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मैत्रयी पुष्पा के साहित्य में नारी संघर्ष एवं नारी समस्याएँ |
Struggle and Problems of Women in the Literature of Maitrayi Pushpa |
Paper Id :
17003 Submission Date :
2023-01-04 Acceptance Date :
2023-01-21 Publication Date :
2023-01-25
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गोविन्द शरण शर्मा
सहायक आचार्य
हिंदी
राजकीय बालिका महाविद्यालय
टोडाभीम, करौली,राजस्थान, भारत
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सारांश
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मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास स्पष्ट करते हैं कि देश के स्वतंत्र होने के साथ स्थिति बदली है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नारी आगे बढ़ी है। उसे खुला एवं मुक्त वातावरण मिला है लेकिन शहरों तक, ग्रामीण स्तर पर नारी के जीवन में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। लेखिका की नायिकाएँ पुरुष सत्ता के वर्चस्व को तोड़ना चाहती है। उसे स्वामी नहीं, पति नहीं, एक सुलझा हुआ सहयात्री चाहिए जो सुख-दुख में कदम से कदम मिलाकर साथ चल सके।
मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में नारी चेतना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए डॉ रामचंद्र तिवारी लिखते हैं "बुंदेलखंड के आंचलिक जीवन को उसकी समग्रता में उकेरते हुए यह दिखाया है कि अब विंध्याचल की धरती भी अंगड़ाई लेकर जाग रही है। अनेक स्तरों पर नारी को पीड़ित और प्रताड़ित होते दिखाया गया है। लेखिका ने यह संकेत दिया है कि अब ठेठ ग्रामीण और लगभग अशिक्षित नारियाँ भी अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो रही है और उनमें भी जनता को संगठित करने का साहस और अपनी शक्ति का एहसास होने लगा है।"
लेखिका का मत है जो सर्वथा सत्य प्रतीत होता है कि नारी शिक्षा और स्वावलंबन के बल पर कहीं हद तक अपनी समस्याओं का समाधान कर सकती है। "स्त्रियों को चाहिए कि वे पुरुषों को झुकाने से पहले अपना हीन भाव दूर करें।"
उसकी स्वतंत्रता का मूल्य पुरुष की नजरों में नहीं अपितु नारी की अपनी तथा अपनी तथा नारी समाज की नजरों में भी होना चाहिए। लेखिका के नारी पात्र न केवल अपने व्यक्तिगत हित के लिए संघर्ष करते हैं अपितु समाज के लिए भी संघर्ष करते नजर आते हैं।
मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सभी प्रकार के संघर्षों को स्थान मिला परंतु प्रधानता नारी संघर्ष की है। जिसका उद्देश्य सकारात्मक सोच एवं साधनों द्वारा सभ्य समाज का निर्माण करना है। समाज को सही दिशा निर्देशित करता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Maitreyi Pushpa's novels make it clear that the situation has changed with the country becoming independent. Women have progressed in every field of life. She has got an open and free environment but till the cities, there has not been any major revolutionary change in the life of women at the rural level. The heroines of the writer want to break the supremacy of male power. She doesn't need a master, not a husband, but a settled co-traveller who can walk step by step in happiness and sorrow.
Dr. Ramchandra Tiwari, clarifying the form of female consciousness in the novels of Maitreyi Pushpa, writes, "By depicting the regional life of Bundelkhand in its totality, it has been shown that now the land of Vindhyachal is also waking up with an embrace. Women are suffering on many levels. The author has indicated that now even the typical rural and almost uneducated women are becoming aware of their rights and they are also beginning to realize their power and the courage to organize the public.
It is the opinion of the author which seems to be absolutely true that women can solve their problems to some extent on the strength of education and self-reliance. "Women should remove their inferiority complex before bowing down to men."
The value of her freedom should not be in the eyes of the man, but in the eyes of the woman herself and herself and the women's society. The female characters of the writer not only struggle for their personal interest but are also seen struggling for the society.
In the literature of Maitreyi Pushpa, all kinds of social, economic, political, cultural struggles found place, but the priority is of women's struggle. Whose aim is to build a civilized society by positive thinking and means. |
मुख्य शब्द
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संघर्ष , महिला, आजादी, साहित्य, नारी समस्याएँ, परंपराएँ। |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद |
Struggle, Women, Freedom, Literature, Women Problems, Traditions |
प्रस्तावना
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भारत की स्वतंत्रता के पश्चात से नारी जब से अपने स्वरूप अपने स्वरूप जब से अपने स्वरूप अपने स्वरूप से अपने स्वरूप अपने स्वरूप को पहचानने का प्रयास करने लगी है। तब से महिला कथाकारों की एक सशक्त पीढ़ी तैयार होती जा रही है। आठवें दशक में इन कथाकारों के प्रयासों को महिला लेखन की संज्ञा प्राप्त होने लगी है।
महिला लेखन महिला के लिए महिला द्वारा लेखन है। नवजागरण की चेतना से प्रभावित महिला लेखन नारी मुक्ति की अवधारणा के साथ स्त्री के उद्धार की बात कहता है। महिला लेखन की कमान संभालने वाली प्रबुद्ध लेखिकाओं में कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान मैत्रेयी पुष्पा आदि शामिल है। इस साहित्यिक आकाशगंगा में ही एक चमकता सितारा मैत्रेयी पुष्पा है।
मैत्रेयी पुष्पा की कलम आजादी के बाद आए बदलाव की सही तस्वीर तो उकेरती ही है, साथ ही सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के लिए संघर्ष, चिंता एवं क्रांतिकारिता मुखरित करती है।
संघर्ष मानव जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। कहा जाता है कि संघर्ष की मथनी से मथ कर ही व्यक्ति के अंदर छिपा वास्तविक एवं बहुमूल्य मानव रूपी मक्खन बाहर आता है। संघर्ष की ज्वाला में जलकर ही मनुष्य का कुंदन निखरता है।
संघर्ष वास्तव में है क्या- मानव के व्यक्तित्व एवं अस्तित्व के विकास के लिए संघर्ष आवश्यक है। व्यक्ति का मानस पटल ही द्वंद्व का स्रोत है। वस्तुत: संघर्ष व्यक्तियों को विरासत में मिलता है। संघर्ष व्यक्ति की आंतरिक अभिलाषा और सामाजिक उपलब्धियों और बाह्य उपलब्धियों और बाह्य सामाजिक उपलब्धियों और बाह्य सामाजिक उपलब्धियों और बाह्य वातावरण के मध्य होता है। व्यक्ति जब अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य नहीं कर पाता तब तनाव की स्थिति होती है, ऐसे में या तो वह पराजय स्वीकार कर लेता है या इच्छाओं का दमन जब असंभव हो जाता है तो संघर्ष करने लगता है।
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अध्ययन का उद्देश्य
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मैत्रेयी पुष्पा जी का साहित्य एक सागर है जिसमें से कुछ मोतियों के रूप में उनके उपन्यासों को चुनकर उसमें प्रस्तुत स्त्री संघर्ष को प्रस्तुत लेख में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। |
साहित्यावलोकन
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साहित्य और संघर्ष- साहित्य सर्व संवेद्य है। उसका मानव जीवन से अत्यंत व्यापक एवं वैध संबंध है। मानव एवं साहित्य अन्योन्याश्रित है। मानव को केंद्र में रखकर साहित्य सृष्टि का निर्माण होता है। हम यह कह सकते हैं कि साहित्य मानव के द्वारा मानव के लिए लिखी गई मानव की जीवनी है। जब साहित्य मानव जीवनी है या यूं कहे की की कथानक एवं पात्र मानव ही है तो मानव जीवन के संघर्ष भी साहित्य से अस्पर्श नहीं रह सकते। साहित्य सृजन की प्रक्रिया का संबंध जिस प्रकार साहित्यकार की जीवनानुभूति से होता है, उसी प्रकार उसकी नवनिर्माणक्षमं प्रतिभा कल्पना शक्ति से भी होता है। अतः साहित्यकार साहित्य के रूप में एक ऐसी सृष्टि का निर्माण करता है जिसने मानव प्राप्य को पाने हेतु प्रतिकूलता से संघर्ष कर रहा है। प्रकृति शायद मनुष्य की सीमाएँ जानती है। वह जानती है कि मनुष्य किस हद तक जाकर संघर्ष कर सकता है और अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त कर सकता है। तभी तो प्रकृति ने मनुष्य को संवेदन शक्ति, इच्छाशक्ति, विचार शक्ति, कल्पना शक्ति, कर्म शक्ति और रचना शक्ति की मूल्यवान देन दी है। साथ ही कहा मैंने तुम्हें जो देना था दे दिया अब तुम्हारा कर्तव्य है कि जो तुम्हे चाहिए उसे पाने के लिए संघर्ष करो। मानव ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास किया है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जेपी गिल्फोर्ड ने कहा है कि "संघर्ष से मुक्त कोई नहीं है।"[1] साहित्य के माध्यम से मनुष्य प्राप्य एवं काम्य रूपों को साकार करता है, जिसे पाने की इच्छा मनुष्य में होती है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि "साहित्य में मनुष्य का जीवन नहीं जीवन की वे कामनाएँ है जो अनंत जीवन में भी पूरी नहीं हो सकती, निहित रहती है। जीवन यदि मनुष्यता की अभिव्यक्ति है तो साहित्य में उस अभिव्यक्ति की आशा उत्कंठा भी सम्मिलित है। यदि जीवन संपूर्णता से रहित है तो साहित्य उसके सहित है। साहित्य जीवन से अधिक रसवान एवं परिपूर्ण है तथा जीवन का नियामक एवं मार्ग दृष्टा भी है।"[2] साहित्य और संघर्ष एक दूसरे पर निर्भर है। दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है। संघर्ष मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है तथा साहित्य इसे भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। यदि साहित्य में संघर्ष न हो तो साहित्य शुष्क एवं नीरस हो जाएगा। गति का अभाव हो जाएगा। साहित्य के अभाव में संघर्ष की अभिव्यक्ति नहीं होगी। इसी क्रम में विदुषी कथाकार मैत्रेयी पुष्पा भी अपने साहित्य के माध्यम से संघर्ष को अभिव्यक्त करती है। मैत्रेयी पुष्पा चूंकि महिला लेखन का प्रतिनिधित्व करती है, अतः उनके साहित्य में स्त्री संघर्ष को व्यापकता से प्रस्तुत किया गया है। मैत्रेयी पुष्पा जी का साहित्य एक सागर है जिसमें से कुछ मोतियों के रूप में उनके उपन्यासों को चुनकर उसमें प्रस्तुत स्त्री संघर्ष को प्रस्तुत लेख में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास साहित्य में निहित स्त्री संघर्ष-
मैत्रेयी जी के उपन्यासों में उपस्थित स्त्री संघर्ष को निम्न बिंदुओं के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है।
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मुख्य पाठ
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व्यक्ति और समाज- मैत्रेयी जी के साहित्य में व्यक्ति प्रमुख रूप से स्त्री समाज का अंश अवश्य है। किंतु जिस समाज में वह रहती है उसकी रूढियों एवं परंपराओं के प्रति उसके मन में विरोध उत्पन्न होता है। जैसे हमारे समाज में पुत्र एवं पुत्री दोनों में अंतर किया जाता है किंतु लेखिका के स्त्री पात्र इस अंतर पर मुखरित होकर बोलने का साहस रखते हैं। बेटीकहानीमें लेखिका ने स्त्री पात्र मुन्नी से कहलवाया है कि "अम्मा तुम मेरे साथ जो कर रही हो अच्छा नहीं है। तुम पांच पांच लड़कों को पढ़ा सकती हो लेकिन मेरे लिए तुम्हारे घर अकाल है। मेरी किताब कॉपी के पैसे तुम पर भारी है।"[3] अन्यत्र भी लेखिका बताती है कि "बेशक लड़की की पढ़ाई को लेकर घोर लापरवाही बरती जाती है नहीं तो आज प्रौढ़ शिक्षा की जरूरत ही नहीं होती।"[4] मैत्रेयी पुष्पा की लेखनी ने स्त्री पुरुषों के अंतर को बखूबी उभारा है। वे व्यंग्य पूर्वक कहती है :- "सामाजिक कानूनों पर कोई सवाल नहीं उठना चाहिए। आपको मालूम नहीं कि स्त्री की गर्दन हिलने से परिवार का ढांचा डगमगाने लगता है।"[5] लेखिका की नायिका समाज में अपना नया स्थान तलाश करती है। पुरानी मान्यताओं को नकार कर नया अध्याय लिखती है। उनके साहित्य में नायिका की प्रधानता है। स्त्री संघर्ष की गाथा है। लेखिका के शब्दों में "बेरहम प्रहारों, स्थितियों के विषम बिंदुओं और षडयंत्रों के बावजूद भी वह जिंदा है। जिजीविषा और स्वत्व की ऐसी उत्कट कामना लिए वह अनगढ़ मनीषा कौन है ?"[6] वीरेंद्र यादव जी के अनुसार "मैत्रेयी पुष्पा के कथा सरोकार उस ग्रामीण समाज से उठते हैं जो सामंती भाव भूमि पर पुरुष वर्चस्व की मनुवादी अवधारणाओं के बीच आज भी जी रहा है।"[7] लेखिका की महिला पात्र अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है। वह अपने अधिकारों के प्रति सजग है। लेखिका की कृति 'रिजक' में बसोरो जाति की स्त्रियाँ कहती हैं कि "वैसे भी जमाना बदल रहा है। हमारी जाति वालों की बात सुनी जाएगी। हम सिरकार दरबार जाएंगे, नौकरी मांगेंगे और मिलेगी।"[8] लेखिका की दृष्टि क्रमशः समष्टि से व्यष्टि और बाद में अस्तित्व की और झुकती गई है। भारतीय परिवार व भारतीय समाज में कदम कदम पर स्त्री को संघर्ष करते हुए अपने जीवन पथ पर आगे बढ़ना होता है। इसे लेखिका ने स्पष्ट शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। लेखिका ने स्त्री की दैहिक एवं भावात्मक भावनाओं को भी अपनी अन्वेषी नजरों से परख कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। व्यस्क होती लड़की को तुरंत मायके से विदा कर देने की विधि एवं ससुराल में उसके साथ होने वाले न्याय अन्याय को स्वयं उसे अकेले सहन करने की व्यवस्था को लेखिका की लेखनी ने धारदार तरीके से प्रस्तुत करने का साहस दिखाया है। "मन नाँहि दस बीस" नामक कृति में लेखिका ने स्त्री के इस संघर्ष को प्रस्तुत करते हुए बताया है कि नायिका दैहिक शोषण का शिकार अपने ससुराल में होती है किंतु इसका दर्द वह न तो ससुराल में न मायके में व्यक्त कर सकती है। सार रूप से कहा जा सकता है कि लेखिका ने अपने उपन्यासों में नारी के संघर्ष जो उसे समाज में रहते हुए झेलने पड़ते हैं, को यथार्थ रूप से प्रस्तुत किया है। जैसा कि पूर्व विदित है कि साहित्य में कथाकार ऐसे परिवेश की कल्पना करता है जो उसने समाज के लिए सोच रखी होती है अर्थात वह अपने कल्पनीय एवं उत्कृष्ट समाज को साहित्य में प्रस्तुत करके अपना मत प्रस्तुत करना चाहता है, उसी क्रम में मैत्रेयी पुष्पा जी भी नारी के संघर्षों को प्रस्तुत करते हुए ऐसे समाज का निर्माण होते देखना चाहती है, जिसमें नारी के संघर्षों को सम्मान मिले एवं जो वेदना उसे सहनी पड़ती है वर न साहनी पड़े एवं जहाँ पुरुष व नारी को समान दृष्टि से देखा जाए। रूढ़ियाँ एवं परंपराएँ एवं स्त्री का संघर्ष- मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में रूढियाँ व्यवहार की प्रतिमान है। रूढ़ियों एवं परंपराओं की आड़ में होने वाले स्त्री शोषण एवं इन शोषण के विरुद्ध स्त्री के संघर्ष को लेखिका ने शानदार व स्पष्टवादी रूप से प्रस्तुत किया है। स्त्री जीवन में जीवनसाथी के विचार या मृत्यु के कारण उपजे दुख को नजरअंदाज करते हुए रूढ़ियों के पर्दे में विधवा स्त्री में यंत्रणा के अस्त्र शस्त्रों से प्रहार किया जाता है। जो स्त्री पहले से भावात्मक टूटन से लड़ रही है उसे रूढियों के नाम पर जबरदस्ती संघर्ष में धकेल दिया जाता है। लेखिका ने स्त्री के इस संघर्ष को समझ कर उसे अपने साहित्य में स्थान दिया ताकि वह पाठकों की अंतरात्मा को जगा सके एवं स्त्री के संघर्ष से रूबरू करा सके एवं अपने पात्रों द्वारा उठाए गए सशक्त कदमों से वास्तविक समाज में कुछ चेतना का संचार कर सके। कुछ कृतियों के उदाहरणों से इस कथन को स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे 'पगला गई है भगवती' नामक कृति में भगवती के बारे में लिखा है "वह विधवा हो गई तबसे उसका उसका तन उसका मन उसका संपूर्ण अस्तित्व विधवा है। हौंस, उमंग, पहनावा, ओढ़ना, सजना, संवरना उसके लिए वर्जित है। औरतें उसे सगुन-सात-मंगल कार्यों से बचाती है।"[9] 'उजदारी' कृति में लेखिका ने बताया है कि "चूड़ी, बिंदिया और रंग-बिरंगे कपड़ों को पाप बताकर विधवा औरत की जिंदगी पर होने वाले खर्च और चढ़ने वाले रूप को खारिज करने लगे थे घर के लोग। रंगीन सपने मत देखो, दिल मोहने वाली बातें मत सुनो, पति की दुख की कटारी से सारे सुखों के तार काट डालो।" इस परंपरा की भयावहता को उभारते हुए लेखिका कहती है "विधवा स्त्री नहीं ढोर पशुओं में मिला दी जाती है, मुछीका बांधकर बैल की तरह काम करने का साधन। स्त्री स्त्री तब तक थी जब तक उसके पति का हाथ उसके सर पर था।"[10] समाज की दूसरी रूढि दहेज है जो स्त्री को संघर्ष की ज्वाला में इंजन की तरह जलाती है। वर के मूल्यांकन की रूढ़ियों को मैत्रेयी पुष्पा ने अपने साहित्य में रेखांकित किया है। लेखिका ने स्पष्ट किया है कि विवाह में धन को महत्व देना आर्थिक अभाव नहीं है। वरुन गिरी हुई नैतिकता की भावना है यही भावना वैवाहिक जीवन में विसंगतियों को जन्म देती है। लेखिका का मानना है कि "अनमेल विवाह दहेज का कारण बनता है। अभी तक हम अनमेल विवाह का अर्थ वर और कन्या की आयु के अंतर से लेते हैं जो कि नितांत अधूरा है। अनमेल तो वे सारे विवाह है जो आयु में शिक्षा और योग्यता में, रहन-सहन में, बुद्धि विवेक में, पेशे और रोजगार में एक दूसरे से बहुत ऊंचाई एवं बहुत नीचाई को देखते हुए भी होते हैं। ऐसे विवाहों में कन्या पक्ष की कमजोरी को पाटने का पुल बनता है दहेज।"[11] अर्थात लेखिका का तात्पर्य है कि दहेज में मोटी रकम देकर अपनी अयोग्य एवं खामियोयुक्त कन्या को किसी योग्य सर्वगुण संपन्न वर से बांध दिया जाता है जो अपने अभावों या कहें लालच के आगे घुटने टेक चुका होता है। वहीं दूसरी और सुयोग्य शिक्षित सर्वगुण संपन्न कन्या अपने से कमतर वर से परणा दी जाती है क्योंकि उसके पालक मोटी रकम का इंतजाम करके सुयोग्य वर हासिल नहीं कर पाए हैं। दोनों ही स्थितियों में होने वाले संघर्ष स्त्री के जीवन में भूचाल ला देते हैं।इसका समाधान भी लेखिका ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार "बिना दहेज के विवाह का संकल्प लें।" "लड़कियाँ दहेज के लेन-देन पर अपनी अस्वीकृति शादी से पहले ही दे दें ताकि जहरीली धारा को उद्गम पर ही रोका जा सके नहीं तो यह तेज बहाव का विकराल रूप धारण कर लेती है।"[12] स्त्री को दबाने वाली एक अन्य रुढ़ि है कि स्त्री को शिक्षा न दिलाई जाए। लेखिका के उपन्यासों व कहानी के पात्र नायिका को पढ़ने व आगे बढ़ने से रोकते हैं किंतु नायिकाएँ परिस्थितियों के आगे टूटती नहीं है वरन उससे निकलने के लिए संघर्ष करती है। समाज की एक परंपरा जो नर नारी में मर्यादित दूरी रखने के बाद से बनाई गई है। वहीं आज स्त्री के लिए तनाव का विषय है। लेखिका के अनुसार जब लज्जा आंखों में हो तब पर्दे को इतना महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना न्यायोचित नहीं है। इसी प्रसंग में लेखिका ने स्त्री के भाव को खुली खिड़कियों में किए गए प्रश्नों के माध्यम से व्यक्त किया है "मुंह ढको। बदन मत उघाड़ो। पलकों को ऊंची मत करो। अब बताओ मर्द इस अंधी दुनिया में कितने दिन रह सकता है ? बोलो मत, हँसो मत, किसी से बात मत करो। गूंगा संसार कब तक चल सकता है ? यहाँ मत जाओ, वहाँ मत चलो, किसी से बात मत करो, पंगु - लंगडी दुनिया के बाशिंदे हम किस बात की आजादी माँगे।"[13] जाति व्यवस्था व स्त्री संघर्ष- जाति व्यवस्था के कारण स्त्रियों को उनका अधिकार प्राप्त नहीं हो सका। जाति प्रथा का दंश सहती लेखिका की नायिका इस समाज के इस कुरूप पक्ष को दृढ़ता के साथ संभालती है। उनकी नायिकाएँ सामान्यतः नीची जाति के लड़के से प्रेम करके विवाह करने का साहस दिखाती है। वर्तमान समय में जहाँ जाति के नाम पर युवक-युवतियों को विजातीय विवाह करने के कारण तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है। वहीं लेखिका की कलम समाज में चेतना के प्रसारण का कार्य करना चाहती है। ताकि जाति प्रथा स्त्री के संघर्ष में कोढ़ में खाज का कार्य न करें। नारी अस्मिता का संकट एवं संघर्ष- अस्मिता शब्द की निर्मिति आस्मि+तल् + तय् से हुई है जिसका अर्थ है अहंकार। अभिमान, आत्मश्लाघा, घमंड, स्वाभिमान, गर्व तथा अपनी सत्ता का बोध होना चाहिए आदि अहंकार/ अस्मिता के पर्याय है। मैत्रेयी पुष्पा की नायिकाएँ अपनी अस्मिता को लेकर सजग है एवं उसे अक्षुण्ण रखने के लिए संघर्ष करती है। लेखिका की कृतियों की नायिकाओं के संदर्भ में ज्ञान प्रकाश विवेक लिखते हैं "कहानियों के ये स्त्री पात्र उस दरिद्र समाज का प्रतीक चेहरा है जो हाशिए पर है।हाशिए संभवतः एक ऐसा हिस्सा है जो गैर जरूरी बेशक हो, नकारे जाने लायक बिल्कुल नहीं। ऐसे हाशिए पर रखिए स्त्रियाँ पुरुष के छद्म पर हँसती है। स्त्रियाँ दुखी बेशक है, लेकिन वे सजग है। सजगता का विमर्श इन कहानियों में है।"[14] मैत्रेयी पुष्पा की नायिकाएँ अपनी अस्मिता को बचाने के लिए जद्दोजहद करती है। लेखिका की कृतियों में नारियों को उनके आत्म निर्णय के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। लेखिका की नायिकाएँ शादी एवं प्रेम के संबंध में इच्छाओं का दमन करने के लिए बाध्य की जाती है। अपनी इच्छाओं का दमन करने के बाद भी यदि उन्हें वांछित प्रेम व सम्मान नहीं मिलता है तो वे 'मन नाँहि दस बीस' की नायिका की चंदना की तरह अपराध मार्ग की ओर अग्रसर हो जाती है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों के अधिकतर नारी पात्रों की अस्मिता की धज्जियाँ, कर्तव्य पालन, धर्म पालन, वचन पालन, मनुष्य के गुणों व मूल्यों के नाम पर उड़ाई जाती है। मैत्रेयी पुष्पा की कृतियों में नारी का संघर्ष बहुआयामी है। उसकी अस्मिता को जगह-जगह छिन्न भिन्न किया जा रहा है और कभी अपहरण, कभी हत्या, कभी दहेज की मार, कभी क्रय विक्रय के द्वारा या कभी लैंगिक दुर्व्यवहार के द्वारा उसके अस्तित्व अस्मिता को कुचला जा रहा है। सार रूप में कह सकते हैं कि लेखिका की नायिकाएँ संघर्ष की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। लेखिका के उपन्यासों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम हमारे परिवेश या समाज में से ही होकर गुजर रहे हैं, यही लेखिका को सशक्त महिला लेखन की अग्रणी पंक्तियों में खड़ा करता है। मैत्रेयी जी के कुछ उपन्यासों के नाम यहाँ उल्लिखित किए गए हैं जिनमें संघर्ष को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया गया है- बेतवा बहती रही, इदंनमम, अगनपाखी, अल्मा कबूतरी, चाक, झूला नट, विजन, कहीं ईसूरी फाग, त्रियाहठ। इन उपन्यासों में नारी संघर्ष को स्पष्ट किया गया है। 1. बेतवा बहती रही- यह उपन्यास 1993 में प्रकाशित हुआ यह उपन्यास नारी के सहने, झेलने और जूझने की कथा है। इस उपन्यास का कथ्य निर्विवाद रूप से स्त्री को दलित प्राणी बतलाता है। लेखिका ने प्राचीन रूढ़ियों और अंधविश्वासों के चलते स्त्री की शाश्वत व महाकाय वेदना का मर्मस्पर्शी साक्षात्कार करवाया है। इस उपन्यास में लेखिका ने संयुक्त परिवार में होने वाले बेटा-बेटी के भेद के कारण नारी के जन्म से ही रूढि के करण संघर्ष को व्यक्त करते हुए जगह-जगह बेटी को कमतरी याद दिलाने वाले प्रसंगों का प्रयोग किया है जैसे "बेटी की जात....जुबान काबू में राखें चाहिए।"[15] यह उपन्यास दहेज जैसी बीमारी के कारण लड़की के तबाह हुए जीवन एवं उस जीवन से होने वाले संघर्षों को व्यक्त करता है क्योंकि इस उपन्यास के एक पात्र उर्वशी की शादी उसके घरवाले उसकी सहेली के पिता से करना चाहते हैं क्योंकि उर्वशी के घर वालों के पास दहेज का पर्याप्त धन नहीं था, किंतु उर्वशी के भावात्मक घात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि जिस व्यक्ति को वह अब तक पिता के रूप में देखती आई थी उसे पति रूप में स्वीकार करना एक बड़ा भावात्मक तूफान था। वह कहती है "मर जाना मंजूर है लेकिन मीरा...मीरा के घर उसकी माँ.. नहीं वह साथ की सखी बचपन की गुइयाँ"[16] जबकि उसका भाई दहेज के पैसे बचाने के लिए उसकी बहन का विवाह बिना दहेज वर जो चार बच्चों का पिता है, से करना चाहता है। स्त्री के विधवा होने के कारण उसके अपने कैसे उसके दुश्मन हो जाते हैं वह भी इस उपन्यास में व्यक्त किया गया है। एक भाई किस तरह अपनी बहन को बेच देता है वह घटना लेखिका ने मार्मिक ढंग से व्यक्त की है। उर्वशी का भाई अजीत अपनी विधवा बहन को 10 बीघा जमीन के बदले बेच देता है और बेशर्मी से अपने कर्मों का बखान करता है एवं कहता है "कौन मुफत में कर दई विदा.... दस बीघा खेत अपने नाम लिखा लओ।"[17] इस खबर से उर्वशी का भाई बहन के रिश्ते पर घात से दिल टूट जाता है। वह यह सोच कर परेशान हो जाती है कि विधवा बहन भाई के लिए भेड़ बकरी हो गई। उर्वशी विलाप करते हुए कहती है "भेड़ बकरियों की तरह बेच गऔ कसाई। जैस कछु रिश्ता संबंध न होय बहन से।"[18] वहीं इस उपन्यास में एक माँ अपनी बेटी के भविष्य की चिंता मृत्यु शैया पर भी करती है। मीरा कहती है उसकी माँ (अम्मा) की इच्छा थी कि वह पढ़े। वह मरते समय मीरा के नाना से कहती है "काका जू हमें कौ को भरोसो नइयाँ है, तुम मीरा को झांसी में पढ़ईयो।"[19] यह भी स्त्री के संघर्ष का एक उदाहरण है जो वह मौत से कर रही है ताकि जीवित रहकर अपनी बेटी को पढ़ा सके। 2. इदन्नमम- यह उपन्यास 1996 में प्रकाशित हुआ। यह तीन पीढ़ियों की बेहद सजग व संवेदनशील कहानी है। इस उपन्यास में विंध्याचल से घिरे गाँव श्यामली और सोनपुरा की औरतों एवं वंचितों के संघर्षों को उकेरा गया है। यह उपन्यास ग्रामीण अनपढ़ अंगूठा टेक औरतों की कथा है जो सामंती समाज के हिंसक अंतर्विरोधी और दोहरे चरित्र को जानने समझने के साथ-साथ अन्य विकल्पों की तलाश में संघर्षरत है। इस उपन्यास में लेखिका ने अपनी कलम से यह बताया है कि नारी किसी भी उम्र की हो वह स्वयं के घर में ही असुरक्षित महसूस करती है। इस उपन्यास की नायिका मंदाकिनी के साथ ऐसा व्यक्ति कुकृत्य करता है जिसे वह मामा कहती है। उसका रक्षक ही उसका भक्षक बन जाता है। मंदाकिनी कुसुमा भाभी से कहती है "भाभी अब कहाँ..कहाँ जाएँ हम।"[20] और समाज पीड़ित एवं दु:खी लड़की का दुख कम करने के बजाय तरह-तरह के दंश देकर उसके जख्मों पर नमक छिड़कता है जैसा कि इस उपन्यास के पात्र कैलाश मास्टर ने मंदाकिनी का रिश्ता तुड़वा कर किया। "हमें तो बता गए हैं गिरगवा के कैलास मास्टर की सती सावित्री नहीं है वा सोनपुरा की मोंडी दरोगा अलग कर लो अपने लड़का को वासे।"[21] इसी उपन्यास में नायिका की माँ का केवल इसलिए बहिष्कार कर दिया जाता है क्योंकि वह विधवा होने पर भी रतन यादव के साथ दूसरी शादी करके चली जाती है। भारतीय समाज में बेटी की शिक्षा को उपेक्षित किया जाता है जिस कारण उसके आसपास व जानकार लोग ही उसे छल कर जाते हैं एवं वह छली गई स्त्री इसके विरुद्ध संघर्ष के लिए भी हाथ पैर मारती रह जाती है। जैसा कि इस उपन्यास में नायिका की नानी बऊ के साथ हुआ जिसमें एक अन्य पात्र गोविंद सिंह ने मुकदमे के कागजों में खेतों के कागज रखकर बऊ से हस्ताक्षर करवा लेता है। इसी उपन्यास के पात्र कुसुमा भी दबी व पति की इच्छा को सर्वोपरि मानने वाली रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष करते दिखाई देती है। वह इस धारणा को बदलना चाहती है कि केवल पुरुष ही अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरा विवाह कर सकता है। उसका पति यशपाल उसे त्याग का दूसरा विवाह कर लेता है तो कुसुमा भी दाऊ जू से अपना रिश्ता जोड़ लेती है। कुसुमा भाभी के इस कदम पर माधुरी छेड़ा लिखती है "दाऊजी के साथ कुसुमा भाभी के संबंध एक बहुत बड़ा कदम है करीब करीब क्रांतिकारी।[22] 3. अगनपाखी- यह उपन्यास लेखिका के स्मृतिदंश नामक उपन्यास का पुनः प्रस्तुतीकरण है। यह उपन्यास एक सामान्य परिवार में स्त्री की पीड़ा को व्यक्त करता है। इस कृति में स्त्री के शोषण, संघर्ष और साहस की कथा कही गई है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने न केवल पिसती और जूझती नारी के दर्द और विडंबनाओं को प्रस्तुत किया है बल्कि भारतीय समाज व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाया है। अगन पाखी की नायिका भुवन के पति की मृत्यु होने के पश्चात उसका जेठ उसकी संपत्ति पर अधिकार कर लेता है एवं उसे भी मृत घोषित कर देता है एवं एक विधवा को संघर्ष की कसौटी पर चढ़ा देता है। भुवन के साथ होने वाले अत्याचारों का सिलसिला उसके अपनों के द्वारा ही शुरू कर दिया कर दिया गया था जहाँ लेखिका ने एक स्त्री को अपने संबंधियों के हित के लिए स्व को होम करते प्रस्तुत किया है एवं अपनों की खुशी के लिए खुद को संघर्षों के तूफानों में सौपते प्रस्तुत किया है। भुवन का विवाह चनदर की नौकरी के बदले किया गया है। उसका विवाह उसके जीजा ने तय किया जो अपने लड़के की नौकरी लगवाना चाहते थे इसलिए अजय सिंह के पागल भाई से अपनी साली की शादी करवा देते हैं और उसका जीवन कठिनाइयों में धकेल देते हैं। भुवन का जेठ अजय सिंह कहता हैं "हमने किसी के साथ धोखा नहीं किया, बरुआसागर वालों के लड़के की नौकरी लगवाई है तब वे अपनी साली के ब्याह के लिए राजी हुए हैं।"इन सब का परिणाम भुवन के दुख व वैधव्य के रूप में सामने आया। किंतु भुवन इन अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाती है। किसी स्त्री का अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाना भी उसके संघर्ष का ही रूप है क्योंकि यहाँ वह अपनी परिस्थितियों से लड़ती है एवं उससे समझौता नहीं करती वरन् उसे अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करती है। तभी तो भुवन ने अपने ताकतवर जेठ के खिलाफ आवाज उठाने का साहस किया, जिसने उसे मृत घोषित किया था। उसकी बानगी भुवन के इस कथन से मिलती है कि "मैं भुवन मोहिनी पत्नी स्वर्गीय विजय सिंह वल्द स्वर्गीय दुर्जन सिंह, निवासी ग्राम विराटा, जिला झांसी यह दावा करती हूँ कि मैं अपने पति के हिस्से की चल अचल संपत्ति की हकदार हूँ। मुझे इत्तला मिली है कि मेरे पति के साथ मुझे भी मृतक दिखाया गया है और मेरे जेठ कुंवर अजय सिंह ने अपने अकेले का हक बरकरार रखा है क्योंकि स्वर्गीय विजय सिंह की कोई संतान नहीं थी। कचहरी से अर्ज है कि अपने पति की जायदाद का हक मुझे सौंपा जाए। मैं कुंवर अजय पाल सिंह की हकदारी का सख्त एतराज करती हूँ।" 4. अल्मा कबूतरी- यह उपन्यास खानाबदोश कबूतरा जनजाति के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है। ये जातियाँ अत्यधिक शोषण एवं अत्याचार की शिकार रही है। इस जनजाति के लोगों को "जन्मजात अपराधी" माना जाता है। 'मैला आंचल' और 'राग दरबारी' के बाद सामाजिक राजनीतिक विद्रूपताओं को सामने लाने वाला यह महत्वपूर्ण उपन्यास है। इस जनजाति की स्त्रियों की स्थिति अधिक दयनीय है। इनके संघर्षों को लेखिका की कलम ने ने उचित रीति से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस जनजाति की औरतों को गिरवी रखने एवं खरीद-फरोख्त करने की परंपरा है। चूंकि औरत भी मानवीय गुणों से युक्त होती है, उसकी भी भावनाएँ होती है। अतः वह स्वयं के साथ होने वाले इस मानवीय कृत्यों के प्रति संवेदनशील नहीं रह सकती। उसकी भावनाओं के उठे झंझावातों के साथ कबूतरी को संघर्ष करना पड़ता है। इस उपन्यास का एक पात्र केहरिसिंह औरतों को खरीदता एवं बेचता है "भैंसों के धंधे से औरतों के धंधे तक कामयाब केहर सिंह।" इस परंपरा को स्पष्ट करता कथन है। "अल्मा तू गिरवी धरी है, समझे रहना। भला। इसमें बुरा भी नहीं हम कबूतराओं में तो यह चलन रहा है - जेवर, गहना, बासन और बेटी मुसीबत में काम आते हैं। अब तू मेरी खरीदी हुई।" यह उपन्यास वेश्यावृत्ति के दंश को भी प्रस्तुत करता है। वेश्यावृत्ति में लिप्त स्त्री की अपनी पीड़ा एवं संघर्ष होते हैं। उसे वहाँ तक लाने वाला कोई न कोई पुरुष ही होता है कभी स्त्री किसी पुरुष के बहकावे में आकर अपना सब कुछ खो कर इस दलदल में उतरती है तो किसी को उसके अपने ही पैसों के अभाव में उसका सौदा कर देते हैं। उपन्यास की नायिका अल्मा को भी खरीद कर उससे उससे कर उससे उससे वेश्यावृत्ति करवाई जाती है। वह इस कार्य को करने से मना कर देती है तो उसके साथ जोर जबरदस्ती की जाती है। लेखिका ने वेश्या के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है। उन्होंने इसके मूल में शोषण को जिम्मेदार ठहराया है। लेखिका ने कबूतरा समाज की स्त्रियों के शोषण का मार्मिक चित्रण किया है। इनका शोषण सभ्य समाज के लोगों के द्वारा किया जाता है। इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है ये औरतें ऐसी जनजाति में पैदा हुई है कि इन्हें सभ्य समाज की बर्बरता, हैवानियत तार तार होकर भी सहनी पड़ती है। यही है इनकी किस्मत की असली तस्वीर। 5. चाक- इस उपन्यास में लेखिका ने समय चक्र के माध्यम से परिवर्तन को रेखांकित किया है। समय चक्र चाक के समान घूमता है एवं चाक के समान ही समय चक्र के घूमने से परिवर्तन होता है। उपन्यास का केंद्र अलीगढ़ जिले का अतरपुर गांव है। यह उपन्यास मर्यादा और रीति-रिवाजों, नियमों का विरोध करता है जो स्त्रियों की उपेक्षा करते हैं। यह उपन्यास हमारे सामाजिक जीवन का एक तरह से बारहमासा है क्योंकि इसमें साल के बारह महीने ही उनके त्योहार है। संयुक्त परिवार परंपराओं की नींव है किंतु पुराने समय में संयुक्त परिवारों में नारी की स्थिति दयनीय थी। उसे कुछ अधिकार प्राप्त नहीं थे। वह पति से भी मिलने को तरसती थी। इस उपन्यास में बड़ी बहू कहती है "मेरी रजा पूछने वाला कौन थारी ? दूसरों के अहंकार उनके फरमान ही हमारे हाथों की लकीर बन गए। माना जमाना ज्यादा नहीं बदला पर पर तुम सबसे ज्यादा बंधेलुआ थे। चूँ तक नहीं कर सकते थे। मालिक का मुंह तक नहीं देखने को मिलता था। जिसकी संतान के वजन कोख में लादे रहते थे उसे दुख तकलीफ सुनाने के हकदार नहीं थे। जो दो चार घड़ी घड़ी रात मिलती उनमें अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाए तो मालिक के लिए ना गांव में औरतों की कमी थी ना शहर में बेड़नियों का टोटा।" संयुक्त परिवार में नारी आजीवन सेवा के बाद भी मुक्त नहीं हो पाती घर की बड़ी बूढ़ी औरतें सदा उस पर रोब जमाए रखती और जब वह स्त्री खुद बड़ी हो जाती तब वह भी अपनी बहुओं पर रोब जमाती क्योंकि जो जैसा पाता है वही देने का प्रयास करता है। लेखिका के अनुसार संयुक्त परिवार परंपरा भी स्त्री के संघर्ष के लिए उत्तरदायी है। इस उपन्यास के पात्र भी दहेज की त्रासदी से मुक्त नहीं है। उपन्यास की पात्र गुलकंदी बिसुनदेवा से अंतरजातीय विवाह कर लेती है जिससे दहेज की समस्या का समाधान होता है किंतु समाज इसे भी स्वीकार्य नहीं मेरे में तो आ रहा है मोबाइल से देखोकरता और दोनों को घर में आग लगा कर जिंदा जला दिया जाता है। "लेकिन ये दो लाशें गांव पर भारी पड़ रही थी। गांव के रीति-रिवाज को ललकारने चली थी। एक दहेज को अंगूठा दिखाते हुए, दूसरी अपनी इच्छा से जीने के लिए मंजिल की ओर बढ़ गई। चलो खेल खत्म हुआ।" मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में नारी जीवन के विविध में विधवा के संघर्षों को भी स्थान दिया है। इस उपन्यास में भी रेशम नामक पात्र के माध्यम से विधवा के संघर्षों को बताया गया है। "रेशम विधवा थी जमाने के लिए, रीति रिवाजों के लिए, शास्त्र पुराणों के चलते घर और गांव के लिए। विधवा सिर्फ विधवा होती है, वह औरत नहीं रहती फिर।" रेशम ने इस परंपरा का विरोध करते हुए वैधव्य में गर्भ धारण कर लिया किंतु एक रात उसे दुनिया से विदा कर दिया गया। मैत्रेयी पुष्पा जी ने इस उपन्यास में समाज की दूषित मानसिकता पर भी चोट की है। जहाँ निसंतान होने का दंश भी औरत की योनि में आकर में आकर की योनि में आकर में आकर गिरता है। इसकी बानगी इस प्रश्न से मिलती है जहाँ बनिया की बहू अपना दुख व्यक्त करते कहती है कि मेरे सास ससुर अपने बेटे का दूसरा विवाह करने पर आतुर है। आदमी कहता है कि स्त्री वंशवेल नहीं चलाएगी तो तुझे हम चाटेंगे धर कर ? वह कहती है जिस पेड़ पर फल नहीं लगते उसे काट कर कर कर आग में झोंक दिया जाता है।" लेखिका ने नारी जीवन की विवशता और निरीहता का चित्रण किस उपन्यास में बखूबी प्रस्तुत किया है। उसके संघर्षों को अपने शब्द देने का प्रयास किया है। इस तरह का एक संघर्ष है स्वयं को पशुओं के भाँति क्रय-विक्रय होने से रोकना। स्त्री की यह विवशता है कि जो आदमी कुछ कमाता नहीं है, उसे स्त्री खरीद कर दी जाती है। लेखिका उपन्यास में साधन जी के पुत्रों का परिचय देती हुई कहती है कि थानसिंह का ब्याह इसलिए क्योंकि वह मास्टर था। करमवीर का ब्याह इसलिए हुआ कि वह फौज में था। सबसे बड़े बेटे नत्था का ब्याह एक उम्र होने तक भी नहीं हुआ क्योंकि वह कुछ स्थाई धंधा नहीं करता था। अतः उसके लिए लड़की खरीदी गई। लड़की के भाई ने ही उसे बेचा था। वह भी ऐसे आदमी को जो उससे उम्र में दुगुना था। लेखिका शब्दों के माध्यम से संघर्ष का चित्र तैयार करती है। वह एक मानवीय मन को झकझोरने के लिए पर्याप्त है। नारी के प्रति घरेलू हिंसा भी नारी जीवन की समस्या है। इस उपन्यास में पढ़ा लिखा युवक रंजीत भी अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है। 6. झूला नट- इस उपन्यास में भी लेखिका ने नारी संघर्ष को मुखर होकर प्रस्तुत किया है। यह सर्वविदित है कि सामान्य रूप से नारी का प्रमुख स्थल घर ही है, उसकी समस्याओं-संघर्षों का प्रारंभ घर से ही होता है। इन संघर्षों में देवरानी जेठानी और सास बहू के पारस्परिक संघर्ष भी सम्मिलित है। इस उपन्यास की नायिका शीलो की सास सास उससे दुर्व्यवहार करती है क्योंकि वह कुरूप है और इस कारण उनका पुत्र सुमेर शहर में जाकर बस गया। लेखिका ने इस उपन्यास की नायिका शीलो को समाज की कुबुलित प्रथाओं का विरोध करने का साहस करते प्रस्तुत किया है। वह बछिया प्रथा का विरोध करते हुए समाज को खाना खिलाने से मना कर देती है। "न। बछिया मछिया कुछ नहीं।" वह अपनी सास से कहती है कि सात फेरे लेकर अग्नि को साक्षी मान बारातियों के आगे वचन भर कर जो उसे ब्याह कर लाया वही उसे छोड़कर शहर में दूसरा ब्याह कर लेता है। तब इस अछिया बछिया का क्या विश्वास करूँ? झूला नट की निडर बहू शीलो निडर बहू शीलो की निडर बहू शीलो निडर बहू शीलो शीलो स्वयं के साथ होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष करती है एवं स्वयं के जीवन सम्मान की रक्षा करती प्रतीत होती है। 7. विजन- अपने अधिकांश उपन्यासों में लेखिका ने ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग की स्त्रियों के संघर्ष की आवाज मुखरित की है किंतु इस उपन्यास में उन्होंने एक पढ़ी लिखी डॉक्टर स्त्री को प्रस्तुत किया है। ये संघर्ष कहीं भी ग्रामीणों स्त्रियों के संघर्ष से कम नहीं है। इस उपन्यास की नायिका बाँझ होने का दर्द झेलती है, उसे लोग प्रताड़ित करते हैं। स्त्री को विवाह के बाद बहू का नाम मिलता है, इस उपन्यास में एक महिला पात्र के मुख से लेखिका कहलवाती है की बहू का मतलब वंश बढ़ाने वाली माता। माता नहीं बनी तो बहू किस बात की ? निस्संतान स्त्री को तो कानून भी तलाक देने की इजाजत देता है। लेखिका के अनुसार स्त्री को सन्तानोतपत्ति करने की मशीन मानकर उसे अस्तित्वहीन करना भी एक समस्या है। नारी के प्रति घरेलू हिंसा भी नारी जीवन की एक समस्या है। इस उपन्यास की नायिका डॉ आभा का पति डॉ मुकुल जो योग्य एवं प्रतिभाशाली है, अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है। इस उपन्यास में लेखिका यह स्पष्ट करना चाहती है कि आधुनिक समाज में नारी पुरुष द्वारा किस प्रकार शोषित होती है और परिणामस्वरूप उसकी मानसिक स्थिति कैसी हो जाती है। इस उपन्यास में राजकुमार कहता है कि "औरतें बेचारी! पलकों पर आंसुओं की फसल उगी रहती है। कमजोर दिल की मालकिन! पहले के जमाने में घर के भीतर रोया करती थी। अब देख लो कि ऑफिसों में, दफ्तरों में, स्कूलों में, अस्पतालों में रोया करती है।" इसका कारण बताते हुए लेखिका कहती है कि पुरुष अभी भी अहंकार एवं प्रभत्व की अपनी परम्परागत प्रवृति से मुक्त नहीं हो पाया है। इस उपन्यास की नायिका आभा अपने पति द्वारा दी गई यातना को उसे तलाक देकर समाप्त करती है। वह अपने पति को लिखती है "तुम कह सकते हो हमारे मुल्क में पति अपनी पत्नी को पीट देता है तो नया क्या है? मानती हूँ? तमाम स्त्रियाँ मार खाती हुई जीवन यापन करती है, मगर न तो तुम उन पतियों जैसे जाहिल थे, न ही मैं उन पत्नियों जैसी लाचार हूँ मैं तुम्हारे इस खूंखार पुरुषत्व को नहीं झेल पाई।" इस उपन्यास में भी नायिका संघर्षों के झंझावातों को झेलते हुए स्वयं को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए प्रयासरत प्रतीत होती है।
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निष्कर्ष
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मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सभी प्रकार के संघर्षों को स्थान मिला परंतु प्रधानता नारी संघर्ष की है। जिसका उद्देश्य सकारात्मक सोच एवं साधनों द्वारा सभ्य समाज का निर्माण करना है। समाज को सही दिशा निर्देशित करता है। |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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1. जे.पी.गिलफोर्ट psychology, p-144
2. आचार्यनन्ददुलारेवाजपेयी, आधुनिकसाहित्य, पृ.456
3. मैत्रेयीपुष्पा, चिह्नार, बेटीपृ-21
4. मैत्रेयीपुष्पा, खुलीखिडकियाँ, पृ-54
5. मैत्रेयीपुष्पा, सुनोमालिकसुनो, पृ-69
6. मैत्रेयीपुष्पा, चिह्नार, मैंसोचतीहूँकि, पृ-143
7. विरेन्द्रयादव, ठहरेनारीसमयमेंप्रतिरोधकीदस्तक, हस, सितम्बर 1998,पृ-96
8. मैत्रेयीपुष्पा,रिजक,पृ-19
9. मैत्रेयीपुष्पा, ललमनियाँ,पगलागईहैभागवती, पृ-24
10. मैत्रेयीपुष्पा, गोमाहंसतीहैं, पृ-99
11. मैत्रेयीपुष्पा, सुनोमालिकसुनो, पृ-24
12. मैत्रेयीपुष्पा, खुलीखिडकियाँ, पृ, -182
13. ज्ञान प्रकाश विवेक,स्त्रियों कात्रासदसंसार, जन सत्ता, नवम्बर-1998
14. मैत्रेयीपुष्पा, बेतवाबहतीरही, पृ-83
15. मैत्रेयीपुष्पा, बेतवाबहतीरही, पृ-113
16. मैत्रेयीपुष्पा, बेतवाबहतीरही, पृ-122
17. मैत्रेयीपुष्पा, बेतवाबहतीरही, पृ-123
18. मैत्रेयीपुष्पा, बेतवाबहतीरही, पृ-15
19. मैत्रेयीपुष्पा, इदन्नमम्, पृ-94
20. मैत्रेयीपुष्पा, इदन्नमम्, पृ-140
21. डॉ.माधुरीछेडा, इदन्नमम्, नईजमीनकीतलाश, नारीकारचनासंसार, एकदुनियाँकोणांतर, पृ-104
22. मैत्रेयीपुष्पा, अगनपाखी
23. मैत्रेयीपुष्पा, अल्माकबूतरी
24. मैत्रेयीपुष्पा, चाक
25. मैत्रेयीपुष्पा, झूलानट
26. मैत्रेयीपुष्पा, विजन |