ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
प्राचीन काल में कृषि भूमि कर व्यवस्था, एक संक्षिप्त अध्ययन
A Brief Study of Agricultural Land Tax System in Ancient Period
Paper Id :  16939   Submission Date :  2022-12-01   Acceptance Date :  2022-12-16   Publication Date :  2022-12-25
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सीमा श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर
प्राचीन इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृति विभा
भवानी प्रसाद पाण्डेय पी.जी. कॉलेज
गोरखपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
प्राचीन काल से ही शासन सम्बन्धी कार्य को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए अनिवार्य उद्ग्रहण के रूप में कर लगाए जाते रहे हैं। इसे राजस्व में वृद्धि का एक साधन स्वीकार किया गया है। प्रारम्भ से ही एक सुनियोजित कराधान प्रणाली अस्तित्व में थी। विशेषतः कृषि के सम्बन्ध में भूमि का स्वामित्व एक प्रकार से राज्य के पास था और भू-राजस्व की वसूली राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत था। राज्य द्वारा कृषि उत्पादन के एक हिस्से को जो कि सामान्यतः कृषि उपज का छठा हिस्सा था, ही वसूल नहीं किया जाता था अपितु उपज तथा धातुओं आदि के खनन से भी करों की वसूली नियमानुसार की जाती थी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Since ancient time the form of compulsory levy to run the work related to governance, smoothly have been taxed. It has been accepted as a means of increasing revenue. From the very beginning, an organized taxation system was in existence. The ownership of land, especially in relation to agriculture, was in a way with the state and the collection of land revenue was a major source of income of the state. A part of agricultural production, which was generally one-sixth of agricultural produce, was not only collected by the state, but taxes were also collected from produce and mining of metals etc.
मुख्य शब्द बलि, गोप, बेगारी, पिण्डकर, उद्रंगकर, उपरिकर, भाग, भोग, हिरण्य, निपेक्ष, अक्षिणी सर्वकर परिहारैः, क्लिप्त, उपक्लिप्त, प्रतिभाग, कूटक, प्रणयकर
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Bali, Gopa, Baigari, Pindkar, Udrangkar Uparikar, Bhag, Bhog, Hiranya, Deposit, Akshidei, Sarvakar Parihaaray : Klipta, Upklipta, Pratibhag, Kutak, Pranaykar.
प्रस्तावना
प्राचीन भारतीय समाज की संरचना में सामाजिक संविदा के आधार पर प्रजा ने अपने चयनित राजा मनु को यह आश्वासन दिया कि वह हमारी रक्षा करें और हम सभी उनके संरक्षण के लिए कर प्रदान करेंगे। अथर्ववेद[1] के कारण 3. सूक्त 29 के प्रथम मंत्र से आठवें मंत्र तक ‘संरक्षक कर’ का उल्लेख किया गया है। ‘यत्र राजानो विभजन्त इष्टापूर्तस्य षोडशं’ आदि अर्थात् अन्न आदि का 16वाँ भाग राजा के लिए विभक्त करने देने का उल्लेख है, यहीं से कर व्यवस्था का प्रारम्भ दिखायी देता है अर्थात् राजा का कर लेने का अधिकार राज्य के उदय के समय जो संविदा राजा और प्रजा में हुआ था उसी पर आधारित था। राजा जो कर वसूल करता था वह प्रजा की रक्षा करने का पारिश्रमिक था।[2] नारद ने भी इस प्रकार की व्यवस्था को स्वीकृति देते हुए कहा कि राजा प्रजा की रक्षा करता है प्रजा जो ‘कर’ देती है वह राजा का पारिश्रमिक है।[3]
अध्ययन का उद्देश्य
इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य है कि प्राचीन काल में कृषि भूमि कर व्यवस्था का स्वरूप क्या था? कितने प्रकार का होता था? विस्तृत विवेचन करना है। इस विषय की महत्ता इस तथ्य में इंगित है कि इस पर आधुनिक विचारकों ने भी चिंतन किया है। पुनः किसी राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करना और उसके विकास कार्य हेतु धन एकत्र करना भी। प्रस्तुत शोध का विषय प्राचीन काल में कृषि भूमि कर व्यवस्था एक ऐसा विषय रहा है जिसने प्राचीन काल से लेकर ब्रिटिश काल तक शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस शोध पत्र में प्रतियोगी तथा अन्य छात्रों को सम्पूर्ण विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा। प्रारम्भ से ही विभिन्न प्रकार के कर अपनाये गये। कर व्यवस्था राज्य के लिए धन संग्रह का सर्वाधिक स्थायी स्रोत था। विवेच्य शोध पत्र के माध्यम से कृषि भूमि कर व्यवस्था के पक्ष को उद्घाटित किया जायेगा।
साहित्यावलोकन

ज्ञात है कि ऋग्वैदिक काल में राजा के कबीले के लोग स्वेच्छापूर्वक बलिअर्थात् करदेते थे और पराजित शत्रुओं को बलि देने के लिए विवश किया जाता था।[4] धर्मसूत्रों में राजा द्वारा प्रजा के वैध कर को वसूलने का उल्लेख है।[5] प्रजा की रक्षा करने के पारिश्रमिक के रूप में ही वह उनकी आय का छठां भाग कर के रूप में ले सकता था।[6] गौतम ने अन्न का 1/6 भाग, 1/8 भाग तथा 1/10 भाग निर्धारित किया।[7] यह दरें सम्भवतः उपजाऊ मिट्टी पर आधारित होती थी।
अर्थशास्त्र में यहाँ तक उल्लेख मिलता है कि गोप नामक अधिकारी गाँव के मकानों की भी सूची तैयार करता था और यह निर्धारित करता था कि अमुक मकान के निवासियों से कितना कर लेना है और किन मकान के निवासियों से कर नहीं लेना हैं। कर को धन रूप में बेगारी अथवा जुमाने तक के रूप में प्राप्त करने का विवरण है।[8] कौटिल्य कर को छठें भाग के रूप में प्राप्त करने के पक्ष में रहा। अथर्ववेद से स्पष्ट है कि भूमि की मिट्टी और फसल के आधार पर अलग-अलग भू-राजस्व प्राप्ति की व्यवस्था की गयी थी।[9] कौटिल्य ने यहीं पर व्यवस्था दी थी कि दुर्भिक्ष होने पर राजा को भूमि कर नहीं लेनी चाहिए।[10] मुनस्मृति और महाभारत ने राजा को अन्न का 1/10 भाग कर के रूप में लेने की अनुमति दी है।[11] ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग 600 0पू0 से 300 0 तक दोषहीन थी। इस काल में राजा परिस्थिति के अनुसार कम या अधिक कर ले सकता था जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण रूम्मिनदेई अभिलेख है। अधिकांशतः शासकों द्वारा वैध कर ही वसूला जाता था जैसे कि रूद्रदामन और गौतमीपुत्र शातकर्णि ने। कतिपय ऐसे भी अपवाद हैं कि मदान्धता में शासक द्वारा जबरदस्ती कर वसूला जाता था जैसे कश्मीर के शासक। परन्तु अधिकांशतः राजा आपातकालीन स्थिति को ध्यान में रखकर आवश्यकता से कुछ अधिक कर वसूल करते थे। उदाहरण मौर्यकाल में कृषि, उद्योग, व्यापार सभी पर करों का भाग कुछ अधिक ही रहा होगा क्योंकि इन सभी पर राज्य का नियंत्रण था।
लगभग 300 से 600 तक अर्थात् गुप्तकाल तक आते-आते विधिवेत्ता इस संदर्भ में सर्वसम्मत हो गये कि प्रजा से उतना ही कर लेना चाहिए जितना वह आसानी से दे सके और प्रजाहित को सर्वोपरि माना गया। उदाहरणार्थ - कामन्दकं के अनुसार जिस प्रकार ग्वाला गायों की सेवा करता है और फिर उसका दूध निकालता है उसी प्रकार राजा को प्रजा की रक्षासहायता करनी चाहिए और फिर उसे कर वसूल करना चाहिए। इसी प्रकार कालिदास[12] ने भी व्यवस्था दी है। गुप्तकालीन अभिलेखों में भी उपज का छठा भाग भू-राजस्व के रूप में प्राप्त करने का उल्लेख है।[13] इस समय भूमि कर के अतिरिक्त अनेक अन्य कर भी देने होते थे। मौर्यकालीन पिण्डकर और उदक भाग का उल्लेख गुप्तकाल में नहीं मिलता। कतिपय नवीन कर उपरिकरउद्रंग करहलिका कर का उल्लेख प्रथम बार गुप्त अभिलेख में मिलता है।[14]

मुख्य पाठ

प्राचीन काल के कतिपय प्रमुख करों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत है-
भाग
प्राचीन काल में ग्रामों से उपज का छठा अंश राजा को आय के रूप में प्राप्त होता था वही भाग (कर) कहलाता था।[15] राजा को भूमि का यह कर भूमि की सुरक्षा करने के कारण प्रदान किया जाता था।[16] वस्तुतः भू-राजस्व को भाग कहा जाता था क्योंकि इसमें उत्पादित अनाज का एक भाग राजा कर के रूप में लेता था। यू0एन0 घोषाल के अनुसार भाग का अर्थ उपज का राजा का हिस्सा था जो साधारणतः उपज का छठा भाग होता था किन्तु यह सर्वत्र छठा भाग नहीं रहा यही आय का मुख्य स्रोत था। गाहड़वाल दानपत्रों मे भाग, भोग, कर, हिरण्य आदि करों का उल्लेख हुआ।
भोग
ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं कि फल-फूल, लकड़ी आदि वस्तुएँ राजा को उपभोग के लिए प्रदान की जानी थीं वह कर भोग के अन्तर्गत आता था।[17] प्रजा या जन द्वारा जिन वस्तुओं का उपभोग किया जाता था उनमें निधि, निक्षेप अर्थात् भूमि के भीतर की वस्तुएँ, अक्षिणी अर्थात् अद्यतन लाभ का वास्तविक अधिकार जल, आगामी अर्थात् भविष्य के लाभ सिद्धग्य और साध्य (कृषि कार्य के निमित्त पहले से गृहीत की गयी भूमि तथा निरर्थक पड़ी हुई जमीन जो कृषि के निमित्त कार्य में लायी जा सकती थी) भूमि थी।
बलि
ऋग्वैदिक कालीन राजाओं को उपहार में प्राप्त वस्तुएँ बलिके अन्तर्गत आता था।[18] कालान्तर में इसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन हुआ और यह कर प्रजा द्वारा उत्पादित अन्न से अतिरिक्त राज भाग के रूप में लिया जाने लगा। मुनस्मृति बिना प्रजा की रक्षा किये बलि प्राप्तकर्ता राजा नरकगामी होता है।[19]
अशोक के रूम्मिनदेई स्तम्भ लेख में बलिनामक करका उल्लेख है जिसे भगवान बुद्ध का जन्म स्थान होने के कारण उपज का 8वाँ भाग राजस्व रूप में लेने का उल्लेख है अर्थात् वहाँ के निवासियों से अन्य किसानों की अपेक्षा आधा भू-राजस्व लिया और  बलिकर का उल्लेख है। अर्थशास्त्र में बलिका अर्थ वह उपकर प्रतीत होता है जो राजा उपज के भागके अतिरिक्त प्रजा से लेता था।[20] अर्थात् रूद्रदामन ने बलिका उल्लेख अर्थशास्त्र के अनुसार भाग से पृथक कर के लिए किया है।
कर
ग्रामवासियों द्वारा अन्न से सम्बन्धित भाग के ऊपर, जो विशेष कर के रूप में कभी-कभी आय होती थी, वहीं कर के अन्तर्गत आती थी।[22] मुनस्मृति के अनुसार करभाग के अतिरिक्त टैक्स था।[23]
कालान्तर में करशब्द का प्रयोग भागके अतिरिक्त किसी भी प्रकार के कर लिए किया जाने लगा। रूद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख में करशब्द को सभी प्रकार के करों के लिए प्रयुक्त मानकर एक विशिष्ट करके रूप में मान्यता दी गयी है। सामान्य कर के अर्थ मंे इसका प्रयोग अश्वघोष के सौन्दरानन्द काव्य में, समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में (सर्वकरदान) तथा अन्य लेखों में सर्वकर परिहारैः, सर्वकर त्याग, सर्वकर विसर्जितः आदि प्राप्त होता है।[24] रूद्रदामा इसे अनुचित कर मानता है। राघवानन्द इसे ग्रामवासियों द्वारा दिया जाने वाला मासिक कर बताते हैं और कुल्लूक ग्राम और नगरवासियों द्वारा भाद्रपद और पौष में दिया जाने वाला कर।[25]
हिरण्य
अर्थशास्त्र[26] में हिरण्य नामक कर का उल्लेख है यह किसी प्रकार का अतिरिक्त कर था क्योंकि इसका उल्लेख नियमित करों की सूची में नहीं है। खनिज पदार्थों तथा सम्पत्ति पर लगाया गया शुल्क हिरण्यकर कहलाता था। घोषाल - कुछ विशेष अन्नों पर लगाया गया कर हिरण्य था।[27] और नकद कर के रूप में वसूला जाता था। राजा द्वारा हिरण्यतथा अन्य वस्तुओं का निश्चित भागकर के रूप में प्राप्त किया जाना ही हिरण्य कर था, जो वस्तु का पचासवाँ भाग होता था।[28]
उद्रंग और उपरिकर
भूमि पर स्थायी रूप से रहने वाले किसानों से लिया जाने वाला कर उद्रंग कहा जाता था तथा भूमि पर अस्थायी रूप से रहने वाले कृषकों से लिया जाने वाला कर उपरिकर।[29] ‘द्रंगऔर उदकसे समीकृत कर यह माना गया कि यह कर सम्भवतः पुलिस कर अथवा जलकर था।30 उद्रंग और उपरिकर को गोपाल ने अर्थशास्त्र में वर्णित क्लिप्तऔर उपक्लिप्तमाना है जिनका क्रमशः अर्थ है कृषकों पर लगाया जाने वाला निश्चित कर और अतिरिक्त (अनिश्चित) कर।[31]
उदक भाग
सिंचाई के उपलब्ध साधन होने पर उस पर लिये जाने वाले कर को उदक भाग के नाम से जाना जाता था। कौटिल्य- नदी, सरोवर, तडाग अथवा कुएँ से सिंचाई करने वाला कृषक  राजा को उपज का पाँचवां भाग, अपने कंधे पर जल ले जाने वाला उपज का चौथा भाग तथा राजकीय नहर से सिंचाई करने वाला उपज का तृतीयांश प्रदान करता था।[32] साधारणतः यह कर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक होता था। लल्लन जी गोपाल के अनुसार उदक भागका अर्थ भूमि को सिंचित करने के लिए जल के हिस्से के रूप में था तथा 3क भाग व्यक्तिगत कार्यों के लिए जल का वह हिस्सा था जो राज्य की भूमि को प्रदान किया जाता था।
प्रतिभाग और कूटक
राजा द्वारा अपनी जनता से जब फल, फूल-शाक आदि कर के रूप में प्राप्त किया जाता था तब वह प्रतिभागकहलाता था। कूटक-कूट अर्थात् गृह पर कर लिये जाने को सम्भवतः कूटक कहा जाता था। किन्तु यह कृषि के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले हल पर लगने वाला कर था, क्योंकि कूट- का अर्थ था खेत खोदना और कूटकका अर्थ था खेत जोतने का हल।[33] अधिकांश अभिलेखों में कूटक कर का उल्लेख यह द्योतित करता है कि यह कर व्यवहार में था।
विष्टि
विष्टि का अर्थ बेगार है एरियन के अनुसार शिल्पी, कारीगर राज्य के कर के स्थान पर बेगार करते थे।[34] मनु ने स्पष्ट संकेत दिया है कि शूद्र कारीगर व शिल्पी कर के स्थान पर अपनी सेवाओं के रूप में राज्य को अपना कर दे सकता है।[35] किन्तु विष्टिकरकष्टकारी कर था। इसीलिए अथर्ववेद में भी इसे अतिरिक्त करों की सूची में रखा गया है।[36] जातक कथाओं से भी इस कर के कष्टदायी होने के प्रमाण मिलते हैं। रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में विष्टि कर का उल्लेख है। महावंश में एक उदार हृदय नरेश बेगार लेने से इंकार करता है। यह विवरण इस कर कष्टदायी, दुःखदायी निर्धारित करता है।
प्रणय कर
प्रणय अथवा प्रणया कर को भी रूद्रदामा ने एक अनुचित कर माना है। इसका अनौचित्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र से स्पष्ट है जिसमें राजकोश में अधिकाधिक धन संग्रह करने के उपायों के अन्तर्गत (5-2) कृषकों, व्यापारियों, पशुपालकों से लिए जाने वाले संकटकालीन करों - प्रणय - का वर्णन किया गया है। कौटिल्य- ऐसे अवसरों पर राजा किसानों से धान्यों का चौथा भाग व्यापारियों से गेहूँ, धान का 30 प्रतिशत और पशुपालकों से विविध पशुओं का 50 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक भाग ले सकता है। रूद्रदामा ने इसे अनुचित कर माना है। भगवानलाल इन्द्रजी ने प्रणय को आधुनिक प्रतिदानके अर्थ में लिया है। रूद्रदामा की कर नीति गौतमीपुत्र शातकर्णि की नीति से तुलनीय है।
शुल्क

यह चुंगी कर था। अमरकोष में कहा गया कि यह कर घाट आदि पर दिया जाता था (घट्टादिदेय) साहित्यिक ग्रंथों में इसका प्रायः उल्लेख मिलता है। गुप्तों के विहार स्तम्भ लेख में शौल्किक नामक पदाधिकारी का और शुल्क का उल्लेख है।[38] रूद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख में शुल्क कर का उल्लेख है। घोषाल के अनुसार व्यापारियों पर लगाया जाने वाला कर शुल्क कहलाता था।[39] मैटी के अनुसार नगर के बन्दरगाहों पर व्यापारियों द्वारा लायी वस्तुओं पर लगाया जाने वाला कर शुल्क कहलाता था।[40] नारद[41], मनु[42], याज्ञवल्क्य[43] ने भी व्यापारियों को राजा का यह कर चुकाने की परामर्श दी है।

निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में कृषि योग्य भूमि से सम्बन्धित तो अनेक कर प्रचलन में थे साथ ही अन्य करों की पूर्ति भी राज्य द्वारा की जाती थी। इनको विभिन्न कालों में विभिन्न नामों से जाना गया। इनको विभिन्न कालों में विद्वानों द्वारा उपज का चौथा, छठा, आठवां, दसवां, बारहवां भाग आदि के रूप में प्राप्त करने की व्यवस्था की गयी। इनको एकत्र करने हेतु समय-समय पर गोप समाहर्ता इत्यादि अधिकारियों की नियुक्ति भी की जाती थी जिससे नियमित कर की प्राप्ति सम्भव हो जाती थी। किन्तु सामान्यतः राजा द्वारा संविदा से प्रारम्भ इन करों के निर्धारण में तरलता का भाव ही प्रदर्शित किया जाता था। अतः स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन से प्राप्त कर राजकोष वृद्धि एवं राज्य की सुदृढ़ता को प्रदर्शित करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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