P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IV December  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
वृन्दावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों में बुन्देलखण्ड की लोकसंस्कृति एवं इतिहास का संक्षिप्त अवलोकन
Brief Overview of The Folk Culture and History of Bundelkhandin The Historical Novels of Vrindavan Lal Verma
Paper Id :  16871   Submission Date :  10/12/2022   Acceptance Date :  22/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
अंकित कुमार
शोधार्थी
इतिहास विभाग
दयानन्द गर्ल्स (पी0 जी0) कालेज
,कानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश इतिहास जब उपन्यासों में वर्णित होता है तो वह और अधिक रमणीय एवं आकर्षक बन जाता है। डा0 वृन्दावन लाल वर्मा बुन्देलखण्ड के एक ऐसे मूर्धन्य ऐतिहासिक उपन्यासकार हैं जिनकी रचनाओं में ऐतिहासिक तथ्यों व कल्पनाशक्ति का सुभग संयोग देखने को मिलता है। वह इतिहास को जड़ आख्यान के बजाय वर्तमान जीवन का ठोस आधार मानते हैं। अतः उन्होने ऐतिहासिक पात्रों घटनाओं एवं परिस्थितियों को बगैर किसी लाँग-लपेट के बुन्देली अंदाज में अत्यंत सरल व रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके उपन्यासों का उदेश्य मात्र मनोरंजन तक सीमित नही है बल्कि बुन्देलखण्ड की लोकसंस्कृति, इतिहास, भौगोलिक विशिष्टताओं एवं राजनैतिक व सामाजिक पहलुओं को समग्रता में दर्शाना भी है वह अपने उपन्यासों में बुन्देलखण्ड के विस्मृतप्राय अतीत के अस्पष्ट व धुंधले हो चुके चित्रों को कल्पना की कूँची से यथार्थरूप में उकेरने में काफी हद तक सफल हुए। जिससे बुन्देली संस्कृति के गौरव को लोकप्रियता मिली। ऐसे में बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति व इतिहास के उद्घाटन में वर्मा जी के ऐतिहासिक उपन्यासों का सर्वेक्षण आवश्यक हो जाता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद When history is described in novels, it becomes more delightful and attractive. Dr. Vrindavan Lal Verma is such a famous historical novelist of Bundelkhand, in whose works a good combination of historical facts and imagination can be seen. He considers history to be the solid foundation of present life rather than an inert narrative. Therefore, he has presented the historical characters, events and situations in a very simple and interesting manner without any long-windedness. The purpose of his novels is not limited to mere entertainment, but also to show the folk culture, history, geographical features and political and social aspects of Bundelkhand in totality. In reality, they were successful to a great extent. Due to which the pride of Bundeli culture got popularity. In such a situation, the survey of Verma ji's historical novels becomes necessary in the inauguration of the folk culture and history of Bundelkhand.
मुख्य शब्द बुन्देलखण्ड, ऐतिहासिक, लोकसंस्कृति, भौगोलिक, उपन्यास, चित्रण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Bundelkhand, historical, folk culture, geographical, novel, illustration.
प्रस्तावना
ऐतिहासिक उपन्यासों के सम्राट पद्मभूषण डा0 वृन्दावन लाल वर्मा का जन्म झांसी से कुछ ही दूरी पर स्थित मऊरानीपुर कस्बे में हुआ। वर्मा जी बचपन सें ही पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथाओं के प्रति काफी रूचि रखते थे। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं जिज्ञासु व घुमन्तू प्रवृत्ति भी बुन्देली इतिहास के प्रति उनकी रूचि का एक प्रमुख कारण बनी। उस समय उपन्यास मात्र मनोरंजन का साधन भर माने जाते थे उनका ऐतिहासिक तथ्यों से कोई लेना-देना नही होता था। यह बात वर्मा जी को काफी कचोटती थी। फलतः उन्होने ऐसे साहित्य के सृजन का निर्णय लिया जो मनोरंजन के साथ-साथ मानव एवं लोक जीवन के सत्य को भी उद्घाटित कर सके।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तावित शोध पत्र का उदेश्य बुन्देली लोक संस्कृति व इतिहास के उद्धघाटन में वृन्दावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों का व्यापक सर्वेक्षण करना है। साथ ही साथ यह शोध पत्र इतिहास निर्माण में उपन्यास साहित्य की भूमिका को भी उद्धघाटित करता है।
साहित्यावलोकन

1. डा0 राजेन्द्र यादव के शोधपत्र- ‘‘वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में बुंन्देली लोक संस्कृति का वैभव‘‘ के अवलोकन से बुन्देली लोक जीवन व लोक संस्कृति के साथ-2 वर्मा जी के उपन्यासों में उसकी ऐतिहासिक अभिव्यक्ति का एक समग्र चित्र सामने आता है। यह शोधपत्र दर्शाता है कि किस प्रकार वर्मा जी  ने भारतीय समाज व राजनीति के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को पुनः स्थापित करने की रचनात्मक कोशिश की है। अंग्रेजों ने जिस भारतीय इतिहास व संस्कृति का जो पराभव अपने दस्तावेजों में लिखा था उसके विनरीत भारतीय समाज व संस्कृति को इन उपन्यासों में सही रूप से चिन्हित किया गया।

2. अमिता चतुर्वेदी के शोध पत्र- ‘‘बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति व इतिहास के संग्रह में हिन्दी साहित्य की भुमिका: एक मूल्याकन‘‘ के अवलोकन से अन्य साहित्यकारों के साथ-साथ वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास साहित्यकारों के भी बुन्देली लोक संस्कृति को व उसकी भौगोलिक विशिष्टताओं को किस प्रकार अभिव्यक्ति मिली को दर्शाया गया है। इस शोधपत्र में बुन्देली स्थापना, भूगोल, बोली व लोकगीत, त्योंहारो व इतिहासपरक तथ्यों का वर्मा जी के उपन्यासों मे उद्घाटन किया गया है।

3. अमर उजाला समाचार पत्र में न्यूज संवाददाता प्रतिभा के 9 जनवरी 2021 में लिखे गये एक आर्टिकिल ‘‘बुन्देलखंड की संस्कृति के चितेरे थे बाबू वृन्दावन लाल वर्मा‘‘ का अवलोकन किया गया है।

4. वी0 के0 श्रीवास्तव लिखित ‘‘बुंदेलखण्ड का इतिहास’’ ग्रंथ में बड़ी ही सूक्ष्मता से बुंदेली लोकसंस्कृतिपरम्पराओंलोक कथाओंएवं ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण किया गया है। यह ग्रंथ बुंदेलखण्ड के नायकों के योगदान व उनसे जुड़े मिथकों पर भी बखूबी प्रकाश डालता है।

5. डा0 रामेश्वर प्रसाद पाण्डेय द्वारा लिखित ‘‘बुंदेलखण्ड संस्कृति और साहित्य’’ ग्रंथ में बुंदेली लोक संस्कृति की साहित्यिक अभिव्यक्ति पर ध्यान आकर्षित किया गया है। साहित्य की एक विधा के रूप् में हिन्दी उपन्यासों में बुंदेली संस्कृति व इतिहास का प्रस्तुतिकरण भी इस ग्रंथ में संक्षेप में देखने को मिलता है।

इसके अतिरिक्त स्वयं वृंदावन लाल वर्मा लिखित गढ कुण्डार’ ‘विराटा की पद्मिनी’ ‘कचनार’ ‘मृगनयनी’ ‘झाँसी की रानी’ ‘अहिल्याबाई’ ‘माधव जी सिन्धियाउपन्यासों का साहित्यावलोकन करते हुए उपन्यासों में वर्णित कथानकों, घटनाओं व पात्रों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण किया गया है। शोध पत्र में इतिहास सम्मत व तथ्यपरक विषयवस्तु को ही सम्मिलित किया गया है।

मुख्य पाठ

वृन्दावनलाल वर्मा ने मात्र 9 वर्ष की अवस्था में छोटे-छोटे नाटकों से अपने साहित्यिक जीवन की शुरूआत की 1909 में उन्होने सेनापति ऊदलनामक नाटक लिखा। सरकार इसके मंचन से घबरा गई और नाटक जब्त कर लिया गया। तत्पश्चात 1920 तक वह छोटी-छोटी कहानियाँ रचते रहे। इसी बीच उन्होने अंग्रेजी के ऐतिहासिक उपन्यासों का व्यापक अध्ययन किया। वाल्टर स्काट नामक अंग्रेजी उपन्यासकार का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सन् 1927 में उन्होने अपने पहले ऐतिहासिक उपन्यास गढ़ कुण्डारकी रचना की। 1930 में उनका विराटा की पद्मिनीनामक उपन्यास प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात लंबे समय तक लेखन कार्य स्थगित रहा।

1942 में वर्मा जी के साहित्यिक जीवन की द्वितीय पारी की शुरूवात हुई। इस वर्ष उन्होने ने कभी न कभीऔर मुसाहिबजूजैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। 1946 में उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास ‘झाँसी की रानीप्रकाशित हुआ। तब से उनके लेखन की धार निरन्तर पैनी होती चली गई। 1947 में उन्होने कचनार’ ,1950 में मृगनयनी’ ,1954 में टूटे कांटे’, 1955 में अहिल्याबाई’, 1957 में भुवन विक्रमऔर माधवजी सिंधियाआदि ऐतिहासिक उपन्यासों का प्रणयन किया। इन उपन्यासों के माध्यम से वह भावनात्मक पटभूमि पर बुंदेली लोकसंस्कृति व इतिहास को प्रतिष्ठित कर उसके पीछे निहित कथातत्व को सूत्रबद्ध करने में सफल हुए। अतः उनके इन उपन्यासों में इतिहास का वास्तविक रसास्वादन प्राप्त होता है। 

बुंदेलखण्ड मध्य भारत का ऐसा भाग है जिसमें उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश दोनो ही राज्यों के आंशिक क्षेत्र समाहित है। इसके अलग-अलग भागों में विद्यमान तमाम विविधताओं के बावजूद भौगोलिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक व ऐतिहासिक दृष्टि से यह विलक्षण एकबद्धता लिये हुये है। वृन्दावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों में इसी बुंदेली लोकसंस्कृतिभूगोलपरम्पराओंजनश्रुतियोंलोककलाओंलोक जीवन की अद्धभुत झाँकी देखने को मिलती है। इसलिए उन्हें बुंदेलखण्ड के वाल्टर स्काटकी संज्ञा दी जाती है। जिस प्रकार वाल्टर स्काट ने अपने अंग्रेजी के ऐतिहासिक उपन्यासों में स्काटलैण्ड का सजीव चित्रण किया है। ठीक इसी प्रकार वर्मा जी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में बुंदेलखण्ड का जीवन्त चित्रण किया है। 

उनके उपन्यासों में बुंदेलखण्ड की कला, संस्कृति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, भेष-भूषा, भाषा, बोली, नदियों, जंगल, पहाड़, त्योहारों का सजीव चित्रांकन हुआ है। बुंदेली लोकगीत हो या भक्तिगीत, नागपंचमी, हरछठ, जावरों का मेला, होली, दिवाली जैसे तीज-त्योहार हो या फिर दुर्ग, किले, भवन, मन्दिर, वृदावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यासों में बुंदेली अन्दाज में बुंदेलखण्ड की सम्पूर्ण संस्कृति का अत्यन्त सूक्ष्म व जीवन्त वर्णन किया है। अतः हम कह सकते है कि वह उपन्यास विधा के ऐसे वटवृक्ष है जिन्होने बुंदेली संस्कृति को अलग पहचान दिलायी।

1927 में वृन्दावनलाल वर्मा का पहला ऐतिहासिक उपन्यास गढकुण्डारप्रकाशित हुआ। गढकुण्डार बुंदेलखण्ड का एक विलक्षण दुर्ग था। वर्मा जी ने इस उपन्यास में गढकुण्डारकी भौगोलिक ,सांस्कृतिक व स्थापत्य सम्बन्धी विशिष्टताओं के साथ-साथ यहाँ 13वीं शताब्दी में हो रहे राजनीतिक उतार-चढ़ाव को भी इगिंत किया है। तेरवी शताब्दी के अंतिम दशको में यहाँ महोबा के चंदेलो की कीर्ति-पताका नीची हो चुकी थी। जिसे आज बुंदेलखण्ड कहते है उस समय इसे जुझौती कहा जाता था। जुझौती के बेतवा, सिंध, केन द्वारा सिंचित गढ कुण्डार नामक विस्तृत भू-भाग पर खंगार वंश के शासक हुरमत सिंह का शासन था। खंगार पृथ्वीराज चौहान के सांमत थे। पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल शासक परमर्दिदेव को पराजित कर खंगारो को यहाँ की सत्ता सौंप दी थी। खंगार  वंश के इतिहास के साथ-साथ वर्मा जी ने इस उपन्यास में यहाँ की पहाड़ियों, नदियों, व मन्दिरों का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है।

1930 में वृन्दावनलाल वर्मा का विराटा की पद्मिनीउपन्यास प्रकाशित हुआ। वर्मा जी के इस उपन्यास में इतिहास व लोकतत्व का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। उन्होने इसकी रचना करते समय जनश्रुतियों एवं मौखिक परम्परा में सुरक्षित मान्यताओं के साथ-साथ विराटा, रामनगर और मुसावली की दस्तूरदेहियों को आधार बनाया। मुख्य कथानक झाँसी के पास स्थित एक रियासत के राजा-रानी की कथा पर आधारित है। ऐसा माना जाता है कि राजा नायक सिंह की शत्रुओं द्वारा हत्या के पश्चात् उसकी रानी पद्मिनी ने प्रण लिया कि जब तक हत्यारे जनार्दन सिंह का सिर काटकर उसके समंक्ष नही लाया जाता वह अन्न-जल नही ग्रहण करेगी। वर्मा जी बखूबी पद्मिनी के शौर्य व इससे जुड़ी अन्य घटनाओं को अपने उपन्यास में प्रतिबिम्बित करने में सफल हुये।

वर्मा जी को उनके परिवार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी लेखन में भरपूर लाभ मिला। उनके परदादाश्री आनन्दराय झाँसी के दीवान एवं मऊरानीपुर की सैन्य टुकड़ी के संचालक थे। 1857 में रानी लक्ष्मीबाई की शहादत के बाद भी वह उत्साहपूवर्क छापामार रणपद्धति के जरिये अंग्रेजी सेना के दाँत खट्टे करते रहे। अन्ततः वही की पहाड़ियों में वह वीरगति को प्राप्त हो गये। इसी दौरान उनके दादा कन्हैयालाल को बन्दी बना लिया गया। उनकी परदादी ने रानी लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व व कार्यशैली को करीब से देखा था एवं उनसे कई बार वर्तालाप किया था। वर्मा जी बचपन से ही परदादी और दादी से रानी के वीरता के किस्से सुनते आये थे। उनके मन में सवाल था कि आखिरकार रानी स्वराज के लिये लड़ी या विवश होकर उन्हें अंग्रेजो से लड़ना पड़ा। इसी उहापोह में उन्होने समयकाल से पूर्व की घटनाओं, स्थलों व भौगोलिक विशिष्टताओं के सन्दर्भ में ऐतिहासिक तथ्यों की छानबीन की। अन्ततः इन्ही तथ्यों को आधार बना उन्होने 1946 में झाँसी की रानीनामक लोकप्रिय उपन्यास की रचना की। उनके इस ऐतिहासिक उपन्यास में रानी व उनके सहयोगियों के वीरता के किस्से व त्याग को अत्यन्त मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया। रानी की गौरव गाथा के अतिरिक्त उन्होने झाँसी के किले, किले में स्थित कड़क बिजलीनामक तोप, शहर की सुरक्षा हेतु बनाये गये बड़े-बड़े फाटको, ओरक्षा, बरूआसागर, तालबेहट के किलो, मंदिरो, बागों आदि का बड़ी ही जीवन्तता से चित्रण किया है। उपन्यास में आम प्रजा को बुंदेली बोली एवं राजसी लोगो को खड़ी बोली का प्रयोग करते हुये प्रदर्शित किया गया है।

वर्मा जी का कचनारउपन्यास इतिहास व परम्परा पर आधारित है। इसे तथ्यपरक बनाने के लिए वर्मा जी ने संसार सागर गजेटियर, भुवन स्वामी के मुकद्दमों, बुंदेली इतिहास, सरकार द्वारा प्रकाशित ग्रंथो एवं मराठी राज्य के विविध विवरणों का बारीकी से अध्ययन किया। इसमें 18वीं शताब्दी के इतिहास का विवरण देखने को मिलता है। कचनारका मुख्य कथानक धमोनी के राजा दलीप सिंह व कचनार नामक एक साधारण नारी की प्रेम कथा पर आधारित है। इसके अलावा गुसाई समाज की दशा ,सागर राज्य व पिण्डारियों की शत्रुता की कथायें भी इसमें वर्णित है। कचनार का केन्द्र धमोनी है जो एक समय राजगोंडो की राजधानी हुआ करती थी। कचनार के कथानक के साथ ही राजगोंडो की कहानी भी समान्तर चलती है। दलीप सिंह, कचनार, महन्त अचलपुरी, गुसाई समाज, धमोनी, राजगोंडो के संदर्भ में दिए गये विवरण इतिहास सम्मत है। इसके अलावा धमोनी के किले, बरूआसागर की झील, जंगल, बीहड़, टोरियों तथा बेतवा व धसान जैसी नदियों का भी उल्लेख देखने को मिलता है।

कचनार के पश्चात वर्मा जी का मृगनयनीउपन्यास प्रकाशित हुआ। इसकी विषयवस्तु 1486 से 1516 के बीच हुये ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर व उनकी पत्नी मृगनयनी से सम्बन्धित है। उपन्यास में वर्णित सभी मुख्य पात्र व घटनायें इतिहास प्रसिद्ध है। मानसिंह तोमर के अतिरिक्त सिकन्दर लोदी, गयासुद्दीन खिलजी, नासिरूद्दीन खिलजी, महमूद बेगड़ा, राजसिंह व मृगनयनी आदि पात्र ऐतिहासिक है। ग्वालियर पर दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी ने पाँच बार आक्रमण किया किन्तु वह इसे जीतने में असफल रहा। ग्वालियर विजय हेतु ही उसने आगरा नामक नगर बसाया। दूसरी ओर मालवा का विलासी सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी और गुजरात का महमूद बेगड़ा भी ग्वालियर जीतना चाहते थे किन्तु मानसिंह के शौर्य व पराक्रम के समक्ष उन्हे घुटने टेकने पड़े। इन ऐतिहासिक घटनाओं के अतिरिक्त उपन्यासकार ने प्रसिद्ध संगीतज्ञ बैजू बावरा को मानसिंह का दरबारी संगीतकार बताया है। उसने मानसिंह की गूजरी रानी मृगनयनी के नाम पर गूजर टोड़ीऔर मंगल गूजरजैसे रागों का सृजन किया।

1955 में प्रकाशित उनका अहिल्याबाईउपन्यास मराठा जीवन से सम्बद्ध ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें एक आदर्श हिन्दू नायिका अहिल्याबाई की जीवनकथा एवं संघर्ष की कथा का सजीव चित्रण देखने को मिलता है। अहिल्याबाई इतिहास प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होल्कर के पुत्र खाण्डेराव की पत्नी थी। इस उपन्यास में कम आयु में अहिल्याबाई के विधवा होने से लेकर एक के बाद एक उनके सगे सम्बन्धियों के देहावसान से उत्पन्न विकट राजनीतिक परिस्थितियों में रानी द्वारा इन्दौर राज्य के कुशल संचालन का जीवन्त वर्णनकिया गया है। मल्हारराव, भारमल व गनपतराय जैसे कई अन्य पात्र भी ऐतिहासिक है।

1957 में प्रकाशित माधवजी सिन्धियावर्मा जी का विशुद्ध ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें 18वीं शताब्दी के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के साथ-साथ राजनीतिक रस्साकसी के बीच मराठा वीर माधवजी सिन्धियां द्वारा अंग्रजो के विरूद्ध भारत की तत्कालीन तमाम शक्तियों को एकजुट करने के प्रयासों का वर्णन किया गया है। वर्मा जी के इस उपन्यास में माधवजी सिन्धियां के व्यक्तित्व को तो भली-भाँति उभारा ही गया है साथ ही पतनशील मुगल बादशाहों की गतिविधियों उनके वजीरो की स्वार्थपरायणता व षड़यंत्रो, मराठा, जाट, सिख, अफगान आदि के टकराव जैसी तमाम घटनायें एवं गुलाम कादिर, सूरजमल, मल्हार राव आदि पात्रों का भी इतिहास सम्मत् वर्णन इस उपन्यास में देखने को मिलता है।

वर्मा जी के टूटे काँटेनामक ऐतिहासिक उपन्यास में दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह (रंगीला) के शासनकाल (1719 से 1748) तक की घटनाओं का वर्णन देखने को मिलता है। इसमें एक साधारण जाट सैनिक मोहन की पारिवारिक स्थित के साथ-साथ प्रसिद्ध फारसी गायिका नूरबाई के उत्थान व पतनमय जीवन का चित्रण हुआ है। नूरबाई मुहम्मदशाह के दरबार से सम्बद्ध थी। नादिरशाह ने जब दिल्ली पर आक्रमण किया गया तो वह नूरबाई से खासा प्रभावित हुआ। रंगीला ने चारहजार नर्तकियों के साथ नूरबाई को भी नादिरशाह को भेट किया। नादिरशाह उसे ईरान ले जाना चाहता था किन्तु नूरबाई सैनिक मोहन के सहयोग से उसके चंगुल से भाग निकली। नूरबाई के दिल्ली छोड़ने तक की घटनायें इतिहास सम्मत है।

निष्कर्ष किसी भी क्षेत्र की लोकसंस्कृति में कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु समाहित होते है। जैसे वहाँ की कला एवं स्थापत्य, भौगोलिक विशिष्टतायें, समाजिक-सांस्कृतिक जीवन, भाषा, बोली, त्योहार, रीति-रिवाज, लोकगीत, लोककथायें इत्यादि। इसके आधार पर ही लोकसंस्कृति का समग्र मुल्यांकन किया जा सकता है। डा0 वृन्दावनलाल वर्मा बुंदेली लोकसंस्कृति के ऐसे चितेरे कालजयी उपन्यासकार है जिन्होने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से अपनी मातृभूमि बुंदेलखण्ड को समग्रता से उभारने का प्रयास किया है। उनके उपन्यासों से मध्यकालीन तथा 18वीं शताब्दी के बुंदेलखण्ड की एक व्यापक तस्वीर उभरती है। इसके लिये जहाँ उन्होने एक ओर आधारभूत ऐतिहासिक तथ्यों व दत्त सामग्री का अध्ययन व अनुसंधान किया तो वही दूसरी ओर इतिहास के अदृश्य पन्नों को प्रदर्शित व पूरित करने के लिए अनुमान व कल्पनाशक्ति का सार्थक उपयोग किया। अतः यह कहा जा सकता है कि जहाँ तथ्यों के अभाव में इतिहास मौन हो जाता है वर्मा जी के ऐतिहासिक उपन्यास वही से बोलना शुरू कर देते है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डा0 रामेश्वर प्रसाद पाण्डेय ,‘‘बुंदेलखण्ड संस्कृति और साहित्य,’’ किताबघर प्रकाशन ,नई दिल्ली ,संस्करण-2015 2. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘गढ कुण्डार’’, प्रभात प्रकाशन ,नई दिल्ली ,संस्करण-2008 3. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘विराटा की पद्मिनी’’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009 4. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘झाँसी की रानी’’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2010 5. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘कचनार’’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2008 6. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘मृगनयनी’’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009 7. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘अहिल्याबाई’’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009 8. वृन्दावनलाल वर्मा ,‘‘माधवजी सिंधिया’’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2016 9. बी0 के0 श्रीवास्तव ,बुंदेलखण्ड का इतिहास ,डी0 के0 प्रिंट वर्ल्ड ,नई दिल्ली ,संस्करण-2018