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हिंदी की प्रमुख लेखिकाओं की नारी | |||||||
Woman of Femous Femals Writers of Hindi | |||||||
Paper Id :
17012 Submission Date :
2023-01-14 Acceptance Date :
2023-01-22 Publication Date :
2023-01-25
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सारांश |
समाज में पहले महिलाओं की स्थिति शिक्षा के अभाव में सोचनीय थी। वे आर्थिक रूप से परतन्त्र थी। स्वावलम्बी नहीं होने के कारण नारी घर, परिवार और समाज में सदा उपेक्षित और प्रताड़ित ही रही थी। नारी केवल भोग्या वस्तु ही समझी जाती थी। भारतवर्ष वह देश है- जहाँ लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती जैसी देवियां एवं मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषी नारियां जन्मी थी ।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Earlier the status of women in the society was thinkable due to lack of education. She was financially dependent. Due to not being self-supporting, women were always neglected and harassed at home, family and society. Women were considered only as an object of indulgence. India is the country where goddesses like Lakshmi, Durga, Saraswati and intelligent women like Maitreyi, Gargi were born. | ||||||
मुख्य शब्द | नारी, पुरुष, माँ, परिवार, प्रणय, काम। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Woman, Man, Mother, Family, Love, Work. | ||||||
प्रस्तावना |
आधुनिक समय में नारी की स्थिति में परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा है। आज समाज में चारो तरफ नारी विषयक दृष्टिकोण परिवर्तित होने लगा है। भले ही यह बहुत कम है, पर होने लगा है। आधुनिक समय में नारी समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने लगी है। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जहाँ पर नारी की उपस्थिति न हो। आज नारी राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक या यों कहें की प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। आज नारी शिक्षा और आर्थिक स्वावलम्बन ने नारी विषयक दृष्टिकोण को बदल कर रख दिया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | आधुनिक साहित्य ने नारी विषयक दृष्टिकोण में परिवर्तन किया है।जहाँ पहले नारी परिवार, समाज, जाति, देश रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देती थी। त्याग की मूर्ति मानी जाती थी। इसके बदले में उसे क्या मिला सामाजिक रुढियो, परंपराओं के कारण उसका स्वयं का अस्तित्व कहीं विलीन सा हो जाता था। पुरुष की अर्धांगिनी होकर भी उसे परतन्त्र ही रहना होता था। |
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साहित्यावलोकन |
नारी पर विपुल शोध कार्य हुआ है। नारी की स्थिति को लेकर प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक अनेक शोध- पत्र लिखे गए हैं। ‘हिंदी की प्रमुख लेखिकाओं की नारी’ के अंतर्गत विभिन्न शोधों एवं पुस्तकों का अध्ययन किया गया है। जिसमे नारी विषयक विमर्श भी समाहित है। इनके अध्ययनों से अपने शोध- पत्र का कार्य आगे बढ़ाने में सहायता मिली। इनमें प्रवीण कुमार, आधुनिक नारी 2022 शोध- पत्र के अवलोकन से एवं कविता यादव, भारतीय नारी तब और अब, 2020 एवं डा श्रद्धा सिंह के शोध-पत्र साहित्य का नारी वादी पाठ (2019) से हिंदी की प्रमुख लेखिकाओं की नारीविशयक शोध -पत्र के लिखने में या अध्ययन करने में सहायता मिली है। |
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मुख्य पाठ |
समाज में पहले महिलाओं की स्थिति शिक्षा के अभाव में सोचनीय थी। वे आर्थिक रूप से परतन्त्र थी। स्वावलम्बी नहीं होने के कारण नारी घर, परिवार और समाज में सदा उपेक्षित और प्रताड़ित ही रही थी। नारी केवल भोग्या वस्तु ही समझी जाती थी। भारतवर्ष वह देश है -जहाँ लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती जैसी देवियां एवं मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषी नारियां जन्मी थी। नारी के विषय में कहा गया है- यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमन्ते तत्र देवता। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला:क्रिया:l[1] परन्तु वर्तमान में यह भाव कहीं गुम सा हो गया है। नारी मात्र उपभोग की वस्तु समझी जाती है- औरत को औरत होना सिखाया जाता है। औरत बनी रहने के लिए उसे अनुकूल किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण से यह समझ में आएगा कि प्रत्येक मादा मानव जीव अनिवार्यत: एक औरत नहीं। यदि वह औरत होना चाहती है, तो उसे और तपने की रहस्यमय वास्तविकता से परिचित होना पड़ेगा।[2] आधुनिक समय में नारी की स्थिति में परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा है। आज समाज में चारो तरफ नारी विषयक दृष्टिकोण परिवर्तित होने लगा है। भले ही यह बहुत कम है, पर होने लगा है। आधुनिक समय में नारी समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने लगी है। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जहाँ पर नारी की उपस्थिति न हो। आज नारी राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक या यों कहें की प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। आज नारी शिक्षा और आर्थिक स्वावलम्बन ने नारी विषयक दृष्टिकोण को बदल कर रख दिया है। आधुनिक साहित्य ने नारी विषयक दृष्टिकोण में परिवर्तन किया है। जहाँ पहले नारी परिवार, समाज, जाति, देश रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देती थी। त्याग की मूर्ति मानी जाती थी। इसके बदले में उसे क्या मिला सामाजिक रुढियो, परंपराओं के कारण उसका स्वयं का अस्तित्व कहीं विलीन सा हो जाता था। पुरुष की अर्धांगिनी होकर भी उसे परतन्त्र ही रहना होता था। इस विषय में प्रभा खेतान ने स्त्री उपेक्षा के विषय में कहाँ है- स्त्री का दुर्भाग्य है कि औरत अपनी भूमिका स्वयं नहीं कर पाती चूँकि सामाजिक संहिता का निर्माता पुरुष हैं, अतः- अब तक संस्कारों से पुष्ट होती रही है।[3] आधुनिक महिला उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा सोबती, मंजू भगत, ऊषाप्रियंवदा, मन्नू भण्डारी, प्रभा खेतान, नासिरा शर्मा आदि के उपन्यासों में नारी पात्र कहीं परंपरा, कहीं रूढिवादी बदिखाई देती है, तो कहीं ये रूढी या परंपरा का विरोध करती दिखाई देती है।इदन्नमम की बऊ,पचपन खंभे लाल दीवार, की सुषमा परंपरावादी, रूढि़वादी या प्राचीन मान्यताओं को मानने वाली है। कृष्णा सोबती के उपन्यास डार से बिछुड़ी की नानी और मामिया, छिन्नमस्ता की प्रिया की माँ सामाजिक, धार्मिक, रूढियों या परंपराओं में जकड़ी फंसी हुई है। मैत्रेयी पुष्पा की अल्मा कबूतरी की आनंदी भी परंपरा को मानने वाली है। दिलोदानिश की कुटुम्ब प्यारी भी परंपरा या मर्यादा को मानने वाली है।तभी तो वह अपने पति के विवाहेत्तर संबंध को जानने के बाद भी सामाजिक मर्यादा की खातिर बंधन में बंधी रहती है।मैत्रेय पुष्पा के उपन्यास बेतवा बहती रही कि उर्वशी यह जानते हुए भी चुप हैं कि उसका भाई ही उसके साथ अत्याचार कर रहा है क्योंकि बचपन में ही उसे चुप रहने की शिक्षा दी जाती है- परंतु बड़े भाई से क्या बात वाद -विवाद करें, कभी मुँह नहीं खोला उनके सामने, डर डर कर ही रही। अम्मा-दादा ने भी हमेशा चुप रहने की सीख दी थी।--'बेटी की जात- जुबान काबू में रखें चाहिए।[4] इदन्नमम की मंदा जानना चाहती है कि उसके पिता किस प्रकार मारा गया, परन्तु बऊ उससे कहती है- तो बिना जाने सोयेगी नहीं मन्दा। हम जानते हैं इसकी सुभाय को, ज़ौन हठपकरी, फिर नहीं डिग सकता कोई। कितेक समझायी है कि बिन्नू ऐसा जिद्दी स्वभाव न रखो। आगे आगे क्या जाने किन किनकी बात माननी प्रेम। और तुम बिटिया की जात, घर गृहस्थ कैसे चलाओगी ऐसे जिद्दिया कें।[5] इदन्नमम उपन्यास में प्रेम विधवा हो जाने पर भी अपने आप को नहीं रोक पाती है और रतन यादव के साथ घर से भागकर विवाह कर लेती है तब बऊ कहती है‐ ऐसी छिनार किसकी मातारी होगी, जो बिटिया को छोड़कर भाग जाय।[6] हिंदी की प्रमुख लेखिकाओं की नारी के विविध रूप हैं जिन्हें हम निम्न प्रकार से अभिव्यक्ति दे सकते हैं- 1- परिवार के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण- पहले नारी का परिवार के प्रति अलग दृष्टिकोण था। वह परंपरा के नाम पर बंधी रहती थी किंतु आधुनिक उपन्यासों में नारीविषययक दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है।कृष्णा सोबती के उपन्यास दिलोदानिश और डार से बिछड़ी में रूढ़िवादी विचारों या पारंपरिक बंधनों के प्रति विद्रोह का भाव दिखाई देता है। प्रो सुदेश बत्रा ने भी नारी अस्मिता हिंदी उपन्यासों में इस बात को रेखांकित करने का प्रयास किया है---‐ परवेश सघन समूचा दबाव अपने व्यक्तित्व के लिए जूझती नारी की पीड़ा उसके संकल्प उसकी इच्छाओं और इसमाज के प्रति पूरे संघर्ष में प्रतिबिंबित होता है।[7] मैत्रेयी पुष्पा की लेखनी ने स्त्री पुरुषों के अंतर को इस प्रकार उभरा है और व्यंग्य किया है- सामाजिक कानूनों पर कोई सवाल नहीं उठना चाहिए आपको मालूम नहीं कि स्त्री की गर्दन हिलने से परिवार का ढांचा डगमगाने लगता है।[8] कृष्णा सोबती की मिन्नोप्रारम्भ से चली आ रही रुढियों, परंपराओं का विरोध करती है और उसे मानने से इनकार करती है। वह उस रूढी का विरोध करती है, जहाँ नारी को अपनी काम इच्छा प्रकट करने का अधिकार नहीं है। वह इसके के लिए अपनी परिवार को नहीं छोड़ती है, अपितु उसके भीतर ही अपनी काम इच्छा को पूरी करती है। इसी प्रकार उषा प्रियंवदा के उपन्यास 'रुकोगी नहीं राधिका' की राधिका प्राचीन मान्यताओं या रुढियों का त्याग कर या अवहेलना करती हुई घर का त्याग कर देती है। रुकेगी नहीं राधिका का उपन्यास में नारी की जटिल मानसिकता का वर्णन किया गया। राधिका परंपरागत नारी संहिता को मारने के लिए तैयार नहीं है। राधिका का विश्वास उन्मुक्त काम में है।वह एक से अधिक पुरुषों के साथ संबंध स्थापित करना चाहती है। वह प्राचीन मूल्यों को तोड़कर नए मूल्यों को अपनाना चाहती है। आपका बंटी उपन्यास में मन्नू भंडारी ने पारिवारिक विघटन,असन्तुष्ट असंतुष्ट वैवाहिक जीवन, तलाक आदि समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। इस विषय में प्रो सुदेश बत्रा का दृष्टिकोण है कि- सामान्य नारी पति और व्यवहार नामक संस्थाओं के इर्द गिर्द अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती है, किंतु द्रोह की तड़प भी सबसे पहले परिवार और उसकी रुढ़ियों के प्रति उत्पन्न होती है और यह चेतना पति या पुरुष की अधिकार सत्ता के प्रति विद्रोह में बदल जाती है।[9] छिन्नमस्ता की प्रिया परंपरावादी दृष्टिकोण को या रुढ़ियों को धता बताकर उनका अतिक्रमण करते हुए नारी को मात्र सजावट की वस्तु मात्र नहीं मानती बल्कि स्वयं को स्वावलम्बी, आत्मनिर्भर बनाते हुए अपने आप को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाती है। वह अपनी भाभी, जीजी और अम्मा की तरह तड़प तड़पकर या घुट-घुटकर जीना नहीं चाहती, अपितु स्वाभिमान के साथ आत्मनिर्भर बनना चाहती है। कहने का तात्पर्य है कि आधुनिक नारी राजनीतिक, सामाजिक धार्मिक या समाज व परंपरा को नकारती हुई अपने लिए मानवीय जीवन स्थापित करने के लिए कटिबद्ध है। मैत्रेयी पुरुष के झूलानट उपन्यास में नायिका पति द्वारा छोड़े जाने पर निर्णय करती है---- वह देहर के साथ संबंध रखेगी किंतु बिछिये न पहनकर, कानूनी रूप से पहले पति की पत्नी रहेने से उसकी जायदाद की स्वामिनी और देवर की पत्नी जैसी बनी रहने से उसकी संपत्ति की भी मालकिन रहेगी।[10] 2- माँ के प्रति नवीन दृष्टिकोण- प्राचीन मान्यता है कि नारी को माँ बनना ही स्त्री को पूर्ण बनाता है परंतु यह धारणा अब धीरे धीरे बदल रही है। आज नारी हर क्षेत्र में पुरूष का कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। मन्नू भंडारी के आपका बंटी उपन्यास में नारी का माँ बनने और स्त्री को स्वयं की पहचान के मध्य दोहरा संघर्ष दिखाई देता है। वही छिन्नमस्ता की नायिका प्रिया माँ बनने की अपेक्षा कर स्वयं के अस्तित्व की रक्षा करती हुई दिखाई देती है ।साफ और स्पष्ट शब्दों में कहती हैं--- हो सकता है कि संजू के मन में तल्खी हो कि मैं एक अच्छी माँ नहीं बन सकी। नहीं बन सकी तो क्या करूँ। क्या माँ मुझे जन्म देकर अपनी मातृत्व की भूमिका ठीक से निभाई थी, उनमे तो मैंने कभी कचोट नहीं देखी।[11] 3- विवाह और पुरुष के प्रति विद्रोह- आधुनिक उपन्यासों में नारी का विवाह और पुरुष के प्रति विद्रोह का भाव है। वे विवाह बंधन में बंधने पर अपने आप को पुरुष के अधीन नहीं रहना चाहती है। अपितु आर्थिक स्वावलंबन के बल पर स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है। नारी अब पुरुष की दासी बनकर जीवन नहीं जीना चाहती है। अपितु बराबर के अधिकार के साथ जीवन यापन करना चाहती है।मिन्नो मरजानी की मिन्नो रूढ़िवादी परंपरा को त्याग कर पितृसत्ता का विरोध करती हुई कहती है- अम्मा तुम्हारे इस बेटे के यहाँ कुछ होगा तो मिन्नो चूडी के पैरों का धोवन पी अपना जन्म सुफल कर लेगी।[12] कृष्णा सोबती के उपन्यास दिलोदानिश में नारी पात्रो का वकील साहब के प्रति तीखा आक्रोश दिखाई देता है। दिलोदानिश उपन्यास में नारी अपने पति से प्रतिशोध लेने के लिए एक बाबा से शारीरिक संबंध बनाती है। वही महक वानो वकील साहब से प्रतिशोध और विद्रोह के नाम पर किसी अन्य पुरुष से संबंध रखती है। इसी प्रकार छिनमन्ना की नायिका पुरुष के प्रति कैसे विचार रखती है---‐ सच कहूँ तो पुरुष की कोई भूमिका मुझे जीवन में नहीं लगती। नहीं वह क्या देगा------- आज मैं चाहे जो खर्च करूँ, मुझे उसका हिसाब नहीं देना पड़ता-’।[13] प्राचीन समय से ही लड़का लड़की में भेदभाव किया जाता है। उनकी रहन -सहन, खान-पान, वेश- भूषा आदि सभी में अंतर किया जाता था। जिसके कारण नारी के मन में कुंठा और असुरक्षा की भावना जन्म लेती है। छिन्नमस्ता की प्रिया समाज और परिवार में शोषण की शिकार होती है। इसीलिए वह कुंठा और आक्रोश में आकर कहती है- क्या समाज स्त्री की रक्षा करता है, या पुरुष की कामुक हवश का शिकार होने से मासूम लड़कियां बचपाती हैं, कहां और कब मुझ पर आक्रमण नहीं हुआ, वह कैसा बचपन था, न केवल भाई ने बल्कि एक दिन नौकर ने भी गोद में बिठाया था।[14] आज नारी पुरुष की दासी नहीं है। वह पुरुष के अत्याचार या शोषण को सहन करने के लिए तैयार नहीं है। अपितु उसके शोषण का तीव्र विरोध करती है। अब नारी विवाह और पति को जीवन का केंद्र बिंदु नहीं मानती। वह मानती हैं कि विवाह नारी को परतंत्र बनाता है। नारी की स्वाधीनता में खलल डालता है। पुरुष नारी को अपनी छुद्र वासना या अपनी जरूरत की वस्तु मात्र मानता है। इसका आधुनिक नारी विरोध करती हुई दिखाई देती है जैसे- छिन्नमस्ता की प्रिया इसका विरोध करती है। इदन्नमम उपन्यास में यशपाल कुसुमा को त्याग देता है और दूसरा विवाह कर लेता है। चाक उपन्यास में मैत्रेयी पुष्पा ने बताया कि छोटी जाति में विवाह करने से उसको समाज में अपमानित होना पड़ेगा-' इस हरजाई से कहो कि मैं जवानी में राड हुई थी ।पंडित-छत्री से लेकर सेठ साहूकार पर मैंने थूक दिया उन पर। और यह ---यह-- धप। ---धप यह **** उस खटीक के मूत पर जान दे रही है। ब्राह्मण बनता है भडुआ-।[15] 4- धार्मिक परंपरा के प्रति दृष्टिकोण- किसी भी समाज में नारी का शोषण धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं के बल पर किया जाता है। परम्पराओं के नाम पर नारी का शोषण किया जाता है। समाज की मान्यताओं के नाम पर नारी का शोषण किया जाता है। इसीलिए कालमार्कस ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी है। धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं के बल पर ही पुरुष नारी का शोषण करता है। परंतु आधुनिक नारी विद्रोह करती हुई पूछती है कि इन ग्रंथों की रचना किसने की। अपने मनमुताबिक इन पुरुषों ने ही ना इन सभी ग्रंथों का सृजन किया है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास इइदन्नम की नायिका मंदाकिनी बहू की बात से असहमत होते हुए कहती हैं- वे सब पुरुष प्रधान समाज के अवसरवादी प्रसंग हैं। एक ओर पतिव्रता धर्म की परिभाषा करता राम के साथ सीता का वनगमन दूसरी और उसकी निष्ठा को तोड़ता मर्यादा पुरुषोत्तम राम का सीता की अग्नि परीक्षा लेना। सीताने क्यों नहीं मांगा सबूत कि हे भगवान माने जाने वाले राम तुम भी तो उस अवधि में मुझसे अलग रहे हों। अपने पवित्र रहने की साक्ष दो।[16] 5- प्रणय और काम के प्रति नारी का दृष्टिकोण- आधुनिक नारी प्रेम तो करती है किंतु प्रेम के नाम पर अब उसका शोषण संभव नहीं है ।नारी स्वावलंबन के साथ आत्मनिर्भर भी है वह अब पुरुष पर निर्भर नहीं है ।वह पुरुष की अनुगामिनी नहीं है। अपितु सहचरी है। नारी को अब प्रेम के नाम पर उसका शारीरिक या मानसिक रूप से शोषण करना आसान नहीं है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास इदन्नमम में नारी विधवा होने के बाद शारीरिक इच्छा या सांसारिक सुखों का परित्याग इच्छा या अनिच्छा से करती हैं। वहीं उनकी बहु अपनी इच्छा आकांक्षाओं को बहुत महत्व देती है। मैत्री पुष्पा के उपन्यास अल्मा कबूतरी में कदम बाई अपनी शारीरिक इच्छाओं को महत्व देती है। मृदुला गर्ग के उपन्यास उसके हिस्से की धूप की नायिका के जीवन में दो पुरुषों से संपर्क होता है। परंतु उनमें से कोई यह नहीं जान पाता है, कि उसे जीवन में क्या चाहिए मृदुला गर्ग का प्रेम के विषय में अलग ही दृष्टिकोण था- मुझे मेरा नाम चाहिए। उसका अस्तित्व भले कुछ ना हो, फिर भी मुझे चाहिए। समर्पण का अधिकार मुझे चाहिए।[16] मैत्रेयी पुष्पा ने मन ना ही दस बीस नामक कृति में बताया है कि नारी देह शोषण का शिकार अपने ससुराल में होती है। किंतु इसका दर्द वह न तो ससुराल में ने मायके में व्यक्त कर सकती है।
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निष्कर्ष |
अंत में हम कह सकते हैं कि हिंदी की प्रमुख लेखिकाओं की नारी के विवाह और पुरुष के प्रति दृष्टिकोण, माँ के प्रति नवीन दृष्टिकोण, प्रणय और काम के प्रति नारी का नवीन दृष्टिकोण, परिवार के प्रति और धार्मिक मान्यताओं के प्रति नारी के कितने रूप भरकर सामने आते हैं। वे सभी रूप हमें स्पष्ट दिखाई देते हैं। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. मनुस्मृति, व्याख्याकार पंडित श्री हरगोविन्द शास्त्री श्लोक 56 ,अध्याय3,पृ संख्या 113
2. सिमोन द् बुआर,The Second Sex , स्त्री उपेक्षिता, अनुवाद- प्रभा खेतान, पृष्ट संख्या 21
3. स्त्री उपेक्षिता,प्रभा खेतान पृ संख्या 121
4. मैत्रेयी पुष्पा,बेतवा बहती रही पृ संख्या 83
5. मैत्रेय पुष्पा,इदन्नमम,पृ संख्या 23
6. मैत्रेय पुष्पा इदन्नमम उपन्यास
7. डॉ सुदेश बत्रा, नारी अस्मिता हिंदी उपन्यासों में, पृष्ठ संख्या 50
8. डा सुदेश बत्रा, नारी अस्मिता हिन्दी उपन्यासों में पृष्ठ संख्या 6
9. मैत्रेयी पुष्पा, झूलानट उपन्यास
10. प्रभा खेतान, छिन्नमस्ता पृ संख्या 92
11. कृष्णा सोबती, मिन्नोमरजानी पृ संख्या 64
12. प्रभा खेतान, छिन्नमस्ता,पृ संख्या 222
13. प्रभा खेतान, छिन्नमस्ता
14. मैत्रेयी पुष्पा, चाक उपन्यास पृ संख्या 116
15. मैत्रेय पुष्पा, इदन्नमम,पृ संख्या 270
16. मृदुला गर्ग, उसके हिस्से की धूप |