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प्राचीन काल में कृषि भूमि कर व्यवस्था, एक संक्षिप्त अध्ययन | |||||||
A Brief Study of Agricultural Land Tax System in Ancient Period | |||||||
Paper Id :
16939 Submission Date :
2022-12-01 Acceptance Date :
2022-12-16 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
प्राचीन काल से ही शासन सम्बन्धी कार्य को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए अनिवार्य उद्ग्रहण के रूप में कर लगाए जाते रहे हैं। इसे राजस्व में वृद्धि का एक साधन स्वीकार किया गया है। प्रारम्भ से ही एक सुनियोजित कराधान प्रणाली अस्तित्व में थी। विशेषतः कृषि के सम्बन्ध में भूमि का स्वामित्व एक प्रकार से राज्य के पास था और भू-राजस्व की वसूली राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत था। राज्य द्वारा कृषि उत्पादन के एक हिस्से को जो कि सामान्यतः कृषि उपज का छठा हिस्सा था, ही वसूल नहीं किया जाता था अपितु उपज तथा धातुओं आदि के खनन से भी करों की वसूली नियमानुसार की जाती थी।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Since ancient time the form of compulsory levy to run the work related to governance, smoothly have been taxed. It has been accepted as a means of increasing revenue. From the very beginning, an organized taxation system was in existence. The ownership of land, especially in relation to agriculture, was in a way with the state and the collection of land revenue was a major source of income of the state. A part of agricultural production, which was generally one-sixth of agricultural produce, was not only collected by the state, but taxes were also collected from produce and mining of metals etc. | ||||||
मुख्य शब्द | बलि, गोप, बेगारी, पिण्डकर, उद्रंगकर, उपरिकर, भाग, भोग, हिरण्य, निपेक्ष, अक्षिणी सर्वकर परिहारैः, क्लिप्त, उपक्लिप्त, प्रतिभाग, कूटक, प्रणयकर | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Bali, Gopa, Baigari, Pindkar, Udrangkar Uparikar, Bhag, Bhog, Hiranya, Deposit, Akshidei, Sarvakar Parihaaray : Klipta, Upklipta, Pratibhag, Kutak, Pranaykar. | ||||||
प्रस्तावना |
प्राचीन भारतीय समाज की संरचना में सामाजिक संविदा के आधार पर प्रजा ने अपने चयनित राजा मनु को यह आश्वासन दिया कि वह हमारी रक्षा करें और हम सभी उनके संरक्षण के लिए कर प्रदान करेंगे। अथर्ववेद[1] के कारण 3. सूक्त 29 के प्रथम मंत्र से आठवें मंत्र तक ‘संरक्षक कर’ का उल्लेख किया गया है। ‘यत्र राजानो विभजन्त इष्टापूर्तस्य षोडशं’ आदि अर्थात् अन्न आदि का 16वाँ भाग राजा के लिए विभक्त करने देने का उल्लेख है, यहीं से कर व्यवस्था का प्रारम्भ दिखायी देता है अर्थात् राजा का कर लेने का अधिकार राज्य के उदय के समय जो संविदा राजा और प्रजा में हुआ था उसी पर आधारित था। राजा जो कर वसूल करता था वह प्रजा की रक्षा करने का पारिश्रमिक था।[2] नारद ने भी इस प्रकार की व्यवस्था को स्वीकृति देते हुए कहा कि राजा प्रजा की रक्षा करता है प्रजा जो ‘कर’ देती है वह राजा का पारिश्रमिक है।[3]
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य है कि प्राचीन काल में कृषि भूमि कर व्यवस्था का स्वरूप क्या था? कितने प्रकार का होता था? विस्तृत विवेचन करना है। इस विषय की महत्ता इस तथ्य में इंगित है कि इस पर आधुनिक विचारकों ने भी चिंतन किया है। पुनः किसी राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करना और उसके विकास कार्य हेतु धन एकत्र करना भी। प्रस्तुत शोध का विषय प्राचीन काल में कृषि भूमि कर व्यवस्था एक ऐसा विषय रहा है जिसने प्राचीन काल से लेकर ब्रिटिश काल तक शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस शोध पत्र में प्रतियोगी तथा अन्य छात्रों को सम्पूर्ण विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा। प्रारम्भ से ही विभिन्न प्रकार के कर अपनाये गये। कर व्यवस्था राज्य के लिए धन संग्रह का सर्वाधिक स्थायी स्रोत था। विवेच्य शोध पत्र के माध्यम से कृषि भूमि कर व्यवस्था के पक्ष को उद्घाटित किया जायेगा। |
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साहित्यावलोकन | ज्ञात है कि ऋग्वैदिक काल में राजा के कबीले के लोग
स्वेच्छापूर्वक ‘बलि’ अर्थात् ‘कर’ देते थे और पराजित शत्रुओं को बलि देने के लिए
विवश किया जाता था।[4] धर्मसूत्रों में राजा द्वारा प्रजा के
वैध कर को वसूलने का उल्लेख है।[5] प्रजा की रक्षा करने के
पारिश्रमिक के रूप में ही वह उनकी आय का छठां भाग कर के रूप में ले सकता था।[6]
गौतम ने अन्न का 1/6 भाग, 1/8 भाग तथा 1/10 भाग निर्धारित किया।[7] यह दरें सम्भवतः उपजाऊ मिट्टी पर आधारित होती थी। |
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मुख्य पाठ |
प्राचीन काल के कतिपय
प्रमुख करों का संक्षिप्त विवरण निम्नवत है- यह चुंगी कर था। अमरकोष में कहा गया कि यह कर घाट आदि पर दिया जाता था (घट्टादिदेय) साहित्यिक ग्रंथों में इसका प्रायः उल्लेख मिलता है। गुप्तों के विहार स्तम्भ लेख में शौल्किक नामक पदाधिकारी का और शुल्क का उल्लेख है।[38] रूद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख में शुल्क कर का उल्लेख है। घोषाल के अनुसार व्यापारियों पर लगाया जाने वाला कर शुल्क कहलाता था।[39] मैटी के अनुसार नगर के बन्दरगाहों पर व्यापारियों द्वारा लायी वस्तुओं पर लगाया जाने वाला कर शुल्क कहलाता था।[40] नारद[41], मनु[42], याज्ञवल्क्य[43] ने भी व्यापारियों को राजा का यह कर चुकाने की परामर्श दी है।
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निष्कर्ष |
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में कृषि योग्य भूमि से सम्बन्धित तो अनेक कर प्रचलन में थे साथ ही अन्य करों की पूर्ति भी राज्य द्वारा की जाती थी। इनको विभिन्न कालों में विभिन्न नामों से जाना गया। इनको विभिन्न कालों में विद्वानों द्वारा उपज का चौथा, छठा, आठवां, दसवां, बारहवां भाग आदि के रूप में प्राप्त करने की व्यवस्था की गयी। इनको एकत्र करने हेतु समय-समय पर गोप समाहर्ता इत्यादि अधिकारियों की नियुक्ति भी की जाती थी जिससे नियमित कर की प्राप्ति सम्भव हो जाती थी। किन्तु सामान्यतः राजा द्वारा संविदा से प्रारम्भ इन करों के निर्धारण में तरलता का भाव ही प्रदर्शित किया जाता था। अतः स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन से प्राप्त कर राजकोष वृद्धि एवं राज्य की सुदृढ़ता को प्रदर्शित करता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. अथर्ववेद 4, 22, 2; 3, 29।
2. ऋग्वेद 1, 65, 4।
3. नारद 18, 48।
4. ऋग्वेद 7, 6, 5, 10, 176, 6।
5. वशिष्ठ ध0सू0 19, 37; बौद्धा0ध0सू0 1, 10, 18।
6. कौटिल्य 1, 13, 2, 19, 3, 9।
7. गौ0ध0सू0 10, 25-26, 10, 27।
8. अर्थशास्त्र 2, 35, 5, 2।
9. अथर्ववेद 5, 2, 3, 9।
10. कौटिल्य 3, 9।
11. महा0शन्ति0 120, 9; 67, 23 के बाद।
12. रघुवंश 1, 18; शकुन्तला 5, पृ0-911; 2, 850।
13. सरकार, सिलेक्ट इंस्क्रिप्शंस 1, पृ0-372, टिप्पणी 7; एपि0 इंडि0 21, पृ0-81, वही 20 पृ0-63।
14. एपि0 इंडि0 21 पृ0 81; 20, पृ0-63, सर्वनाथ का खोह लेखा, लीट 257, पृ0 12-13।
15. मनु0 1.130 देखिए शब्दानुशासन ग्रामादिषु स्वाभिग्राहृय्ाो भागः आयः 1, इंडि0 ऐंठि, 6-56; 14-203, 206, 208 आदि।
16. अथर्व0 4, 22, 2।
17. मजूमदार, चौलुक्याज अव गुजरात, पृ0-348, देखिए, इंडि0 ऐटि0 1817, 131; 25-207 आदि।
18. ऋग्वेद 7, 6, 5, 10, 176; वैदिक एज पृ0-437।
19. मनु0 8.307 योऽरक्षन्बलिमादत्तेकरं शुल्कं च पार्थिव प्रतिभागं च दण्डं च स सद्यो नरकं ब्रजेल।
20. अर्थशास्त्र 5.2।
21. कृत्यकल्पतरु, गृहस्थकांड, पृ0-235, कर कारु कृषी वलेभ्यो नियतधनादानम्।
22. इपि0 इ0 14.195, चन्द्रावती प्लेट ‘भागभोगकर’ तथा अन्य अभिलेख।
23. मनु0 8, 307।
24. द्विजेन्द्रनाथ झा - लैंड रेविन्यू इन दि मौर्य एंड गुप्त पीरियड्स पृ0-19।
25. कौटिल्य 1, 13।
26. घोषाल, हिन्दू रेवेन्यू सिस्टम, पृ0-62, वंद्योपाध्याय कौटिल्य 1 पृ0-133।
27. गौ0, 10.29; वि 3.25; मनु0 7.130, फवाशद्भाग आदेयोराज्ञा पशुहिरण्ययोः धान्यामामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा।
28. घोषाल, हिन्दू रेवेन्यू सिस्टम पु0-210; पृ0-244 के आगे।
29. गोपाल, दि इकनामिक लाइफ अव नार्दर्न इंडिया, पृ0-41; पृ0-39।
30. अर्थशास्त्र 224 ; कौटिल्य 2, 14, 18।
गोपाल, ऐस्पेक्ट्स अव हिस्टी अव ऐग्रीकल्चर इन एंशिएंट इडिया, पृ0- 170, 180 ; पृ0- 179-83।
31. नियोगी, हिस्ट्री अव द गाहडवाल डायनैस्टी पृ0-183, गोपाल, दि इकनामिक लाइफ अव नार्दर्न इंडिया, पृ0-54।
इपि0 इं0, 2.360, भागभोगकूटक; 4.104, कमौली प्लेट, भागभोग करप्रपणिकरकूटक; रो0 नियोधी-दि हिस्ट्री आफ गाहड़वाल डायनस्टी पृ0-183।
32. एरियन 12।
33. मनु0 10, 120।
34. अथर्ववेद।
35. कौटिल्य 2.24।
36. फ्लीट 257 पृ0 12-13; फ्लीट पृ0 50 पं0 29।
37. घोषाल, हिस्ट्री आव द हिन्दू रेवेन्यू सिस्टम पृ0-263 घोषाल हिस्टोरियोग्राफी, पृ0-177।
38. मैटी, इकनॉमिक लाइफ पृ0-85; पृ0-90।
39. नारद 18, 48: 3, 12-13।
40. मनु0 7.127।
41. याज्ञवल्क्य, 2-263। |