P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IV December  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
दलित चेतना की सामाजार्थिक पृष्ठभूमि और इसके बदलते परिदृश्य
Socio-Economic Background of Dalit Consciousness and Its Changing Scenario
Paper Id :  16908   Submission Date :  2022-12-16   Acceptance Date :  2022-12-22   Publication Date :  2022-12-25
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राजेश कुमार शर्मा
प्रोफेसर
इतिहास विभाग
राजकीय महाविद्यालय, रूधौली
बस्ती,उ0प्र0, भारत
सारांश
दलित चेतना एक ऐसी अवधारणा हैं जो आधुनिक मूल्यों, सांवैधानिक मान्यताओं, सामाजिक न्याय और जनतांत्रिक संरचनाओं से विकसित हुई हैं। इसमें धार्मिक जीवन की विकृतियों के विरुद्ध मानव की प्रतिष्ठा का चिन्तन है। हमारा यह शोधपत्र दलित चेतना और चिन्तन पर केन्द्रित हैं। हम यहाँ पहले ही स्पष्ट कर देना उचित समझते है कि इस देश में सदियों से शोषित और सामाजिक मान्यताओं से वंचित इस वर्ग में दलित चेतना के जो नये स्वर सुनाई पड़ रहे हैं उसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा का प्रचार प्रसार तथा राजनीतिक जागरुकता हैं। दलित चिन्तन जहाँ देश के संविधान में दलितों, आदिवासियों, महिलाओं के उत्पीडन के हजारों वर्षों की गाथा की समाप्ति हेतु प्रदत्त प्राविधान से शक्ति लेता हैं वहीं अपने पुरोधाओं की रचनाशीलता, बौद्धिकता व आन्दोलनों से भी बहुत कुछ ग्रहण करता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Dalit consciousness is a concept that has evolved from modern values, constitutional beliefs, social justice and democratic structures. In this, there is contemplation of human dignity against the perversions of religious life. This research paper focuses on Dalit consciousness and thinking. We think it appropriate to make it clear here in advance that the biggest reason for the new voices of Dalit consciousness being heard in this country, which has been exploited for centuries and deprived of social beliefs, is the promotion of education and political awareness. While dalit thinking takes its strength from the provision given in the constitution of the country to end the saga of thousands of years of oppression of dalits, tribals and women, it also takes a lot from the creativity, intellectualism and movements of its ancestors.
मुख्य शब्द दलित, चेतना, संविधान, बौद्धिकता, अम्बेड़कर, समता, समाज, स्त्रियाॅं, विमर्श, शूद्र आदि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Dalit, Consciousness, Constitution, Intellectualism, Ambedkar, Equality, Society, Women, Discussion, Shudra etc.
प्रस्तावना
दलित भारतीय भाषाओं का एक प्रचलित शब्द हैं जिसका सामान्य अर्थ है - गरीब और उत्पीडित लेकिन सामाजिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक संदर्भो में दलित शब्द को एक भिन्न अर्थ मिल जाता है। इस विशिष्ट सन्दर्भ में सबसे पहले इस शब्द का इस्तेमाल सत्तर के दशक के शुरुआत में ड़ा0 बी0 आर0 अम्बेड़कर के अनुयाईयों ने किया था। इस दलित शब्द में अन्तर्निहित था कि ’’जिसे तोड़ दिया गया है और जिसे उसके सामाजिक दर्जे से उपर बैठे लोगो ने जान बूझकर नियोजित रुप से कुचल ड़ाला है। इस शब्द में छुआछूत , कर्मसिद्धान्त और जातिगत श्रेणी का नकार निहित था।’’[1]
अध्ययन का उद्देश्य
वर्तमान वैश्वीकृत और आधुनिक युग में शिक्षा के विकास और विज्ञान की प्रगति ने जनतांत्रिक मूल्यों को मजबूत ही बनाया है जिसके कारण आज दलितों में चेतना का निरन्तर संचार हो रहा है। इससे दलितों के प्रश्नों और इसके समाधान की भी लगातार कोशिश हो रही है। वैश्वीकरण ने निश्चित रूप से इनके जीवन में काफी बदलाव लाए है, अब उनमें आत्मविश्वास भी दिखता है और अपने खोई हुयी अस्मिता को पहचानते हुये अपने अधिकारों को लेकर खुलकर बोलना प्रारंभ कर दिया है। फिर भी देश के अनेक हिस्सों में दलितों को उनकी जाति के कारण अपमानित और प्रताडित करने की खबरे आती ही रहती है। प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से हमने बदलती परिस्थितियों में दलितों के सम्मुख उत्पन्न नई समस्याओं को रेखांकित करते हुये उसपर गंभीरता से विचार कर दलित दृष्टिकोण की विविधता और विस्तार को उभारने का प्रयास किया है।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोध-पत्र को लिखने के क्रम में इस विषय पर लिखे गये अनेक साहित्य का अवलोकन , विश्लेषण और मूल्यांकन भी किया गया है। जैसे- रामशंकर कथेरिया की पुस्तक दलित साहित्य: नई चुनौतियाॅ, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली 2016 में भारतीय समाज के बहुआयामी संरचना को बेहतर ढंग से स्पष्ट किया गया है। इस पुस्तक में दलित वर्ग को उसके सही परिपेक्ष्य में अर्थापित करने का प्रयास किया गया है।

मु0 अबीरा उदिना की पुस्तक दलित चेतना और भारतीय समाज, अंकिता पब्लिकेशन, 2011 में दलित साहित्य के इतिहास और भारतीय समाज में दलितों के साथ होने वाले सामाजिक भेदभाव का आलोचनात्मक परीक्षण किया गया है। 

एस0 चैदवाल की पुस्तक दलित चेतना का उदय और विकासप्वाइंटर पब्लिशर्स, सितम्बर 2009 में दलितों के सामाजिक और आर्थिक पहलू का विश्लेषण करते हुये उनके मार्ग में आने वाले संभावित रूकावटों का एक विस्तृत विवरण दिया गया है। 

अभय कुमार दूबे ने तो दलित चेतना और दलित विमर्श पर एक विस्तृत शोध कार्य किया है। उनके संपादन में लिखी गयी पुस्तक आधुनिकता के आइने में दलितवाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2008 में मुख्य रूप से गाॅधी और अम्बेड़कर की कालावधि के बाद भारतीय समाज की दलित समस्या पर विविध रूपों में अध्ययन किया गया है। 

लेखक यह भी घोषणा करता है कि वर्ष 2016 के बाद इस शीर्षक पर जो कार्य किये गये है, वह लेखक के संज्ञान में अबतक नही आये है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध-पत्र हेतु शोधकर्ता की पद्धति ऐतिहासिक, समालोचनात्मक तथा व्याख्यात्मक रही है। ज्ञात तथ्यों तथा इस विषय पर उपलब्ध पूर्ववर्ती लेखकों के विचारों और सरकारी दस्तावेज का विश्लेषण और आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए प्राप्त परिणामों का सत्य की कसौटी पर परीक्षण करने का प्रयास किया गया है। शोध अध्ययन में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु प्रस्तुत अध्ययन की विषय और सामग्री की होती है। इस विषय पर प्राथमिक स्रोत के रूप में विभिन्न रिपोर्ट तथा इतिहासकारों की विभिन्न रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में सामग्री मौजूद है जिसका प्रयोग इस शोधपत्र में किया गया है। इसके अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित विभिन्न सम्पादकों के विचारों को विश्लेषण करते हुए सामग्री एकत्र कर उसका प्रयोग द्वितीयक स्रोत के रूप में किया गया है।
विश्लेषण

दलित चेतना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अंतिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की हत्या 185 0पू0 में उसी के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने पतंजलि की शिक्षा के अनुरुप की और जड़तामूलक हिन्दू विधि संहिता के रुप में मनुस्मृति की रचना हुई। बौद्ध काल में शूद्र राजा हो सकता था और ऊॅचे ऊॅचे  पद पर जा सकता था। स्त्रियों के लिए भी कोई बंधन नही था लेकिन पतंजलि, पुष्यमित्रशुंग और मनु ने इस समतामूलक व्यवस्था को इसलिए पलट दिया क्योंकि इसमें ब्राह्मण को सर्वोपरि स्थान प्राप्त नहीं थे। हिन्दू विधि संहिता की पुस्तक मनुस्मृति जहाॅ कदम कदम पर शूद्रों - अतिशूद्रों को अपमानित व दंड़ित करने की व्यवस्था देती है, वही यह भी व्यवस्था देती है कि ब्राह्मण तीनों लोकों के मनुष्यों की हत्याएँ करने के बाद भी सिर्फ वेद पाठ करके पाप मुक्त हो सकता है।[2]

ब्राह्मणवादी दर्शन में चीजें जैसी दिखाई पड़ती है वैसी होती नही है। इसके विपरित यथार्थवादी चिन्तन धारा की सैकड़ो शाखाए सदियों से लोकमानस में सक्रिय रही है। 8वी से 6ठी सदी ई0 पू0 के मध्य लोकायत चार्वाक दर्शन हमारे सामने आया जिसने इन्सानी बराबरी की बात करते हुए स्वर्ग नरक, मोक्ष और कर्मफल सिद्धान्तों को शोषकों के औजार कहा। ’’परम्परा के इस मूलाधार ने बुद्ध पैदा किया और आगे चलकर कबीर पैदा किया। कबीर के उदाहरण से स्पष्ट है कि जीवन के हर क्षेत्र में दिए गए उनके महान अवदान को करीब पाॅच सैा सालों तक नजरअंदाज करने का प्रयास किया गया। इस परम्परा से जुड़े महापुरुषों ने जीवन विरोधी उन सारी अवधारणाओं, मान्यताओं, आन्दोलनों की पोल खोल कर रख दी।’’[3]

सन् 1911 0 की जनगणना के समय पहली बार ब्राह्मण नेताओं ने अंग्रेज सरकार पर दबाब ड़ाला कि सभी कायस्थ, पिछड़े, आदिवासी आदि हिन्दू लिखे जाएँ। भारतीय इतिहास की यह छोटी सी घटना देश की ऐतिहासिक वास्तविकता को ध्वस्त करने में कामयाब हो गया। जो विचार परम्परा हिन्दू विचार परम्परा नहीं थी, वह हिन्दू विचार परम्परा मान ली गई। दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप का ऐतिहासिक - सामाजिक - सांस्कृतिक चित्र आज तक दुनिया ने वह देखा जो ब्राह्मण ने दिखाना चाहा।[4]

समाज सुधारक, बुद्धिजीवी और दलित चिन्तन

20वी शताब्दी के महत्वपूर्ण समाजसुधारक ज्योतिबा फूले ने लिखा है कि - ’’ब्राह्मण का शूद्रों के साथ जो व्यवहार होता है उससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मणों का इस देश से कुछ भी सम्बन्ध नही है। इन्होने केवल स्वार्थ की वजह से इस देश पर एकाएक लगातार हमले किए और जिस जिस समय जो लोग यहाॅ हमलों की चपेट मे आयें उनको बंदी बनाकर दास बनाया गया।’’[5]

ज्योंतिबा फूले की रचनाधर्मिता व आन्दोलनों ने महाराष्ट में जो जनजागरण किया उसका प्रभाव हिन्दी भाषी राज्यों तक पहुॅचा। इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा उनकी तुलना राजाराम मोहन राय से करते हुये लिखते है - ’’ राजाराम मोहन राय के मुकाबले ज्योतिबा फूले के सरोकार अधिक गहरे थे। सैद्धान्तिक विवेचन कभी कभी सबके लिए ग्राह्य और प्रासंगिक नही होता पर एक व्यवहारिक तथा आसान तरीका है, परिणामों के माध्यम से चीजों को समझने का। राजा राम मोहन राय ने जिन सुधारों और उपकरणों की बात की थी वे समाज को आधुनिक बनाने के लिए जरुरी थे पर उसका क्षेत्र सीमीत था और आज 150 वर्षो बाद भी उनसे समाज का अभिजन मुख्य रुप से प्रभावित है। पर ज्योतिबा फूले के सुधार समाज में कुछ आधारभूत परिवर्तन के बिना लागू ही नहीं हो सकते थे। उन्होने जो मुद्दे उठायें थे वे सामाजिक परिवर्तन के एजेण्ड़े पर आज सबसे उपर है। ब्राह्मणवाद जो सामाजिक असमानता को नैसर्गिक मानता है और दलित परिघटना के लिए पूर्णतया जिम्मेदार है आज तरह तरह के समझौते कर दलित वर्ग को ललचाए - फुसलाए - भटकाए रखना चाहते हुए भी उनके साथ हाथ मिलाने को तत्पर रहता है। मार्क्सवादी जो जड़सूत्रवादी हो जाने पर सामाजिक यथार्थ की जटिलता को एक मात्र वर्ग माध्यम से ही समझने की जिद पर अड़े है आज वर्ग के साथ साथ वर्ण व्यवस्था को भी यथार्थ की एक अभिव्यक्ति मानने की समझदारी विकसित करनें में लगें हैं। इस तरह देखे तो ज्योतिबा फूले की भूमिका अधिक निर्णायक सिद्ध होगी ही।’’[6] लेकिन इतिहासकारों ने अपनी सामाजिक संकीर्णताओं के कारण राजाराम मोहन राय को तो नवजागरण का अग्रदूत कहते हुए उन पर बहुत कुछ लिखा लेकिन फूले का जिक्र तक नही किया। इतिहास लेखन की इस दृष्टि ने बहुजन समाज के गौरवशाली इतिहास को कभी जनता तक पहुॅचने ही नही दिया। अंबेड़कर ने कम्युनिस्टों को ब्राह्मणवादी करार दिया और कम्युनिस्टों ने अम्बे़ड़कर को अंग्रेजों का पिछलग्गू और दलितों के लिए भटकाव करार दिया। ऐसे में मार्क्सवादी विश्लेषणों में अम्बेड़कर का उल्लेख तो आने की अनिवार्यता थी क्योंकि अम्बेड़कर एक शक्ति बन चुके थे और उनकी राजनीति महात्मा गाॅधी तक को उलझाने लगी थी। लेकिन ज्योतिबा फूले तो एक विचारक - सुधारक थे , उन्हे नजरअंदाज किया जा सकता था और किया जाता रहा। इसलिए इतिहास लेखन में दलित दृष्टि और उनकी वास्तविक स्थिती को चिन्हित किया जाए तभी इतिहास वास्तव में प्रामाणिक और जन इतिहास बन सकेगा।

अम्बेड़कर और दलित चिन्तन

कंवल भारती ’’दलित विमर्श की भूमिका’’ नामक अपने लेख में लिखते है कि- डॉ. अम्बेड़कर पहले भारतीय है जिन्होने इतिहास में दलितों की स्थिति को रेखांकित किया है। उन्होनें इतिहास लेखन में दो तथ्यों को स्वीकार किये जाने की बात स्वीकार की है। पहली बात यह स्वीकार कर लेनी चाहिए कि एक समान भारतीय संस्कृति जैसी कोई बात कभी नहीं रही। दूसरी बात यह स्वीकार की जानी चाहिए कि मुसलमानोें के आक्रमण से पहले भारत का इतिहास ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच परस्पर संघर्ष का इतिहास रहा है। जो इन तथ्यों को स्वीकार नहीं करता वह भारत का सच्चा इतिहास, जो युग के अर्थ को स्पष्ट कर सके कभी नहीं लिख सकता।

डॉ. आंबेडकर का मत था कि दलित जातियों का उद्धार स्वयं उनके हाथों ही होगा। उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी व्यवस्था जरूरी है। इसके साथ राजनीतिक सत्ता भी उनके हाथों में आ जाएगी। इस विषय में डॉ0 आंबेडकर और महात्मा गाँधी के बीच मतभेद था। इसे दूर करने के लिए दोनों के मध्य 24 सितम्बर 1932 0 को एक समझौता हुआ। पूना में मीटिंग होने के कारण इसे पूना पैक्ट कहा गया। इस पैक्ट से दलित वर्ग के लिए शिक्षा प्राप्त करने का रास्ता साफ हो गया। उनके लिए सरकारी सेवाओं के दरवाजे खुल गए। उन्हें वोट देने का अधिकार मिल गया। दलित प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार चुनाव क्षेत्र के सभी मतदाताओं को दिया गया। इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि दलित हिन्दू समाज के अंग बन गए। पूना पैक्ट में दलितों को केवल दस वर्ष के लिए आरक्षण दिया गया था। डॉ0 आंबेडकर भी आरक्षण की वैसाखी को अधिक समय तक मान्यता देना नहीं चाहते थे। वह चाहते थे कि दलित स्वयं अपनी योग्यता के आधार पर समाज में अपना स्थान बनायें।

डॉ. आंबेडकर ने दलितों के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने अनेक शिक्षण संस्थानों एवं छात्रावासों की स्थापना की। उनके प्रयासों से ही 29 अप्रैल 1947 0 को छुआछूत को कानूनी रूप से सदा के लिए समाप्त कर दिया गया। कानून मंत्री के रूप में उन्होंने हिन्दू कोड बिल पारित करवाया। इस प्रकार उन्होंने हिन्दू महिलाओं पर जो उपकार किया उसे भुलाया नहीं जा सकता।

ड़ा0 अम्बेडकर के चिंतन में समाजवाद औैर क्रान्ति के सूत्र मौजूद थे। अम्बेड़कर ने सर्वहारा की तानाशाही का विरोध कियासमाजवादी व्यवस्था का नही। वे राज्य के नियंत्रण में नई समाज व्यवस्था के लिए ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे जिसमें संपत्ति का समान वितरण, कृषि पर राज्य का स्वामित्व हो, सामूहिक कृषि की व्यवस्था हो और बीमा का राष्ट्रीकरण हो।[7] वे राजनीतिक क्रान्ति से पहले सामाजिक क्रान्ति का समर्थन करते थे और भारतीय समाज की जड़ ताकतों द्धारा धर्म के नाम पर समता, स्वतंत्रता, बंधुता के हनन की वर्णवादी गाथाओं का अंत करके ऐसा समता मूलक समाज चाहते थे जहाॅ किसी के प्रति भेदभाव न हो। दलित प्रतिनिधित्व के प्रश्नों पर राजेन्द्र यादव लिखते है कि -’’ यह कैसी विडम्बना है कि जब तक दलित समाज हमारी हमदर्दी और सहानुभूति के दायरे मेेें होता है, तब तक हमारी दृष्टि में यह ठीक कहा जाता है लेकिन ज्यों ही वे अपने अधिकारों की माॅग करते हैं हमारे लिए हिंसा और धृणा के पात्र बन जाते है।’’[8] हजारों साल तक जातीय अपमान व घृणा से उत्पीड़ित लोग आज सम्मान चाहते है, सवर्ण समुदाय में गरीब से गरीब व्यक्ति को भी सामाजिक स्तर पर दूसरों से सम्मान मिलता है लेकिन आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न दलित को उसकी जातीय पहचान के कारण व्यवहार में वैसा सम्मान नही मिलता है। इसलिए दलित की पीड़ा आर्थिक कम सामाजिक अधिक है। आर्थिक विकास होने पर व्यक्ति का रहन सहन और जीवन यापन के तौर तरीके बदल जाते है लेकिन धर्म और जातिगत समाज की नजरों में वह रहता निम्न ही है। इस बात का ज्वलन्त उदाहरण बाबू जगजीवन राम का जीवन है। उपप्रधानमंत्रीत्व काल में जब उन्होने सम्पूर्णानन्द की प्रतिमा का उद्घाटन किया तो ब्राह्मणों ने उसे धोकर पवित्र किया था। जातिवाद की समस्या मात्र दलितों की समस्या नही है, यह सम्पूर्ण समाज एवं राष्ट्र की समस्या है। दलित मुक्ति की समस्या सारे देश के बहुजन की आवश्यकता है।

दलित चेतना और वर्तमान परिदृश्य

वर्तमान समय में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली कुल 49 प्रतिशत जनता के मुकाबले दलितों की 70 प्रतिशत उस अतिदरिद्रता की हालत में रहती हैै। देश की कुल आबादी का 16 प्रतिशत होने के बाद भी दलितों के पास कुल खेती योग्य जमीन का केवल एक प्रतिशत हिस्सा ही है।[9] 2011 की जनगणना के अनुसार दलितों में राष्ट्रीय साक्षरता दर लगभग 62 प्रतिशत है। इनकी तीन चौथाई आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है तथा इतनी ही खेती के कार्यो में लगी है। देश के बारह प्रदेशों में छूआछूत प्रचलन में है और अन्य राज्यों में इसका असर कुछ कम हुआ है। देश में हर धंटे में दो दलितों को हिंसक घटनाओं का शिकार होना पड़ता है और प्रत्येक दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है एवं दो दलित घरों में आग लगा दी जाती है।[10] 20वीं सदी के दूसरे दशक से डा0 अम्बेड़कर ने निरन्तर दलित मुक्ति और मानवाधिकार के मामले उठाकर सरकार व पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। महाड़ व कालाराम मंदिर प्रकरण, गोलमेज सम्मेलन, पूना पैक्ट, स्वतंत्र मजदूर दल, अनुसूचित जाति संघ, संविधान सभा से होते हुये देश के प्रथम कानून मंत्री और उससे त्यागपत्र का सफर विपरित हालात से गुजरता  हुआ 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्मान्तरण के साथ ही पूर्ण हुआ। उन्होने कांग्रेस तथा महात्मा गाॅधी की अछूतोद्धार सम्बन्धी कार्यप्रणाली की धज्जियाॅ उड़ाते हुए 1945 में ’’कांग्रेस और गाॅधीजी ने अछूतों के लिए क्या किया’’ नामक पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर लिखा - ’’हमारा मालिक बनने से तुम्हे फायदा होगा पर तुम्हारा दास बनने से हमें क्या फायदा हो सकता है।’’ प्रसिद्ध इतिहासकार सुमित सरकार लिखते है कि -’’इतिहास गवाह है कि हरिजन आन्दोलन का जन्म ही दलित आन्दोलन को दबाने के लिए हुआ था लेकिन समय के प्रवाह में दलित आन्दोलन ने हरिजन आन्दोलन के सामाजिक और धार्मिक प्रकृति के मुद्दों को गौण साबित करते हुए राजनैतिक एवं आर्थिक प्रतिनिधित्व के सवालों पर अपने आन्दोलन की बिसात तैयार की। एक तरह से अम्बेडकर के आत्मसम्मान आन्दोलन ने दलित वंचित समाज में एक चिंगारी का काम किया और इनमें राजनीतिक चेतना पैदा       की।’’[11]  

यहाॅ की सामाजिक हालात के विरोधाभास की व्याख्या करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था - भारतीय समाज में दो बातों का पूर्णतः अभाव है। इनमे से एक समानता   है। सामाजिक क्षेत्र में हमारे देश का समाज वर्गीकृत असमानता के सिद्धान्त पर आधारित है जिसका अर्थ है कुछ लोगों के लिए उत्थान एवं अन्यों की अवनती। आर्थिक क्षेत्र में हम देखते है कि समाज के कुछ लोगों के पास अथाह सम्पति है जबकि दूसरी ओर असंख्य लोग घोर दरिद्रता के शिकार है। 26 जनवरी 1950 को हम लोग एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश करने जा रहे है। राजनीति के क्षेत्र में हमारे बीच समानता होगी पर अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में वर्तमान सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के चलते एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धान्त को अस्वीकार करना जारी रखेंगें। हम कब तक इस विरोधाभासी जीवन को जीते रहेगें, अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को अस्वीकार करते रहेगें।[12]

सामाजिक परिदृश्य और दलित चेतना

भारतीय समाज के निम्नतम सोपान पर जीवन यापन करने वाले समुदाय की सामाजिक आर्थिक समस्यायों का जाति व्यवस्था से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है क्योंकि यहीं व्यवस्था सामाजिक आर्थिक संरचना एवं संसाधनों से जुड़ी है। ड़ा0 अम्बेड़कर ने कहा था कि दुनिया के अन्य देशों में सामाजिक क्रान्तियाॅ होती रही हैं पर भारत में ऐसी सामाजिक क्रान्ति क्यों नही हुई। इसके लिए उन्होने जाति प्रथा की बुराईयों को जिम्मेदार माना। हिन्दू धर्म ग्रन्थों ने वर्ण और जाति व्यवस्था को ईश्वरजनित माना और यह स्थापित किया कि मनुष्य का भाग्य ईश्वर के हाथ में हैं और ईश्वर की अराधना ही उनके जीवन को सफल बना सकती है।[13] शोषण की इस व्यवस्था ने पूरे समाज में निकम्मापन पैदा करके एक वर्ण एवं जाति विशेष को शोषण का लाइसेन्स दे दिया। अब यह हम सब का दायित्व है कि इस शोषित वर्ग को भाग्य, भगवान, और भविष्य के शिकंजे से निकालकर उनको बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करें।[14] एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जब दलितों की स्थिती का हम समाजशास्त्रीय अध्ययन करते है तो इस निष्कर्ष पर पहुॅचते है कि दलित समुदाय सामाजिक अपमान, घुटन, एवं धृणा के प्रतिरोध में तथा अस्मिता और आत्मसम्मान के लिए ऐसे धर्म को स्वीकार करता है जहाॅ उसे समता, बंधुता व स्वतंत्रता मिले। जिस तरह हिन्दी का विपुल साहित्य धर्मग्रन्थों की घटनाओं के आधार पर लिखा गया है ठीक उसी तरह अब दलित साहित्य भी धर्म के मानव विरोधी पक्षों को चित्रित करके सामाजिक जागरण का अभियान चला रहा है।[15]

निष्कर्ष
संक्षेप में, भारतीय समाज की संरचना बहुआयामी होने के साथ-साथ जटिल है। इस सामाजिक संरचना में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो शोषित वर्ग के विरुद्ध जाते हैं। जाति प्रथा एक ऐसा ही तत्त्व है, जो सामाजिक एकता, सामाजिक समरसता और सार्थक सामाजिक सरोकारों के विरुद्ध जाता है। भारतीय समाज की धार्मिक परंपराओं में जाति-व्यवस्था को जिस प्रकार महिमामंडित किया गया है, उसके कारण समाज में कुछ ऐसी बद्धमूल धारणाएँ विकसित हो गई हैं, जो सामाजिक सद्भाव में बाधक हैं। जाति-भेद के कारण समाज का एक विशेष वर्ग, जो बहुसंख्यक है, वह आज के वैश्वीकरण के दौर में भी असमानता, शोषण, उपेक्षा और अपमान को झेल रहा है। यह वर्ग आर्थिक शोषण का शिकार तो हैं ही, सामाजिक उपेक्षा और अपमान का दंश भी झेल रहा है। स्पष्ट है, अभी भी दलित चिन्तन को विभिन्न झंझावतों से होते हुए विकसित होना है। दलितों में यदि स्वाभिमान है, मुक्ति का जज्बा है तो अपनी सामाजिक और आर्थिक स्तर को उच्चतम सोपान तक पहुॅचाने का हर संभव प्रयास करेंगें। इस कार्य में मीडिया और साहित्य को भी सकारात्मक रुख अपनाना होगा और लोक कल्याण की अवधारणा के तहत् जनमानस में यह चेतना फैलानी होगी कि एक समता मूलक समाज और नागरिक समाज की स्थापना में ही राष्ट्र का हित नीहित है और जिसके फलस्वरुप देश की बहुत सी समस्यायें अपने आप दूर हो जाएगी।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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