P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VI February  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
राजस्थान के कल्पवृक्ष खेजड़ी पर अस्तित्व का संकट: एक समीक्षात्मक अध्ययन
Existential Crisis on Kalp Vriksha Khejdi of Rajasthan: A Critical Study
Paper Id :  17217   Submission Date :  2023-02-03   Acceptance Date :  2023-02-21   Publication Date :  2023-02-25
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योगेश कुमार सबल
सह आचार्य
भूगोल विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय, गोविन्दगढ़,
चैमूँ, जयपुर,राजस्थान, भारत
सारांश
राजस्थान का एक बड़ा भू-भाग मरुस्थलीय होने के कारण यहां कम पानी में पनपने वाले पेड़-पौधे अधिक पाये जाते हैं। खेजड़ी एक ऐसा ही पेड़ है जो यहाँ बहुतायत में पाया जाता है। भीषण गर्मी में भी यह पशुओं एवं इंसानों को छाया देता है। खेजड़ी की पत्तियों को ‘लूम‘ तथा फल को ‘सांगरी’ कहते हैं। प्रदेश की शुष्क जलवायु और कठिन परिस्थितियों में सामंजस्य रखने वाले इस बहुद्देशीय पेड़ को वर्ष 1983 में राजस्थान का राज्य वृृक्ष घोषित किया गया। राजस्थान के विश्नोई समाज के लोग शमी वृृक्ष को अमूल्य मानते हैं। इस सम्प्रदाय के सैकड़ों लोगों द्वारा जोधपुर के खेजड़ली गांव में वृृक्षों की रक्षा के लिए दिया गया, बलिदान आज भी प्रेरणादायक है। राजस्थान की सांस्कृृतिक, आर्थिक और सामाजिक धरोहर जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रही है। ये पेड़ लगातार सूखते जा रहे हैं। राजस्थान सरकार की ओर से पिछले कई सालों से राज्य वृृक्ष खेजड़ी की कटाई को रोकने के लगातार प्रयास किये जा रहे है। सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयास काफी हद तक सफल भी रहे हैं। लेकिन आज भी राज्य में कई स्थानों पर छूट प्राप्त वृृक्षों की आड़ में राज्य वृृक्ष खेजड़ी की चोरी - छिपे कटाई हो रही है तथा सरकार द्वारा इसके संरक्षण के लिए भी कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये हैं। खेजड़ी थार रेगिस्तान में उगने वाली वनस्पति में अति महत्वपूर्ण वृृक्ष है। यह राजस्थान की संस्कृृति का अभिन्न अंग है। खेजड़ी को रोग, कीट के आक्रमण से बचाने एवं इसकी अवैध कटाई को रोकने के लिए विशेष कदम उठाने होंगे।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Due to a large area of Rajasthan being desert, trees and plants that grow in less water are found more here. Khejdi is one such tree which is found here in abundance. It gives shade to animals and humans even in the scorching heat. The leaves of Khejdi are called 'Lum' and the fruit is called 'Sangri'. This multi-purpose tree, which is in harmony with the dry climate and difficult conditions of the state, was declared the state tree of Rajasthan in the year 1983. People of Bishnoi community of Rajasthan consider Shami tree as invaluable. The sacrifice made by hundreds of people of this sect to protect the trees in Khejdli village of Jodhpur is inspiring even today. The cultural, economic and social heritage of Rajasthan is facing the brunt of climate change. These trees are constantly drying up. For the last several years, continuous efforts are being made by the Government of Rajasthan to stop the felling of the state tree Khejdi. The efforts being made by the government have also been successful to a large extent. But even today, the State Tree Khejdi is being felled secretly under the guise of exempted trees at many places in the state and no special efforts have been made by the government for its protection. Khejdi is a very important tree in the vegetation growing in the Thar Desert. It is an integral part of the culture of Rajasthan. Special steps will have to be taken to save Khejdi from disease, pest attack and to stop its illegal harvesting.
मुख्य शब्द शुष्क जलवायु, राज्य वृृक्ष, शमी वृृक्ष, सांगरी, भफोड़ा, संवहन तंत्र आदि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Dry Climate, State Tree, Shami Tree, Sangri, Bhafoda, Convection System etc.
प्रस्तावना
राजस्थान की शुष्क जलवायु के कारण यहां की वनस्पतियां पारिस्थितिकी के अनुकूल विशिष्टता लिए हुए होती हैं। प्रदेश का एक बड़ा भू-भाग मरुस्थलीय होने के कारण यहाँ कम पानी में पनपने वाले पेड़-पौधे अधिक पाये जाते हैं। खेजड़ी एक ऐसा ही पेड़ है जो यहाँ बहुतायत से पाया जाता है। इस बहुद्देशीय पेड़ का प्रत्येक भाग किसी न किसी रुप में यहां के प्राणियों के लिए उपयोगी है। इसीलिए इस पेड़ को मरु प्रदेश का कल्पवृृक्ष भी कहा जाता है। सूखे व अकाल जैसी विपरीत परिस्थितियों का भी खेजड़ी पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि ऐसी परिस्थितियों में भी यह मरुक्षेत्र के जनजीवन की रक्षा करता है। खेजड़ी के पेड़ में सूखा रोधी गुण होने के अलावा इसमें सर्दियों में पड़ने वाले पाले तथा गर्मियों के उच्च तापमान को भी सहजता से सहन कर लेने की क्षमता होती है। वनस्पति विज्ञान में इसे ‘प्रोसोपिस सिनेरेरियो‘ के नाम से जाना जाता है। प्रदेष की शुष्क जलवायु और कठिन परिस्थितियों में सामंजस्य रखने वाले इस बहुद्देशीय पेड़ को 31 अक्टूबर 1983 को राजस्थान का राज्य वृृक्ष घोषित किया गया। खेजड़ी को ‘राजस्थान का गौरव’ व ‘राजस्थान का कल्पतरु’ अथवा ‘राजस्थान का कल्पवृृक्ष भी कहा जाता है। इसका व्यापारिक नाम ‘कांडी’ है। भारत के विभिन्न प्रान्तों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। दिल्ली क्षेत्र में इसे जांटि, पंजाब व हरियाणा में जांड, गुजरात में सुमरी, कर्नाटक में बनी, तमिलनाडु में बन्नी, सिन्ध में कजड़ी के नाम से पुकारा जाता है। वेद व उपनिषदों में खेजड़ी को शमी वृृक्ष के नाम से उल्लेखित किया गया है। दलहन कुल का होने के कारण खेजड़ी भूमि के उपजाऊपन को बढ़ाता है। इसकी निरन्तर झड़ती पत्तियां आसानी से जमीन में मिलकर सड़-गल कर भूमि की उर्वरता को बढ़ती हैं। इसलिए किसान इस वृृक्ष को संरक्षण देता है। भीषण गर्मी में भी यह पशुओं एवं इंसानों को छाया देता है। खेजड़ी की पत्तियां जो लूंग (लूम) कहलाती हैं, पशु इन्हें बडे चाव से खाते हैं। इसके फूल को ‘मींझर’ तथा फल को ‘सांगरी’ कहते हैं। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है। स्थानीय लोग तीज-त्योहार और शादी-विवाह के अवसर पर सांगरी की सब्जी बनाना शुभ मानते है। सांगरी में 8-15 प्रतिशत प्रोटीन, 40-50 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 8-15 प्रतिशत शुगर, 8-12 प्रतिशत फाइबर, 2-3 प्रतिशत वसा, 0.4-0.5 प्रतिशत कैल्शियम, 0.2-0.3 प्रतिशत आयरन तथा अन्य गुणकारी और स्वास्थ्यवर्धक तत्व पाये जाते हैं। इसकी लकड़ी मजबूत होती है, जो जलावन व फर्नीचर में काम आती है। इसकी जड़ से किसान हल बनाते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों में इसे खेतों में लगाते है, इसके नीचे फसल अच्छी होती है। इसकी जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु राइज़ोबियम पाये जाते हैं। केन्द्रीय शुष्क बागवानी विकास संस्थान, बीकानेर द्वारा वर्ष 2007 में खेजड़ी की ‘थार शोभा’ नामक ऊच्च गुणवत्ता वाली नई नस्ल विकसित की है
अध्ययन का उद्देश्य
खेजड़ी की उपयोगिता का विश्लेषण करना तथा इस पर होने वाले संकटों से बचाने का प्रयस करना।
साहित्यावलोकन

राजस्थान राज्य मरुस्थलीय प्रदेश हैजहाँ विषम भौगोलिक परिस्थितियों यथा- भीषण गर्मीअत्यधिक सर्दी एवं वर्षाभाव आदि के कारण बहुत कम प्राकृतिक वृक्ष पनप पाते हैंराजस्थान वन अधिनियम 1953 तथा राजस्थान काश्तकारी अधिनियम 1965 के तहत यहाँ कुछ वृक्ष की प्रजातियों को काटने की छूट दी गयी है जिसकी आड़ में राज्य वृक्ष खेजड़ी की बेधड़क कटाई की जा रही है।

Kaul (1967)  के अनुसार खेजड़ी औषधीय उपयोग हेतु प्राचीन समय से जाना जाता है।

प्रकाशईश्वर (1977) ‘‘भारतीय रेगिस्तान में अद्भुत जीवन‘‘ (ICAR, Jodhpur) लेख में बताया कि भारतीय मरुस्थल रेत के टीले नहींअपितु यह पेड़ों और घासों की रंगीन श्रंखला से खिलता है जिसमें पक्षियों एवं जानवरों के जीवन की अद्भुत विविधता है। इस समृद्ध प्राकृतिक क्षेत्र को मनुष्य केे प्रबल अतिक्रमण से बचाना होगा।

गर्गआकाश (2013) ने अपने शोध पत्र ‘‘खेजड़ी के औषधीय उपयोग‘‘ में खेजड़ी के अर्क का उपयोग

एनाल्जेसिकएंटीपाइरेटिकएंटीहाइपरग्लाइसेमिकएंटीऑक्सीडेंट जैसी गतिविधियों तथा पेचिसअस्थमाल्यूकोडर्माआदि रोगों में होता है।

बिश्नोईसरस्वती (2018) ने अपने लेख ‘‘खेजड़ी: थार का एक अद्भुत पेड़‘‘ में खेजड़ी के सामाजिकसांस्कृतिकआर्थिक तथा औषधीय उपयोग हेतु महत्त्वपूर्ण बताया।

चाहरसुनिता ने अपने शोध पत्र “Khejri : Gold mine of the Thar Desert” (2019) में खेजड़ी के महत्त्व का वर्णन करते हुए बताया के इसका उपयोग न केवल चारेसांगरी में ही हैअपितु छाल का भी औषधीय उपयोग है तथा किसानों के सामाजिक-आर्थिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

मांगीलाल (मई 2020) ने अपने शोध पत्र ‘‘विश्नोइयों का खेजड़ली आंदोलन: एक सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण (International Journal of advanced research (ICAR)  में बताया कि पर्यावरण संरक्षणवन्यजीव संरक्षण तथा हरियाली बचाने में प्रथम सामुदायिक आंदोलन है।

वनस्पति विज्ञानी नतेशएस. (सितम्बर, 2020) ने ‘‘जब खेजड़ी के पेड़ के लिए अमृता देवी और 362 विश्नोइयों ने बलिदान दिया था‘‘ लेख में 11 सितम्बर 1730 में खेजड़ली गाँव में दिये विश्नोइयों के बलिदान को प्रेरणा बताते हुये इसके बाद हुये टिहरी-गढ़वाल (1973), बिहार-झारखण्ड में जंगल आंदोलन (1982) तथा कर्नाटक के पश्चिमी घाटों में अप्पिको चालुबली (1983) पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु उपयोगी सिद्ध हुए।

राणावतजितेन्द्र सिंह एवं अन्य ने अपने शोधपत्र (जनवरी, 2022) ‘‘खेजड़ी: मरुस्थल की जीवनरेखा‘‘ में खेजड़ी के ऐतिहासिकसामाजिक तथा पारिस्थितिकीय महत्त्व को प्राथमिकता दी है।

मुख्य पाठ

खेजड़ी का वानस्पतिक वर्गीकरण:-

किंगडम               -      प्लांटी

सब किंगडम           -      ट्रेकोबिसेरा

सुपर डिविजन          -      स्पर्मेटोफाइटा

डिविजन               -      मैग्नोलियोफाइटा

क्लास                 -      मैग्नोलियोप्सिड़ा

सब क्लास             -      रोसाइड

गण                  -      फैबेल्स

परिवार                -      फैबेसी

जीनस                -      प्रोस्पिस

प्रजाति                -      प्रोस्पिस सिनेरेरिया (एल)


भौगोलिक वितरण:- खेजड़ी उष्ण कटिबंधीय शुष्क तथा अर्द्ध शुष्क जलवायु में पाये जाने वाला वृक्ष हैजो गर्मियों में 40°-45° ब् तापमान तथा सर्दियों के 5° से 10°ब् तापमान को सहन करने की क्षमता रखता है। वर्षा की मात्रा 10 से 60 सेमी वाले स्थानो पर आसानी से वृद्धि कर लेता है। यह साधारण बलुईदोमट तथा मिश्रित जलोढ मृदा एवं मध्यम लवणता वाली मृदाओं में सहनषील है।

भारत में खेजड़ी का विस्तार- राजस्थानहरियाणापंजाबमध्य-प्रदेषउत्तर-प्रदेषगुजरातकर्नाटकआन्ध्रामहाराष्ट्र राज्यों मेंजबकि विदेषों में पाकिस्तानअफगानिस्तानईरानईराक तथा संयुक्त अरब अमीरात में पाया जाता है। संयुक्त अरब अमीरात में यह राष्ट्रीय वृक्ष है जो “घफ“ के नाम से जाना जाता है। यह नागौर जिले में सर्वाधिक पाया जाता है।

खेजड़ली मेला

राजस्थान के विश्नोई समाज के लोग शमी वृृक्ष को अमूल्य मानते हैं। संवत् 1787 की भाद्रपक्ष शुक्ल दशमी (28 अगस्त, 1730) को खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए इस समुदाय के 363 लोगों (71 महिलाएं और 292 पुरुष) ने बलिदान दिया था। राजस्थान के प्रसिद्ध संत जांभोजी ने संवत् 1542 की कार्तिक बदी अष्ठमी को विश्नोई धर्म का प्रवर्तन किया तथा अपने अनुयायियों को ‘सबद वाणी’ में उपदेश दिया कि वनों की रक्षा करें। इस सम्प्रदाय के सैकड़ों लोगों द्वारा जोधपुर के खेजड़ली गांव में वृृक्षों की रक्षा के लिए दिया गया बलिदान आज भी प्रेरणादायक है।

लोकमान्यताएं

खेजड़ी वृृक्ष के बारे में बहुत सी लोक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। विजयादशमी के दिन खेजड़ी के वृृक्ष की पूजा करने की प्रथा है। कहा जाता है कि श्रीराम ने लंका पर आक्रमण करने से पहले शमी वृृक्ष की पूजा कर आशीर्वाद लिया था। महाभारत में भी इस वृृक्ष का वर्णन मिलता हैकहा जाता है कि पांडवों ने अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के दौरान शमी वृृक्ष में अस्त्र-शस्त्र छुपाये थे। युद्ध में विजय पाने के लिए पांडवों ने शमी वृृक्ष की पूजा भी की थी। ऐसा माना जाता है, कि इस वृृक्ष की पूजा करने से शक्ति और विजय प्राप्त होती है।

यह भी माना जाता है कि महाकवि कालिदास ने शमी वृृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की और ज्ञानार्जन प्राप्त किया। खेजड़ी के वृृक्ष की लकड़ी को पवित्र माना जाता है। गणेश व दुर्गा पूजा में इसकी लकड़ी का उपयोग किया जाता है। ऋग्वेद के अनुसार खेजड़ी की लकड़ी में आग पैदा करने की शक्ति होती है।

औषधीय उपयोग:-

1. त्वचा/चर्म रोग- चर्म रोग/खुजली आदि होने पर इसकी पत्तियों का लेप दही के साथ मिलाकर किया जाता है। छाल को घिस कर फोड़े-फुंसियों पर लगाने से भी लाभ मिलता है।

2. शारीरिक ऊष्णता- शारीरिक गर्मी को दूर करने के लिए शामी के पत्तों का रस निकालकर पानी में जीरा व शक्कर के साथ मिलाकर पिलाया जाता है।

3. एनिमिया- एनिमिया निवारण हेतु षमी के कोमल पत्तों का पेस्ट व मिश्री (1-2) मात्रा में लेना चाहिए।

4. वृृश्चिक दंश निवारण- शमी के तने की छाल को पीसकर डंक मारने वाले स्थान पर लगाने से लाभ होता है।

5. बच्चों में होने वाली बीमारी साइकोटिक सिंड्रोम में पत्तों का चूर्ण उपयोग लाभदायक होता   है।

6. पत्तों को चबाने से दांत दर्द में लाभ होता है तथा दांत मजबूत होते है।

7. पेचिसजोड़ों के दर्द व सुपरसार में गर्म आसव-छाल के दरदरे चूर्ण को गर्म पानी में उबालकर मरीज को पिलाया जाता है।

8. आँखों व चहरे की जलन का उपचार- षमी के पत्तों को घिसकर इसका उपयोग किया जाता है।

9. छाल में एंटीहाइपर ग्लाइसेमिक और एंटी ऑक्सीडेंट क्षमता होती है इसलिए यह मधुमेह के उपचार हेतु उपयोगी है।

10. पंचभृृंग- देवदाली, शमीभृृंग, निर्गुणी तथा सनका का उपयोग किसी व्यक्ति के रोग से ठीक होने के बाद इन जड़ी-बूटियों की छालों से नहाने हेतु गर्म पानी तैयार किया जाता है।

कन्हैयालाल सेठिया की राजस्थानी भाषा में थार में पाये जाने वाले खेजड़ी वृृक्ष का सुन्दर चित्रण कविता ‘मिंझर’ में किया है तथा खेजड़ी की जीवटता को जीवंत ‘खेजड़लो कविता’ के माध्यम से इस प्रकार किया है-

              आंसू पीकर जीणो सीख्योंएक जगत में खेजड़लो,

              सै मिट ज्यासी अमर खेलोएक बगत मे खेजड़लो ।।

              जेठ मास में धरती धोळी फूस पानड़ो मिलै नही,

              भूखा मरता ऊंट फिरै हैऐ तकलीफां झिलै नहीं,

              इण मौके भी उण ऊंटा नेंडील चरावै खेजड़लो,

              म्हारे मरुधर रो है साचोसुख-दुख साथी खेजड़लो,

              तीसां मरै पण छिंया करै हैकरड़ी छाती खेजड़लो।।

              अंग-अंग में पीड़ भरी पणपेट भरावै खेजड़लो।

कवि ने खेजड़ी साहस की जीवटता को जीवंत करते हुये बताया है कि विषम परिस्थितियों में भी यह वृृक्ष प्रफुल्लित रहता है। मरु प्रदेश की जेठ मास में तपती धरती एवं भीषण गर्मी में पशुओं के लिए चारा नहीं मिलता ऐसे में खेजड़ी का वृृक्ष भटकते हुए ऊंटों को चारा देता हैस्वंय कष्ट झेलकर सभी का पेट भरता है।

खेजड़ी पर संकट

राज्य वृृक्ष खेजड़ी पर संकट के बादल मंडरा रहे है। खेजड़ी की संख्या पिछले वर्षों के दौरान घटकर आधी रह गई है। राजस्थान की सांस्कृृतिकआर्थिक और सामाजिक धरोहर जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रही है। ये पेड़ लगातार सूखते जा रहे हैं। इस पेड़ के अस्तित्व पर आये संकट के पीछे परम्परागत व जलवायु परिवर्तन दोनों कारक जिम्मेदार हैं। सेंट्रल इंस्टीटयूट फाॅर एरिड हाॅर्टिकल्चरबीकानेर के एक शोध पत्र के अनुसार कवक व कीट इसे खोखला कर रहा है। सेलोस्टर्ना स्काब्रेटोर एक जड़ छेदक कीट हैजो खेजड़ी की जड़ों की छाल के द्वारा अन्दर प्रवेश कर जाता है और जड़ों के भीतर आड़ी-तिरछी सुरंगों का निर्माण करता हैजिससे इसके पेड़ सूख रहे हैं। थोड़े ही समय में इसकी टहनियां टूटकर गिरने लगती हैंफिर तना भी गिर जाता है और इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। गाइनोडर्माफ्यूजेरियमरहिजक्टोनिया आदि कवक भी खेजड़ी की जड़ों पर आक्रमण करते हैं। गाइनोडेर्मा कवक से खेजड़ी के पेड़ पर छतरीनुमा ‘भूपड़ा’ बन जाता हैं जिसे स्थानीय भाषा में ‘भफोड़ा’ या विषखोपरा’ भी कहा जाता है। जिससे खेजड़ी का संवहन तंत्र बाधित हो जाता हैइसकी पत्तियों में पीलापन आ जाता है और अन्ततः पेड़ सूख जाता है। इसके साथ ही दीमक भी खेजड़ी को नुकसान पहुंचाता है।

खेजड़ी पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी बड़ा चिंताजनक है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में तापमान वृृद्धि ने भू-जल स्तर को संवेदनषील स्तर तक गिरा दिया है। ऐसे में खेजड़ी को पर्याप्त पानी न मिल पाने के कारण इसकी जड़ों की प्रतिरोधकता लगातार घट रही है। खेतों में आजकल हरेक काम मशीनों से होने लगा है। जिससे ये पेड़ खासा प्रभावित है। ट्रैक्टर तथा अन्य मशीनों से बुवाई-जुताई के कारण खेजड़ी की प्राकृृतिक व्यवस्था भंग हो जाती है। इसकी जड़ों व तने को टैक्टर से खंरोच आ जाती है और कीटफफूंद आदि आसानी से इस पर आक्रमण कर देते है।

शेखावाटी क्षेत्र में कीट वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किए गये शोध से पता चलता है कि गैनोड्रमा कवक खेजड़ी को नष्ट कर रहा है। यह कवक पौधे की सूंड को कमजोर कर देता है। जोधपुर के आफरी संस्था द्वारा कराए गये सर्वे में सामने आया कि झुँझुनूंसीकरचुरु और नागौर जिलों में खेजड़ी के 70 प्रतिशत से अधिक पेड़ पाये जाते हैं। जो पिछले दस वषों में आधे से अधिक नष्ट हो गये हैं। विशेषज्ञों के अनुसार राजस्थान में पिछले 15 वषों के सर्वे में पाया गया हैकि खेजड़ी के पेड़ों की स्थिति बहुत चिंताजनक है।

आजकल खेजड़ी के पेड़ों को काटकर जलाने के लिए ईंट भट्टों पर बेचा जा रहा है। ऐसे में राजस्थान में इस वृृक्ष की संख्या तेजी से कम हो रही है। मरुप्रदेश में पाया जाने वाले प्रमुख वृृक्ष खेजड़ी की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। फलौदी क्षेत्र के बाप व भडला में सोलर पावर प्रोजेक्ट लगाने के लिए हजारों की संख्या में खेजड़ी के पेड़ काटे गये है। विश्नोई समाज के लोगों का कहना हैकि टेनेंसी एक्ट की धाराओं में तय जुर्माना कम होने की वजह से ये पेड़ काटे जा रहे हैं। राज्य वृृक्ष के संरक्षण के लिए सरकार को अलग नीति बनानी चाहिए तथा इसके साथ ही एक्ट की धाराओं में भी बदलाव किया जाना चाहिए।

पिछले कुछ सालों की तुलना में खेजड़ी के ‘बगर’ (फूल अनुभाग) कम आता है। वाटरशेड डवलपमेंट कमेटीचूरू के सचिव का कहना है कि आकाशीय बिजली गिरने से सांगरी के स्थान पर गांठ (गिरु) बन जाता है।

कीट/कवक नियंत्रण

जड़ छेदक कीट नियंत्रण हेतु वर्षकाल में एण्डोसल्फान 35 ई.सी. मी.ग्रा/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। कीट की लटोंभृृंगों को मारने के लिए क्लोरोपाइरीफाॅस 20 ई.सी. (15-20 मीली लीटर प्रति पेड़) व कार्बनण्डजिम 20 ग्राम के साथ ऑक्सीक्लोराइड 40-45 ग्राम प्रति पेड़ के हिसाब से पानी में घोलकर पेड़ के चारों ओर डालें।

दीमक नियंत्रण हेतु पेड़ की जड़ों के पास गड्ढा खोदकर क्लोरोपाईरिफाॅस या फाॅरेट अथवा एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण को मिट्टी के साथ मिलाकर खाई में भर दें।

खेजड़ी संरक्षण

राजस्थान में खेजड़ी के विषय में कहावत है कि ‘‘सिर साटे रूंख रहेतो भी सस्तो जाण‘‘ अर्थात् सिर के बदले एक पेड़ बचता है तो भी सौदा महंगा नहींसस्ता है।

भारत सरकार ने अपने दायित्व को समझते हुए पेड़ बचाने के कुछ प्रयास किएजो इस प्रकार हैं-

1. राष्ट्रीय वन नीति- ब्रिटिश सरकार द्वारा वर्ष 1984 में सबसे पहले पेड़ों को बचाने के लिए एक वन नीति का निर्माण किया गया। इस नीति के तहत पेड़ों को बचाने और इन्हें संरक्षित करने के लिए अनेक उपाय किये गये। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार द्वारा इस नीति में समय-समय पर संशोधन कर इसे और कारगर बनाने के प्रयास किये गये हैं। वर्तमान समय में राष्ट्रीय वन नीति जिसकी देखरेख भारत सरकार के वानिकी विभाग द्वारा की जाती हैके तहत विश्व स्तर पर वृृक्ष संरक्षण सम्बन्धी कार्यक्रमों की जानकारी के साथ ही उनकी समीक्षा करने का काम भी किया जाता है।

2. संरक्षितआरक्षित वन- भारत के पूर्वी और पश्चिमी घाट के साथ ही हिमालय क्षेत्र के कुछ भागों में वन प्रदेश को संरक्षित व आरक्षित घोषित किया गया है। इन क्षेत्रों में सरकार की ओर से पेड़ों की कटाई पर रोक के अलावा लुप्तप्रायः वन श्रंखला के संरक्षण व पुनः उत्पादन पर जोर दिया गया है। सरकार की ओर से घोषित संरक्षित क्षेत्र में व्यावसायिक व व्यापारिक दृृष्टि से पेड़ों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है। सरकार द्वारा 25 अक्टूबर, 1980 को एक वन संरक्षण अधिनियम का भी निर्माण किया गयाजिसके तहत प्रावधान हैकि वनों की कटाई के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति लेना अनिवार्य होगी। नवीनतम संशोधन 10 जनवरी, 2003 को किया गयाजिसके अनुसार पर्यावरण व वन मंत्रालय के द्वारा कुछ नए नियमों का निर्माण भी किया गया।

इसके अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा जन सहयोग से भी पेड़ों को बचाने के लिए निम्न प्रयास किए गये हैं-

1. जंगलों के निकट रहने वाली जनजातियों के जीवनयापन के लिए जंगलों पर पूरी तरह निर्भरता को कम कर उन्हें वैकल्पिक साधन प्रदान किए जा रहे हैं।

2.  विद्यालय नर्सरी योजना शुरु की गई जिसके अन्तर्गत विद्यालय के छात्रों को उनके निकट स्थित नर्सरी पौधे लगाकर उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

3. ‘नगर वन उद्यान योजना- एक कदम हरियाली की ओर’ के अन्तर्गत स्वस्थ वन पर्यावरण का विकास उद्देश्य से महानगरों में शहरी जंगलों का निर्माण व विकास किया जा रहा है। इस योजना में लगभग 200 जंगलों का लक्ष्य रखा गया है।

राजस्थान के कई इलाकों में विभिन्न विकास योजनाओं और सोलर एनर्जी के नाम पर बड़ी संख्या में राज्य के कल्पवृृक्ष खेजड़ी को जड़ों सहित नेस्तनाबूद किया जा रहा हैलेकिन इन सबके बीच पर्यावरण संरक्षण की दिशा में बाड़मेर के श्री मातारानी भटियाणी चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा एक उदाहरण प्रस्तुत किया गया। पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर शहर के जूना केराड़ मार्ग पर श्री मातारानी भटियाणी चेरिटेबल ट्रस्ट की ओर से श्री मजीसा धाम का निर्माण करवाया जा रहा हैइसके भूखण्ड के बीच एक खेजड़ी का पेड़ आ रहा है। ट्रस्ट की ओर से खेजड़ी के पेड़ को बचाने के लिए मन्दिर के नक्षे में परिवर्तन किया गया हैजिसमें करीब 15 लाख का अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ा है। यह वृृक्ष तभी बचेगा जब मरु प्रदेश के किसान इस वृृक्ष के महत्व को समझेंगें। इसलिए समाज में पेड़ों के महत्व और उनके संरक्षण के प्रति जागरुकता का होना नितांत आवश्यक है।

खेजड़ी सहेजो अभियान: गहरी फाउंडेशन के द्वारा सेल्फी विथ खेजड़ी अभियान चलाकर सम्मानित किया जा रहा है तथा नए खेजड़ी के वृक्ष लगाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

निष्कर्ष
राजस्थान का ‘कल्पवृक्ष‘ खेजड़ी जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों, औषधियों के निर्माण में, मवेषियों के लिए चारे में , पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में, नाइट्रोजन स्थिरीकरण एवं मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में, पवन अवरोधक के रूप में कार्य कर रेगिस्तानी हवाओं से बचाने में महत्वपूर्ण है, लेकिन सरकार की ओर से खेजड़ी संरक्षण हेतु कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये हैं, जिसके कारण राजस्थान के इस ‘सागवान‘ की व्यापक स्तर पर चोरी छिपे कटाई हो रही है। कटे हुए वृक्षों का उपयोग आरा मशीनों, उद्योगों, भवन निर्माण, ईंधन आदि में किया जा रहा है। साथ ही जड़ छेदक कीट, दीमक, ग्लाइनोडेरमा जैसे कवकों के कारण, भूजल स्तर में गिरावट से इस पर संकट आ गया है। अतः इस वृक्ष के संरक्षण हेतु सरकार को उचित कदम उठाने होंगे तथा विभागों को संरक्षण हेतु सख्त नीतियां लागू करनी होगी। खेजड़ी दिवस जैसे उत्सवों पर वन प्रेमियों को सम्मानित किया जाना चाहिए एवं हर स्तर पर जनजागरुकता फैलाइ जानी चाहिए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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