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आजादी के उपरान्त की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता (राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता के विशेष सन्दर्भ में) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Hindi Literary Journalism after Independence (With Special Reference to Hindi Literary Journalism of Rajasthan) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Paper Id :
17156 Submission Date :
2023-02-15 Acceptance Date :
2023-02-21 Publication Date :
2023-02-25
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सारांश |
आजादी के उपरान्त वर्तमान तक पत्रकारिता कुछ अलग ही रूप धारण कर चुकी है इसे हम दो भागों में अर्थात् पत्रकारिता के दो अंग राजनीतिक पत्रकारिता तथा साहित्यिक पत्रकारिता में विभाजित कर सकते है। यह दोनों पूर्णरूपेण अलग-अलग होकर एक दूसरे से इत्तर अपनी विशिष्टताओं को धारित करती है। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास केवल 150 वर्षो का इतिहास रहा हैं सन् 1826 ईस्वी में प्रकाशित कलकत्ता का उदन्त मार्तण्ड़ हिन्दी का प्रथम पत्र माना जाता है। भारतेन्दु से पूर्व पत्रकारिता का सैद्धान्तिक उद्भव नहीं हुआ था परन्तु भारतेन्दु के आगमन से इस दिशा में नवीन प्रयोग होने लगे, भारतेन्दु से पूर्व उर्दू पत्रिकाओं की प्रमुखता रही किन्तु हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु का आगमन एक युगान्तकारी घटना सिद्ध होता है तथा हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता अपना नवीन, संगठित स्वरूप धारण करती है। भारतेन्दु के उपरान्त महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा आदर्श व्यक्तित्व पाकर हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता धन्य ही हो जाती हैं हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता अब अपने परिपक्वता के दौर में प्रवेश करती हैं। साहित्य की अन्य विधाओं- कथा- उपन्यास- नाटक-निबन्ध के साथ अन्य को भी ये साहित्यिक पत्रकारिता अपना विषय बनाकर आजादी उपरान्त नवीन विषयवाणी भी सम्मिलित करती है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | After independence, till present, journalism has taken a different form, we can divide it into two parts i.e. political journalism and literary journalism. These two are completely different and hold their own specialities apart from each other. The history of literary journalism of Hindi has been a history of only 150 years. Calcutta's Udant Martand, published in 1826 AD, is considered to be the first Hindi paper. There was no theoretical emergence of journalism before Bhartendu, but with the arrival of Bhartendu, new experiments started in this direction, before Bhartendu, Urdu magazines were prominent, but Bhartendu's arrival in Hindi literature proves to be an epoch-making event and Hindi's literary journalism took its toll. It assumes a new, organized form. After Bhartendu, Hindi literary journalism is blessed to have an ideal personality like Mahavir Prasad Dwivedi. Hindi literary journalism is now entering its maturity. Along with other genres of literature - story-novel-drama-essay, this literary journalism also includes new topics after independence by making others as its subject. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द | आजादी पूर्व की साहित्यिक पत्रकारिता के बिन्दु:- राष्ट्रप्रेम, समाजसुधार, नैतिकता-उपेदश, नवीन विषय-विधाऐं। आजादी के बाद हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता में नवीन बिन्दु:- दलित विमर्श, नारी विमर्श, भूमण्ड़लीकरण, वैज्ञानिक-तकनीकी विषय। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Points of Pre-Independence Literary Journalism:- Patriotism, Social Reform, Moral-preaching, New Subjects-Mmethods. New Point in Hindi Literary Journalism after Independence:- Dalit Discussion, Women's Discussion, Globalization, Scientific-Ttechnical Topics. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तावना |
साहित्य तथा पत्रकारिता का अनन्य सम्बन्ध रहा हैं ये दोनों ही समाज में, सामाजिक वातावरण से पर्याप्त प्रभावित रहती हैं, दोनों ही समाज से अपनी संवेदनाओं को ग्रहण करती हैं। वस्तुतः यह भी कहा जा सकता है कि साहित्य तथा पत्रकारिता दोनों ही समाज का प्रतिबिम्ब है।
पत्रकारिता का सर्वमान्य महत्वपूर्ण कार्य तथ्यों एवं विचारों को प्रकाशित करना हैं वहीं साहित्य भावों तथा विचारों को अभिव्यक्ति देना है, इसी साहित्य की कई विधाओं (कथा, उपन्यास, नाटक, एकांकी, निबन्ध, समालोचना, साक्षात्कार, भेंटवार्ता) में से एक विधा पत्रकारिता रही किन्तु इस विधा में गद्य-पद्य की सब विधाओं का प्रकाशन होने लगा अर्थात् साहित्य की यह विधा, एक अलग विधा बनकर साहित्य को विस्तार देने का कार्य करने लगी है और साहित्यिक पत्रकारिता रूप में जानी जाती है। साहित्यिक पत्रकारिता में वे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाऐं आती है जिनमें साहित्य की अलग-अलग या नवीन विधाओं का प्रकाशन, उनका स्वरूप निर्धारण, नवीन पुस्तकों का सृजन, पुस्तकों की आलोचना, साहित्यिक संगोष्ठियाँ, पुस्तक प्रदर्शनी, लोकर्पण, पुरस्कार, कला अथवा साहित्य से जुड़ी हुई सामग्री-घटनाओं का प्रकाशन होता है जिससे एक सजग साहित्यकार के अतिरिक्त एक सजग साहित्य विद्यार्थी भी लाभ प्राप्त करता है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से वर्तमान तक हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता ने अपने कर्म-धर्म का ईमानदारी से निर्वहन किया है, हिन्दी साहित्य का इतिहास लेखन, हिन्दी का प्रचार-प्रसार, हिन्दी में नये साहित्यकारों को उत्पन्न करना सभी प्रकार के कार्य ये पत्रिकाएँ आधुनिककाल के उत्पन्न होने (1843 ई.) से वर्तमान समय तक करती आ रही है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता के विशेष सन्दर्भ में आजादी के उपरान्त की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | साहित्यिक पत्रकारिता का आरम्भ हिन्दी पत्रकारिता से भिन्न माना जात है, हिन्दी की पत्रकारिता का जन्म कलकत्ता से प्रकाशित 1826 ईस्वी के उदन्त मार्तण्ड़ साप्ताहिक पत्र से हुआ किन्तु हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता वास्तविक अर्थो में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के आगमन तथा उनके द्वारा सम्पादित साहित्यिक पत्रिकाओं से होता है इसी कारण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हम साहित्यिक पत्रकारिता का जनक भी कहते है भारतेन्दु ने बनारस से निम्न 06 पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया था:- 1. कविवचन सुधा 1868 ई. 2. हरिश्चन्द्र मैंगजीन 1873 ई. 3. बाल बोधिनी 4. काशी समाचार 5. हरिश्चन्द्र चन्द्रिका 1874 ई. 6. आर्य मित्र इन पत्रिकाओं से ही हमें सर्वप्रथम साहित्यिक पत्रकारिता के दर्शन प्राप्त होते हैं। भारतेन्दु के इन पत्रिकाओं के कारण ही आधुनिककालीन गद्य की उत्पत्ति एवं इतनी तीव्र गति से विकास को प्राप्त कर पाना संभव हुआ हैं, हिन्दी की इन आरम्भिक साहित्यिक पत्रकारिता से ही हिन्दी गद्य का चलता हुआ व्यावहारिक रूप स्थिर हो पाया। डॉ. नामवर सिंह ने इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए कहा हैं कि:- ‘‘पत्रकारिता को ही लें। सही हैं कि हिन्दी गद्य का निर्माण स्वाधीनता संग्राम के जुझारू और लड़ाकुपन के बीच हुआ। संघर्ष के हथियार के रूप में निस्संदेह, साहित्य के पहले उसका यह रूप हिन्दी की पत्रकारिता, सबसे पहले और सबसे ज्यादा भारतेन्दु की पत्रकारिता में प्रस्फुटित और विकसित हुई थी।’’ |
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मुख्य पाठ |
भारतेन्दु युग से लेकर वर्तमान-युगीन साहित्यिक पत्रकारिता में एक विशिष्ट तथ्य यह रहा कि जो गद्यकार उच्च कोटि का रहा वह उतना ही उच्च कोटि का पत्रकार भी रहा। भारतेन्दु लेकर प्रेमचन्द की परम्परा या प्रसाद से लेकर अज्ञेय की जो शानदार परम्परा हिन्दी सहित्य में एक उत्कृष्ट कोटि के साहित्यकार के साथ पत्रकार की रही, यह परम्परा यही सिद्ध करती हैं कि सभी बड़े साहित्यकार पत्रकार भी रहें हैं जैसे:- महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला, पन्त, माखनलाल चतुर्वेदी, मुक्तिबोध, यशपाल, नामवरसिंह, राजेन्द्र यादव इत्यादि। ‘‘हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में पत्रकारिता की अनन्य देन रही है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से युग-प्रवृत्तियों का प्रवत्र्तन हुआ हैं, विभिन्न विचारधाराओं का उन्मेंष हुआ हैं और विशिष्ट प्रतिभाओं की खोज हुई है। वस्तुतः साहित्य और पत्रकारिता परस्पर पूरक और पर्याय जैसे है शायद इसी कारण लोग पत्रकारिता को‘‘ जल्दी में लिखा हुआ साहित्य ’’और साहित्य को ‘‘पत्रकारिता का श्रेष्ठतम रूप’’ भी कहते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के प्रसंग मे तो यह मणि-काँचन-योग और भी प्रत्यक्ष है।‘‘[1] ध्यातव्य यह भी रखना चाहिए कि आधुनिक हिन्दी साहित्य, उसकी विभिन्न विधाओं, समकालीन कवियों तथा प्राचीन उपेक्षित कवियों को इसी साहित्यिक पत्रकारिता के कारण जनमण में लोकप्रियता मिलती रही है, हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता ने पाठकों को उत्पन्न करने तथा हिन्दी के उत्कर्ष का महत्ती कार्य किया हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण कार्य:- 1. मनोरंजन संग साहित्यिक रूझान को बढ़ावा देना 2. जनसाधारण को हिन्दी साहित्य से जोड़ना 3. साहित्यिक गतिविधियों प्रति जनता में रूचि उत्पन्न करना 4. नवीन विधाओं पर लेखन कार्य 5. विशेषाकों के माध्यम से नये विमर्श उत्पन्न करना 6. सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विषयों पर टिप्पणी करना 7. हिन्दी के नये साहित्यकारों को प्रेरणा-प्रेरक-मार्ग दर्शक बनना साहित्यिक पत्रिकाऐं मूलतः साहित्य को समर्पित होती हैं और इनमें किसी न किसी रूप से गद्य-पद्य की विधाऐं (कविता, कहानी, गीत, गजल, निबन्ध, नाटक, संस्मरण, शब्दचित्र, पुस्तक समीक्षा, साक्षात्कार, आलोचना) तथा इनसे सम्बन्धित कुछ न कुछ तो प्रकाशित होता ही रहता हैं, युगविशेष से सम्बन्धित पत्रिका से उस युग के विचार, समय, समसामयिक घटनाओं, साहित्यिक आन्दोलनों बहस, साहित्यिक समस्याऐं-प्रश्न-चुनौतियों की जानकारी भी प्राप्त होती हैं। साहित्यिक पत्रकारिता मात्र् तकनीक नहीं, बल्कि भाषिक और विचारधारात्मक चेतना भी हैं। भाषिक संवेदन और वैचारिक चेतना के साथ ही वह साहित्य और अन्य ललित कलाओं की तरह स्वयं भी एक सृजनात्मक और कलात्मक रूप है, यह कला भी है और साथ ही विज्ञान भी। आजादी के बाद हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विशेष रूप से प्रसिद्ध दिल्ली से कई नामचीन पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, उनमें से मुख्य रही:- आजकल, अनुवाद, अकविता, आलोचना इन्द्रप्रस्थभारती, समकालीन भारतीय साहित्य गगलाचल, कृति, भाषा, साहित्य-अमृत नटरंग, संचेतना, नंदन, बाल भारती, सार-संसार साप्ताहिक हिन्दोस्थान, हंस, कथादेश, नयाप्रतीक, समीक्षा इत्यादि। प्रमुख हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं का संक्षिप्त परिचय:- 1. हंस- हंस पत्रिका मुंशी प्रेमचन्द द्वारा आरम्भ की गयी जो वर्तमान समय में राजेन्द्र यादव संपादित कर रहे थे किन्तु अब उनका स्वर्गवास हो चुका है। हंस पत्रिका अपने प्रारम्भिक वर्षों से ही साहित्य को नये आयामों की तरफ ले जाने का कार्य कर रही हैं। स्त्री एवं दलित वर्ग को तवज्जों देती यह प्रगतिशील पत्रिका हर वर्ग की वाणी को मुखरित करती रही हैं, कहानियों के साथ उच्चकोटि के साहित्यिक लेख, ज्वलन्त मुद्दे, तद्समयानुसार लेखन तथा अलग-अलग विषयों पर विशेषांक-इस पत्रिका को अलग पहचान देती है। 2. कादम्बिनी- हिन्दुस्तान टाईम्स द्वारा प्रकाशित एक महत्वपूर्ण पत्रिका-कादम्बिनी पत्रिका रही है जो 1960 ईस्वी के समय से वर्तमान तक अपनी उसी साहित्यिक छवि को बरकरार बनाये हुए हैं इस पत्रिका के 1960 ईस्वी यानि प्रारम्भिक वर्षों के सम्पादक बालकृष्ण राव रहे थे। वर्तमान में इस पत्रिका के प्रकाशक तथा सम्पादन मण्ड़ल में मृणाल पाण्डे़ तथा राजेन्द्र अवस्थी जैसे उत्कृष्ट साहित्यकार है। इस पत्रिका की अपनी एक अलग ही पहचान है यह पत्रिका प्रत्येक बार एक नवीन-आकृर्षित विषय लेकर चलती है। 3. ज्ञानोदय/नया ज्ञानोदय- इस पत्रिका प्रारम्भिक वर्षों में इसका नामकरण मात्र् ‘‘ज्ञानोदय‘‘ ही था किन्तु कालान्तर में इसके नाम में परिवर्तन कर इसका नाम ‘‘नया ज्ञानोदय‘‘ रखा गया, वर्तमान में इसके प्रसिद्ध सम्पादक प्रभाकर श्रोत्रिय रहे थे जो एक उत्कृष्ट साहित्यकार के साथ उत्कृष्ट पत्रकार भी रहे है। इस पत्रिका की उच्चता इसी से दिख जाती है कि यह नवीनता को महत्व देती है तथा नये हिन्दी लेखकों की यह खान रही है। 4. अन्यथा- इस पत्रिका की विशिष्टता यह हैं कि ये पत्रिका सयुक्त राज्य अमरिका से निकाली जाती है। स्त्रीविमर्श पर मुख्यतः आधारित यह पत्रिका भारत-अमरीकी हिन्दी भाषी हेतु विशेष रही है। समाज, संस्कृति, शिक्षा, सिनेमा तथा समसामयिकी घटनाऐं भी इसके लेखनी का प्रिय विषय रह है। 5. कसौटी- ‘‘कसौटी’’ के सम्पादक नन्द किशोर नवल ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के दम पर इस पत्रिका को उच्च साहित्यिक पत्रिकाओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था, इस पत्रिका में कविता, उपन्यास, नाटक, इतिहास तथा आलोचना को बेहतर रूपेण प्रकाशित किया जाता रहा था। 6. वागार्थ- वर्तमानकालीन जीवन, समसामयिकता, जीवन के विविधमुखी क्षेंत्र, मनोविज्ञान के आधार बनाकर प्रकाशित होने वाली वागार्थ पत्रिका मुख्यतः महानगरीय जीवन पर केन्द्रित रही है, शहरीजीवन, एकांन्तिक परिवार, मध्यमवर्गीय जीवन का खोखलापन, अजनबीपन इसकी मुख्यथीम रही है। बाजारवाद के साथ-साथ भूमण्ड़लीकरण के उच्च स्वर को मुखरित करने वाली ये पत्रिका अपने विशेषांकों हेतु भी प्रसिद्ध रही। 7. अहा! जिन्दगी- यह एक ऐसी मनोरंजक-साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका रही है जो दैनिक भास्कर, दैनिक समाचार पत्र मण्ड़ल द्वारा प्रकाशित की जाती है, इसमें नये साहित्यकारों को संजीवनी प्राप्त होती है, गीत-गजल के साथ-कभी कभी साहित्यिकारों के जीवन पर भी उत्कृष्ट लेख प्राप्त होते है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों के रेलवे स्टेशनों तथा बस-स्टेशनों की बुक-स्टॉल्स पर यह बहुधा मिल जाती है तथा यात्रिओं में विशेष प्रसिद्धी प्राप्त है। 8. भाषा- भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी भाषा साहित्य की अमूल्य निधि पत्रिका ‘भाषा’ केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, माध्यमिक शिक्षा और उच्चतर शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार द्वारा प्रकाशित इस पत्रिका के प्रसिद्ध संपादक डॉ. शशि भारद्वाज रहें, जिन्होंने अपनी कर्तव्यनिष्ठा से भाषा और अनुवाद, भाषा और कम्प्यूटरीकरण, भाषा और प्रौद्योगिकी, सूचना और साहित्य एवं साहित्य और विज्ञान जैसे ज्वलन्त विषयों पर हुऐ लेखन को प्रकाशित करवाया। 9. योजना- हिन्दी के जाने-माने प्रख्यात विद्वान विश्वनाथ त्रिपाठी के सम्पादन से निकली यह पत्रिका नई दिल्ली से प्रकाशित होती रही है। इस पत्रिका में भूमण्ड़लीकरण बाजारीकरण, विश्वसाहित्य, भारत-एशिया महाद्वीप, चिकित्सा इत्यादि अनेक विषयों पर मुखर लेखन होता आया है। 10. आलोचना- आलोचना पत्रिका एक त्रैमासिक पत्रिका रही है जो प्रख्यात आलोचक तथा साहित्यकार नामवर सिंह द्वारा प्रारम्भ की गयी थी, वर्तमान तक इसके संपादक हिन्दी के नये साहित्यकार-कवि अरूण कमल है, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित यह पत्रिका आलोचना के क्षेंत्र में नये कीर्तिमान आयोजित कर रही है इस पत्रिका का मुख्य प्रिय विषय हिन्दी के नये साहित्य-साहित्यकारों की कर्तव्यों की समालोचना करना रहा है। 1. पाखी- आधुनिक समय ऑनलाईन तथा इन्टरनेट का समय है इसी कारण हिन्दी की कईं पत्रिकाऐं अब ऑनलाईन तथा इन्टरनेट पर उपलब्ध है इनमें से भी प्रसिद्ध हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका ‘‘पाखी’’ रही है जो नामवर सिंह द्वारा लोकार्पित होने के उपरान्त से अभी तक समाज-साहित्य को अपने लेखन से तृप्त करती आ रही है। इसी के साथ जयपुर जो हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का गढ़ बनने लगा, वहाँ से (1960 के आस-पास से) श्रीमान हेतु भारद्वाज ने अपने प्रखर व्यक्तित्व से निम्न पत्रिकाओं की प्रस्तुत की:- अक्सर, पंचशील शोध पत्रिका, समय-माजरा, मधुमती, तटस्थ आजादी के बाद की प्रबल, प्रमुख तथा प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका के रूप में ‘‘सप्तक’’ माने गये है जो अज्ञेय द्वारा सम्पादित रहें एवं प्रयोगवाद तथा नयी कविता काव्यधारा के प्रवर्तक रूप में भी रहे है:- तार सप्तक 1943 ई., दूसरा सप्तक 1951 ई., तीसरा सप्तक 1959 ई., चौथा सप्तक 1979 ई.।
इसी प्रकार की एक अन्य युगान्तकारी पत्रिका जगदीश गुप्त द्वारा संपादित ‘नयी कविता 1954’ रही जिसने हिन्दी के साहित्य संसार में एक नयी काव्यधारा ‘नयी कविता’ प्रारम्भ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी के साथ हिन्दी साहित्य की आजादी बाद की 1960 दशक उपरान्त की कुछ मुख्य साहित्यिक पत्रिकाऐं निम्न है:-
आजादी के उपरान्त हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता में जो एक नया विषय प्रारम्भ होता है वह है - दलित विमर्श और इस दलित विमर्श को व्यापक विमर्श प्रदान करने में दलित साहित्यिक पत्रिकाओं तथा पत्रकारिता ने अभिनव कार्य-भूमिका निर्वहन की है, कुछेक हिन्दी का साहित्यिक दलित पत्रिकाऐं निम्न है:-
वर्तमान काल में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को ‘समकालीन पत्रकारिता’ नाम से संज्ञित किया जाता है, यह समकालीन पत्रकारिता ज्वलन्त मुद्दों तथा साहित्यिक प्रश्नों पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखती है, कुछेक नामोल्लेख:-
राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास:- हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक का मानना रहा है कि हिन्दी भाषा संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश-अवहट्ठ भाषाओं की यात्रा में अवहट्ठ भाषा से उत्पन्न हुई तथा आधुनिक समय में इसे 05 उपभाषाओं-पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी बिहारी, तथा पहाड़ी भाषाओं में विभाजित किया जाता रहा है, हिन्दी भाषी राज्य 11 के आास-पास रहें है जैसे:- दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखण्ड़, छत्तीसगढ़, अरूणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बिहार। इन हिन्दी भाषी राज्यों में एक हिन्दी भाषी राज्य राजस्थान भी सम्मिलित है। हमनें यह अध्ययन उपरान्त निष्कर्ष पाऐं थे कि - भारतवर्ष में हिन्दी पत्रकारिता का शुभारम्भ 1826 ईस्वी में कलकत्ता से प्रकाशित, पं. जुगल किशोर द्वारा संपादित ‘उदन्त मार्तण्ड़ से होता है। इस पत्र् के उपरान्त हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का क्रम निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य रखना होगा कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता भारतेन्दु युग (पुनर्जागरण काल) में हीं प्रारम्भ होती है तथा इसके प्रारम्भकत्र्ता वास्तविक अर्थों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तथा उनके द्वारा प्रकाशित-सम्पादित पत्रिकाएँ रही जिनमें मुख्यरूपेण गण्य निम्न है- 1. कविवचन सुधा 1868 2. हरिश्चन्द्र मैंगजीन 1873 3. हरिश्चन्द्र चन्द्रिका 1874 भारतीय पत्रकारिता का इतिहास यहाँ कि राजनीतिक परिस्थितियों से अनन्यरूपेण सम्बद्ध रहा है, राजनीतिक उथलपुथल 1857 की क्रान्ति हों या 1947 का संग्राम हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता ने अपने धर्म का निर्वहन करते हुए इनके वर्णन के साथ सामाजिक सरोकारों का भी निर्वहन किया है। ‘‘राजस्थान में हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास’’ में हम इन्हीं बिन्दुओं को समाहित कर इसका अध्ययन करेगें कि राजस्थान में कब, कहाँ तथा किस समय से हिन्दी भाषा व्यापक रूप धारण कर अपनी साहित्य लेखनी तथा साहित्यिक पत्रकारिता से राजस्थानी जनमानस को उद्धेलित करती है। भारतीय इतिहास में जब बड़े-बड़े राज्यों उत्तरप्रदेश, मद्रास, मुम्बई आदि में पत्रकारिता की जड़े जब अधिक मजबूत हो चुकी थी, आधा भारत प्रेस की स्वतन्त्रता हेतु संघर्षमय था, उस समय तक राजस्थान में किसी मुद्रणालय के दर्शन तक नहीं थे, लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कही जाने वाली पत्रकारिता जन-जागरण का सशक्त माध्यम रही है किन्तु राजस्थान में इसकी दयनीय स्थिति देखकर यह प्रथम दृष्ट्या आभास होता है उस समय की राजनीतिक तथा सामाजिक परिवेश इसके अनुकूल तो बिल्कुल नहीं थे। इन्हीं कारणों के मद्देनज़र ही हमें राजस्थान में हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास समझना चाहिऐ। सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर वैदिक सभ्यता, महाभारतकालीन समय, गृप्त तथा मौर्यो के उपरान्त राजपूत शासन को राजस्थान तथा उसकी जनता ने देखा था किन्तु मुसलमानों के आगमन का सर्वप्रथम तथा व्यापक प्रभाव हमें राजस्थान में ही देखने को मिलता है। राजपूत राजाओं की वीर प्रसूता भूमि में राजपूतों के संग मुसलमानों का शासन भी स्थापित हुआ। राजस्थान में एक समय वो भी रहा जिसमें केन्द्रिय शक्ति का सर्वथा अभाव रहा तथा इसी कारण मराठों और पिण्ड़ारियों ने इस भूमि पर जमकर आक्रमण किए, जिस कारण यहाँ की जनता तथा राजा के पास अंग्रेजों से सन्धि करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहा था। 1803 से 1818 ईस्वी के मध्य अंग्रेजी ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी ने अपनी छद्म सन्धियों के माध्यम से राजपूताने के राजाओं को धोखे में रखा अर्थात् यूँ कहें कि अंग्रेजों ने अप्रत्यक्षरूपेण अपनी सत्ता राजपूताने पर कायम कर ली थी। सन् 1818 से 1857 के मध्य राजपूताने में अंग्रेजों ने विभिन्न नीतियों पर कार्य किया जिनमें कभी क्षेत्र के आन्तरिक विषयों में हस्तक्षेप, तो कभी अपने स्वार्थो की पूर्ति के हेतु मौन रह जाना, कभी आक्रमण कभी संरक्षण, कभी साम्राज्य विस्तार तो कभी जागीरों का गठन किया गया। राजा-महाराजा इस समय में तो नाममात्र् के ही शासनकर्ता रह गये थे, उनमें राष्ट्रप्रेम तथा जागृति की अति कमी थी इसी का परिणाम 1857 ई. की क्रान्ति में देखने को मिलता हैं। अंतिम मुगल सम्राट द्वारा जब 1857 की क्रान्ति का आहृवान करके ये कहा किया कि - ‘स्वाधीनता की इस क्रान्ति युद्ध में विजयमाला तभी प्राप्त होगी जब कोई ऐसा व्यक्ति मैदान में आये, राष्ट्र की विभिन्न शक्तियों को संगठित कर एक ओर लगा सके, सारे आन्दोलन का दायित्व और संचालन संभाल सके और जो समूचे राष्ट्र के जनसाधारण का प्रतिनिधित्व कर सके....यदि आप राजा लोग शत्रु को भगा देने के लिए अपनी तलवार उठाकर आगे आने के लिए प्रस्तुत हो, तो मैं अपने तमाम शाही अख्यारात किसी ऐसे संघ या पंचायत के हाथ में सौंप दूंगा, जिसे इस काम के लिए चुना जाये।‘‘[2] किन्तु 1857 में राजपूताने की अजागरूकता तथा राजाओं की उदासीनता के चलते 1857 की क्रान्ति राजस्थान में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारत में विफल रही थी। 1857 की क्रान्ति के उपरान्त अंग्रेजी सत्ता ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के हाथों से ब्रिटिश क्राउन के अन्तर्गत आ जाती हैं, नीति-निपुण अंग्रेजी शासकों ने इस क्रान्ति के असफल होने के बाद भी देशी रियासतों को समूल उखाड़ फैंकना उचित न समझा क्योंकि ऐसा करने में उन्हें जनता की राष्ट्रीय भावना जाग्रत होने का खतरा था इसी कारण 1857 की क्रान्ति के बाद भी इन अंग्रेजों ने राजाओं के परम्परागत राजकीय विशेषाधिकारों और सम्मान को सुरक्षित रखने का आश्वासन देकर धीरे-धीरे समूचे राजपूताने में अपने पोलिटिक्ल एजेन्ट नियुक्त कर दिये तथा धीरे-धीरे सत्ता को केन्द्रीकृत कर उस पर अपरोक्ष कब्जा कर दिया था। राजनीतिक मानचित्र में परिवर्तन आने के साथ-साथ प्रदेश का आर्थिक ढाँचा भी गड़बडाने लगा, अंग्रेजों द्वारा रेलगाड़ियों, आवागमन साधन चलाते, विदेशीमाल लाने-बेचने इत्यादि के कारण धन निष्कासन बड़ी तीव्र गति से होने लगा। प्रशासनिक सुधारों के नाम पर सरकार ने जो अधिकारी तैनात किये थे वे फारसी, उर्दु, अंग्रेजी में राजकाज चलाते थे शिक्षा का माध्यम भी उर्दु ही रहा साथ ही उच्चशिक्षा अंग्रेजी माध्यम की रही। इन सब कारणों से हिन्दू जनता अशिक्षित तथा असंस्कृत ही रही उनका उत्तरोत्तर पतन ही होता जा रहा था क्योंकि उनकी स्थानीय भाषाओं को कहीं पर भी स्थान या सम्मान नहीं दिया जा रहा था। प्रारम्भिक प्रयत्न:- राजस्थान में हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में पत्रकारिता के हेतु जो प्रारम्भिक प्रयत्न किये गये वो समाज के उच्च वर्ग द्वारा प्रारम्भ हुए। तत्कालीन राजाओं ने जनता में अपने आदेशों-आज्ञाओं तथा नियमों के प्रचार हेतु राजपत्र निकालने प्रारम्भ किये थे, किन्तु वास्तविक पत्रकारिता उसके ईमानदार उद्देश्यों के साथ निम्न पत्रों से प्रारम्भ होती है जिनका ध्येय जनता में शिक्षा, नैतिकता, भाषा का प्रचार-प्रसार कर उन्हें जाग्रत करना रहा था। 1856 - राजपूताना अखबार-जयपुर 1861- जगलाभ चिन्तक- अजमेर 1862- जगहित कारक - अजमेर आर्य समाजी पत्र - सज्जन कीर्ति सुधार, देशहितैषी महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से राजस्थान में आर्य समाज तथा आर्य समाज की शाखाऐं स्थापित हुई महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने आर्य समाज के सिद्धान्तों में हिन्दी भाषा को स्थान देकर उसे संस्कृत समान सम्मान देकर अपने ग्रन्थों तथा आयी समाजी पत्रों के माध्यम से इसका प्रचार-प्रसार विशेष रूप से किया, राजस्थान में हिन्दी के प्रचार तथा पत्रकारिता में हिन्दी का उपयोग करने के पीछे महर्षि सरस्वती तथा आर्य समाज का अग्रणी योगदान रहा है। ‘‘सज्जन कीर्ति सुधाकर के प्रकाशन के पीछे महर्षि दयानन्द की सशक्त प्रेरणा रही थी, उन्हीं की प्रेरणा से अजमेर में परोपकारी सभा का गठन हुआ और वैदिक मंत्रालय की स्थापना हुई। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्वराज्य, स्वभाषा तथा स्वदेशी का जो मन्त्र दिया, उसे प्रचारित करने के लिए आर्य समाजी पत्रकारिता ने जन्म लिया था...................देशहितैषी राजस्थान में इस पत्रकारिता का अग्रणी बना।‘‘[3] महर्षि दयानन्द की पत्रकारिता का मूलस्वर हाँलाकि साहित्यिक न होकर समाजिक तथा धार्मिक रहा किन्तु उन्होंने जो मन्त्र दिये वे राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता के भी मूल-मन्त्र कालान्तर में सिद्ध हुऐं:- स्वराज्य, स्वभाषा, स्वदेशी देश हितैषी के उपरान्त राजस्थान में पत्रकारिता का ढाँचा तेजी से बदलने लगा तथा:- मारवाड़ गजट - 1866, जयपुर गजट - 1878, उदयपुर गजट - 1869 साहित्यिक पत्रकारिता का जन्म- महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से राजस्थान के प्रबुद्ध साहित्यिकारों में राष्ट्रीय चेतना, हिन्दी भाषा के प्रति लगाव उत्पन्न हुआ तो वहीं दूसरी तरफ गजट पत्रों के माध्यम से भाषा का निर्माण, प्रेस की व्यवस्था उत्पन्न हुई - इन्हीं दो महत्वपूर्ण कार्यों से राजस्थान की साहित्यिक पत्रकारिता हिन्दी भाषा में उल्लेखित होने लगी थी - राजस्थान में लोकचेतना और उससे सम्बद्ध पत्रिकाओं की स्वाधीनता का वातावरण 19वीं सदी के अन्तिम चरण से ही बनने लगा था। ब्रिटिश शासित प्रदेशों में समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं की शक्ति और प्रभाव से राजस्थान में भी इस क्षेंत्र की ओर भरसक प्रयास प्रारम्भ हुऐं। राजस्थान में प्रकाशित उस समय के प्रमुख पत्र:- राजपूताना हैराल्ड़, राजपूताना गजट, राजपूताना मालवा टाइम्स, राजस्थान समाचार ‘‘इस प्रकार पत्रकारिता के प्रारम्भिकयुग में राजस्थान के कुछ पत्रों ने इस सीमा तक राजनीतिक चेतना का संचार करने में बहुत बड़ा योगदान दिया कि वे ब्रिटिश शासन की करतूतों के विरूद्ध रियायती शासकों की और जनता को सजग करने लगे। उन्हें यह भान कराया जाने लगा कि जिस ब्रिटिश सत्ता के भरोसे वे निष्क्रिय होकर आत्म-प्रवचना की स्थिति में जी रहे है वह सर्वथा त्याज्य और अवांछनीय हैं, और इस स्थिति से जितनी जल्दी मुक्ति प्राप्त कर ली जाए वही श्रेयष्कर है।’’[4]
प्रारम्भिक साहित्यिक पत्रिकाएँ:- राजस्थान के प्रसिद्ध पत्रों से प्रेरणा प्राप्त कर हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएँ भी कुछेक मात्रा में प्रकाशित होने लगी जो निम्न रही है:- हरिश्चन्द्र चन्द्रिका- मोहन चन्द्रिका सन्दर्भ स्मारक, भारत - मार्तण्ड, समालोचक, सौरभ, त्यागभूमि, सर्वहित, प्रसिद्ध चत्रावली राजस्थान में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को प्रभावित करने वाले विषय निम्न थे:- 1857 की क्रान्ति, राजा-महाराजाओं की परम्परागत निरकुंशता, महर्षि दयानन्द सरस्वती, सामाजिक परम्परागत ढाँचा, सामन्ती जीवन, पूजा परिषद्, किसान आन्दोलन, प्रमुख स्वाधीनता सैनानी, राजस्थानी कवि, प्रमुख जननेता, स्वदेशी आन्दोलन, कांग्रेस के आन्दोलन, राजनीतिक पत्रों का प्रभाव, मिशनरी पत्रकारिता, तिलक द्वारा प्रकाशित पत्र, बिजौलिया किसान आन्दोलन तथा विजय सिंह पथिक, जन आन्दोलन, राजस्थानी भाषा की साहित्यिक रचनाएँ, राजस्थान कवियित्रियों की नारी चेतना, गाँधी का व्यापक प्रभाव, दैनिक समाचार पत्रों का उद्भव होना। परम्परागत रूप से ही पिछड़ेपन की शिकार इस मरूभूमि ने अलग-अलग युगों को भोगा था किन्तु आश्चर्यजनिक तथ्य यह रहा कि राजस्थान जैसे क्षेंत्र ने पराधीनता के उस युग में पत्रकारिता के क्षेंत्र में विशेष उन्नति तथा प्रभाव रखा, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी साहित्य के संवर्द्धन और विकास में न केवल नये कीर्तिमान स्थापित किये गये वरन् यह राजस्थान की वीरता के समकक्ष ही गौरव का विषय भी रहा।
प्रमुख साहित्यिक (हिन्दी) पत्रिकाएँ:- ‘‘यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि इन पत्रों-पत्रिकाओं का प्रारम्भ करने वाले प्रबुद्धचेता व्यक्ति थे, जिनकी अनुरक्ति राजनीति की अपेक्षा साहित्य में अधिक थी और जो साहित्य की विभिन्न रचनात्मक विधाओं के माध्यम से विचार क्रान्ति की भूमिका निभाने के दायित्व को उठाने के लिए तत्पर थे। इस प्रकार के पत्रों में ‘विद्यार्थी सम्मिलित हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका, सन्दर्भ स्मारक, भारत मार्तण्ड़ समालोचक, सौरभ, त्यागभूमि आदि के नाम से विशेष रूप से उल्लेखनीय रहे है।‘‘[5] विद्यार्थी सम्मिलित हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका:- हिन्दी साहित्य जगत् के साहित्यकारों और विद्यार्थियों को यह साधारण जानकारी किन्तु विशिष्ट तथ्य निरन्तर स्मरण में रहता हैं कि हिन्दी पत्रकारिता के जनक कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1874 में जिस ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया था वह 1880 में बन्द हो गयी थी किन्तु राजस्थान के वरिष्ठ साहित्यकार पण्ड़ित विष्णुलाल पण्ड्या ने भारतेन्दु लेखनी के सम्मान देने हेतु मोहनलाल पण्ड्या की ’’विद्यार्थी सम्मिलित हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका‘‘ नाम से भारतेन्दु लेखनी को जीवन रखने हेतु उदयपुर से इसका प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्रिका में हिन्दी की तत्कालीन प्रचलित विधाओं, सृजनात्मक लेख, सामयिक विषय पर टिप्पणियाँ करती थी। सन्दर्भ स्मारक:- विद्यार्थी सम्मिलित हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका’’ के समानान्तर ही यह मासिक पत्रिका भी उदयपुर से ही प्रकाशित होती थी, 1883 में इसका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। भारत मार्तण्ड़:- पण्डित रामकरण आसोप द्वारा सम्पादित यह पत्रिका राजस्थान के विभिन्न भागों से प्रकाशित करवाने की योजना पर प्रारम्भ हुई थी, इस पत्रिका में भी हिन्दी की विविध साहित्यिक विधाओं पर लेखन हुआ साथ ही यह एक सामाजिक, राजनीतिक लेखावली वाली पत्रिका के रूप में भी अपनी पहचान बनाती रही थी। समालोचक:- राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता जहाँ सर्वप्रथम क्षेंत्र से प्रारम्भ रही वहीं आश्चर्यजनक विषय जयपुर का रहा था कि जयपुर जैसे साहित्य प्रेमी शहर में जहाँ कभी बिहारी, पद्माकर हुआ करते थे- वहाँ साहित्यिक पत्रिकाओं का अकाल था किन्तु यह कमी एक युगान्तकारी पत्रिका में प्रकाशन से समाप्त हो गयी तथा वह साहित्यिक पत्रिका थी-समालोचक ‘‘समालोचक के प्रकाशन का लक्ष्य ही हिन्दी साहित्य की आलोचना के साथ-साथ युग की माँग के अनुरूप सांस्कृतिक पुनर्जागरण एवं राष्ट्रीयतापरक साहित्य के प्रकाशन में महत्वपूर्ण योगदान देना भी था। समालोचक में किस प्रकार की समीक्षाऐं छपती थी, इसका आभास बाबू बालमुकुन्द गुप्त की ‘‘स्फुट कविता’’ नामक पुस्तक की समीक्षा के निम्नांकित अंश से सहज ही हो जाता हैं -‘‘भूमिका में क्या चोट के वाक्य लिखे गये है-‘‘भारत में कवि भी नहीं हैं, कविता भी नहीं है‘‘[6] पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण करने पर प्रहार करने वाली समालोचक ने स्वदेश प्रेम और भारतीय संस्कृति पर निरन्तर प्रभावशाली टिप्पणियाँ भी लिखी थी। सत्साहित्य और विशेषरूप से राष्ट्रीय चेतना से परिपूरित साहित्य के प्रकाशन को समालोचक बराबर प्रोत्साहित करता रहा था। सौरभ - हिन्दी साहित्य की साहित्यिक पत्रकारिता के एक नये युग के रूप में शारदा पत्रिका मध्यप्रदेश तथा 1920 में झालावाड़ निवासी रामनिवास शर्मा के सम्पादन में ‘‘सौरभ’’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। उस समय के तत्कालीन साहित्यकारों ने इसे सरस्वती के टक्कर की पत्रिका मानी थी। इस पत्रिका में प्रकाशित लेखों तथा कविताओं का स्वयं अपना एक स्तर था क्यांेकि इससे प्रकाशित सामग्री के सामग्रीकार (मिश्रबन्धु, रामनरेश त्रिपाठी, किशोरी सिंह बारहठ) भी विशिष्ट थे। इसके सम्पादक का संपादकीय उस समय की सभी हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता के ध्येय को उजागर करता है:- ‘‘सामयिक प्रचलित आन्दोलन में इस तरह का साहित्य उत्पन्न किया जाये कि जिसे पढ़कर लोग इस आन्दोलन के स्वतन्त्र आदर्शवाद को इस दर्जे तक समझ सके कि वे दूसरों के सच्चे मार्गदर्शक भी बन सकें। जाति के बालकों की और उसके अन्य अंगों की भी प्राकृतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के विकास, उनमें आविष्कार की शक्ति की जागृति के उपायों, उनके सामुख्य से विजयी होने के समुचित साधनों पर पूर्णतः प्रकाश डाला जाऐं।[7] त्यागभूमि:- राजस्थान की मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, तथा मालवी बोलियों को हिन्दी भाषा में गिना जाता रहा हैं इस कारण राजस्थान हिन्दी भाषी क्षेत्र रहा तथा इस क्षेंत्र में प्रमुख रूप से जयपुर-अजमेर हिन्दी भाषा के केन्द्र माने जाते रहें हैं। राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता में ‘‘त्यागभूमि’’-पत्रिका का प्रकाशन अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना के रूप में चिरविस्मरणीय रही हैं, 1927 में अजमेर से प्रकाशित यह पत्रिका मूलरूपेण साहित्यिक रही तथा इसका सदैव मूलमन्त्र- जीवन, जागृति, बल और बलिदान-रहा था। ‘‘1927-28 में देश में जिस नये राजनीतिक ज्वार और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उदय हुआ, उसको वाणी देने में ‘‘त्यागभूमि’’ ने बहुत मूल्यवान कार्य किया। इसके प्रमुख पत्रकार तथा लेखक जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द तथा हरिकृष्ण प्रेमी रहे थे। सामग्री का जो वैवध्य इस पत्रिका में दृष्टिगोचर होता है, वह उस युग की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रतिबिम्बित करता हैं।‘‘[8] त्यागभूमि‘‘- पत्रिका एक साहित्यिक पत्रिका तो थी हीं किन्तु साथ ही उसमें शासकीय अत्याचार, प्रखर संपादकीय टिप्पणियाँ, गाँधीवादी विचारधारा से परिपूर्ण रचनाऐं भी मिलती रही थी। साहित्यिक पत्रकारिता के दूसरे दौर में परवर्तीकाल के ‘‘विद्यार्थी सम्मिलित पत्रिका, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका तथा मोहन चन्द्रिका के साथ समालोचक, सौरभ, भारत मार्तण्ड़, त्यागभूमि जैसी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ-साथ कालान्तर में अन्य महत्वपूर्ण पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हुआ जैसे:- चारण राजस्थान, गणेश, प्रकाश, हितैषी, चांदनी, भाई बहिन, बालहित, मारवाड़ी गौरव, राजस्थान क्षितिज। राजस्थान में जिस साहित्यिक पत्रकारिता की परम्परा का सूत्रपात मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, रामकरण आसोपा, रामनिवास शर्मा और हरिभाऊ उपाध्याय जैसे प्रकाण्ड़ विद्ध साहित्यकारों द्वारा किया गया उसे प्रशस्त करने का दायित्व स्वाधीनता प्राप्ति के बाद राजस्थान के हिन्दी साहित्यकारों ने अनेक संघर्ष करते हुए अपने कंधों पर लिया था। 1950 के बाद राजस्थान की प्रमुख हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता निम्न रही थी:- नई चेतना (बीकानेर) मरूवाणी (जयपुर) लहर (अजमेर) ज्योति (जयपुर),मरू भारती (पिलानी) वातायन (बीकानेर), विजयी (जयपुर), प्रेरणा (जोधपुर), मधुमती (उदयपुर), परम्परा (जोधपुर), शोध पत्रिका (उदयपुर), वरदा (बिसाऊ) वानर (जयपुर), वैज्ञानिक बालक (जयपुर)। |
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निष्कर्ष |
‘‘लगभग एक सदी तक संघर्षो के दौर से गुजरने और तदन्तर आपत् स्थिति के दुष्परिणामों को भोगने के बाद निःसन्देह राजस्थान की पत्र्-पत्रिकओं के संपादकों को सोचने की एक नई दिशा मिलती है और उन्हें बदली हुई परिस्थितियों के सन्दर्भ में जन आकांक्षाओं के अनुरूप अपने दायित्व का बोध हुआ हैं। राजस्थान के हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता को हम अध्ययन तथा अनुसंधान की दृष्टि से मुख्यतः दो भागों में विभाजित कर सकते है:- उत्पति से 1960 ईस्वी तक 1960 से वर्तमान ईस्वी तक, प्रथम:- उत्पति से 1960 ईस्वी तक की राजस्थान की हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता में हम निम्न प्रवृत्तियों को मद्देनजर देख सकते है:- हिन्दी की विविध विधाओं पर लेखन, समसामयिक समस्याओं का यथार्थ अंकन, हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार, राष्ट्रीय प्रेम, 1857 की क्रान्ति आजादी संग्राम, समाज सुधार, धर्म सुधार, राजनीतिक स्थिति का वर्णन, आजादी के प्रति जनमत निर्माण, आजादी उपरान्त ‘सपनों का भारत’ का वर्णन, समाज के आदर्शों पर जीवनियाँ
वर्तमान तक हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का स्वरः- साक्षात्कार, भेंटवार्ता, यात्रावृत तथा साहित्यकारों का जीवन चरित्र, लघुकथाओं माध्यम से शैक्षिक मनोरंजन, यथार्थ भाव, राजनीतिक विफलताओं का वर्णन, स्तम्भ लेखन, टिप्पणियाँ, संपादकीय कोना, जनसाधारण को साहित्य से जोड़ना, अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति, विशेषाकों के माध्यम से नवीन विमर्शों का प्रारम्भ करना, तद्समय की आवश्यक्तानुरूप चित्रण, लोकमंगल, परहितसुखाय् का चित्रण्। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता:- प्रो. सूर्यप्रकाश दिक्षित पृ.सं. 101
2. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 23
3. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 29़
4. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 38
5. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 100
6. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- डॉ.. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 101
7. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- डॉ.. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 10
8. राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता:- डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित पृ.सं. 120 |