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अनमेल विवाह की जीवंत दास्तान- निर्मला |
Live Story of Mismatched Marriage - Nirmala |
Paper Id :
16995 Submission Date :
2023-01-06 Acceptance Date :
2023-01-17 Publication Date :
2023-01-23
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शंभु लाल मीणा
सह आचार्य
हिंदी विभाग
स्वर्गीय पंडित नवल किशोर शर्मा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
दौसा,राजस्थान, भारत
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सारांश
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प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में सामाजिक समस्याओं को उजागर किया है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों यथा- दहेज, अनमेल विवाह, विधवा विवाह, बाल विवाह, बहु विवाह, वैश्यावृत्ति आदि का अपने उपन्यासों में चित्रण किया है । प्रेमचंद नारी के प्रति बहुत उदार एवं सहिष्णु थे। उन्होंने नारी को विशेष महत्ता देते हुए उसे दैवीय गुणों से युक्त माना है । नारी के प्रति अन्याय से वे चिंतित थे। नारी की दुर्दशा के लिए वे समाज को जिम्मेदार मानते थे। 'निर्मला' उपन्यास के माध्यम से उन्होंने अनमेल विवाह की दास्तान(पीड़ा)को उजागर किया है। निर्मला एक ऐसी नव युवती है जो दहेज की कमी के कारण अधेड़ वकील मुंशी तोताराम के साथ ब्याह दी जाती है, जो अपने हमउम्र मंसाराम से बातचीत करती है तो पति अपने पुत्र पर संदेह करते हैं । इससे मंसाराम और निर्मला की विचित्र मनोदशा हो जाती है, दोनों परेशान रहते हैं । मुंशी तोताराम मंसाराम को घर से बोर्डिंग स्कूल छात्रावास में रखते हैं, इससे वह बीमार हो जाता है। दूसरी ओर निर्मला भी पति के व्यवहार से परेशान रहती है। इस उपन्यास के माध्यम से प्रेमचंद ने अनमेल विवाह के मनोवैज्ञानिक पक्ष का चित्रण करते हुए इसे समाज के लिए घातक माना है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Premchand has highlighted social problems in his novels. He has portrayed the social evils like dowry, mismatch marriage, widow marriage, child marriage, polygamy, prostitution etc. in his novels. Premchand was very generous and tolerant towards women. Giving special importance to women, he considered her to be endowed with divine qualities. He was worried about the injustice towards women. He considered the society responsible for the plight of women. Through the novel 'Nirmala', he has exposed the story (pain) of mismatch marriage. Nirmala is a young girl who is given in marriage to a middle aged lawyer Munshi Totaram due to lack of dowry, when she talks to her age Mansaram, the husband doubts his son. This puts Mansaram and Nirmala in a strange mood, both of whom remain upset. Munshi Totaram keeps Mansaram from home in boarding school, it makes him ill. On the other hand, Nirmala is also troubled by her husband's behaviour. Through this novel, Premchand, depicting the psychological side of mismatched marriage, has considered it fatal for the society. |
मुख्य शब्द
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अधेड़, तिल- तिल, क्वांरी, रेतना, प्रदीप्त, विमाता, तोहफे। |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Middle-aged, Mole-Mole, Unmarried, Cutting, Illuminated, Step Mother, Gifts. |
प्रस्तावना
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स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक होते हैं। विवाह से जीवन को पूर्णता मिलती है। स्त्री और पुरुष मिलकर सृष्टि का निर्माण करते हैं। वैदिक साहित्य में पत्नी को पति के घर में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। 'ऋग्वेद' का कथन की 'पत्नी ही घर है।' मनु के अनुसार पत्नी पूज्या है उसी की प्रसन्नता में परिवार की प्रसन्नता निहित है और उसके दु:ख में समूचे परिवार के दु:खी होने की स्थिति होती है।[1] प्रेमचंद भारतीय संस्कृति के पक्षधर थे। उनके मतानुसार विवाहित स्त्री की आत्मा तो तभी तक जीवित है जब तक की उसे अपने जीवनाधार पति का मधुर प्यार प्राप्त होता रहता है। वे मानते हैं कि पति प्रेम से वंचित स्त्री के आगे संसार की अपार धन राशि तुच्छ है। स्त्री- पुरुष एक दूसरे के लिए खुली पुस्तक होते हैं। प्रेमचंद बाल विवाह, अनमेल विवाह, बहुविवाह के विरोधी थे। उन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज की इन कुप्रथाओं का विरोध कर इनके दुष्परिणामों की ओर संकेत किया है।
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अध्ययन का उद्देश्य
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इस अध्ययन के माध्यम से अनमेल विवाह की समस्या - सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परेशानी ,दूसरा - दहेज की समस्या , तीसरा पुरुष अहं की संतुष्टि । प्रेमचंद के 'निर्मला' उपन्यास में नारी की अंतर्वेदना की अभिव्यक्ति अनमेल विवाह के माध्यम से व्यक्त हुई है। एक नव यौवना का अधेड़ व्यक्ति से पाणिग्रहण और जीवन भर स्वयं को उसके अनुकूल बनाए रखने के लिए घोर मानसिक द्वन्द्व का जिस सूक्ष्मता के साथ प्रेमचंद ने उल्लेख किया है उतना कथित मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार भी अपनी लेखनी से नहीं कर पाए हैं । निर्मला कहती है - "जिसका मुंह देखने को भी जी नहीं चाहता, उसके सामने हंस-हंसकर बातें करनी पड़ती है। जिस देह का स्पर्श उसे सर्प के शीतल स्पर्श के समान लगता है, उससे आलिंगित होकर उसे जितनी घृणा, जितनी मर्म वेदना होती है, उसे कौन जान सकता है, उस समय यही इच्छा होती है कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाएं।"[2] उदय भानुलाल की मृत्यु के बाद कल्याणी के पास आय का कोई स्रोत न होने के कारण दहेज के अभाव में निर्मला का विवाह अधेड़ वकील मुंशी तोताराम के साथ तय हुआ । उस समय पुरुषों के पुनर्विवाह की परंपरा थी किंतु महिलाओं के लिए इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं थी। तीसरा उदयभानु लाल ,तोताराम के अहं की संतुष्टि । उपन्यास के अनुसार उदयभानु लाल संपन्न परिवार वाले थे। मितव्ययी न थे। कमाने से ज्यादा वे खर्च करते थे। बच्ची की शादी भी संपन्न परिवार में तय की। भालचंद्र सिन्हा के पुत्र भुवन मोहन सिन्हा से रिश्ता तय किया। पत्नी से कहासुनी होने के कारण घर से बाहर निकलने पर मतई नामक बदमाश ने उनकी हत्या कर दी। यदि पत्नी कल्याणी के अहं को ठेस पहुंचाने के लिए घर से न निकलते तो शायद उनकी मौत नहीं होती। दूसरी तरफ मुंशी तोताराम निर्मला पर अनावश्यक संदेह नहीं करते तो उसकी मौत नहीं होती और वैवाहिक जीवन परेशानी दायक नहीं होता। |
साहित्यावलोकन
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प्रेमचंद ने 'निर्मला' उपन्यास के माध्यम से अनमेल विवाह की पीड़ा को बहुत ही सहजता से व्यक्त करने का प्रयास किया है। निर्मला के पति मुंशी तोताराम अपने बड़े बेटे मंसाराम को निर्मला से बातें करते हुए देखते हैं तो उन्हें अपने पुत्र के चरित्र पर संदेह होने लगता है और वे उसे घर से बाहर बोर्डिंग स्कूल में रखने का निर्णय लेते हैं जिससे मंसाराम की मानसिक स्थिति बिगड़ जाती है। दूसरी तरफ पति की शंकालु दृष्टि, ननद की उपेक्षा और अपने मूक रुदन के कारण निर्मला विक्षिप्त सी हो जाती है। अंततः वह भीतर तिल- तिल जल घुटकर मरती है। मरते वक्त भी निर्मला की अंतरात्मा का आक्रोश इन शब्दों में फूट पड़ता है- "बच्ची को आपकी गोद में छोड़े जाती हूँ। अगर जीती जागती बचे तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजिएगा। चाहे क्वांरी रखिएगा, चाहे विष देकर् मार डालिएगा, पर कुपात्र के गले न मढ़ियेगा, इतनी ही आपसे विनय है।"[3] अनमेल विवाह से अभिशिप्त नारी की एक करुण गुहार प्रेमचंद ही समाज के कानों तक पहुंचा सकते थे। प्रेमचंद का मानना है कि गरीब लोग दहेज के कारण अपनी पुत्रियों का विवाह अधेड़ व्यक्तियों के साथ करने को विवश हो जाते हैं। प्रेमचंद ने लिखा है- "दहेज बुरा रिवाज है। बेहद बुरा। बस चले तो दहेज लेने वाले और देने वाले दोनों को ही गोली मार दी जाए, फिर चाहे फांसी ही क्यों ना हो जाए।"[4] 'निर्मला' उपन्यासकी निर्मला मुंशी तोताराम की धर्मपत्नी है अनमेल विवाह होने के कारण उसका दांपत्य जीवन सुखमय नहीं है। प्रेमचंद ने उसके बचपन के बारे में लिखा है कि - "निर्मला 15 साल की चंचल क्रीड़ा प्रिय और सैर तमाशे पर जान देने वाली किशोरी है, किशोरियों का वैवाहिक संकोच उसमें है"[5] उसका जीवन सारी विवशताओं से युक्त है। उसकी इस दशा को देखकर उसके प्रति मन में एक क्षण के लिए करुणा का भाव व्यक्त हो जाता है। निर्मला के चरित्र में एक नारी की अशक्तता है। "यह निर्मला का दुर्भाग्य है कि उसका विवाह विधवा माता की दहेज देने की असमर्थता तथा खानदान के मोह में 35 साल के मुंशी तोताराम से करना पड़ा।"[6] तोताराम निर्मला को नित्य तोहफे लाकर प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। किंतु तोहफों में वह चीज कहां जिसे प्राप्त कर निर्मला प्रसन्न हो उठती। वही बातें जिन्हें किसी युवक के मुंह से सुनकर उसका ह्रदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता। क्योंकि मुंशी जी की बातों में रस नहीं था, केवल बनावट थी, धोखा था और था शुष्क एवं निरीह शब्दाडम्बर।"[7] यह निर्मला का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि वह अपने रूप और यौवन को केवल इसलिए पति को नहीं दिखाना चाहती कि पति में उनका रसास्वादन करने की क्षमता नहीं है। निर्मला के चरित्र में अल्प या मध्य के लिए कोई स्थान नहीं। वह पति की पूजारिन है और उसकी इस अति की पूर्ति वृद्ध तोताराम से नहीं हो पाती। निर्मला के जीवन में दूसरी विडंबना यह है कि उसके तीन सौतेले लड़के भी हैं। जिनमें सबसे बड़ा मंसाराम तो उसके समव्यस्क ही है। तोताराम की विधवा बहिन रुक्मिणी का घर में होना तीसरी विडंबना है। एक तो बेचारी निर्मला अयोग्य पति से दुखी है और दूसरे रुक्मिणी की आलोचना उसके लिए जले पर नमक का काम करती है। पैसों के लिए बच्चों से निर्मला को दुखी कराना रुक्मिणी का काम है फिर भी निर्मला के हृदय में वात्सल्य की अविरल धारा सदैव प्रभावित होती रहती है। सौतेली मां की जलन उसके ह्रदय में नहीं है। निर्मला पति परायण स्त्री है। उसने यह सोच कर कि" संसार में सब के सब प्राणी सुख सेज पर ही तो नहीं सोते ?मैं भी इन्हीं अभागों में हूं। मुझे भी विधाता ने ही दुख की गठरी ढोने ने के लिए चुना है। वह बोझ सिर से उत्तर नहीं सकता। उसे फेंकना भी चाहूं तो नहीं फेंक सकती।"[8] इसलिए उसने अपने को कर्तव्य पर मिटा देने का निश्चय कर लिया। निर्मला को पहले चाहे पति से कितनी ही घृणा क्यों न रही हो किंतु अब उसे उनके प्रति प्रेम मिश्रित श्रद्धा है। वह रुपए पैसों की भी लोभी नहीं है। वह केवल यही चाहती है कि पति आराम से रहे। लेकिन पुत्र पर निर्मला की आसक्ति ने पति के संदेह को जन्म दिया। जिसने निर्मला को सुख से नहीं रहने दिया। निर्मला भोली-भाली युवती है उसके चरित्र में अभी तक वात्सल्य प्रधान था। यह सत्य है कि निर्मला के ह्रदय में काम के चाहे कितने ही ज्वार आएं, उसकी वासना चाहे कितनी ही अतृप्त क्यों ना रही हो किंतु उसका चरित्र चट्टान के समान दृढ़ है। पति द्वारा उस पर पुत्र के साथ लगाए आक्षेप को वह जिस दिन समझ लेती है उस दिन उसे हार्दिक वेदना होती है। इससे भी अधिक दुख उस समय होता है जब वह जान लेती है कि मंसाराम भी पिता के आक्षेप को जान गया है। प्रेमचंद ने निर्मला के चरित्र को इतना पवित्र चित्रित किया है कि एक स्थान पर वे लिखते हैं कि"कुवासना की उसके मन में छाया भी नहीं थी। वह स्वप्न में भी मंसाराम से अनुचित प्रेम करने की बात न सोच सकती थी।"[9] प्रेमचंद द्वारा निर्मला की परिकल्पना भारतीय नारियों की गौरवमयी परंपराओं में निहित है। जिसमें नारी परिवार और पति के लिए ही जीती है और मरती है। विवाह की वह कुप्रथा भी सामने आती है जिसमें विवाह संबंधी स्वतंत्रता न प्राप्त थी। निर्मला इसी अनमेल विवाह की त्रासदी को व्यक्त करती है। 'निर्मला' उपन्यास की निर्मला एक कन्या की मां है। वह मां बनने के कारण इतनी खुश है कि उसे कोई निधि मिल गई हो। बालिका को हृदय से लगाने से उसकी सारी चिंताएं मिट जाती है। ऐसी अवस्था में पति की उदासीनता उसके ह्रदय में कांटे सी चुभती है और वह रोती हुई अपने कमरे में चली जाती है। बाद में वकील तोताराम को अपनी भूल का अहसास होता है और वे उसे बातों से प्रसन्न करते हैं। प्रेमचंद ने उपन्यास में लिखा है उस दिन से मुंशी जी और भी चिंता ग्रस्त रहने लगे। जिस धन का सुख भोगने के लिए उन्होंने विवाह किया था, वह अब अतीत की स्मृति मात्र था। वह मारे ग्लानि के निर्मला को अपना मुंह तक न दिखा सकते थे। उन्हें अब उस अन्याय का अनुभव हो रहा था, जो उन्होंने निर्मला के साथ किया था और कन्या के जन्म ने तो रही-सही कसर ही पूरी कर दी, सर्वनाश ही कर डाला। निर्मला शिशु के विकसित और हर्ष प्रदीप्त नेत्रों को देखकर प्रफुल्लित होती है। वह शिशु को पति की गोद में देखकर निहाल हो जाना चाहती थी, लेकिन मुंशी जी कन्या को देखकर सहम उठे। गोद में लेने के लिए उनका हृदय हुलसा नहीं; पर उन्होंने एक बार उसे करुण नेत्रों से देखा और फिर सिर झुका लिया। शिशु की सूरत मंसाराम से बिल्कुल मिलती थी। निर्मला अपने पति के मन के भाव ताड़ कर अपने शतगुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगाकर उनकी तरफ कुछ संकेत करती है। उसका भाव यह है कि अगर तुम उसके बोझ से दबे जाते हो, आज से मैं इस पर तुम्हारी छाया भी न पढ़ने दूंगी। जिस रत्न को मैंने इतनी तपस्या के बाद पाया है, उसका निरादर करते हुए तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता? वह उसी क्षण शिशु को गोद में चिपकाते हुए अपने कमरे में चली गई और देर तक रोती रही।...... मुंशी जी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई और वे सोचने लगे माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त होता है कि भविष्य की चिंता और बाधाएं उसे जरा भी भयभीत नहीं करतीं।उसे अपने अंतकरण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है ,जो बाधाओं को उसके सामने परास्त कर देती है ।मुंशी जी दौड़ते हुए घर में आए और शिशु को गोद में लेकर बोले- "मुझे याद आती है, मंसा भी ऐसा ही था, बिल्कुल ऐसा ही। बिल्कुल वही बड़ी -बड़ी आंखें और लाल लाल होंठ है। ईश्वर ने मुझे मेरा मंसाराम इस रूप में दे दिया। वही माथा है ,वही मुंह, वही हाथ -पांव। ईश्वर तुम्हारी लीला अपार है।"[10] निर्मला मंसाराम की विमाता थी, लेकिन उसका व्यवहार माता के समान था। मंसाराम के लिए वह अपने प्राण तक देने को तैयार थी। अनमेल विवाह में उसका मातृत्व उसकी जीवन रूपी नौका को आगे बढ़ा रहा था। मातृत्व के अभाव में उसका जीवन सुखमय नहीं हो सकता था। निर्मला अल्हड़ युवती नहीं है। जीवन के प्रत्येक मोड़ पर मिलने वाले अनंत कष्टों ने उसे कुंदन बना दिया है। उसे न केवल अपनी चिंता है अपितु अपनी बहन कृष्णा के विवाह के लिए वह चिंतित रहती है। वह अपनी बेटी के भविष्य की चिंता करती है। निर्मला का चरित्र एक ऐसी दुर्भाग्यशाली युवती का चरित्र है जिसे जीवन में पड़े -पड़े ठोकरे खाने के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। उसने अच्छा समझ कर जो कुछ करना चाहा है, वही उसके लिए विपत्ति का कारण बनता चला गया ।न उसे पति से सुकून मिला न पुत्रों से संतोष। उसके एक पुत्री भी हुई तो उसी के विवाह चिन्ता ने उसके जीवन को निगल लिया। निर्मला स्वीकारती है कि "मुझ अभागिन से किसी को कुछ नहीं मिला।"[11] निर्मला का जीवन कष्टमय है, लेकिन वह पति को खुश देखना चाहती हैं, जब उसके पति रुपयों के लालच में दिन -रात परेशान होते हैं तो वह कहती है कि- "लक्ष्मी अगर रक्त और मांस की भेंट लेकर आती है तो उसका न आना हीअच्छा है। मैं धन की भूखी नहीं हूं।"12] इससे निर्मला के निर्लोभी स्वभाव का पता लगता है। निर्मला पति परायण स्त्री होने के नाते पति की सेवा का पूरा ध्यान रखती है। वह कहती है कि-" मुझसे जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता तो मैं इससे ज्यादा और कुछ नहीं कर सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम है, बराबर मेरा मुंह देखते रहते हैं। लेकिन जो बात उनके और मेरे काबू के बाहर है, उसके लिए वे क्या कर सकते हैं और मैं क्या कर सकती हूं, न वे जवान हो सकते हैं और न मैं बुढ़िया हो सकती हूं। जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं, मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध- घी तक छोड़ देती हूं। सोचती हूं मेरे दुबलेपन से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाए, लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कुछ लाभ होता है न मुझे उपवासों से।"[13] अनमेल विवाह दांपत्य जीवन के लिए दुःखदायी है। ऐसी नववधू जिसके मन में शादी विवाह को लेकर तरह -तरह की उमंगे होती है वह बूढ़े पति के साथ सुखी जीवन नहीं बिता सकती है। निर्मला के जीवन में एक बहुत बड़ा संकट वकील तोताराम की विधवा बहन रुक्मिणी है । ससुराल में उसका कोई नहीं होने के कारण वह स्थाई रूप से तोताराम के घर रहती है। उसका स्वभाव अजीब था। एक बार जिस बात से खुश रहती है दूसरी बार उसी बात से नाराज हो जाती थी। पहले वह घर की मालकिन थी किंतु तोताराम की दूसरी शादी निर्मला से होने के कारण अब उसका महत्त्व कम होने लगा था। वकील साहब रुपए- पैसे अपनी पत्नी को देने लगे थे । इसीलिए विधवा रुक्मिणी निर्मला से चिढ़ती थी। वह बात-बात में निर्मला की आलोचना करने लगी। जब बच्चे मिठाई के लिए पैसे मांगते तो वह कहती है- अपनी विमाता से जाकर कहो। निर्मला बच्चों को पैसे देती तो क्रोध में कहती- "मां के बिना कौन समझाए कि बेटा बहुत मिठाइयां मत खाओ।[14]" बच्चों को मिठाइयां न देने पर कहती -"बिना मां के बच्चे को कौन पूछे? रुपयों की मिठाइयां खा जाते अब धेले-धेले को तरसते हैं।"[15] जब वकील तोताराम मंसाराम को स्कूल से हॉस्टल में रखते हैं तो वह निर्मला को ताने देती है -"जानती तो थी कि यहां बच्चों का पालन पोषण करना पड़ेगा, तो घरवालों से नहीं कह दिया कि वहां मेरा विवाह न करो।"16 अवस्था के अनुसार उसमें समझ भी है कि मंसाराम को घर से निकालने पर ही बीमार हुआ है ।आखिर जब निर्मला का देहांत होता है तो वह अपने कपट पर पछताती है। वह कहती है -"बहू, तुम्हारा कोई अपराध नहीं। ईश्वर से कहती हूं, तुम्हारी ओर से मेरे मन में जरा भी मैल नहीं है। हां मैंने सदैव तुम्हारे साथ कपट किया, इसका मुझे मरते दम तक दुख रहेगा ।"[17] निर्मला की मां कल्याणी मुंहफट है। उसके कठोर वचनों के कारण पति की मृत्यु हो जाती है। वह कहती है -"अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है तो जहां जाएगी, सुखी रहेगी। दुख भोगना है तो जहां जाएगी दुख झेलेगी ।हमारी निर्मला को बच्चों से प्रेम है। उनके बच्चों को भी अपना समझेगी।"[18] असहाय विधवा औरत अपनी गरीबी में भाग्य को ही जीवन का मूल आधार मानती है। निर्मला एक अच्छी दोस्त भी है । जब निर्मला की परिचित सुधा का बच्चा असमय बीमार से मृत्यु की गोद में सो जाता है तो निर्मला उसे ढांढस बंधाती है। वह कहती है -बहिन जो होना था, वह हो चुका, आप कब तक भागती फिरोगी।"[19] सुधा निर्मला के सहयोग से पुत्र के शोक को भुला पाती है। निर्मला उपन्यास की नायिका है। शादी से पहले भी निर्मला के मन में अज्ञात सा भय था और शादी को लेकर भी वह खुश नहीं थी। उपन्यास का अंत भी करुणा पूर्ण होता है। प्रेमचंद ने लिखा है -"उस समय पशु पक्षी अपने अपने बसेरे को लौट रहे थे, निर्मला का प्राण पक्षी भी दिनभर शिकारियों के निशानों, शिकारी चिड़ियों के पंजों और वायु के प्रचंड झोंकों से आहत और व्यथित अपने बसेरे की ओर उड़ गया।"[20]
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निष्कर्ष
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'निर्मला' उपन्यास के माध्यम से प्रेमचंद ने अनमेल विवाह की समस्या को उजागर किया है। प्रेमचंद ने उपन्यास में बताया है कि अनमेल विवाह से दांपत्य जीवन में सामंजस्य नहीं बैठ पाता है और इसके कई दुष्परिणाम सामने आते हैं । अनमेल विवाह शारीरिक,मानसिक, सामाजिक समस्याओं को जन्म देता है और इससे दांपत्य जीवन नरक तुल्य हो जाता है। पति -पत्नी दोनों एक दूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगते हैं। |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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1. मनुस्मृति 3,62
2. प्रेमचंद के पात्र -कोमल कोठारी (संपादक विलय दान )पृ.65
3. निर्मला- प्रेमचंद पृ.74
4. वही-पृ.42
5. वही-पृ.126
6. वही-पृ.126
7. वही-पृ.160
8. वही-पृ.51
9. वही-पृ.62
10. वही-पृ.115-116
11. वही-पृ.40
12. वही-पृ.52
13. वही-पृ.104
14. वही-पृ.42
15. वही-पृ.42
16. वही-पृ.62
17. वही-पृ.158
18. वही- पृ.58
19. वही-पृ.116
20.वही-पृ.159 |