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भारतीय समाज में जनजातियों के मानवाधिकारों का विश्लेषणात्मक अध्ययन (महिलाओं के विशेष सन्दर्भ में) | |||||||
Analytical Study of Human Rights of Tribes in Indian Society (With Special Reference to Women) | |||||||
Paper Id :
16971 Submission Date :
2022-12-01 Acceptance Date :
2022-12-19 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
जनजातीय समाज के बदलाव में नगरीकरण, औद्यौगीकरण और वैश्वीकरण की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान है। आज जनजातीय समाज की असंख्य लड़कियाँ शिक्षित होकर नगरों में कार्यरत है। शिक्षा ने जनजातीय स्त्रियों का जनजीवन ही बदल दिया है। डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा लिखते है कि ‘‘शिक्षा समाजीकरण, बदलाव और नवीनता लाने की प्रक्रिया है, जो राष्ट्र और सभ्यताऐं शिक्षा पर जोर देती आई है उन्होंने बौद्धिक और आर्थिक दोनों ही क्षेत्रों में उपलब्धि हासिल की है।‘‘
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The role of urbanization, industrialization and globalization has an important place in the transformation of tribal society. Today, innumerable girls of tribal society are working in the cities after getting educated. Education has changed the lives of tribal women. Dr. Krishna Kumar Sharma writes that "Education is a process of socialization, change and innovation, the nations and civilizations which have been emphasizing on education have achieved achievements in both intellectual and economic fields." | ||||||
मुख्य शब्द | जनजाति, महिला, मानवाधिकार, अनुच्छेद, नगरीकरण, वैश्वीकरण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Tribe, Women, Human Rights, Article, Urbanization, Globalization | ||||||
प्रस्तावना |
मानवाधिकारों की चर्चा करना अधिकांशतः एक बौद्धिक प्रयास ही नजर आती है क्योंकि समाजों की वंचित जनसंख्या सदैव शोषण एंव दमन की बहुस्तरीय प्रक्रियाओं का सामना करती है। एक तरफ जहाँ वंचित जनसंख्या को सदैव कानून की पालना की शिक्षा दी जाती है वहीं दूसरी ओर शक्तिशाली जनसंख्या का ‘‘शक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन‘ ही उसके लिए कानून बन कर उभरता है। ऐसे में मानवाधिकार पर अपनी चिनता की अभिव्यक्ति ‘‘ हिप्पोक्रेटिक मानसिकता‘‘ सी लगती है, पर फिर एक अहसास होता है कि मानवाधिकार की पक्षधरता के आन्दोलन ‘‘आवाजहीन ही आवाज‘‘ का एक ऐसा भाग है जो यह याद दिलाते है कि ‘‘दार्शनिकों के द्वारा विश्व की व्याख्याऐं की गयी है पर मुख्य उद्देश्य तो इस विश्व को परिवर्तित या रूपान्तरित करना हैं‘‘ यदि वंचित जनसंख्या के कल्याण के सामाजिक मुद्दों को सार्वजनिक अभिव्यक्ति देकर अवैधानिक प्रकृति के कुछ सत्ता समीकरण एवं शक्ति सम्बन्धों के सम्मुख ‘‘प्रतिरोध की सामूहिक संस्कृति‘‘ उभर कर आती है तो समतामूलक विकास मार्ग की सम्भावनायें बलवती होती है। लोकतन्त्र, सामानता, न्याय, धर्मनिरपेक्षता एवं समाजवाद हेतु संघर्ष चाहे किसी स्तर पर हो, उसका समर्थन वस्तुतः मानवीय मूल्यों का समर्थन है और इसीलिए मानवाधिकार की अवधारणा प्रारम्भिक विसंगतियों के बावजूद समाजशास्त्रीय दृष्टि से महत्वूपर्ण हो जाती है।[1]
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय समाज में जनजातियों के मानवाधिकारों विशेषकर महिलाओं के सन्दर्भ में विश्लेषणात्मक अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | मानवाधिकार संसार के सर्वोत्कृष्ट प्राणी मानव समाज में गरिमा तथा मानव के रूप में प्रस्थिति दिलाने के प्रबल संबल है। मानवाधिकार उन आत्यांतिक अधिकारों की अवधारणा है जिन्हें ईश्वर ने मानव को जन्म के साथ ही प्रदान किया है, इसीलिए ये शाश्वत है और किसी भी देश के संविधान, राजनीतिक दल, शैक्षणिक व्यवस्था अथवा सामाजिक व्यवस्थाओं से भी पुराने है। मानवीय गरिमा, मानवीय सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास, मानव की समृद्धि, प्रसन्नता तथा विकास के लिए मानवाधिकारों का संरक्षण तथा उनका सम्मान प्रत्येक देश एवं प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य है। संभवतः इसीलिए हमारे संविधान के 42 वें संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 51 क जोड़ा गया और 51 (ङ) में यह अवधारित किया गया कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करें, जो धर्म, भार्षा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध है। |
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मुख्य पाठ |
किसी समुदाय, राष्ट्र, जाति, धर्म या लिंग के पहचान के आधार पर निर्भर रहे बिना प्रत्येक
मनुष्य के कुछ न्यूनतम एवं अनिवार्य अधिकार है, जिसके अनुसार प्रत्येक मानव एक व्यक्ति है और वह विवेक
एवं चेतना से सम्पन्न होता है। यहीं विवेक एवं चेतना मनुष्य को पाश्विक स्तर से आगे
एक उच्चतर धरातल पर ले जाता है। विवेक एवं चेतना मानव को गरिमायुक्त बनाते है तथा यह
गरिमा प्राकृतिक विवशता, सामाजिक पराधीनता एवं सार्वभौम पीड़ा के विरूद्ध मनुष्य के विवके एवं चेतनापरक संघर्ष
में अभिव्यक्त होती है। अतः व्यक्ति के संदर्भ में जीवित रहने की प्राथमिक जैविक इच्छा, ‘‘मानवीय गरिमा‘‘ मूलभूत मानवीय मूल्य है तथा इन्हीं मूल्य से स्वतंत्रता, नैतिकता, ईमानदारी व सचरित्रता जैसे मूल्य निकलते है। हमारा संविधान जिसमें जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग के आधार पर कोई छोटा और बड़ा नहीं है, अपितु देश की समस्त जनता को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक अधिकार एवं न्याय समान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
प्राप्त है, उन्नति के समान अवसर प्राप्त हैं लेकिन आश्चर्य जब होता है कि संवैधानिक रूप से
देश के सभी नागरिक समान है पर विचारणीय बात है कि जनजातीय समाज इतना पिछड़ा क्यों रह
गया? जनजातीय समाज में स्त्री-पुरूष दोनों
की आर्थिक-सामाजिक प्रस्थिति निम्न क्यों बनी रही? और इनमें भी स्त्री की प्रस्थिति निम्नतम पायदान पर क्यों? जिसके लिए हमारे संविधान में अनेक अनुच्छेद जनजाति के
उत्थान व कल्याण के लिए दृढ़ संकल्पित है। अनुसूचित जनजातियों का शैक्षिक तथा आर्थिक
दृष्टि से उत्थान और उनकी सामाजिक असमर्थताओं के निराकरण करने के उद्देश्य से उन्हें
सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की गई है। 1. अनुच्छेद 15 के तहत धर्म, वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध। 2. अनुच्छेद 16 एवं 335 के तहत सरकारी सेवाओं में जहाँ
इनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है वहीं आरक्षण तथा सरकारी सेवाओं में नियुक्तियों को
ध्यान में रखना होगा। 3. अनुच्छेद 19 के तहत किसी भी अनुसूचित जनजाति के हित
में सभी नागरिकों के स्वतंत्रतापूर्वक आने जाने, बसने और सम्पत्ति अर्जित करने के सामान्य अधिकारों में
विधि द्वारा कटौती करने की व्यवस्था है। 4. अनुच्छेद 330, 332 और 334 के अनुसार 25 जनवरी 1990 तक नया तथा 25 जनवरी
2000 तक लोकसभा तथा विधानसभा में विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। जिसे
अब बढ़ा दिया गया है। 5. अनुच्छेद 25(2) के तहत राज्य द्वारा घोषित अथवा राज्य
निधि से सहायता प्राप्त करने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश पर किसी भी तरह के
प्रतिबन्ध का निषेध है। 6. अनुच्छेद 164 और 338 पंचम् अनूसूची के अनुसार जनजातीय
कल्याण के लिए जनजातीय सलाहकार परिषद् का पृथक विभाग स्थापित करने के व्यवस्था की गई
है। 7. अनुच्छेद 244 और छठी अनूसूची के तहत् जनजातीय क्षेत्रों
के प्रशासन और नियंत्रण के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। 8. अनुच्छेद 46 के तहत् राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी
हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शौषण
से उनकी सुरक्षा करेगा। 9. अनुच्छेद 23 के तहत् बेगार प्रथा और बलपूर्वक श्रम
करवाने पर प्रतिबंध। 10. अनुच्छेद 342 के तहत् महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित
जनजातियों के सम्बन्ध में सूची बनाने का उपबंध है। 11. अनुच्छेद 399 के तहत राष्ट्रपति द्वारा जनजातीय प्रशासन
की देखरेख व निगरानी करने लिए जनजाति आयोग का गठन कर सकते है।[2] जनजातीय समाज का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक ढांचा:- किसी भी समाज का आर्थिक एंव सामाजिक ढांचा ही स्त्री-पुरूष
की प्रस्थिति व भूमिका को रेखांकित करता है। प्रकार्यात्मक संस्कृति ही श्रम विभाजन
का आधार रहीं है चाहे वो आदिम समाज हो या औद्यौगिक समाज, परिवार एवं श्रम विभाजनके आधार पर हम यह तय कर सकते हैं
कि किस समाज में स्त्री-पुरूष की सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति क्या है? यह इस बात पर निर्भिर करता है कि कोई भी समाज आर्थिक रूप
से कितना सुदृढ़ है, इस दृष्टि से जनजातीय समाज की महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति आजादी के
67 वर्ष बीत जाने के पश्चात् भी निम्न है। डॉ. हरीशचन्द्र उप्रेती ने लिखा है कि ‘‘ वह अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति एक व्यवस्था के भीतर
करता आया है। वह अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ अपने परिवार तथा कबीले के प्रति उत्तरदायी
रहा है। जनजातीय जीवन में संतुलन का अभाव स्पष्ट रूप से देखने में आता है। भविष्य के
प्रति आश्वस्त होना तथा संघर्षमय जीवन व्यतीत करना ही उनका एक लक्ष्य बन जाता है। उनके
औजारों, निवास स्थानों व अन्य भौतिक सामग्री
से यह स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी वस्तुओं एवं आवश्यकताऐं उनकी स्वयं की
उपलब्धि के साधनों तक ही सीमित है‘‘।[3] वास्तव में जनजातियों की आर्थिक प्रकार्यात्मक व्यवस्था
एवं प्रबन्धन प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से जुड़ी हुई है।राजस्थान में जनजातियों के शोषण
के बारे में वर्तमान में स्थिति-राजस्थान में जनजाति वर्ग आज भी अपने मानवाधिकार या
जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं एवं गरिमापूर्ण जीवन से वंचित है। यह वर्ग अपने अधिकारों
के प्रति जागरूक नहीं हो पाया हैं एवं समाज की मुख्य धारा से बहुत दूर हैं। आज भारत
जहाँ विश्व को नेतृत्व देने की दिशा में आगे बढ़ रहा हैं वहीं राजस्थान सहित अनेक राज्यों
में जनजाति वर्ग अपने मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। राजस्थान में जनजाति वर्ग
आज भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ हैं या अपने मानवाधिकारों से वंचित है।
दलित जनजाति और अन्य लोगों के बीच जो खाई निर्मित है वह अपने देश के लिए हितकारी नहीं
है। अपने देश में इस प्रकार की फूट न पड़े इसके लिए महात्मा गांधी ने भी अपने प्राणों
की बाजी लगाकर पूरा प्रत्यन्न किया था।[4] अफ्रीका के बाद भारत में ही वनवासियों की संख्या इतनी
बढ़ी है। ये गरीब है, निरक्षर है, अंधविश्वास और रूढ़ियों से ग्रस्त है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग की
रिपोर्ट के अनुसार उनके उपर अत्याचार बढ़ रहें है। उनकी खूनखराबी, उनकी झोपड़ियाँ जलाने, उनकी महिलाओं पर बलात्कार करने तथा उन्हें वेश्यावृत्ति
में ढ़केलने की प्रवृति का विस्तार हो रहा है। उनकी बीमारियों और उनके कर्जों की राशि
में वृद्धि हो रही है, उनका शोषण अत्यधिक बढ़ रहा हैं, उनके लिये न्यूनतम आय की व्यवस्था नहीं है। उनके लिए पेयजल
की समस्या विकराल रूप धारण कर रही है। और वनवासी बन्धुओं, मजदूरी की मुक्ति का घोषणा पत्र नाटक बनकर रह गयी है।[5] संविधान के भाग चार में काम पाने का अधिकार एक मूल अधिकार
के रूप में माना गया हैं, किन्तु जनजाति वर्ग का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी रोजगार मुक्त नहीं हो पाया है और
इसी कारण ये रोजगार की तलाश में दर-दर भटकते रहते हैं और कम वेतन में इन्हे अपने परिवार
का गुजारा करना होता हैं। जिससे इनके परिवार को न तो आवास मिल पाता हैं इसी कारण इनमें
अधिकांश व्यक्ति कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी के शिकार हो जाते है। राजस्थान के बाँसवाड़ा और डूंगरपुर में हजारों की
तादाद में अनुसूचित जाति के व्यक्ति इसी कारण कुवैत जैसे देश में मजदूरी करने जा रहे
है। इसी प्रकार रोजगार नहीं मिलने के कारण से आज भी भीलवाड़ा जिले में बिजौलिया तहसील
के कंजर बस्ती चिताबड़ा में अधिकांश व्यक्ति चोरी करने का कार्य नहीं छोड़ रहे हैं, और मजबूरन इन्हें रोजी रोटी के लिए अवैध रूप से देशी शराब
बनाने का कार्य करना पड़ रहा है। संविधान का अनु. 21 सभी व्यक्तियों को प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान करता हैं। इस अनुच्छेद के तहत् प्रत्येक व्यक्ति को मानव की गरिमा को बनाये रखते हुए जीवन जिने का अधिकार है।[6] किन्तु आज भी जनजाति वर्ग की अनेक महिलाओं को कुछ रूपयों के खातिर शरीर बेचना स्वीकार करना पड़ता है या जबरन इनका शारीरिक शोषण किया जाता है। बूंदी जिले के कंजर बस्ती रामनगर की अधिकांश युवतियां, औरते अपनी परिवार की रोजी वैश्यावृति करके चला रही हैं या तो यहाँ की युवतियों को चन्द रूपयों में शहरों में बेच दिया जाता है या जबरन इन्हें वैश्यावृति के धन्धे में धकेल दिया जाता है। व्यक्तियों के अवैध व्यापार तथा शोषण या अन्य लोगों के
वैश्यावृति शमन पर अर्न्तराष्ट्रीय अभिसमय के अनु.1 में वैश्यावृति के लिए फुसलाने, शोषण करने, जानबूझकर सहायता देने, इमारत किराये देने वाले व्यक्तियों को दण्डित करना स्वीकार
किया गया है।[7] किन्तु वर्ष 2010 में सेक्स वर्कर्स पुनर्वास के लिये
दायर जनहित याचिका के चलते वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट में अनैतिक व्यापार निरोधक
अधिनियम की समीक्षा के लिये पैनल गठित किया है। सुप्रीम कोर्ट के इस पैनल के दायरे
में देह व्यापार को वैध या अवैध मानने पर विचार भी शामिल है।13 भारत जैसे देश में जहाँ
स्त्री को देवी का दर्जा देते हुए पूजने का विधान है वहाँ कोई कानून वैश्यावृति को
वैध धंधें के रूप में मान्यता देने वाला होता है, तो यह भारत की जनजाति वर्ग की महिलाओं के गरिमापूर्ण जीवन
के मानवाधिकार के विरूद्ध होगा। भारत की विधायिका और न्यायापालिका को वैश्यावृति जैसी
गंम्भीर सामाजिक बुराई को समाप्त किये जाने कि दिशा में कठोर विधि बनाने कि दिशा में
कदम बढ़ाकर भारत की जनजाति वर्ग की महिलाओं के लिए विशेष रूप से आय के स्रोत उपलब्ध कराने
चाहिये ताकि भारत की जनजाति वर्ग की महिलाएँ गरिमापूर्ण जीवन जी सके। हालांकि भारतीय संविधान 6 से 14 वर्ष की आयु के बालकों
के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध करता है और अनु. 23 व 24, 14 वर्ष के कम आयु के बालाकों को खतरनाक जगहों पर काम
करने पर रोक लगाता है। इस सबके बावजूद आज भी अनुसूचित जनजाति के अनेकों बच्चे शिक्षा
से वंचित होकर मजदूरी का कार्य कर हैं। जैसे बाँसवाड़ा, डूंगरपुर के अनेकों बालक गुजरात की फैक्ट्रियों और मकान
निर्माण के कार्याें में कर रहें है। आज भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आगे बढ़ने के लिए बहुमुखी
विकास के प्रर्याप्त अवसर नहीं मिल पा रहें हैं। जागरूकता के अभाव में जनजाति वर्ग
अवसर के शोषण का शिकार हो रही है। जनजाति वर्गों का एक बहुत बड़ा हिस्सा राजनैतिक शोषण
का शिकार हैं चुनाव में अनको उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता हैं एवं चुनाव में इन्हें
जबरन शराब और रूपयों का लालच देकर मत का गलत प्रयोग कराया जाता है। जनजातीय समाज में स्त्री का समाजशास्त्रीय विश्लेषण-प्रत्येक
समाज की अपनी प्रकृति, अपना पर्यावरण और उसके विकास और प्रगति के संसाधन है और इनसे भी ज्यादा आवश्यक
है कि अमुक समाज का बुनियादी ढाँचा किस प्रकार का है? योगेन्द्र नारायण लिखते है कि ‘‘एक मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए मजबूत आधारभूत ढाँचे की
आवश्यकता है, अन्य विकास गतिविधियों की तरह बुनियादी ढाँचे के विकास में भी कई लोगों का हाथ
होता है। यह किसी अकेले संस्था या मंत्रालय की जिम्मेदारी नहीं है। वह विभिन्न संस्थाओं
और लोगों की मदद से किसी हद तक समन्वित और एकीकृत कार्यक्रम लागू कर पाता है और इसी
पर उसके बुनियादी ढाँचे के विकास की गति निर्भर होती है।[8] इस आधारभूत ढ़ाँचे पर दृष्टिपात करते है तो जनजातीय समाज
में स्त्री पुरूष की प्रस्थिति का विश्लेषण पता चलता है कि प्राकृतिक पर्यावरण ही आर्थिक
संसाधन के आधार है। निर्मल कुमार बोस जिन्होंने भारतीय जनजातियों पर अध्ययन
किया है, वो कहते है कि एक समाज से कटा अभावग्रस्त
सामुदायिक जीवन होते हुये भी वे प्राकृतिक संसाधनों का यथाशक्ति दोहन करते हैं। भले
ही उनके पास सामाजिक संसाधन कुछ भी हों, वे मानसिक और आध्यात्मिक रूप से अपनी सुरक्षा स्वयं करते
हैं और इसके लिए स्वयं अपना संसार निर्मित करते है।[9] इस प्राकृतिक पर्यावरण में जनजातीय समाज में स्त्री की
प्रस्थिति पुरूष से किस प्रकार भिन्न हो सकती है ? सामुदायिक जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में स्त्री पुरूष
परस्पर सहयोगी रहे, परिवार के कार्यों से मुक्त होकर स्त्री की बाहरी कार्यों में सहभागिता रही। जिन
जनजातियों समाजों में मातृसत्तात्मक परिवार रहे वहाँ स्त्री की प्रस्थिति उच्च रही
है किन्तु व्यक्तिगत सम्पत्ति में जैसे-जैसे वृद्धि होती गई वहीं एस.ए. डाँगें कहते
है कि शीघ्र ही मातृसत्तात्मक परिवार का समाज में अस्तित्व घटने लगा और इसके स्थान
पर पितृसत्तात्मक परिवार स्थापित होने लगे।[10] जनजातीय समाज में जब पुरूष आर्थिक रूप से सबल होने लगा, तब स्त्री की आर्थिक-सामाजिक प्रस्थिति का हृास होने लगा है और घर के कार्यों तक सीमित होने लगी। जनजातीय समाज के परिदृश्य में जब हम स्त्री को रखकर उनकी
प्रस्थिति और भूमिका का विश्लेषण करते है तो हमें स्त्री का काम करने का दायरा सीमित
दिखाई देता है। किसी भी समाज में स्त्री की प्रस्थिति का मूल्यांकन करते है तो सर्वप्रथम
यह प्रयास किया जाता है कि वह शिक्षित व स्वावलम्बी है या नहीं। आर्थिक रूप से वह कितनी
आत्मनिर्भर है? परिवार के अतिरिक्त समाज के विभिन्न कार्यों में उसकी क्या भूमिका है? उसके आदर्श, मूल्य व मान्यताएँ क्या है? इन सभी बातों का एक प्रकार्यात्मक स्वरूप है जो स्त्री
की प्रस्थिति को दर्शाता है। इन आधारों पर जब हम देखते है तो पाते है कि आज भी जनजातीय
समाज की स्त्री बहुत पिछड़ी और निर्धन है, पुरूषों पर निर्भर है और समाज में द्वितीयक प्रस्थिति
प्राप्त है। |
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निष्कर्ष |
यह बात प्रमाणित हो गई है कि हमारे भविष्य को आकार देने में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है, और इस तरह भावी पीढ़ियों को परिवर्तन के लिए तैयार किया जा सकेगा।[11] निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जनजातीय स्त्री जितनी अधिक शिक्षित होगी, उतना ही उसका परिवार और समाज भी शिक्षित होगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. प्रो. गुप्ता, राजीवः मानवाधिकारों का वैश्विक परिदृश्यः एक मार्क्सीय दृष्टि, मानवाधिकार और राज्य बदलते संदर्भ, उभरते आयाम-आशा कौशिक, पृ. 51, पोइन्टर पब्लिशर्स, जयपुर
2. सिंह, वी.एन/जनमेजयः आधुनिकता एवं नारी सशक्तिकरण, रावत पब्लिकेशन्स जयपुर, 2010, पृ. 308
3. डॉ. उप्रेती हरीशचन्द्रः भारतीय जनजातियाँ संरचना एवं विकास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर पृ. 260
4. मैं मनु और संघ, लेखक रमेश पंतगे अर्चना प्रकाशनः द्वितीय संस्करण,
5. सामाजिक न्याय, लोकहित प्रकाशन लखनऊ प्रथम संस्करण 1914, पृ. 29
6. मेनका गांधी बनाम भारत संघ एआईआर 1978 एससी 597
7. ओजस्विनी, वसुधा पब्लिकेशन प्रा. लि. भोपाल जनवरी 2015, पृ. 20
8. नारायण, योगेन्द्रः योजना जनवरी 1998 पृ. 3
9. बोस, निर्मल कुमारः ट्राइबल लाइफ इन इण्डिया, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, पृ. 1
10. डांगे, एस.ए. इंडिया फ्रॉम प्रिमटिव कम्यूनिज्म टू स्लेवरी, पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली, पृ. 118
11. डॉ. शर्मा कृष्ण कुमारः कुरूक्षेत्र, सितम्बर 2004, पृ. 31 |