ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
समकालीन भारत में लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां
Challenges Before Democracy in Contemporary India
Paper Id :  16977   Submission Date :  2022-12-13   Acceptance Date :  2022-12-23   Publication Date :  2022-12-25
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सुनीता मीणा
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
बाबू शोभाराम राजकीय कला महाविद्यालय
अलवर,राजस्थान, भारत
सारांश
इस रूप में यह शासन व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान (Respect of individual personality), व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individual freedom), विवेक में आस्था (Beflief in Rationality), समानता (Equality) न्याय (Justice) कानून का शासन (Rule of Law) एवं संविधानवाद (Constitutionalism) है। समानता एवं स्वतंत्रता प्रजातांत्रिक राज्यों की आधारशिला है मानव हमेशा से ही समानता एवं स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता रहा है। समानता के विभिन्न आयाम है जिसमें राजनीतिक समानता, नागरिक समानता, आर्थिक समानता है। इनके साथ ही समानता का एक अन्य रूप सामाजिक समानता भी हैं जो इस बात की मांग करता है कि किसी भी समूह अथवा वर्ग के लिए कोई विशेष सुरक्षा नहीं होनी चाहिए एवं समाज के समस्त वर्गों के कल्याण के लिए राज्य की ओर से सार्वजनिक पुस्तकालयों, वाचनालयों, मनोरंजन और स्वास्थ्य की सेवाओं आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए, यही सामाजिक लोकतंत्र है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In this form, this governance respects individual personality, individual freedom, faith in rationality, equality, justice, rule of law and constitutionalism. (Constitutionalism).
Equality and freedom are the cornerstone of democratic states. Humans have always been fighting for equality and freedom. There are different dimensions of equality which include political equality, civil equality, economic equality. Along with these, another form of equality is also social equality.
Which demands that there should be no special protection for any group or class and for the welfare of all sections of the society, public libraries, reading rooms, entertainment and health services etc. should be arranged by the state. This is social democracy.
मुख्य शब्द असहिष्णुता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संविधानवाद, समानता, असमानता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Intolerance, Individual Liberty, Constitutionalism, Equality, Inequality.
प्रस्तावना
एक शासन उतना ही अधिक प्रजातांत्रिक कहा जा सकता है जितना वह प्रजातांत्रिक मूल्यों अथवा आधारभूत सिद्धान्तों के अनुकूल सिद्ध हो व्यापक अर्थ में प्रजातंत्रात्मक शासन राज्य और समाज का स्वरूप है। वह जीवन का एक तरीका तथा सामाजिक दर्शन हैं। शासन के दृष्टिकोण से प्रजातंत्र का मूल अर्थ जनता के प्रति उत्तरदायित्व और अधिकाधिक व्यापक मताधिकार पर आधारित प्रतिनिधि संस्था का अस्तित्व है। राजनीतिक दृष्टि से वह शासन व्यवस्था है जिसमें प्रमुख शक्ति के प्रयोग का अधिकार जनसंख्या के अधिकतर भाग को होता है और वही कानून लागू किये जाते हैं जो सामान्यतया जनमत के प्रतिकूल ना हो लेकिन साथ-साथ प्रजातंत्र एक उत्तम कोटि का सामाजिक आदर्श भी है जिसका सामाजिक एवं आर्थिक पहलू भी है जो अति महत्वपूर्ण है क्योंकि राजनीतिक जनतंत्र की सफलता आर्थिक एवं सामाजिक जनतंत्र पर निर्भर करती है। आर्थिक प्रजातंत्र आर्थिक समानता का पर्यायवाची हैं। किसी भी समाज में जब तक आर्थिक समानता नहीं होती तथा राजनीतिक अधिकारों के साथ आर्थिक अधिकारों को भी मान्यता नहीं दी जाती तब तक प्रजातंत्र शासन प्रणाली सफल होना संदेहास्पद है। अपने सामाजिक आदर्श में प्रजातंत्र समस्त नागरिकों को समानाधिकार प्रदान करता है तथा एक सच्चे प्रजातंत्रीय समाज में नस्ल, रंग, धर्म, वंश, जाति, लिंग के आधार पर किसी का भेदभाव नहीं किया जाता ।
अध्ययन का उद्देश्य
लोकायिक व्यवस्था, समानता, स्वतंत्रता एवं बघुत्व के मूल्यो पर आधारित होती है। जिसमें बिना किसी भेद्‌भाव के सभी अवसर की समानता मिलती है। लेकिन जैसा कि हम अपने चारों ओर देखते हो कहीं धर्म के आधार पर तो कहीं जाति के आधार पर शोषण एवं उत्याचार होते हुए प्रतिदिन देखने सुनने को मिलते है। इस शोधपत्र का उद्देश्य लोकतंत्र की इन चुनौतियाँ का अध्यन करना एवं अपने विचार सुझाय के रूप में प्रस्तुत करना है।
साहित्यावलोकन

तत्य एवं मिचक 2017 प्रो राम में सामुदायिक राजनीति की प्रक्रिया सादा ही सामाजिक पहचाना उसके अनेको पहलुओं का प्रस्चन किया है। साथ ही धर्म के नामपर फैलती असहिष्णुता, सामुदायिकता, जाति आधारित राष्ट्रवाद, जैसे मुदा की जहाँ पुनियानी से विवेचना की है। भारतीय शासन एवं राजनीति मे भारत 4 लोग्टंग के सदल एवं दुर्बल पक्ष, राजनीति अपराधीमुख तथा राज्य की राजनीति पर विवेचनाएँ प्रस्तुत की है।

मुख्य पाठ

छह दशक से भी ज्यादा लम्बी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बावजूद दलितआदिवासी एवं महिला समाज आज भी हासिये पर हैं और वंचना या भेदभाव का शिकार है।

भारत में सदियों से सामाजिक असमानता समाज के लिए कलंक रही है। जाति एवं लिंग के आधार पर समाज में असमानता एवं अन्याय होता रहा है। जो सामाजिक लोकतंत्र की चुनौती बना हुआ है। 'लोकतंत्र' का मतलब सिर्फ शासन या राजनीति का लोकतंत्र नहीं है। असल में लोकतंत्र समानता के सिद्धान्त की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं। इसमें हर व्यक्ति का, हर विचार का, हर स्थिति का आदर करना और सचमुच आखिरी आदमी की परवाह करना शामिल है। व्यक्ति का अपना विचार और व्यवहार भी लोकतंत्र के हिसाब से चलता है। लोकतंत्र में बहुमत की आजादी और राजनीतिक कार्य की छूट सिर्फ इसलिए ही नहीं दी जाती कि बहुमत का राज चलाना है। इन व्यवस्थाओं के चलते हर व्यक्ति को हर समूह को अपनी बात आगे बढ़ाने का अपनी मांग को सामने लाने की सुविधा रहती है और अगर शासन संवेदनशील हुआ तो एक भी व्यक्ति की सही बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता। हमारे प्राचीन दर्शन में तो सिर्फ समाज और परिवार के लोग ही नहीं पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक परिवार को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' गया है।

असमानता एक भयंकर रोग है जो भारत में हर तरफ अपनी जड़े मजबूती से जमाएं हुए है। सामाजिकआर्थिकशैक्षणिकधार्मिकलैंगिक एवं राजनीतिक असमानता अन्यायकारी रूप धारण कर चुकी है। यह राजनीतिक लोकतंत्र के लिए खतरा बनती जा रही है क्योंकि कोई भी शासन व्यवस्था उसकी सामाजिक संरचना एवं आर्थिक आधार पर टिकी होती है। अलोकतांत्रिक समाज में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सफल होना असंभव है। इसकी सफलता के लिए सामाजिक लोकतंत्र एवं आर्थिक समानता एक पूर्व शर्त बन जाती है। भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार डॉ. अम्बेडकर ने 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा के अंतिम भाषण में सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ समझाते हुए कहा था कि "सामाजिक लोकतंत्र” एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रतासमता और  बहुधा समाज के मूल सिद्धान्त’’ जिस समाज में दलित और पिछड़े वर्ग के नागरिक भी अन्य सभी वर्गो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश की उन्नति में सहायक होंगे। यदि आने वाली पीढ़ियां देश हित के बजाय जाति को प्राथमिकता देगी तो निश्चित रूप से भारत की स्वतंत्रता फिर खतरे में पड़ जायेगी। अतः हमें अपने खून का एक-एक कतरा देकर भी ऐसे भेदभाव को रोकना होगा।


असहिष्णुता

असमानता के साथ समकालीन चुनौती के रूप में द्वितीय स्थान पर नाम आता है असहिष्णुता का जिसने भारतीय राजनीति को काफी प्रभावित कर रखा है। हालांकि संविधान द्वारा भारत को पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। फिर भी भारतीय राजनीति में पंथ की विशेष भूमिका है। हम पंथ निरपेक्ष राज्य की स्थापना तो कर पाये हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्ष समाज की नहीं धार्मिक विभिन्नता के कारण समाज में विभिन्न तनाव पैदा होते हैं और इन तनावों को बढ़ाने में राजनीतिज्ञ भी भूमिका अदा करते हैं। पुस्तक "साम्प्रदायिकता का ऐतिहासिक संदर्भ में लेखिका का मत है सम्प्रदायवाद जानबूझकर रचा गया एक राजनीतिक सिद्धान्त है जिसका प्रचार पुराने स्थापित विशिष्ट समुदाय का एक वर्ग राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक शक्तियों को क्षीण करने के लिए करता है। सांस्कृतिक विशिष्टता का बोध साम्प्रदायिक आन्दोलन की आधारशिला है। अतः अनेक धर्मोंजातियों और संस्कृतियों वाले समाज में लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना समुदायवादी राजनीति के लिए एक आदर्श स्थिति खड़ी कर देती है। ऐसे समाज में राजनीतिक क्षेत्रों में प्रभावशाली बनने के लिए तथा राजनीतिक सौदेबाजी के लिए धर्म या संस्कृति का राजनीतिकरण हर समुदाय के लिए विशेषकर अल्पसंख्यकों के लिए सबसे आसान रास्ता बन जाता है और प्रत्येक समुदाय अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तथा सामूहिक एकता के लिए प्राणपण से जुट जाता है। मूलरूप से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सम्प्रदाय की प्रेरक शक्ति और कार्यप्रणाली समान होते हुए भी दोनों में गुणात्मक भेद है। अल्पसंख्यक सम्प्रदाय का उद्देश्य जहां बहुसंख्यकों के साथ समता एना होता है वहां बहुसंख्यक सम्प्रदाय का उद्देश्य अल्पसंख्यकों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना होता है। उद्देश्य एवं नेतृत्व दोनों दृष्टियों से धर्म व संस्कृति पर आधारित सभी साम्प्रदायिक आंदोलन क्रांति एवं पुर्ननिर्माण के आन्दोलन होकर राजनीतिक व सामाजिक प्रतिक्रिया के आन्दोलन है।

भारत में साम्प्रदायिकता या असहिष्णुता को राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले परम्परावादी (Elite) लोगों ने स्वार्थ के लिए सैद्धान्तिक जामा पहनाकर बढ़ावा दिया है। हिन्दू और मुस्लमान दोनों के सामाजिक ढांचे के विश्लेषण से स्पष्ट हो जायेगा कि सत्तासम्पत्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा पर अभिजात वर्ग का लगभग स्थाई एकाधिकार रहा है। अपने सांस्कृतिक रूझान एवं जीवनशैली में यह वर्ग आम जनता से बहुत दूर रहा है तथा दोनों समुदायों में सांस्कृतिक अंतर और विशिष्टता की वेतना इस वर्ग के स्तर पर सबसे अधिक गहरी होती है और यहीं से हमेशा सांस्कृतिक संकीर्णता का प्रारम्भ होता है। वरना जनसाधारण के स्तर अंतर की चेतना अस्पष्ट और सूक्ष्म थी धर्मान्तरित मुसलमान यदि देवी देवता की पूजा अर्चना में लगे थे तो हिन्दुओं को पीरों की मजार व दरगाहों में जाने पर कोई ऐतराज नहीं रहा और आज भी गांवोंकस्बो शहरों में इसके प्रत्यक्ष उदाहरण देखे जा सकते है। लेकिन जसहिष्णुता की गहराई जाने से स्पष्ट हो जाता है। असहिष्णुता का मूल सत्ता केदृढ़ में रहा है। धर्म में नहीं सम्प्रदायवाद लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के विरूद्ध स्थापित अभिजात वर्ग की राजनीतिक प्रतिक्रिया रहती है। एक समुदाय की राजनीतिक भावना की अभिव्यक्ति नहीं। इसलिए दोनों समुदायों में साम्प्रदायवादी आन्दोलन का नेतृत्व आरम्भ से अंत तक अभिजात वर्ग के हाथों में रहा है। हालांकि उन्होंने अपनी इस महत्त्वाकांक्षा को साकार रूप देने का कार्य आम जनता मे से ही कुछ खरीदे गए या सत्ता की नजदीकता से प्रलोभित व्यक्तियों द्वारा ही करवाया है। इसलिए जब भी कोई साम्प्रदायिक या असहिष्णुता का मुद्दा होता है तो हमेशा जनता की ही हानि होती है। चाहे वो किसी भी पक्ष की क्यों न हो, चाहे पीड़ित पक्ष हो या पीड़ा देने वाले पक्ष की।

पिछले कुछ महीनों में जिस प्रकार देश में असहिष्णुता का ताण्डव देखने को मिला है उससे न केवल देश की विकास योजनाओं में बाधा डाली है बल्कि संसदीय कार्यवाही को सुचारू रूप से नहीं चलने दिया गया और इसी कारण कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा तक नहीं हो सकी। साथ ही सामाजिक समरसता को जो नुकसान हुआ है वो अलग। आखिर इस प्रकार का वातावरण आज भारतीय लोकतंत्र में बाधा ही उत्पन्न कर रहे है।

14 अक्टूबर को अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने 2014 अन्तरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट प्रकाशित की जिसके अनुसार भारतीय प्रशासन अब भी धार्मिक भावनाओं की रक्षा के लिए बनाये गये कानूनों को लागू कर रहा है। इस कानून का मकसद धर्म के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना है। भारत में 29 में 6 राज्यों में धर्मान्तरण कानून लागू है। वहां धर्म के आधार पर हत्यागिरफ्तारीजबरिया धर्मान्तरण और साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। साथ ही धर्म परिवर्तन करने में बाधा की जाती है। मई 2014 से लेकर दिसम्बर 2014 तक धर्म प्रेरित हमलों की 800 से ज्यादा वारदाते हुई। रिपोर्ट जारी होने के बाद अन्तरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता मामलों के राजदूत डेविड सेपरस्टीन ने भारत को नसीहत दी कि उसे सहिष्णुता और सभ्यता के आदर्शों को अमल में लाना चाहिए। रिपोर्ट की असलियत इसी बात से समझी जा सकती है कि किसी मंत्रीनेताधर्मगुरु या साहित्यकार ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की। किसी ने इसे गलत ठहराते हुए एतराज नहीं जताया।

इसी क्रम में साहित्य अकादमी विजेता कन्नड लेखक और समाज सेवक एम.एम. कुलबर्गी सहित नरेन्द्र दामोलकर और गोविन्द पानसरे हत्याओं की हकीकत हम सबके समक्ष हैं जिन्होंने अंधविश्वासोंपाखण्ड व आडम्बरों पर सवाल उठाकर धर्म के नाम पर फैले मायाजाल पर से पर्दा उठाकर तर्कवाद व बौद्धिकता की बात की। आखिर ऐसा क्या गुनाह किया उन्होंने कि उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश का "दादरी हत्याकाण्ड" के बारे में क्या कहा जा सकता है जहाँ सिर्फ शक के आधार पर मौ. इकबाल को घर से बाहर खींचकर पीट-पीट कर मार डाला गया मात्र इस शक के आधार पर कि उसके घर में गौमांस पकाया था। यहां सोचने की बात ये कि क्या गौ मांस किसी इन्सान से ज्यादा महत्व रखता है या सिर्फ ये कि गाय किसी धर्म विशेष का प्रतीक है और मरने वाले दूसरे धर्म से ताल्लुक रखता है। हकीकत क्या है? सभी बुद्धिजीवी सोच सकते हैं। इसी प्रकार जयपुर चित्रों की प्रदर्शनी में एक चित्रकार ने अपनी सोच के अनुसार गाय का चित्र क्या बना इतना विवाद खड़ा हो गया कि उसे माफी मांगनी पड़ी अर्थात् क्या कोई व्यक्ति अपने विचार भी प्रकट नहीं कर सकता। तुरंत उस पर देशद्रोही होने का आरोप लगा दिया जाता है। इसी दौरान एक और घटना की चर्चा का विषय बनी कि अभिनेता आमिर खान ने अपने विचारों को अभिव्यक्त किया। उनकी मंशा क्या थी किसी को सरोकार नहीं लेकिन फिर भी उनके शब्दों को अर्थ अपने को राष्ट्रवादी कहने वालों ने अपने आप लगा लिया और उनका जमकर विरोध हुआसाथ ही उनके लिए अनेकों व्यंग्य किये गये। ये समस्त घटनाक्रम ये बताने के लिए पर्याप्त है कि ऐसा लग रहा है कि कुछ विशेष समुदायों पर भारतीय राष्ट्रवाद या भारतीय संस्कृति को बचाने की जिम्मेदारी बढ़ गई है। जो हमेशा हर पलहर जगह इसके लिए तैयार रहते हैं। चाहे उन्हें किसी की हत्या ही क्यों न करनी पड़े क्योंकि अन्य लोगों को तो बोलने पर भी विवाद खड़े हो जाते हैं। हालांकि साहित्यकारों ने इन सब के विरोधस्वरूप अपने पुरस्कार लौटाये है। नयनतारा सहगल की दलीलों को कोई नजरअंदाज नहीं कर पाया। बकौल नयनतारा, "अंधविश्वासों पर सवाल उठाने वाले नर्कवादियोंहिन्दु धर्म की बदसूरत और खतरनाक विकृतिहिन्दुत्व के किसी पहलू पर सवाल उठाने वालों के अधिकार छीने जा रहे हैं। हत्याये तक हो रही है फिर चाहे उनके सवाल बौद्धिकता या कलात्मकता के क्षेत्र में हो या खान-पान व जीवन शैली परउसी प्रकार बुकर पुरस्कार विजेता सलमान रुशदी ने भी खुलकर कहा कि "भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरे का वक्त है।"

इसमें शक नहीं कि साहित्य कला भी इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। दामोलकरपानसरेकुलकर्णी की हत्या ने यह सबूत दिया है कि लिखने में भी गर्दन दबोची जा रही है। इसी क्रम में पाकिस्तानी गजलकार गुलाम अली को महाराष्ट्र में गाने नहीं दिया गया और भजन गायक अनूप जलोटा को प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य बना दिया जो हरिगुण गाते हैं। यह समूचे कलासाहित्य व संस्कृति को दबोचने की शुरुआत नहीं तो क्या हैशायद हम यह भूल गये हैं कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने मायने होते हैं जिसे नकारा नहीं जा सकता।

भारतीय लोकतंत्र का दूसरा देश है असमानता, चाहे वो जाति आधारित हो या लिंग आधारित, दोनों ही प्रकार की असमानता देश की व्यवस्था एवं विकास में अवरोध ही साबित होती है। जाति व्यवस्था आज भी कितनी मजबूत है और आजादी के 67 साल बाद भी देश में छूआछूत का अभिशाप किस हद तक बना हुआ है, इसका ताजातरीन उदाहरण 29 नवम्बर 2014 का इण्डियन एक्सप्रेस पर छपा लेख है जिसके अनुसार हर चार में से एक भारतीय अर्थात् कुल आबादी का चौथाई हिस्सा आज भी अस्पृश्यता का पालन करता है।" दलितों एवं आदिवासियों को अपमानित करने के जो तरीके हाल ही सुर्खियों में रहे हैं जैसे बाल या मूंछ मुड़वा देनामोटरसाईकिल या घोड़े पर सवार लोगों को उतार देनासवर्णों के घरों के सामने चप्पल उतार कर जाने के लिए मजबूर करनादलित महिलाओं से बलात्कार तथा सवर्णों द्वारा विरोध करने पर दलितों के घरों में आग लगा देना आदि। हालांकि दलितों की इस दारूण दास्तान और शीर्ष स्तरों तक इस पूरे एहसास के बावजूद स्थिति सुधारने को लेकर ऊपर से नीचे तक एक विचित्र किस्म का मौन प्रतिरोध नजर आता है। दलितों की आधिकारिक स्थिति को दस्तावेजीकृत कर संसद के पटल पर रखने जैसी कार्यवाही भी इसी उपेक्षा की शिकार होती दिखती है। जबकि संविधान की धारा 338 (6) के अन्तर्गत अनुसूचित जाति आयोग की पहल पर तैयार ऐसी रिपोर्टों का संसद के पटल पर रखा जाना अनिवार्य है।"

असमानता एक दूसरा पहलू विकृत रूप है। लिंग आधारित भेदभाव हालांकि स्त्री पुरुष में अंतर है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन एक श्रेष्ठ और दूसरा हीन यह मानना गैर बराबरी का सूचक है। शारीरिक अंतर होना प्राकृतिक है। जबकि सामाजिक व सांस्कृतिक अंतर मनुष्य द्वारा निर्मित होते हैं। हालांकि हमारे संविधान ने स्त्री व पुरुष दोनों को समानाधिकार प्रदान किये हैं। लिंग आधारित कोई भेदभाव नहीं है। फिर भी लैंगिक असमानता के जंगल में चाहे यौनिक हिंसा होसामाजिक प्रस्थिति या धार्मिक अधिकार सर्वत्र महिलाओं लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। इसी पृष्ठभूमि में हाल में घटी कुछ घटनाएं ध्यान खीचती हैं। महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर में एक महिला चार सौ साल पुरानी परम्परा को तोड़ते हुए 28 नवम्बर रात को मंदिर में प्रवेश कर गई और उसने शनि महाराज को तेल चढ़ाया। उसके इस कृत्य पर बवाल मच गया और मूर्ति को अपवित्र मानते हुए मंदिर प्रशासन ने शुद्धिकरण के तहत शनि प्रतिमा का दूध से अभिषेक किया और पूरे मंदिर को धोया। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गांव में एक महिला को भैंस चोरी के आरोप में पांच जूते मारे गए और साठ हजार रुपये जुर्माना लगाया गया । 

तृतीय घटना केरल की है जहां शिक्षाविद ने कहा कि "लैंगिक समानता ऐसी चीज है जो कभी वास्तविकता में तब्दील होने वाली नहीं हैं। यह इस्लामी तालीम के खिलाफ है और बौद्धिक रूप से गलत है।" 

ये कुछ उदाहरण असमान मानसिकता को उजागर करते हैं। माना जाता है कि महिलाएँ कभी भी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकती वो केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती है। यहां तक कि अविवाहितविधवा और विवाहित के संदर्भ में भी व्यवहार प्रतिमान धर्म के संदर्भ में विशिष्ट है। जो कही न कहीं पवित्रताअपवित्रता के सिद्धान्त से जुड़ जाते हैं। इस समूचे विमर्श में यह तय नहीं हो पाया कि कौन किस की प्रकृति को तय करता है। क्या पुरुष सत्तात्मकता धर्म और जाति को आकार देती है या धर्म के द्वारा जाति और पुरुष सत्तात्मकता से समर्थन प्राप्त है। स्थिति चाहे जो हो लेकिन सच है कि इनमें से कोई भी कारण सामाजिक लोकतंत्र की जड़ों को जरूर कमजोर करता है।

इन सभी घटनाक्रमों के पीछे कारण चाहे धार्मिकसामाजिकसांस्कृतिक हो लेकिन कह न कहीं राजनैतिक मंशा भी जाहिर होती है। क्योंकि चाहे असहिष्णुता हो या असमानता कहीं हमारे नेतृत्व का स्पष्ट विरोध इनमें दिखाई नहीं दिया। लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं रह जाता अगर जनमानस या राजनेताओं में उन मर्यादाओं का लोप हो जाये जो लोकतंत्र या गणतंत्र की आत्मा होती है। शासकों प्रशासकों की अक्षमता और राजनेताओं द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए विविध समूहों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति ने आम लोगों में भी संवेदनहीनता को बढ़ावा दिया है। संविधान कहता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्षसमाजवादी जनतांत्रिक गणराज्य है। संविधान की शपथ लेकर सत्ता में आये लोग जिस तरह धर्मनिरपेक्षता का माखौल उड़ा रहे हैं, वह तो कम से कम लोगों में विवाद का विषय बना हुआ है। संविधान या अन्य आस्थाओं से मुक्त राजनेताओं का स्वभाविक रूझान राजनीति का उपयोग व्यक्तिगतपारिवारिक एवं राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने की तरफ होता हैं जो लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।" 

असहिष्णुता एवं असमानता के इस विश्लेषण के पश्चात यह तो स्पष्ट हो गया कि समाजवादजनतांत्रिक काल सत्ता में आये लोग जिस तरह धर्मनिरपेक्षता का माखौल उड़ा रहे हैं। वह तो कम से कम लोगों में विवाद का विषय बना हुआ है। संविधान या अन्य आस्थाओं से मुक्त राजनेताओं का स्वभाविक रूझान राजनीति का उपयोग व्यक्तिगतपारिवारिक एवं राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने की तरफ होता है जो लोकतंत्र के वर्तमान एवं भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। " 

असहिष्णुता एवं असमानता के इस विश्लेषण के पश्चात् यह तो स्पष्ट हो गया कि आज 21वीं सदी जो लोकतंत्र का युग हैं जहां समस्त विश्व अपने लोकतांत्रिक होने का दावा कर रहा है वही भारत एक सबसे विशाल एवं सफल लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त करता है। लेकिन 67 साल की इस विकास यात्रा में हम कहीं न कहीं आज भी लोकतंत्र के सामाजिक स्वरूप को पूर्णता प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाये हैं। ऊपर दिये गए कुछ उदाहरण इसका प्रमाण है। लेकिन ये नहीं कहा जा सकता है। हम इन चुनौतियों को समाप्त नहीं कर सकते । बस हमें थोड़ी कोशिश करनी होगी । इसी संदर्भ में कुछ सुझाव इस प्रकार हो सकते है।

1. शासन को सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी कार्य इस तरह का न हो पाये जिसे द्वारा साम्प्रदायिकताअसहिष्णुता को प्रोत्साहन मिले। साथ ही इस प्रकार के कानूनों का निर्माण करना चाहिए जो प्रत्येक व्यक्ति पर बिना जातिलिंगपंथ एवं सम्प्रदाय से समान लागू हो ।

2. शिक्षण में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का समावेश किया जाये न कि साम्प्रदायिक एवं मजहबी क्रिया कर्म का

3. साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में जागरूक लोगों को स्थानीय स्तर पर सक्रिय संगठनोंलोकतांत्रिक एवं मानवाधिकार आंदोलनों के कार्यकर्ताओं आदि मुख्य भूमिका निभा सकते है।

4. लोकतांत्रिक और बराबरी के लिए चलने वाले आंदोलनों का दमन भी असहिष्णुता एवं साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन देते है अतः समता मूलक आंदोलनों पर सरकार अपनी शक्ति न आजमाये ताकि लोग अपनी बात कह सके।

5. धर्म राष्ट्रीयता का आधार नहीं हमें यह बात समझनी होगी। विशेषकर भारत में जहां विभिन्न संस्कृतियांजीवन दर्शनमान्यताएँधर्मधार्मिक विश्वास विद्यमान है। अतः हमें युग परिप्रेक्ष्य  की आवश्यकतानुसार ही राष्ट्र के स्वरूप को जनता को समझाना होगा अर्थात् हमें संकीर्ण भारतीयता से ऊपर उठना होगा

6. संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों जिनमें (Act 19, Act 14 Act 25) जिन पर विरोध एवं विवाद वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित है। इन्हें रोकना प्रत्येक व्यक्ति को संविधानानुसार उन्हें प्राप्त करने एवं लागू करने का हक है। शासन को इन्हें विश्वास दिलाना होगा कि लोकतंत्र में सभी के साथ समान व्यवहार किया जायेगा।

7. असमानताशोषण व लैंगिक हिंसा का जो कारण है उन्हें समाप्त करना होगा हालांकि भारतीय समाज में स्त्री विरुद्ध हिंसा को लेकर हलचल की कमी नहीं है। जरूरत है इसे सही और प्रभावी दिशा देने की।

स्त्री विरोधी हिंसा से मुक्ति का रास्ता स्त्री की स्वाधीनतासाहस एवं सम्मान से ही जायेगा। अतः जरूरी है कि घर समाज व राष्ट्र की निर्णय प्रक्रिया में स्त्री की बराबर भागीदारी हो।

इस प्रकार की न्याय प्रक्रिया हो जिससे पीड़ित स्त्री को थानाकचहरीक्षतिपूर्ति आदि के लिए धक्के ना खाना पड़े बल्कि न्याय के लिए आयाम स्वयं पीड़ित के दरवाजे पर चल कर आये जो समयबद्ध और जवाबदेही से बंधे हो ।

सार्वभौमिक यौन शिक्षा की अनिवार्यता कानून व्यवस्था में लगे तमाम राजकर्मियोंविशेषकर पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का हर रूप में (व्यक्तिगतसामाजिक पेशेवर) स्त्री के प्रति संवेदनशील होने की पूर्व शर्त होनी आवश्यक है। 

यद्यपि महिला अत्याचार एवं हिंसा विरोधी अनेकों कानून बन चुके हैं जिससे काफी हद तक महिलाओं को सुरक्षान्याय एवं सहयोग प्राप्त हुआ है लेकिन फिर भी हिंसाशोषण एवं असमानता का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है।

इसका कारण कहीं न कहीं स्त्री को अपने को कमतर आंकने की सोचधार्मिक रूढ़िवादितासामाजिक परम्पराऐं, समाज की पितृसत्तात्मक सोचस्त्री से जुड़ी हुई पवित्रता एवं अपवित्रतास्त्री की अशिक्षा उसे परिवार द्वारा चुप रहने और सहने की दी गई नसीहतबहुत से कारण उत्तरदायी है जिनको तोड़ने की जिम्मेदारी शासन के साथ-साथ स्वयं स्त्री को भी लेनी होगी तभी वह ससम्मान जीवनयापन कर पायेगी और तभी जाकर देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा जिसमें सभी व्यक्ति जातिलिंगवर्गभाषाधर्म किसी भी आधार पर भेदभाव का शिकार नहीं होगे।

निष्कर्ष
हालांकि अब स्त्रियों ने अपने पिंजरे को तोड़ने की शुरुआत कर दी है। सोशल मीडिया, समाचार पत्र, टी.वी. चैनल, महिला आंदोलनों एवं मानवाधिकार आन्दोलनों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बात शर्म और बंदिशों की हो या सामाजिक रूढ़ियों की हर सवाल पर औरतें खुल कर बोली है तथा कार्पोरेट से लेकर धर्म, हर जगह पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दी है। यहीं सामाजिक लोकतंत्र की तरफ पहला कदम है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. "तुलनात्मक राजनीतिक संस्थाएँ कॉलेज बुक डिपो, जयपुर, पृ. 197-198 2. "योजना" अगस्त 2013, पृ. 31-32 3. योजना अगस्त 2013. पृ. 56 4. भारतीय शासन एवं राजनीति, साहित्य भवन पब्लिकेशन 2011. पृ. 425-426 5. "जनसत्ता" 3 दिसम्बर 2015 6. "सरिता" नवम्बर 2015, पृ. 33 7. वही, पृ. 41 8. "जनसत्ता' 30 नवम्बर 2015 9. वहीं, 7 मार्च 2013 10. वहीं 13 दिसम्बर, 2015 11. "लोकतंत्र की चुनौतियां' वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2010. पृ. 21-22 12. https://www.amarujala.com/news-archives/india-news-archives/the-woman-broke-the-400-year-old-tradition-hindi-news?pageId=1