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नागार्जुन के काव्य में जनवादी चेतना | |||||||
Democratic Consciousness in Poetry of Nagarjuna | |||||||
Paper Id :
17020 Submission Date :
2023-01-13 Acceptance Date :
2023-01-21 Publication Date :
2023-01-25
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सारांश |
जनवादी कविता का आधार देश की सामान्य जनता का जीवन प्रवाह है। जनवादी कविता सर्वहारा वर्ग के जीवन को अभिव्यक्त करती है। यह सर्वहारा वर्ग के लोगो की आशा- आकांक्षा, स्वप्न एवं संघर्ष को ही वाणी नहीं देती बल्कि उनमें नवचेतना एवं जागरुकता लाने का प्रयास भी करती है। सभी दृष्टियों से उपेक्षित, तिरस्कृत मनुष्य को साहित्य में प्रतिष्ठा देने का काम जनवादी कवियों और जनवादी कविताओं ने किया है। जनवादी धारा के कवियों में नागार्जुन अग्रणी कवि हैं जिन्होने पूँजीवादी शोषण के विरुद्ध, अनेक कलावादी रुझानों को नकारते हुए, साहित्य को सामाजिक सरोकारों से जोङ़ते हुए आम जनता के दुख-दर्द का न केवल सच्चा चित्र उपस्थित किया बल्कि उस यथास्थिति को बदलने के लिए संघर्ष भी किया। नागार्जुन की कविता और समग्र साहित्य में भी जनवाद की अनुगूँज नहीं हैं उनके व्यक्तित्व में भी कबीर- सा एक फक्कङ़पन, निर्भीकता और सधुक्कड़ी यायावरी स्पष्ट दिखाई देती हैं। इसीलिए वे जनता के कवि हैं आम जनता के लिए लिखते रहे,आम जनता के प्रति होने वाले अन्यायअत्याचार का प्रतिरोध करते रहें। यही उनकी विशेषता हैं। इसके लिए लिखते रहे, उन्होंने किसी प्रकार का आडम्बर या दिखावा कभी नहीं किया।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The basis of democratic poetry is the life flow of the common people of the country. Democratic poetry expresses the life of the proletariat. It not only gives voice to the hopes, aspirations, dreams and struggle of the people of the proletariat, but also tries to bring new consciousness and awareness in them. People's poets and people's poems have done the work of giving prestige in literature to the neglected, despised man from all points of view. Among the poets of the democratic stream, Nagarjuna is the leading poet, who not only presented a true picture of the sufferings of the general public, rejecting many artistic trends, linking literature with social concerns, against capitalist exploitation, but also the struggle to change that status. There are no echoes of democracy even in Nagarjuna's poetry and overall literature; Kabir-like fearlessness and good manners are clearly visible in his personality. That's why he is the poet of the people, kept writing for the general public, kept resisting the injustice and atrocities against the general public. This is his specialty. He kept writing for this, he never did any kind of ostentation or show off. | ||||||
मुख्य शब्द | नागार्जुन के काव्य, जनवादी चेतना, जनकवि, कविताएँ, पूंजीवादी शोषण | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Poetry of Nagarjuna, democratic consciousness, Janakavi, poems, capitalist exploitation | ||||||
प्रस्तावना |
दृष्टिगत होता है। कि सामाजिक यथार्थ को उन्होने जिस तरह से अपनी कविताओं में अंकित किया, उसके कारण वे अपने समकालीन कवियो मे अलग से पहचाने जाते हैं। इस कवि ने देश के आम आदमी को कभी भुलाया नही। आम आदमी के अभावों और विसंगति पूर्ण जीवन की सटीक अभिव्यक्ति उनके काव्य मे हुई है। वे आजीवन एक आम आदमी की तरह जिये और आम आदमी के पक्ष में अपना साहित्य सृजन करते रहे।
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अध्ययन का उद्देश्य | नागार्जुन कविताएं मनोरंजन की विषयवस्तु नहीं हैं, उनकी कविताओं का एक मात्र उद्देश्य शोषित पीड़ित श्रमिक एवं कृषक वर्ग के जीवन की पीड़ा को चित्रित करना है। उनकी कविताओ में सामाजिक राजनीतिक, और आर्थिक विषमता को लेकर जनवादी चेतना का चित्रण हुआ है। हिन्दी कविता में सबसे अधिक संवेदन शील और लोकान्मु जनकवि नागार्जुन की विशिष्टता इसी बात में रहे है कि युगीन यथार्थ और समसामयिक चेतना को उन्होने अपनी कविता के माध्यम से मुखरित किया है। नागार्जुन वर्तमान के गर्भ से जन्म लेने वाले भावी भारत की झांकी को देखने वाले दूर दृष्टि सम्पन्न साहित्यकार हैं। इसी तथ्य का समीचीन अध्ययन इस शोध पत्र का उद्देश्य है। |
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साहित्यावलोकन |
इस शोध पत्र के लेखन में सर्वप्रथम तो नागार्जु की कविताओं - एवं उनके अन्य साहित्य का अध्ययन किया गया है। उनकी रचनाएं ही इस शोध-पत्र का आधार ग्रन्थ है आप ही सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में डॉ. सुभाष क्षीर सागर की पुस्तक 'नागार्जुन के काव्य में जनचेतना तथा चंचल चौहान की पुस्तक "जनवादी समीक्षा: नया चिंतन नए प्रयोग " पाण्डुलिपि प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित का महत्वपूर्ण योगदान है। दोनों ही पुस्तकों में जनवादी समीक्षा की दृष्टि से नागार्जुन की जनवादी को परखा गया।
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मुख्य पाठ |
जनवादी कविता का आधार देश की सामान्यजनता का जीवन प्रवाह है। यह कविता सर्वहारा वर्ग के जीवन को सर्वाङ्गीण रूप मे प्रस्तुत करती है। इसका जनाधार अत्यन्त व्यापक होता है। जनवादी कविता ने जनता की जिदगी से उभरती आशा-आकांक्षा, स्वप्न, संघर्षो को न केवल वाणी दी है बल्कि उसे संसार समर में विजयी होने के लिये नव चेतना और जागरुकता भी दी है। जनवादी कविता ने आम जनता के लिये श्रेष्ठ जीवनमूल्य जीवन आदर्श और जीवन संघर्ष आदि मानदण्डों की स्थापना का इतिहास रचा है। स्वस्थ सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हुए जनवादी कविता ने पूर्ववर्ती प्रगतिशील धारा को भी फिर से नई ऊर्जा, गति और स्फूर्ति प्रदान की है। सभी ओर से उपेक्षित, तिरस्कृत मनुष्य को साहित्य मे प्रतिष्ठा देने का काम जनवादी कवियों और जनवादी कविताओं ने किया है। जनवादी कविता अनेक वैचारिक आंदोलनों से गुजरती हुई एक सामाजिक गतिविधि के रूप में सामने आती है।इस धारा के महत्वपूर्ण कवि नई कविता के दौर की उपज थे ‘‘इनमें नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह आदि ने कविता के गर्भ से उत्पन्न व्यक्तिवादी, कलावादी, भाववादी और अन्य सभी प्रवृत्तियों से अलग हटकर कविता को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिया। इतना ही नहीं इन्होने हिन्दी की प्रगतिशील कविता की चली आ रही जनवादी धारा को तेज किया। इनमें कई कवि तारसप्तक के कवि थे। इन कवियों ने जनवादी धारा को लेकर समाजोन्मुख कवितायें लिखीं। इस प्रकार जनवादी काव्यधारा को विकसित करने के लिये स्वातन्त्र्योत्तर कवियों ने प्रयास किया।‘‘[1] जनवादी कविता अनेक विचारान्दोलनो से होती हुई एक सामाजिक गतिविधि के रूप में समाज के सामने आई। इन कवियों ने अपने आपसी मतभेद भुलाकर पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध अपने विद्रोह को बुलंद किया। अनेक कलावादी रुझानों को नकारते हुए उन्होंने साहित्य को सामाजिक सरोकारों से जोड़ते हुये आम जनता के दुख दर्द का न केवल सच्चा चित्र उपस्थित किया बल्कि उसयथास्थिति को बदलने के लिये संघर्ष का आहवान भी किया। ‘‘शोषित जनता से जुड़ी जनवादी वाम कविता ने पुराने कवियों को भी आंदोलित किया है। उनमें भी जन के प्रति प्रेम पैदा हुआ है और उनमें से कई ने अपनी रचनाधर्मिता को जनवादी दिशा दी है। इस दिशा में कुछ ने लोकतांत्रिक आस्था को व्यक्त किया है तो कुछ ने शोषण मुक्ति की चाह भी। ऐसे कवियों में सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, अजीत कुमार, रामदरश मिश्र आदि की सत्तरोत्तरीकविताएं इस दिशा की सूचक है। इनमें सर्वेश्वर की ‘कुआनो नदी‘ और रघुवीर सहाय की‘ हंसो हंसो और जल्दी हंसो उल्लेखनीय है।’’[2] इस कड़ी मे नागार्जुन एक विराट व्यक्तित्व के रूप मे हिंदी साहित्य मे उभरे जनवादी कविता कोनागार्जुन ने नई ऊँचाइयां और नित नएआयाम दिये। ’’वे अपने जीवनकाल मे ही किंवदन्ती हो गए थे। बीसवीं सदी मे ऐसा मूर्तिभंजक, व्यवस्था और मठद्रोही, सधुक्कड़ी बानी-बोली का सर्जक, ऐसा दुस्साहसी और बेपरवाह कवि शायद ही कोई दूसरा हुआ हो। बाबा कोरे जनकवि ही नहीं थे, एक सर्जक जनपक्षधर थे। किसान आंदोलन में दो बार जेल गये और तब भी जब आपातकाल की शक्ल में तानाशाही की उठी हुई तलवार के आगे तने।‘‘[3] मीसा के तहत जेल गये । नागार्जुन की कविता और समग्र साहित्य मे ही जनवाद (आम जनता) की अनुगूंज नही है उनके व्यक्त्वि मे भी कबीर सा एक फक्कड़पन, निर्भीकता और सधुक्कड़ी यायावरी स्पष्ट दिखाई देती है। इसी लिये वे जनता के कवि हैं, आम जनता के लिये लिखते रहे आम जनता के प्रति होने वाले अन्याय का प्रतिरोध करते रहे। यही उनकी विशेषता है। इसके लिये उन्होने किसी प्रकार का आडम्बर या दिखावा कभी नही किया। विजय बहादुर सिंह ने लिखा है ’’नागार्जुन सचेत रूप से जितने मार्क्सवादी थे अचेत रूप मे उससे भी अधिक मार्क्सवादी थे। इस कथन का तात्पर्य यह है कि नागार्जुन सैद्धान्तिक रूप से तो जनवादी थे ही व्यवहार मेंवे उससे अधिक जनवादी थे। उनकी कार्यशैली, उनकी यायावरी, उनके अभाव, उनका असंतोष, उनका आक्रोश उनका सम्पूर्ण जीवन जनवाद की जीवंत कार्यशाला रहे है। उनकी कविताएं तो जनवाद का परचम लहराती ही रही हैं। उनकी जनवादी राजनीति किसी देश विशेष की सीमा में नहीं बंधती। वे राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में होने वाले शोषण, दमन, अत्याचार व अन्याय, का विरोध करते हैं- ‘‘नफरत की अपनी भट्ठी में/ तुम्हे गलाने की कोशिश ही नागार्जुन की पक्षधरता उस सामान्य आम जनता से है जो स्वतन्त्र भारत में भूख से मर रहा है, बेघर, बेरोजगार है, आधे पेट भोजन के लिये रात दिन संघर्ष और श्रम करता है। नागार्जुन निम्न व दलित वर्ग को अपने अधिकारों के लिए सजग करते हैं, क्रांति का आहवान करते हैं कल्पना करते हैं कि यह शोषित पीड़ित दलित आम जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग होंगे- ’’गोबर, महंगू बलचनमा और चतुरी चमार सब छीन रहे स्वाधिकार। आगे बढ़कर सब झुक रहे।[5] गांधी जी पर अपार श्रद्धा रखने के बावजूद गाँधीवाद और गांधीवादियों से उनका मोहभंग हो चुका था। उन्हें ज्ञात था कि गांधीवाद को गांधी के समर्थकों से ही बचाना होगा। गाँधी के सुधारवादी आंदोलन का क्या हश्र हुआ देखे- ‘‘बापू के भी ताऊ निकले तीनो बंदर बापू के नागार्जुन जानते हैं कि गाँधी का नाम लेकर हमारे कर्णधार किस प्रकार अनीति का शासन कर रहे हैं- ’’देश भक्ति का जनसेवा का नाटक ही करते आए हम इसीलिए वे सोशलिज्म का कंकाली ढाँचा नही चाहते। नागार्जुन सच्चे अर्थों मे जनता के कवि हैं और वे जनविरोधीनीतियों का हर मूल्य पर विरोध करते है। इंदिरा जीकी इमरजेंसी का खुलकर विरोध करना हो या इंदिरा और नेहरू की जन विरोधी राजनीति का पर्दाफाश करना हो नागार्जुन पूरे साहस से अपनाप्रतिरोध दर्ज करते हैं- इंदू जी इंदू जी क्या हुआ आपको इंदिरा गाँधी के आपातकाल के पश्चात नागार्जुन जयप्रकाश आंदोलन का समर्थन करते हैं किन्तु बाद में उन्होंने इसे पूंजीपतियों का आंदोलन कहकर अपना मोहभंग प्रकट किया है। वे लिखते हैं- ‘‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने भोगा हमने क्रांतिविलास राज सत्ता के इन्ही तौर तरीकों से असन्तुष्ट होकर वे व्यवस्था परिवर्तन के लिये हिंसक क्रांति का भी आहवान करते हैं। यही कारण है कि वे नक्सलवादी आंदोलन का भी समर्थन करते हैं। उनकी कविता ‘‘क्रांति सुगबुगाई है’ में जयप्रकाश आंदोलन के असफल जनविरोध का चित्रण है। पक्षधर‘ कविता मे कवि क्रांति के लिये तत्पर हैंः- ‘‘मन और तन की समूची ताकत लगाकर कवि जनता के प्रति प्रतिबद्ध है। व्यक्तिवादी कारको से विराट क्रांतियां संभव नहीं होती। इसी कारण कवि अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा करता है- ‘‘प्रतिवद्ध हूँ,, जी हाँ प्रतिबद्ध हूँ, उनकी यह प्रतिबद्धता केवल कविता में ओढ़ी हुई प्रतिबद्धता नहीं है। यह उनके समग्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अविभाज्य अंग है। राधेश्याम मंगोलपुरी ने ’लोकजीवन के उपन्यासकार नागार्जुन’ शीर्षक से अपने लघु शोध में सत्य ही लिखा है-’’राजनीति की चर्चा किए बगैर नागार्जुन पर बात ही नहीं की जा सकती। उपन्यास कविता और निबन्ध-नागार्जुन सर्वत्र राजनीति करते नजर आते हैं। कमजोर लोगो की तरफदारी करना, प्रतिक्रियावादी ताकतों की मुखालफत करना तथा अन्याय के प्रति उदासीनता को खत्म करना - यही उनके साहित्यिक कर्म का उद्देश्य रहा है[12] समकालीन समीक्षक कवि विष्णुखरे ने कहा है- ‘‘सन् 1947 के बाद भारत को यदि कविता में पूरी तरह से किसी ने प्रतिबिम्बित किया है तो वह नागार्जुन है।[13] नागार्जुन के काव्य में ही नहीं अपितु उनके समूचे रचनाक्रम में अर्थात उनके उपन्यासों, कहानियों, निबन्धोंमें जनवादी चेतना का विस्तार है। उनकी कविताएं अपनी समकालीन समाज व राजनीति में दस्तक देते हुये सार्थक हस्तक्षेप दर्ज कराती हैं। वे केवल अपनी रचनाओं द्वारा ही अपना प्रतिरोध दर्ज नहीं कराते बल्किस्वयं भी बहुधा जन आंदोलनों मे कूद पड़ते हैं अंग्रेजी शासन से लेकर स्वातन्त्र्योत्तर भारत में भी उन्होंने शासन की जनविरोधी नीतियो का प्रतिरोध किया और जेल भी गये। कर्म और सृजन, दोनो स्तरों पर नागार्जुन ने एक सच्चे जनवादी कवि की भूमिका निभाई और वे आने वाले कवियों के समक्ष जनवाद की मशाल लिए उन्हें प्रेरणा देते रहेंगे। जब जब हम साहित्य में समाज का प्रतिबिम्ब देखने का प्रयास करेंगे हमारे मनीषियों को नागार्जुन के साहित्य का पुनर्पाठ करना होगा। |
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निष्कर्ष |
डॉ शिव कुमार मिश्र ने तो नागार्जुन की कविता को जनवादी कविता का मॉडल मानते हुए कहा है- “प्रगतिशीलों में नागार्जुन एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी अधिसंख्य रचनाएँ जनवादी कविता के लिये मॉडल मानी जा सकती हैं। जनता के दैनंदिन जीवन में नागार्जुन की यह भागेदारी, उनके संघर्षो मे नागार्जुन का एक साथ, जनता की सोच के साथ उनकी अपनी सोच का एकात्म नागार्जुन की रचना के उस जनवादी चरित्र को निर्मित करता हैसमकालीन कविता में जिसकी मिसाल नहीं मिलती। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ. सुभाष क्षीर सागर, नागार्जुन के काव्य में जनचेतना, शुभम पब्लिकेशन कानपुर प्र0 सं 2011 पृष्ठ 23
2. चंचल चैहान, जनवादी समीक्षा, नया चितंन नये प्रयोग पांडुलिपि प्रकाशन दिल्ली प्र.सं 1979 पृष्ठ 191-192
3. प्रभाकर माचवे, कवि परम्परा तुलसी से त्रिलोचन, आलेख जनता की लहरों पर सवार, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, चैथा संस्करण 2013 पृष्ठ 147
4. नागार्जुन, हजार हजार बाहों वाली, यात्री प्रकाशन दिल्ली सं0 1994 पृष्ठ 11
5. नागार्जुन, तुमने कहा था, वाणी प्रकाशन दिल्ली संस्करण 1988 पृष्ठ 55
6. नागार्जुन, पूर्वोक्त पृष्ठ 18
7. नागार्जुन- हजार हजार बाहों वाली, यात्री प्रकाशन दिल्ली, सं 1994 पृष्ठ 64
8. नागार्जुन, ’क्या हुआ आपको’ कविता से
9. नागार्जुन, चुनी हुई रचनाएं भाग-2 वाणी प्रकाशन दिल्ली सं 2014 पृष्ठ 214
10. नागार्जुन-युगधारा, यात्री प्रकाशन दिल्ली द्वि सं0 1994 पृष्ठ 63
11. नागार्जुन- नागार्जुन चुनी रचनाएं-2 वाणी प्रकाशन दिल्ली सं 2014, पृष्ठ 121
12. राधेश्याम मंगोलपुरी-नागार्जुन की ऊर्जा (आलेख) उद्धृत अलाव 8 मार्च 2000 सं0 राम कुमार बृपक पृष्ठ 17
13. विष्णु खरे, आलोचना अंक/557 पृष्ठ 57
14. डॉ. शिवकुमार मिश्र, दर्शन, साहित्य और समाज पृष्ठ 57 |