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हिंदी आलोचना और परंपरा | |||||||
Hindi Criticism and Tradition | |||||||
Paper Id :
17015 Submission Date :
2023-01-04 Acceptance Date :
2023-01-22 Publication Date :
2023-01-25
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सारांश |
हिंदी आलोचना की परंपरा और उसकी विकास का अध्ययन करने पर हम पाते हैं की आलोचना का प्रारंभिक आभास हमें रीतिकाल में दिखाई देने लगता है। विशेष तौर पर काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ तथा रस, छन्द अलंकार आदि। काव्यवर्गों पर आधारित थी। इस आलोचना का वास्तविक जन्म भारतेंदु युग से माना जाना चाहिए। इस काल की आलोचना प्रमुख रूप से पुस्तकीय आलोचना थी ,बाद में द्विवेदी युग में आलोचना का व्यापक विकास हुआ, इस काल की आलोचना सैद्धांतिक, व्यावहारिक, तुलनात्मक आदि पद्धतियों पर आधारित थी। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने जिस आलोचना की परंपरा को जन्म दिया और द्विवेदी युग में जिस का विकास हुआ। उसकी चरमावस्था शुक्ल युग में प्राप्त होती है। इस युग में आलोचना का वैज्ञानिक मौलिक वस्तुवादी दृष्टिकोण विकसित हुआ। शुक्लजी के बाद इसकी मान्यताओं को लेकर विकसित हुई तथा कविता केंद्रित आलोचना, उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध आदि विधवाओं को लेकर आगे बढ़ी। इसके बाद समकालीन युग अनेक प्रकार के वाद विवादों, विचारधाराओं और रचनाशीलता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस काल में आलोचना और आलोचनात्मक प्रतियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इन सब क्रिया प्रतिक्रियाओं से गुजरते हुए आज हिंदी आलोचना लगातार नवीन ऊंचाइयों की ओर बढ़ रही है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | On studying the tradition of Hindi criticism and its development, we find that we can see the initial impression of criticism in Ritikaal. Specially poetic texts and rasa, chhanda alankar etc. It was based on poems. The real birth of this criticism should be considered from the Bharatendu era. Criticism of this period was mainly book criticism, later there was a widespread development of criticism in the Dwivedi era, the criticism of this period was based on theoretical, practical, comparative etc. methods. The one which was developed in its peak state is attained in Shukla Yuga. In this era, the scientific fundamentalist approach of criticism developed. After Shuklaji, it developed with its beliefs and poetry focused criticism, novel, story, drama, essay etc. moved forward with widows. After this, the contemporary era is considered important from the point of view of many types of debates, ideologies and creativity. There was an unprecedented increase in criticism and critical copies during this period. Going through all these actions and reactions, today Hindi criticism is continuously moving towards new heights. | ||||||
मुख्य शब्द | आलोचना, समीक्षा, अनुसंधान, साहित्य, ललित कला, परंपरा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Criticism, Review, Research, Literature, Fine Arts, Tradition. | ||||||
प्रस्तावना |
हिंदी आलोचना हिंदी साहित्य की एक सशक्त और समृद्ध महत्वपूर्ण विधा है। आलोचना का कर्तव्य साहित्यिक रचना की विश्लेषण परक विश्लेषण करना है। रचनाकार जीवन और अनुभव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य की रचना करता है,आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी रचना की निंदा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। साहित्य में जहाँ राग तत्व की प्रधानता है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व की प्रधानता होती है।आलोचना का अर्थआलोचना करने से है।
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अध्ययन का उद्देश्य | हिंदी आलोचना हिंदी साहित्य की एक सशक्त और समृद्ध महत्वपूर्ण विधा है। आलोचना का कर्तव्य साहित्यिक रचना की विश्लेषण परक विश्लेषण करना है। रचनाकार जीवन और अनुभव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य की रचना करता है,आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। |
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साहित्यावलोकन | हिंदी आलोचना और परंपरा पर विपुल शोध कार्य हुआ है ।अनेक शोध- पत्र लिखे गए हैं। साहित्य समीक्षा के अंतर्गत विभिन्न शोधों एवं पुस्तकों का अध्ययन किया गया।जिनमें हिंदी साहित्य में आलोचना और परंपरा, उसक स्वरूप ,विकास के संदर्भ विमर्श समाहित है। इनके अध्ययनों से अपने शोध -पत्र का कार्य आगे बढ़ाने में सहायता मिली ।इनमें डॉ अमरनाथ( 2018) का हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावलीएवंगुलाब सिंह के शोध- पत्र ‘डॉ विश्वनाथ तिवारी के काव्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन’ के शोध- पत्र से हिंदी आलोचना और परंपरा शोध पत्र लिखने में सहायता मिली। श्यामसुन्दर दास (2017) का साहित्यावलोकन से’ हिंदी आलोचना और परंपरा’ के अध्ययन में सहायता मिली। नंदकिशोर नवल के हिंदी आलोचना का विकास (2015) से ‘हिंदी आलोचना और परंपरा’ के इतिहास के विषय में विपुल एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त की है। |
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मुख्य पाठ |
आलोचना शब्द लुच् धातु से बना है। जिसकी उत्पत्ति इस प्रकार से मानी गई है- आ+लोच्+ल्युट्(अन्) =आलोचना अथवा। आ + लोच्+अन्+ आ =आलोचना। “लुच् या लोच् का अर्थ होता है देखना अर्थात किसी कृतिया वस्तु की सम्यक व्याख्या, उसका मूल्यांकन करना आदि करना की आलोचना है।“[1] अंग्रेजी के क्रिटिसिज्म (Criticism) शब्द के समानार्थी रूप मेंभी आलोचना का व्यवहार होता है। आलोचक किसी लेखक या कृति की रचना या कृति को परखता या देखता है। आलोचक किसी कृति या वस्तु में गुण दोषों की परख करने से लिया जाता है। इसमें अच्छाई और बुराई दोनों को समान रूप से महत्व देते हुए प्रकाश डाला जाता है। विभिन्न विद्वानों ने आलोचना पर प्रकाश डाला है। रामेश्वर लाल खंडेलवाल के अनुसार– “आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापना है।“[2] श्यामसुन्दर दास आलोचना के विषय में कहते हैं कि- “यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या माने तो आलोचना को उस व्याख्या की बच्चा मानना पड़ेगा।“[3] पदम सिंह शर्मा आलोचना पर विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि “स्थायी आलोचना वही होती है जिसमें कवि की विचारधारा में डूबकर उसकी विशेषताओं का दिग्दर्शन तथा उसकी अन्तर्वृतियों की छानवीन होती है।“[4] एनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार- “साहित्यिक या ललित कलाओं में एक सुंदर विषय के गुणों एवं मूल्यों का निर्माण करने की कला ही समीक्षा है। इसमें निर्णय की निर्मिती तथा अभिव्यक्ति निहित है। नामवर सिंह के अनुसार आलोचना-“आलोचना का एक काम है- इतिहास का, परंपरा का मर्म समझना समझाना और उसे आगे की पीढ़ियों के बीच जीवित रखना।“[6] दूसरी जगह नामवर सिंह लिखते हैं कि- “लोचना एक रचनात्मक कर्म है, यह दोयम दर्जे का कर्म नहीं है। यदि आप में सृजनात्मकता नहीं है तो आप आलोचना नहीं कर सकते।“[7] आलोचना को समालोचना या समीक्षा के अर्थ में भी प्रयोग किया जाता रहा है। साहित्यिक कृति या रचना का अच्छी प्रकार परीक्षण और विश्लेषण करना ही समालोचना कहलाता है। उसी प्रकार समीक्षा का अर्थ है किसी कृतियारचना को अच्छी प्रकार देखना उसकी जांच करना। हिंदी आलोचना और उसकी परंपरा की बात करें तो हिंदी आलोचना का एक समृद्ध और सशक्त इतिहास रहा है। हिंदी साहित्य की अन्य विविध विधाओंकी तरह आलोचना का विकास आधुनिक काल से माना जाना चाहिए, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय आचार्य काव्य सौंदर्य के विधायक तत्व का निरुपा ना नहीं करते थे। भारतीय आचार्यों ने काव्य सौंदर्य के विधायक तत्वों को परिभाषित करने के लिए स्वतंत्र सिद्धांत ग्रंथों की रचना की थी, जिसमें रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, औचित्य और ध्वनि सिद्धांतों की मीमांसा करते हुए काव्य के बाहरी और आंतरिक सौंदर्य पर प्रकाश डाला था। उनके द्वारा स्थापित की गई मान्यताएँ आज भी प्रासंगिक हैं। आधुनिक काल में हिंदी आलोचना का प्रारंभ मानने का कारण है की हिंदी साहित्य के विद्वानों ने किसी कृतिया कवि के महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्रबंध या निबंध लिखने का प्रारंभ आधुनिक काल से माना जाता है और हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का प्रारंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। इसलिए हम अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हिंदी आलोचना के स्वरूप को इसी युग से प्रारंभ मानते हैं- 1- रीतिकालीन आलोचना- हिंदी आलोचना की शुरुआत हमें रीतिकाल में दिखाई देने लगती है, इस समय छन्द, अलंकार,रस आदि विषयों पर इस काल की आलोचना का श्रेय इस काल के कवि, आचार्य को जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल की आलोचना पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि-“ इस एकीकरण (आचार्यतत्व और कवित्व) का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। आचार्य तत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचन और पर्यालोचन शक्ति की अपेक्षा होती है उसका विकास नहीं हुआ। जो कुछ लिखा जाता था वह पद्य में ही लिखा जाता था। पद्य में किसी बात की सम्यक मीमांसा या उस पर तर्क वितर्क नहीं हो सकता। इस अवस्था में चंद्रलोक की यह पद्धति ही सुगम दिखाई पड़ी कि एक श्लोक या एक चरण में ही लक्षण कहकर छुट्टी ली।“[8] कहने का तात्पर्य है कि इस काल की आलोचना हिंदी साहित्य के भंडार में कोई वृद्धि नहीं कर सकी परन्तु उसने आगे के लिए आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया। 2 भारतेन्दु युगीन आलोचना- आलोचना का वास्तव में प्रारंभभारतेन्दु युग से ही माना जाना चाहिए। भारतेन्दु हरीशचंद्र ने नाटक नामक लम्बा सैद्धांतिक निबंध लिख कर हिंदी आलोचना का प्रारंभ किया था, बाद में पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप में,बद्री नारायण चौधरी प्रेमघन ने आनंद कादम्बिनी में, लाला श्रीनिवास दास ने संयोगिता स्वयंवर की समालोचना लिखकर इस परंपरा को गति प्रदान की। इस काल केरचनाकारों में भारतेंदु हरीशचंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बद्री नारायण चौधरी, राधाचरण गोस्वामी, अम्बिका दत्त ब्यास आदि प्रमुख थे। व्यावहारिक आलोचना का प्रारंभ हम बालकृष्ण भट्ट और प्रेमघन से मानते है। आलोचना में हिंदी की पत्र पत्रिकाओं का भी विशेष योगदान है- हरिशचन्द्र चंद्रिका, हिंदी प्रदीप, आनंदकादंबिनी आदि का योगदान प्रमुख है। प्रारंभ में यह केवल पुस्तक समीक्षा मात्र थी किंतु इसी से आलोचना की शुरुआत हुई। इस काल की आलोचना या पुस्तक समीक्षा कृति की सामाजिक सार्थकता को बढ़ाती रही है। यहां रचनाकार पाठक और आलोचक के बीच सामंजस्य का भाव उत्पन्न करती है। वस्तुः इस काल में आलोचना में कोई व्यवस्था नहीं मिलती है, उनके विचारों में प्रौढता भी नहीं मिलती है। यह आलोचना का शैशव काल था। 3 द्विवेदी युगीन आलोचना- हिंदी आलोचना के इतिहास में महावीरप्रसाद द्विवेदी का आलोचक के रूप में महत्वपूर्ण स्थान है। वे उपयोगितावादी समीक्षक हैं। वे आलोचना में नैतिकता या नैतिक मूल्यों को सबसे ऊपर रखते हैं, कहने का तात्पर्य है नैतिकता, यथार्थ और रस दृष्टि द्विवेदी जी की समीक्षा के मूल आधार स्तंभ हैं। उन्होंने इस परंपरा से जोड़कर समसामयिकता के प्रकाश में अनेक सिद्धान्तों ज्ञान विज्ञान, प्राचीन साहित्य के आलोचनात्मक मानदंडो और संदर्भों की चर्चा की है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस काल में गद्य पद्य की एक भाषा की। उन्होंनेभाषा संबंधी त्रुटियों को भी दूर किया। हिंदी आलोचना किस क्षेत्र में द्विवेदी जी के महत्व को स्वीकार करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि- “यदि इस द्विवेदी जीन उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित व्याकरण विरुद्ध और ऊंट पटांग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी उसकी परंपरा न रुकतीं”।[9] महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से इस काल कीसमीक्षा पद्धति में स्थिरता लायी। इस काल में आलोचना में आलोच्य कृतिका परिचय, उसकी निंदा या प्रशंसा कृति के संबंध में स्वतंत्र लेख आदि महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखी गई। इस युग में पाश्चात समीक्षा की आलोचनात्मक कृतियों के कुछ अनुवाद भी कियेगए। इनसे आगे चल कर हिंदी की वैज्ञानिक आलोचना का भव्य निर्माण हो सका। इस युग के आलोचकों के में प्रमुख हैं- महावीरप्रसाद द्विवेदी, पदम सिंह शर्मा, कृष्ण बिहारी मिश्र, मिश्रबंधु बालमुकुंद गुप्त, बाबू श्यामसुन्दर दास, लाला भगवानदीन आदि प्रमुख हैं। इस काल में महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा रक्षित विक्रमांकदेवचरित, कालदास की निरंकुशता, कृष्ण बिहारी मिश्र द्वारा रचित देव और बिहारी, लाला भगवानदीन कृत बिहारी और देव, मिश्रबंधु द्वारा रचित हिंदी नवरत्न और बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा रचित साहित्यालोचन कृति हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अपना विशेष महत्त्व रखती है। इस काल में विभिन्न रूपों की समीक्षा पद्धति का विकास हमे देखने को मिलता है। संस्कृत की काव्य शास्त्रीय प्रणाली, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक समीक्षा, पुस्तकीय या परिचयात्मक समीक्षा ,व्याख्यात्मक समीक्षा, तुलनात्मक समीक्षा ,सैद्धांतिक समीक्षा,मूल्यांकनपरक समीक्षा आदि। महावीरप्रसाद द्विवेदी युग में आलोचना का गंभीर स्थिर और शास्त्रीय रूप तो नहीं निखरा किंतु उनकी कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पद्धतियां अवश्य ही विकसित हो गयी। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भारतेन्दु की समीक्षा को आगे बढ़ाने का काम हिंदी आलोचना के क्षेत्र में महावीरप्रसाद द्विवेदी युग ने किया और महावीरप्रसाद द्विवेदी स्वयं इस युग के प्रमुख आलोचक स्तंभ रहे हैं। 4 -शुक्ल युगीन आलोचना- भारतेंदु युग के आलोचकों ने आलोचना की जिंस परंपरा का का सूत्रपात किया था और महावीरप्रसाद द्विवेदी ने जिसका विकास किया था, उसकी उत्तम परिणति आचार्य शुक्ल की आलोचना में हुई है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आलोचना में ऐतिहासिक, व्याख्यात्मक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आलोचना प्रणाली का सूत्रपात किया।उन्होंने नवीन और प्राचीन काव्य सिद्धांतों में समन्वय स्थापित कर नए सिद्धांत दिए। शुक्लजी ने अपनी स्वयं की पसंद और नापसंद, गुणदोष आधारित आलोचना को दरकिनार करके साहित्य के वस्तुवादी दृष्टिकोण का विकास किया। शुक्लजी ने हिंदी साहित्य का इतिहास और चिंतामणी के निबंध के साथ ही तुलसीदास, जायसी, सूरदास के व्यवस्थित मूल्यांकन की प्रक्रिया को प्रतिमान के रूप में स्थापित किया। शुक्लजी ने कवि या लेखक की अंतर्वृति का सूक्ष्म, गहन अध्ययन किया। लोकमंगल की सिद्धावस्था, साधारणीकरण, हृदय की मुक्तावस्था आदि की स्थापना साहित्यिक समीक्षा के आधार पर की।शुक्ल जी की आलोचना की भाषा जितनी शास्त्रीय है उतनी ही व्यावहारिक भी थी। उन्होंने अपने अनुभव और विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए एक नई भाषा का चयन किया। उनकी भाषा साहित्यिक, गम्भीर विवेचन, विरोधी विचारधाराओं पर सीधा आक्रमण करने वाली और हास्य व्यंग्य से युक्त थी। “उत्तर द्विवेदी काल एक तरह से आलोचना साहित्य का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आधार स्तंभ के रूप में आते हैं।“[10] इस काल में आलोचना करने वाले कृष्ण शंकर शुक्ल, जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, विश्वनाथ प्रसाद मिश्रा, बाबू गुलाबराय, केशरी नारायण शुक्ल, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, आचार्य चंद्रबली पांडे, विनय मोहन शर्मा, पदुमलाल पुन्नालाल और डॉ सत्येंद्र प्रमुख हैं जो शुक्लजी की आलोचना दृष्टि का ही विस्तार कर रहे थे। कहने का तात्पर्य यह है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा पद्धति अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हुई और उसकी एक परंपरा चल पड़ी उसके बाद के आलोचकों ने रामचन्द्र शुक्ल कि मौलिक विचार और आलोचना को आधार बनाकर अपने ढंग से विकास करते रहे हैं। 5- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद की आलोचना- आलोचना में रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना के साथ ही उनकी मान्यताओं के साथ टकराहट होने लगी। उस समय के कवि सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्य कांत त्रिपाठी जैसे छायावादी काव्य रचना के साथ ही छायावाद के संदर्भ में शुक्लजी की मान्यताओं और प्राचीन शास्त्रवादी साहित्यिक मूल्यों का प्रतिवाद करते हुए छायावादी काव्य रचना को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान की इन कवियों ने या आलोचकों ने छायावादी साहित्य की भाषा, यथार्थ निरूपण, छंद मुक्ति अर्थ मीमांसा और शिल्प बोध आदि के नए साहित्यशास्त्र द्वारा काव्य बोध कराने का मार्ग प्रशस्त किया। इस विषय में नन्ददुलारे वाजपेयी जी ने कहा है- शुक्ल जी की अपेक्षा नई समीक्षा में शाहित्य के ऐतिहासिक विकास और सामाजिक प्रेरणा शक्तियो शैली भेदो और कला स्वरूपों की परख अधिक व्यापक और मार्मिक है। इसमें संदेह नहीं शुक्लजी की नैतिक और बौद्धिक दृष्टि की अपेक्षा नए समीक्षकों की सौंदर्य अनुभूति और कला प्रधान दृष्टि एक निश्चित प्रगति है।[11] हिंदी आलोचना को इस युग में आगे बढ़ाने वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी, नन्द दुलारे वाजपेयी और डॉ नगेंद्र का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। ये सभी आलोचक विभिन्न विषयों पर शुक्ल जी के विचारों से सहमत नहीं होते हैं। जहाँ नन्ददुलारे वाजपेयी जी का मतभेद छायावादी काव्य को लेकरथा उनकी मान्यता थी कि छायावाद को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण को साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना है। इनकी आलोचनात्मक कृतियों में हिंदी साहित्य बींसवीं शताब्दी, सुमित्रानंदन पंत ,नया साहित्य नए प्रश्न, प्रेमचंद एक साहित्यिक विवेचन, आधुनिक साहित्य सृजन और समीक्षा। हजारी प्रसाद द्विवेदी का शुक्लजी से मतभेदइतिहास बोध को लेकर था। उन्होंने हिंदी साहित्य को एक समवेत भारतीय चिंतन के स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रयास किया। उनका दृष्टिकोण मानवतावादी था। जो शुक्ल जी के लोकमंगल से समानता रखता है। उनकी कृतियाँ हिंदी साहित्य की भूमिका, इस हिंदी साहित्य का आदिकाल, सूरसाहित्य- कबीर, हिंदी साहित्य का इतिहास आदि। डॉ नागेंद्र ने मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या की और शास्त्र विवेचन करते हुए भारतीय और पश्चात्य काव्य शास्त्र के सिद्धांतों की तुलना कर दोनों के बीच समान तत्वों की खोज की है। उनकी प्रमुख प्रतियों में अनुसंधान और आलोचना, नई समीक्षा नई संदर्भ, रस सिद्धांत, आलोचक की आस्था, आधुनिक कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं। इस काल में मार्क्सवादी मनोवैज्ञानिक, शैली वैज्ञानिक, नई आलोचना जैसी नवीन पद्धतियों का विकास हुआ। कार्लमार्क्स के सिद्धांतों को लेकर शिवदान सिंह चौहान, रांगेय राघव, राम बिलास शर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, नेमीचंद जैन और मुक्तिबोध प्रमुख थे। मनोवैज्ञानिक आलोचना करने वालों में इलाचंद्र जोशी, डॉ देवराज आदि प्रमुख थे। इसके बाद आलोचना में रूपवादी, शैली विज्ञान, संरचनावादी और नई आलोचना जैसी पद्धतियों का विकास हुआ। |
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निष्कर्ष |
हिंदी आलोचना की परंपरा और उसकी विकास का अध्ययन करने पर हम पाते हैं की आलोचना का प्रारंभिक आभास हमें रीतिकाल में दिखाई देने लगता है। विशेष तौर पर काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ तथा रस, छन्द अलंकार आदि। काव्ययगों पर आधारित थी। इस आलोचना का वास्तविक जन्म भारतेंदु युग से माना जाना चाहिए। इस काल की आलोचना प्रमुख रूप से पुस्तकीय आलोचना थी, बाद में द्विवेदी युग में आलोचना का व्यापक विकास हुआ, इस काल की आलोचना सैद्धांतिक, व्यावहारिक, तुलनात्मक आदि पद्धतियों पर आधारित थी। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने जिस आलोचना की परंपरा को जन्म दिया और द्विवेदी युग में जिस का विकास हुआ। उसकी चरमावस्था शुक्ल युग में प्राप्त होती है। इस युग में आलोचना का वैज्ञानिक मौलिक वस्तुवादी दृष्टिकोण विकसित हुआ। शुक्लजी के बाद इसकी मान्यताओं को लेकर विकसित हुई तथा कविता केंद्रित आलोचना, उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध आदि विधवाओं को लेकर आगे बढ़ी। इसके बाद समकालीन युग अनेक प्रकार के वाद विवादों, विचारधाराओं और रचनाशीलता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। इस काल में आलोचना और आलोचनात्मक प्रतियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इन सब क्रिया प्रतिक्रियाओं से गुजरते हुए आज हिंदी आलोचना लगातार नवीन ऊंचाइयों की ओर बढ़ रही है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. हिंदी साहित्य कोश, ज्ञानमण्डल, वाराणसी 2011
2. हिंदी आलोचना के आधार स्तंभ’ रामेश्वरलाल खण्डेलवाल, सुरेश चंद्रगुप्त लोकभारती, प्रकाशन इलाहाबाद,पृ संख्या 13
3. साहित्यालोचन ,श्यामसुन्दर दास ,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली पृष्ठ संख्या 175
4. मतीराम ग्रंथावली’ पदम सिंह शर्मा ,तृतीयावृत्ति 1901 पृष्ठ संख्या 19
5. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका ,भाग 6 द रिवरसाइड पब्लिशिंग कंपनी, शिकागो यू एस ए पृ संख्या 727
6. आलोचना और विचारधारा, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 143
7. आलोचना और विचारधारा ,नामवर सिंह ,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ,पृ संख्या 150
8. हिंदी साहित्य का इतिहास ,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मालिक एंड कंपनी, जयपुर पृ संख्या 234
9. हिंदी साहित्य का इतिहास ,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मलिक एंड कंपनी ,जयपुर 2014, पृ संख्या 349
10. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र,डॉअर्चना श्रीवास्तव, विश्वविद्यालय प्रकाशन ,नई दिल्ली पृष्ठ संख्या 152
11. आधुनिक साहित्य, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, भारत भंडार, इलाहाबाद पृ संख्या 84-85 |