्वस्त करते हैं
कि एक न एक दिन परिवर्तन अवश्य होगा- ‘‘उठ न सका तू सदियों से, अब तक शोषण सहके। चिंगारी अंगारा बनकर, आज हृदय में दहके।। उठ रे बंधुआ बेगारी का, कब तक बोझा ढ़ोना है। परिवर्तन तो परिवर्तन है, आज नहीं तो कल होना है।।’’[16] |
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निष्कर्ष |
हिन्दी दलित कविता में समाज के वंचित वर्ग की समस्याओं को उजागर किया गया है। दलित कविता ने पहली बार दलितों की व्यथा, पीड़ा और समस्याओं को समाज के समक्ष रखा है, ऐसा तो मैं नहीं मानता क्योंकि दलितों का साहित्य में सदियों से दखल रहा है। हाँ! समय के बदलाव के साथ-साथ साहित्य का स्वरूप बदलता रहा है, किंतु आज का दलित साहित्य, साहित्य ही नहीं एक सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन से उपजा साहित्य है, इसलिए आज के दलित साहित्य और पुरातन साहित्य में एक मौलिक अन्तर जरूर है.......कुछ नए सन्देश हैं..........कुछ नई दिशाएँ हैं..........आन्दोलन का भाव निहित है। दलित समाज ने वर्तमान में सामाजिक राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में उन्नति की हैं। साहित्यकारों का यह परम दायित्व है कि वे इस उन्नति के बारे में लिखे, जिससे समाज में आशा और उत्साह का संचार हो। यही दलित साहित्य की सार्थकता होगी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, ‘दलित साहित्य रचना और विचार‘, पृ. सं. 7
2. कालीचरण स्नेही, ‘दलित विमर्श और हिन्दी दलित काव्य‘, पृ. सं. 32 से उद्धृत
3. ओमप्रकाश वाल्मीकि, ‘सदियों का संताप‘, पृ. सं. 17-18
4. लक्ष्मीनारायण सुधाकर, ‘उत्पीङन की यात्रा‘, पृ. सं. 44
5. डॉ. एन. सिंह, ‘दर्द के दस्तावेज‘ (डॉ.सुखवीर सिंह की ‘बयान- बाहर‘ कविता) पृ. सं. 44
6. माता प्रसाद, ‘हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा‘, पृ. सं. 19
7. काली चरण ‘स्नेही‘, ‘दलित विमर्श और हिन्दी दलित काव्य‘ (संपादकीय) पृ. सं. XXII
8. चन्द्र कुमार वरठे, ‘अधूरी चिटठी रोशनी की‘, पृ. सं. 38
9. डॉ. एन. सिंह, ‘दर्द के दस्तावेज‘, पृ. सं. 123
10. डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, ‘दलित साहित्य रचना और विचार‘ (श्रीराम दवे का आलेख) पृ. सं. 59
11. डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, ‘दलित साहित्य रचना और विचार‘, पृ. सं. 59
12. लक्ष्मीनारायण सुधाकर, ‘वामन फिर आ रहा है‘, पृ. सं. 81
13. राजेन्द्र बङगूजर, (‘दलित विमर्श साहित्य के आइने में‘, पृ .सं. 68 से उद्धृत)
14. मोहनदास नैमिशराय, ‘हिन्दी दलित साहित्य‘, पृ. सं. 126 से उद्धृत
15. ईश कुमार गंगानिया, ‘हार नहीं मानूंगा‘, पृ. सं. 58
16. डॉ. कुसुम वियोगी, ‘पीड़ा जो चीख उठी‘, पृ. सं. 31 |