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गाँधीवादी दृष्टिकोण: स्वदेशी, स्वच्छता एवं सर्वोदय सम्बन्धी विचारों की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता | |||||||
Gandhian Approach: Relevance of the Ideas of Swadeshi, Swachhta and Sarvodaya in The Present Context | |||||||
Paper Id :
16960 Submission Date :
2023-01-02 Acceptance Date :
2023-01-12 Publication Date :
2023-01-13
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सारांश |
डॉ0 के0 एम0 मुंशी ने गांधीजी के विषय में बताया है कि, ‘‘गांधीजी ने अराजकता पाई और उसे व्यवस्था में परिवतित कर दिया, कायरता पायी उसे साहस में बदल दिया, अनेक वर्गों में विभाजित जनसमूह को राष्ट्र में बदल दिया, निराशा को सौभाग्य में बदल दिया और बिना किसी हिंसा एवं सैनिक शक्ति का प्रयोग किए एक साम्राज्यवादी शक्ति के बंधनों का अंत कर विश्वशांति को जन्म दिया। इससे अधिक न तो कोई व्यक्ति कर सकता है और न ही कर सका है।’’
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Dr. K. M. Munshi has told about Gandhiji that, "Gandhiji found chaos and converted it into order, found cowardice into courage, converted the divided masses into nation, despair into fortune." Changed and gave birth to world peace by ending the shackles of an imperialist power without using any violence and military power. No one can and has not done more than this. | ||||||
मुख्य शब्द | गाँधी, स्वदेश, स्वच्छता, सर्वोदय, अहिंसा, स्वतंत्रता । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Women, Status, Role, Past, Present, Social Change. | ||||||
प्रस्तावना |
वर्तमान समाज आज आधुनिकता की अंधाधुंध दौड में इस कदर शामिल हो गया है कि पर्यावरण का जरा भी ख्याल नहीं रहा है। लेकिन आज कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने उसकी तेज गति पर मानों ब्रेक सा लगा दिया है। इस वैश्विक महामारी ने व्यक्ति को झकझोर कर रख दिया है और यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कोरोना वायरस का इस तेजी से प्रसार इसी दौड़ का परिणाम रहा है जिसे रोकने के लिए सरकार को सम्पूर्ण लॉकडाउन की व्यवस्था अपनानी पड़ी। इस व्यवस्था को प्रभावी बनाने हेतु गांधीवादी दृष्टिकोण स्वदेशी स्वच्छता एवं सर्वोदय सम्बन्धी अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण है। गांधी ने स्वच्छता की तुलना ईश्वर भक्ति से की हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत लेख में गांधी द्वारा व्यक्त स्वदेशी स्वच्छता एवं सर्वोदय सम्बन्धी विचारों और उनका सामाजिक व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण है। |
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साहित्यावलोकन | सामान्यतः महात्मा गांधी को औपनिवेशिक सत्ता के विरूद्ध संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप में देखा जाता है, किन्तु इसे यदि हम गहराई से देखें तो गांधीजी ने न केवल स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया बल्कि हर समय भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को विश्व में श्रेष्ठ होने का प्रयास भी किया और विश्व व्यवस्था के समक्ष भारतीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व किया। पश्चिमी सभ्यता के वर्चस्व वाले उस युग में गांधी ने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हुये उसे समग्र विश्व के लिए एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। रामधारी सिंह दिनकर ने गांधी के बारे में लिखा - "एक देश में बांध संकुचित करो ना इसको गांधी का कर्तव्य क्षेत्र, दिक नहीं काल है गांधी है कल्पना जगत के अगले युग की गांधी मानवता का अगला उद्विकास है।" |
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मुख्य पाठ |
गांधीवादी
दृष्टिकोण गांधीजी द्वारा अपनाई और
विकसित की गई उन धार्मिक-सामाजिक विचारों का समूह है जो उन्होंने पहली बार वर्ष 1893 से 1914 तक दक्षिण
अफ्रीका में तथा उसके पश्चात् भारत में अपनाये गये थे। गांधीवादी दर्शन न केवल
राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक है, बल्कि परम्परागत और आधुनिक तथा सरल एवं जटिल भी है। यह उनके
दृष्टिकोण पर कई पश्चिमी सभ्यताओं के प्रभावों का प्रतीक है जिनको गांधीजी ने
उजागर किया लेकिन यह प्राचीन भारतीय संस्कृति में निहित है तथा सार्वभौमिक नैतिक
और धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करता है जो आदर्शवाद पर नहीं बल्कि व्यावहारिक
आदर्शवाद पर बल देता है। गांधीवादी दृष्टिकोण भगवद्गीता, जैन धर्म बौद्ध धर्म, बाइबिल, गोपालकृष्ण
गोखले, टॉलस्टॉय, जॉन रस्किन आदि से प्रभावित था। गांधीजी ही पहले ऐसे भारतीय थे जिन्होनें 1909 में अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में मशीनीकरण के भयावह रूप
को चिन्हित करते हुये स्वदेशी' की महत्ता को
बताया। गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक 'अंटू दिस लास्ट' में सर्वोदय के सिद्धान्त को
ग्रहण किया और अपने जीवन में उतारा गांधीजी के लिए स्वच्छता एक महत्वपूर्ण सामाजिक
मुद्दा था। उन्होनें स्वच्छता
कार्यकम और निजी साफ-सफाई को गाँव और शहरी स्तर पर रचनात्मक कार्य की तरह प्रस्तुत
किया। उनके लिए स्वच्छता सिर्फ जैविक आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि वह जीवन शैली है और सत्य की अनुभूति करने का अटूट हिस्सा है। महात्मा गांधी के अनुसार, वास्तव में स्वदेशी ही एक ऐसा सिद्धान्त है जिसमें मानवता व
प्रेम समाहित है।" महात्मा गांधी ने जिस
स्वदेशी की कल्पना की थी उसका अर्थ तत्कालीन राष्ट्र में सभी विदेशी वस्तुओं के
बहिष्कार से नहीं था, वह केवल स्थानीय संसाधनों के उपयोग की सीमाएँ
लागू करना चाहते थे विशेषतः गृह उद्योग के अंतर्गत हस्तशिल्प, कुम्भकार इत्यादि लघु उद्योग जिनके बिना भारत का विकास संभव
नहीं था। वर्ष 1905 में बंग-भंग विरोधी आंदोलन भी स्वदेशी की भावना से ओत-प्रोत था जब बंगाल में विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई और उनके बहिष्कार पर बल
दिया गया। इस स्वदेशी भावना को राष्ट्रीय स्तर पर बहुआयामी स्वरूप प्रदान करने का
कार्य महात्मा गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारम्भ करके किया।
उन्होंने इसे न केवल विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा उनके अग्निदाह तक सीमित रखा, बल्कि उद्योग, शिल्प, भाषा, शिक्षा, वेश-भूषा आदि को स्वदेशी के रंग में रंग दिया। परन्तु स्वतंत्रता
के पश्चात गांधीजी की मृत्यु के साथ ही उनकी स्वदेशी अवधारणा भी लुप्त सी होने लगी
और अधुनिक भारत के मंदिरों के नाम पर स्वदेशी धरती पर विदेशी मशीनों को लाकर
बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ स्थापित की जाने लगीं। परिणामस्वरूप देश के तमाम हस्त उद्योग
कुटीर उद्योग लुप्त होते चले गए। घर-घर से चरखा गायब होता चला गया और शहरों से
लेकर गाँवों तक देशी-विदेशी कारखानों के उत्पादित माल ने बजार में अपनी पैठ बिठा
ली हस्त उद्योग एवं लघु-कुटीर उद्योग के लुप्त होने से भारत ने अपने विनिर्माण को
खो दिया। गांधी और
स्वच्छता:- स्वच्छता एक ऐसी अवधारणा है जो प्रत्येक के
जीवन से जुड़ी हुई हैं। वर्तमान में भारत में स्वच्छता एक महत्वपूर्ण विषय बन
गया है। "स्वदेशी का तात्पर्य उस भावना से है जो हमें अपने
आसपास में निर्मित वस्तुओं के उपयोग तक से है। यह बाहर की वस्तुओं के प्रयोग को निषेध करता है। स्वदेशी एक धर्म है, एक कर्तव्य है जो हमें पैतृक धर्म की सीमा में अनुबंधित करता है। अगर इनमें
कोई दोष है तो उसे सुधारना चाहिए। राजनीति के क्षेत्र में केवल विदेशी संस्थानों
के प्रयोग से है तथा उसमें खामियों हैं, उसे हटाकर उसके उपयोग से है। आर्थिक क्षेत्र में उन्हीं वस्तुओं के उपयोग से
है जो आसपास में निर्मित होती हैं तथा पड़ोस में बनने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता में
सुधार व उपयोग से है।" गांधी के अनुसार स्वदेशी शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है और यह संस्कृत के दो शब्दों का एक संयोजन है। स्व' का अर्थ 'स्वयं' और देश का अर्थ है देश। अर्थात स्वदेशी का अर्थ अपने स्वयं के देश से हैं, किंतु व्यवहारिक संदर्भ में इसका अर्थ आर्थिक निर्भरता के रूप में लिया जा सकता है। गांधी का मानना था कि इससे
स्वतंत्रता (स्वराज) को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण उनके स्वदेशी उद्योगों के नियंत्रण में
निहित था। स्वदेशी भारत की स्वतंत्रता की कुंजी थी और महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में चरखे द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया गया
था। आधुनिक हिंदी साहित्य के
जनक माने जाने वाले भारतेन्दु हरिशचंद्र ने अपने लेखन से स्वदेशी की अलख जगाई। और
उन्होंने कहा कि भाईयों अब तो नींद से जागो, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो, जिसमें तुम्हारी भलाई है वैसे ही किताबें पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो. वैसे ही बातचीत करो। विदेशी वस्तुओं और भाषा का भरोसा मत
करो। अपनी भाषा में अपने देश की उन्नति करो। स्वच्छता का परिवार, समाज और
संस्कृति से गहन संबंध है, क्योंकि स्वच्छता न केवल जीवनदायिनी शक्ति है
बल्कि मानव विकास की आधारशिला भी है जहाँ स्वच्छता
होगी उसी समाज के लोग परिवार एवं समाज के प्रतिमान और सांस्कृतिक मूल्यों का पालन करने वाले होंगे। जाति प्रथा भारतीय सामाजिक
संरचना का एक महत्वपूर्ण अंग रही है। प्रारम्भ में भारतीय समाज में जातियों के मध्य कार्य विभाजन भी निश्चित था जिसके अन्तर्गत जो जातियां
उच्च व्यवसाय से जुड़ी हुई थी, उन्हें पवित्रता से जोड़ा गया तथा जो जातियां निम्न व्यवसाय जैसे साफ-सफाई, कूड़ा करकट
उठाना, चमड़े का कार्य, मृत पशुओं को उठाने आदि के कार्य करती थी, उन्हें अपवित्र माना गया। Benelle (1995) ने जातियों के संस्तरण की व्याख्या पवित्रता और
अपवित्रता के संदर्भ में की हैं। इसी प्रकार हरूमा (1990) ने
भी जाति व्यवस्था के स्तरीकरण में पवित्रता व अपवित्रता के विचार को प्रमुख माना है। वर्तमान में स्वच्छता एवं सफाई से संबंधित ये सारे मुद्दे बदलते परिप्रेक्ष्य व बदलती विचारधारा, नागरिकों की पहचान प्रस्तुत करने का एक माध्यम बन रहे हैं। उसके लिए स्वच्छताकर्ता को समाज में स्थापित पवित्रता अपवित्रता, निम्न स्वच्छता निम्न स्वास्थ्य स्तर, मैला ढ़ोने का अमानवीय प्रचलन, शौचालय व नालियों की सफाई और पर्यावरण संरक्षण में कार्य करना होगा। यह प्रयास स्वच्छता व समाजशास्त्र जैसी शाखा स्थापित करने में सहायक हो सकते हैं। गांधी जी ने स्वच्छता पर अत्याधिक जोर दिया। मैला ढ़ोने वालों की सामाजिक छवि को सुधारने हेतु गांधी ने उन्हें हरिजन नाम दिया। संविधान में भी उन्हें विशेष स्थान प्रदान किया गया। आज स्वच्छता एक राष्ट्रीय अभियान और सफाई का कार्य एक व्यवसाय है, जिसमें अनेक जातियां सम्मिलित हो गई है। गांधी (1919) के लिए
स्वच्छता सिर्फ जैविक आवश्यकता नहीं है, यह जीवन शैली है, सत्य की अनुभूति से जुड़ी हुई है। गांधी सत्य को
ईश्वर की तरह मानते हैं। उनके अनुसार 'स्वच्छता देवत्व के बराबर है।" उन्होंने स्वच्छता की तुलना ईश्वर भक्ति
से की। इस दृष्टि से गांधी का मानना था कि हम गंदे शरीर के साथ ईश्वर का आशीर्वाद
प्राप्त नहीं कर सकते हैं। स्वच्छ शरीर का गंदे शरीर में वास नहीं हो सकता।" गांधी ने स्वच्छता को स्वतंत्रता के लिए आवश्यक कदम माना है और इसे अपने 18 रचनात्मक कार्यक्रमों की सूची में सम्मिलित किया। छुआछूत यानी अस्पृश्यता समाप्त करना उनके रचनात्मक कार्यक्रमों के अतिरिक्त उनके ग्यारह संकल्पों में सम्मिलित था जिनका पालन हर सत्याग्रही को करना पड़ता था। स्वच्छता की स्थिति में सुधार और अस्पृश्यता हटाने के लिए गांधी का अभियान स्वयं और समाज के साथ ही सत्याग्रह का भी आवश्यक तत्व था। सत्याग्रह का निहितार्थ आत्मशुद्धिकरण था। गांधी के लिए स्वयं और पर्यावरण को साफ करना आत्म शुद्धिकरण की दिशा में पहला कदम था। आत्म शुद्धिकरण का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा दलितों के विरूद्ध लम्बे समय से चले आ रहे पूर्वाग्रह को छोड़ना था। दलित समूह समाज के पीड़ित स्वच्छता कामगार थे। गांधीजी चाहते थे कि प्रत्येक सवर्ण हिंदू सदियों से दलितों के साथ हुए अन्याय को महसूस करें। गांधी चाहते थे कि हिंदू धर्म से जुड़ा प्रत्येक सदस्य अस्पृश्यता हटाने और अस्पृश्यों की स्थिति सुधारने हेतु कार्य करे। गांधी जी ने ग्रामीण
स्वच्छता के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 में मिशनरी
सम्मेलन के दौरान दिया था। इस सम्मेलन में गांधी जी ने कहा
था गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था" गांधी जी ने स्कूली और उच्च
शिक्षा के पाठयक्रमों में स्वच्छता को तुरन्त शामिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया
था। गांधी जी ने रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे में बैठकर देशभर में व्यापक दौरे
किए थे। वह भारतीय रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे की गंदगी से स्तब्ध और भयभीत थे।
उन्होंने समाचार पत्रों को लिखे पत्र के माध्यम से इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया
था। 25 सितंबर 1917 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा इस तरह की संकट की स्थिति में तो यात्री परिवहन को बंद कर देना चाहिए जिस तरह की गंदगी इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता क्योंकि वह हमारी स्वच्छता और नैतिकता को प्रभावित करती है। वर्ष 1920 में गांधीजी ने
गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की। यह विद्यापीठ आश्रम की जीवन पद्धति पर आधारित था
इसलिए यहां शिक्षकों, छात्रों और अन्य स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को प्रारम्भ से
ही स्वच्छता के कार्य में लगाया जाता था। गांधी जी ने इस बात पर जोर दिया कि ग्रामीणों को अपने आसपास और गांव को साफ
रखते हुये स्वच्छता का माहौल विकसित करने की तुरंत जरूरत के बारे में शिक्षित किया
जाना चाहिए। भारत की स्वतंत्रता के बारे
में गांधी के समग्र दृष्टिकोण से उन्हें स्वराज के लक्ष्य में स्वच्छता के बारे
में समझने का अवसर मिला। उन्होंने कहा स्वराज पवित्र और वैदिक शब्द है, जिसका तात्पर्य स्वशासन और आत्मनियंत्रण होता है। इसका अर्थ
सभी नियंत्रणों से मुक्ति नहीं है, जो अक्सर स्वतंत्रता के लिए प्रयुक्त होता है परन्तु गांधी का आत्मनियंत्रण
सार्वजनिक स्थल पर कचरा फैलाने से भी सम्बन्धित है। उनका कहना था, "मेरे सपनों का स्वराज गरीब आदमी का स्वराज है, और समाज के अंतिम पायदान पर मौजूद व्यक्ति को सहयोग के लिए
आत्मनियंत्रण की आवश्यकता है।" गांधी और
सर्वोदय- सर्वोदय शब्द का अर्थ सार्वभौमिक उत्थान अर्थात सभी को प्रगति। गांधी जी का यह सिद्धांत राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर जॉन रस्किन की पुस्तक 'अंटू दिस लास्ट' से प्रेरित था। सर्वोदय- सुबह वाले को जितना, शाम वाले को भी उतना ही- प्रथम व्यक्ति को जितना अंतिम व्यक्ति को भी उतना ही, इसमें समानता और अद्वैत का यह सत्य समाया है, जिस पर सर्वोदय का विशाल महल खड़ा है। "सर्वोदय का आदर्श है और उसकी नीति है समन्वय।" डार्विन ने कहा- "प्रकृति
का नियम है बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर जीवित रहती है।" हक्सले ने कहा है - "जियो और जीने दो जबकि सर्वोदय कहता है कि तुम दूसरे को जिंदा रखने के लिए जियो।" सर्वोदय ऐसी वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषण मुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है
जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वागींण विकास का साधन और अवसर मिले।
विनोबा कहते हैं कि 'जब सर्वोदय का विचार करते हैं, तब उन ऊँचनीच, प्रभावशाली वर्णव्यवस्था दीवार की तरह सामने खड़ी
हो जाती है। उसे तोड़े बिना सर्वोदय स्थापित नहीं हो सकता। सर्वोदय को सफल बनाने के लिए जातिभेद मिटाना होगा और
अधिक विषमता दूर करनी होगी, तभी सर्वोदय समाज का निर्माण होगा। सर्वोदय ऐसे समाज की संरचना
चाहता है जिसमें वर्ण, धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर तो किसी समाज या समुदाय का
संहार हो और ना ही बहिष्कार सर्वोदय समाज की संरचना ऐसी होगी, जो सभी के निर्माण और सभी की शक्ति से सभी के हित में चले इसमें
कम या अधिक शारीरिक सामर्थ्य के लोगों को समाज का संरक्षण समान रूप से प्राप्त हो और
सभी पूर्ण पारिश्रमिक के हकदार हों। सर्वोदय शब्द गांधी द्वारा
प्रतिपादित एक ऐसा विचार है जिसमें सर्वभूतहिते रताः की भारतीय कल्पना सुकरात की
सत्य-साधना और रस्किन की 'अंत्योदय' की अवधारणा सब कुछ सम्मिलित है। गांधी ने कहा था, "मैं अपने पीछे कोई पंथ या संप्रदाय नहीं छोड़ना चाहता
हूँ।" यही कारण रहा कि सर्वोदय आज एक समर्थ जीवन, समग्र तथा सम्पूर्ण जीवन का पर्याय बन चुका है। सर्वोदय की आधारशिला समाज
का पुनर्निर्माण है अतः इसे सर्वोदय समाजवाद भी कहा जाता क्योंकि यह समाजवाद के
मूल उद्देश्यों स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को सामाजिक संगठन का आधार
मानता तो हैं परन्तु इन सामाजिक मूल्यों की स्थापना में आध्यात्मिकता को अधिक
महत्व देता है इसलिए इसे आध्यात्मिक समाजवाद की भी सज्ञा दी जाती है। गांधी ने
सर्वोदय के अन्तर्गत ग्राम स्वराज सहयोग तथा पारिवारिक भावना, विकेन्द्रीकरण एवं अहिंसा, राजनीतिक दलों एवं शोषणों का अभाव, स्वतंत्रता एवं समानता पर बल दिया और माना कि यह ही सर्वोदय समाज के आधार है। सर्वोदय दर्शन भौतिक आधार
पर सामाजिक और राजनीतिक पुर्ननिर्माण का एक बौद्धिक प्रयास है। सर्वोदय स्वराज और
प्रजातन्त्र को समन्वित करता है तथा प्रजातंत्र को वास्तविक अर्थों में व्यवहारिक
बनाता है। गांधी के सर्वोदय सिद्धान्त में निहित प्रेम समाया हुआ है, इसलिए सामाजिक तत्व ज्ञान में सर्वोदय को भारत के लिए विशेष
देन माना जाता है। सर्वोदय इस युग की सबसे बड़ी चुनौती (युद्ध) का अन्त करने में
सक्षम है। वर्तमान समय में सर्वोदय के द्वारा संपूर्ण विश्व में प्रेम, सत्य व अहिंसा की भावना को जाग्रत किया जा सकता है और यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति सर्वोदय की भावना को अपनाये सर्वोदय के आदशों को ग्रहण
करें, जिससे कि सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापित की
जा सकती है। वर्तमान समाज
में गांधी दृष्टिकोण की प्रसंगिकता- महात्मा गांधी की विचारधारा
एवं उनकी शिक्षा आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है। वर्तमान में लोग अत्यधिक लालची
प्रवृत्ति, व्यापक स्तर की हिंसा और अंधी दौड़ भरी जीवनशैली जैसी समस्याओं का
समाधान खोजने का प्रयास कर रहे हैं। पर्यावरण का जिस प्रकार हृास दिखाई दे रहा है उसी के फलस्वरूप मौसम
का असंतुलन एवं वैश्विक तापमान में अभिवृद्धि हो रही है, यदि गांधीवादी नजरिये से देखा जाए तो समस्याएं
कम हो सकती है क्योंकि उपभोक्तावाद ही इस समस्या की जड़ हैं। गांधीवादी दर्शन में
जरूरत के मुताबिक ही उपयोग की बात की है। लोक कल्याणकारी समाज के रूप में राज्य की भूमिका गांधी के सर्वोदय सिद्धांत से प्रभावित है। साप्रदायिकता और आतंकवाद के इस वर्तमान दौर में गांधी के सर्वोदय सिद्धांत की प्रासंगिकता और बढ़ गई है क्योंकि वर्तमान समय में सर्वोदय के आदर्शों को अपनाकर ही एक शोषण विहीन, वर्गविहीन, शासन मुक्त, मूलक, ग्रामोद्योग, ग्राम स्वराज की स्थापना की जा सकती है। ध्यान रहे कि इस समय पूरा
विश्व कोरोना वायरस जैसी महामारी से जूझ रहा है। इस महामारी को पर्यावरण क्षरण, स्वच्छता में कमी तथा उपभोक्तावादी संस्कृति / जीवनशैली जैसे
कारकों का परिणाम माना जा सकता है। गांधी जी ने सदैव पर्यावरण संरक्षण स्वच्छता
आवश्यकता अनुसार ही उपभोग, आत्मनिर्भरता तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जोर
दिया। इस विषम परिस्थिति में गांधी विचारधारा की प्रासंगिकता एक बार फिर से स्थापित
हो गई। इस महामारी ने हमें यह समझाने का प्रयास करना है कि हमें स्वच्छता एवं अपनी
खादय श्रखला में परिवर्तन करते हुए गांधीवादी सिद्धांतों को अपनाने की आवश्यकता
है। |
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निष्कर्ष |
डी० के० एम० मुंशी ने गांधीजी के विषय में बताया है कि "गांधीजी ने अराजकता पाई और उसे व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया, कायरता पायी उसे साहस में बदल दिया, अनेक वर्गों में विभाजित जनसमूह को राष्ट्र में बदल दिया, निराश को सौभाग्य में बदल दिया और बिना किसी हिंसा एवं सैनिक शक्ति का प्रयोग किए एक साम्राज्यवादी शक्ति के बंधनों का अंत कर विश्वशांति को जन्म दिया इससे अधिक न तो कोई व्यक्ति कर सकता है और न ही कर सका है।" |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. अय्यंगर सुदर्शन (2017) गांधीजी और स्वच्छता कुरुक्षेत्र नई दिल्ली।
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