P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VI February  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
भारतीय आध्यात्मिक चेतना और राष्ट्रवाद
Indian Spiritual Consciousness and Nationalism
Paper Id :  17307   Submission Date :  2023-02-03   Acceptance Date :  2023-02-21   Publication Date :  2023-02-25
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म्होर सिंह मीना
सहायक आचार्य
इतिहास
राजकीय कमला मोदी महिला महाविद्यालय
नीमकाथाना,राजस्थान ,भारत
पूरण मल मीना
सह आचार्य
इतिहास
राजकीय कला महाविद्यालय सीकर
सीकर ,राजस्थान ,भारत
सारांश
मानव जितना व्यक्तिवादी होता है, उसके आदर्श उतने ही अमूर्त होते जाते है और वह जितना समिष्टवादी होता है, उसके आदर्श उतने ही व्यक्तिवादी होने लगते है। किसी राष्ट्रीय चेतना के उत्थान में व्यक्तिपरक आदर्शों की तलाश तब और अधिक हो जाती है, जब इतिहास में उसे ऐसे दृष्टान्त नगण्य दिखने लगते है। आध्यात्मिक चेतना अंधयुग को पार कर अब नए आलोक तलाश रहा है। इसी संदर्भ में शोध-पत्र तैयार किया गया है ताकि भारतीय आध्यात्मिक चेतना और राष्ट्रवाद के मध्य संबंधों को समझा जा सकेगा। इसके लिए विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टेगोर, बंकिम चन्द्र चटर्जी, विपिन चन्द्र पाल, राजा राम मोहन राय एवं महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना को समझने का प्रयास किया जायेगा।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The more individualistic a man is, the more abstract his ideals become and the more collectivist he is, the more individualistic his ideals become. In the upliftment of a national consciousness, the search for subjective ideals becomes more when such examples are negligible in history. Spiritual consciousness has crossed the dark ages and is now searching for new light. It is in this context that a research paper has been prepared so that the relationship between Indian spiritual consciousness and nationalism can be understood. For this, efforts will be made to understand the spiritual consciousness of Vivekananda, Rabindranath Tagore, Bankim Chandra Chatterjee, Vipin Chandra Pal, Raja Ram Mohan Roy and Mahatma Gandhi.
मुख्य शब्द आध्यात्मिक चेतना, हिन्दूधर्म, राजनीतिक जागरण, धर्म, आत्मा, आध्यात्मिक राष्ट्रवाद।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Spiritual Consciousness, Hinduism, Political Awakening, Religion, Soul, Spiritual Nationalism.
प्रस्तावना
भारतीय आध्यात्मिक चेतना की सृजनात्मक अभिव्यक्ति सर्वप्रथम दर्शन, धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में हुई और उसके माध्यम से आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का उदय हुआ। भारतीय आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की विवेचना में प्राचीन धार्मिक परम्पराओं को महत्व दिया गया। गरिमामय वैभव के युगों में भारत नये विचारों और प्रेरणाओं को स्वीकार करने और विदेशी संस्कृतियों की उत्कृष्टताओं को आत्मसात करने को सदा तत्पर रहा। ऋग्वेद के ‘श्रेष्ठ विचार सब ओर से हमारे पास आए’ को स्वीकार करते हुए वेदांत व और हिन्दू धर्म को भारतीय चिंतन में महत्वपूर्ण स्थान मिला। भारत के सुदीर्घ इतिहास में विशेषकर आर्यों के आगमन के बाद के युग में स्पष्टतः हिन्दूधर्म ने ही भारत की राष्ट्रीय संस्कृति का स्वरूप निर्धारण किया।[1] वही इस देश की विविध उपलब्धियों के मूल में सृजनात्मक शक्ति का काम करता रहा, उसी ने नैतिक मानदंड, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और सामाजिक व राजनीतिक आधार तैयार किया। बौद्ध और जैन जैसे धर्मों ने हिन्दू धर्म से पूर्णतया स्वयं को अलग नहीं किया। कट्टर इस्लाम धर्म ने सदियों तक भारत पर शासन किया, लेकिन भारत का विशाल जनसमुदाय अपने पारम्परिक धर्म को ही अपनाए रहा। धर्म, भारत के लिए, केवल सम्प्रदाय नहीं, बल्कि जीवन की एक पूर्ण पद्धति रहा।[2]
अध्ययन का उद्देश्य
इस शोध आलेख का उद्देश्य भारतीय आध्यात्मिक राष्ट्रवादी चेतना की व्याख्या प्रस्तुत करना तथा भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ने भारत के राष्ट्रवाद को कैसे प्रभावित किया, उसका विश्लेषण करना है।
साहित्यावलोकन

महाचार्यहरीदास एवं भगवान दास ; कल्चरल हेरिटेज ऑफ इण्डियाखण्ड 4 द रिलिजियसमुंशीराम मनोहर लाल पब्लिशर्स प्रा.लि.नई दिल्ली, 2003 ई.। इस पुस्तक में भारतीय सांस्कृतिक विरासत के अन्तर्गत धर्म की महत्ता का विवेचन किया गया है।
महाचार्यहरीदास एवं भगवान दासकल्चरल हेरिटेज ऑफ इण्डियाखण्ड 4 द रिलिजियसमुंशीराम मनोहर लाल पब्लिशर्स प्रा.लि.नई दिल्ली, 2003 ई. पालविपिनचन्द्रदी सोल ऑफ इंडियाचौधरी प्रकाशनकलकत्ता, 1911 ई. अग्रवालशिखास्वामी विवेकानन्द और सांस्कृतिक राष्ट्रवादआविष्कार पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, जयपुर, 2010 ई.। इस पुस्तक में स्वामी विवेकान्द के चिंतन में धर्मराष्ट्रवाद का स्वरूप तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रहे तिलकअरविन्द घोषमहात्मा गांधीवी.डी. सावरकर के चिंतन के सन्दर्भ में विवेकानन्द के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समझने का प्रयास किया गया है।
सूदजे.पी.आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रमुख धारायेंभाग-3, के. नाथ. एण्ड कम्पनीमेरठ। इस पुस्तक में गोखलेतिलकगांधीनेहरूविपिनचन्द्र पाल के राष्ट्रवादी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।

म.गो. वैद्यश्री गुरूजी और राष्ट्र अवधारणा पत्रिकासुरूचि प्रकाशननईदिल्ली, 2006। इस पुस्तक में राष्ट्र और राज्य मातृभूमि के प्रति समाज के दायित्वों का विहंगम उल्लेख है।
चतुर्वेदीमधुमुकुलहिन्दूत्व एवं राष्ट्रवादराज. पब्लिशिंग हाऊसजयपुर, 2010 ई.। इस पुस्तक में गांधी व तिलक के राष्ट्रवादी विचारों एवं सावरकर के हिन्दू राष्ट्रवाद के विचारों का विश्लेषण किया गया है।
वर्मावी.पी.आधुनिक भारतीय चिन्तनलक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशकआगरा, 1975 ई.। इस पुस्तक में आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में राष्ट्रवाद विषय पर गूढ़ अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
पालविपिन चन्द्र ; आइडियो लोजीकल डवलपमेंट ऑफ रेवोल्यूशनरीअरेरिस्ट इन द नेशनलिज्म एण्ड कोलोनिज्म इन मार्डन इंडियान्यू दिल्ली, 1979 ई.
पालविपिन चन्द्र ; दी स्टडी आ हिन्दूइज्मयुवायात्री प्रकाशक लि. कलकत्ता, 1951 ई.। इस पुस्तक में हिन्दू शब्द की उत्पत्ति एवं अर्थहिन्दू एवं हिन्दूत्व संबंधी साहित्य की मिमांशाहिन्दूत्व अवधारणा के राजनैतिसामाजिक एवं आर्थिक पक्ष को स्पष्ट किया गया है।
घोषालयू.एन. ; ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन पॉलिटिकल आइडियाजकलकत्ता, 1923 ई.। इस पुस्तक में भारतीय राष्ट्रवादी चिंतको पर विशिष्ट प्रकाश डाला गया है तथा राष्ट्रवाद के विभिन्न स्वरूप को प्रतिपादित किया गया है।
डॉ. राजपुरोहित कन्हैयालालआध्यात्मिक राष्ट्रवाद साइंटिफिक पब्लिशर्सप्रथम संस्करण, 2021 इस पुस्तक में भारत के प्रज्ञा शलाका, पुरुषों बंकिम चन्द्र चटर्जीअरविन्दतिलकविपिन चन्द्र पालविवेकानन्दराज तीर्थ द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को जो शक्तिगति व गरीमा प्रदान की उस स्वतन्त्रता संग्राम की निजधरी गाथा का इस पुस्तक में वर्णन है।

मुख्य पाठ

भारत के सर्वांगीण जीवन में राजनीतिक गतिविधियों का स्थान सदा एकांगी और अत्यधिक सीमित रहा है। इसलिए धर्म रूपी विशाल उदभि का मंथन किए बिना राजनीतिक जागरण का अमृत प्राप्त करना मृगतृष्णा माना गया। ए. दे रीनकोर्ट ने द सोल ऑफ इण्डियामें लिखा, जागरण उसी धरातल पर हो सकता है, जिस पर चेतना का अस्तित्व होता है।[3] इससे स्पष्ट है कि गहन परिवर्तन का प्रबलतम हेतु वह परिपुष्ट दार्शनिक प्रवृत्ति तथा धार्मिक भावना ही हो सकता है, जो भारत की भारतीयता का ऐसा अभिन्न अंग है कि यदि उसका लोप हो जाएं तो इस महान देश की आत्मा ही निर्जीव हो जाएंगी। स्वामी विवेकानन्द ने इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया। उनका मानना था कि धर्म, व्यक्ति और राष्ट्र दोनों को ही शक्ति प्रदान करने वाला तत्व है। उनके अनुसार मेरे धर्म का सार शक्ति है। जो धर्म हृदय में शक्ति का संचार नहीं करता वह मेरी दृष्टि में धर्म नहीं है, चाहे वह उपनिषदों का धर्म हो और चाहे गीता अथवा भागवत का। शक्ति धर्म से भी बड़ी वस्तु है और शक्ति से बढ़कर कुछ नहीं।’[4] बाद के चिंतकों ने अपने चिन्तन में कई पूर्वकालीन अवधारणाओं को समकालीन संदर्भ में परिभाषित किया एवं नये सामाजिक, राजनीतिक प्रत्ययों को जन्म दिया।

भारतीय मूल के आध्यात्मिक विचारक होते हुए भी उनके राजनैतिक एवं सामाजिक चिन्तन में गूढ़ता नजर आती है।[5] उनके राजनीतिक चिंतन का आधार धर्म रहा है। भारतीय संदर्भ में धर्म की एक विशेष पहचान है। धर्म जीवन का मूल मंत्र रहा है। उन्होंने धर्म की संकुचित साम्प्रदायिक परिभाषा के स्थान पर इसे मानवतावादी और सार्वभौमिक माना। तत्कालीन समय में प्रचलित कर्मकांडों और रुढ़िवादी व्याख्याओं से अलग नैतिक और विवेकपूर्ण तरीके से धर्म की व्याख्या की। उनका मानना था कि अनन्त आत्मा सभी जीवों में छिपी है, अतः प्रकाशित नहीं होती, परन्तु सूक्ष्म दृष्टा मेधावीगण अपनी सूक्ष्म और पैनी बुद्धि से उसका साक्षात्कार करते हैं। प्रत्येक जीवन में वही एक आत्मा है इसलिए मानवतावादी मनुष्य पूजा का भाव भारतीय आध्यात्मिक चिंतन में बीज तत्व के रूप में परिलक्षित एवं उदित होता दिखाई पड़ता है।

आध्यात्मिक राष्ट्रवाद भारतीय राजनीतिक चिंतन का प्रमुख कारण रहा। भारत में राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्रधर्म के प्रति स्वाभिमान उत्पन्न करते हुए आत्मबल व आत्मविश्वास उत्पन्न करने के रूप में किया गया। वेदांत दर्शन, भारतीय संस्कृति तथा राजनीति का प्रमुख अस्त्र एक युगान्तकारी परिवर्तन के रूप में दिखाई पड़ता है।[6] वेदांत को ठोस, वैज्ञानिक और प्रेरणादायक रूप में प्रस्तुत करने के मूल में वे दो उद्देश्यों से प्रेरित थें - राष्ट्र का आध्यात्मिक उद्भव और अतीत के गौरव की पुनः प्रतिष्ठा, गौरवपूर्ण आध्यात्मिक परम्परा का उल्लेख भारतीय मनीषियों ने अति प्राचीनकाल में एकमेव सद्विप्रा बहुधा वदन्तिके महान् सत्य की खोज में परिलक्षित ही नहीं किया अपितु इस प्रयोग ने राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन का मूरूदण्ड बनाया जो कि आध्यात्म के क्षेत्र में विशेष महत्व रखता है। भारतीय चिंतकों का मत था कि भारत में जनजागृति, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और विदेशी राज से मुक्ति सार्वभौम प्रेम और बन्धुत्व से ही संभव है। निःसंदेह भारतीय चिंतकों ने समग्र राष्ट्रवादी विचारों से आध्यात्मिकीकरण को ही महत्वपूर्ण समझा जिसका प्रभाव बाद में राष्ट्रवादियों के विचारों पर भी पड़ा।

भारतीय चिंतन परम्परा में आधुनिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप हिन्दू धर्म की पुनर्व्याख्या और उसे पुनः प्रतिस्थापित कर राष्ट्रवाद से जोड़ना राष्ट्रवादी विचारकों की साधना थी।[7] आध्यात्मिक चिंतकों का किसी भी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं था, उन्होंने स्वीकार किया कि वे राजनीतिक व्यक्ति नहीं है न ही राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने वालों में हैं। वे तो केवल हिन्दू समाज में प्रबल पुनरूत्थान लाने की दशा में प्रवृत्त है। धार्मिक चिंतकों ने सही अर्थों में जनसाधारण के मानस को स्पर्श करने का प्रयास किया। अपने देशवासियों को अपनी निजी संस्कृति की गरिमा और वरिष्ठता को प्रबल अनुभूति कराई।

राष्ट्रवादियों के द्वारा भारतीय जनसमुदाय की सेवा करने के उनके अदम्य उत्साह के फलस्वरूप भारत के राष्ट्रीय नेताओं के समक्ष गतिविधियों का नया मार्ग प्रशस्त हुआ।[8] पाश्चात्य दृष्टिकोण रखने वाले तत्कालीन नेता अब अपने असंख्य देशवासियों से अलग ही बने रहे थे। पहली बार पारम्परिक हिन्दू धर्म से सुधार आंदोलन शुरू हुआ और उसका प्रभाव अनेक राष्ट्रवादी विचारकों पर भी पड़ा। यदि राममोहन रॉय, रानाडे उदारदल वालों के बौद्धिक पूर्वज कहे जा सकते हैं तो विवेकानन्द उग्रवादियों के आध्यात्मिक गुरू माने जाएंगें। बाद के काल में उग्रवादी नेताओं द्वारा व्यापक रूप से प्रस्तुत किए गए अनेक विचार मूलतः विवेकानन्द के चिंतन से स्पष्टतः लिए गए हैं, यथा-भारत के राष्ट्रीय जीवन में धर्म को मौलिक महत्व, सामाजिक सुधारों की तुलना में आध्यात्मिकता का महत्व अधिक है।

आध्यात्मवादी विचारकों का मत है कि सामाजिक सुधारों के पचड़े में न पड़ों, क्योंकि आध्यात्मिक विकास किए बिना किसी प्रकार का सुधार या विकास संभव नहीं है। आध्यात्मिक विचारकों का मत है कि संसार को आध्यात्मिकता का प्रकाश देना भारत के भाग्य में लिखा है और इसलिए भारत को अपना गरिमामय स्थान आध्यात्म मार्ग से ही बनाये रखना होगा।

भारतीय हिन्दू समाज की सांस्कृतिक आत्मा का पूर्ण पुनरूद्धार परमावश्यक है। दी रीनकोर्ट ने विवेकानन्द के प्रबल प्रभाव का संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार किया है - कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी दार्शनिक अरविन्द घोष और विदेशी साम्राज्य को हिलाकर अन्त में चकनाचूर करने वाले महात्मा गांधी जैसे बीसवीं सदी के आरम्भिक वर्षों के सभी क्षेत्रों में अग्र नायकों ने भारत के मानस को स्पन्दित करने वाले रामकृष्ण और उसकी आत्मा को प्रबुद्ध करने वाले विवेकानन्द के प्रति अपना आभार माना है।

विपिन चन्द्र पाल ने देशवासियों में गौरवपूर्ण अतीत के आधार पर आत्मविश्वास एवं आत्मभिमान एकता, अटल धैर्य, कार्यदक्षता के भाव को जगाया। उन्होंने भारत के पुराकालीन इतिहास, भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में निहित राष्ट्र के निर्माण के आश्चर्यजनक सिद्धांतों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए उन सिद्धांतों को राष्ट्र के मानस को मथने वाली समस्याओं के संदर्भ में व्यावहारिक उपयोग का दिग्दर्शन कराते हुए, एक दुर्लभ अन्तर्दृष्टि एवं विलक्षणता से व्याख्या की।[9]

विपिन चन्द्र पाल का मत था कि भारत में राष्ट्रीय एकता बिखरी हुई आध्यात्मिक देवी शक्तियों के एकीकरण से संभव होगी। भारत में राष्ट्र उन लोगों का संघ होना चाहिए, जिनके हृदय समान आध्यात्मिक स्वर लहरी से स्पन्दित होते हैं।’’[10]

बंकिम चन्द्र चटर्जी का दर्शन एवं प्रचार समूची भारतीय संस्कृति के इतिहास में युगांतरकारी    है। उन्होंने राष्ट्रीयता के आधार पर ऐसा दर्शन विकसित किया, जो समस्त संघर्षों को दूर करके मानव जाति को बहुमुखी सम्पूर्णता के उस स्तर तक उठा सकें जो उसका प्राप्य है। उन्होंने भारत की विशिष्टता का राष्ट्रीय गौरव के रूप में प्रतिष्ठित किया। समाज सुधार और अन्य बातें महत्वपूर्ण स्थान रखती है। बंकिम एवं विपिन चन्द्र पाल दोनों विचारक भारतीय आध्यात्मिक चिंतन में धर्म के माध्यम से विकास की अनूठी देन प्रदान करते है, वे विश्व के सम्मुख भारतीय संस्कृति और सभ्यता की श्रेष्ठता और सर्वोपरिता की साहसी प्रस्तुति और घोषणा से उन भारतीयों में राष्ट्रवाद के प्रति नवीन प्रेरणा और शक्ति का संचार किया जो यूरोपीय संस्कृति एवं सभ्यता के सम्मुख स्वयं को हेय समझते थें।[11]

बंकिम के बंगाल में राष्ट्रवाद के प्रारम्भिक युग में इसका स्वरूप धार्मिक था, ‘इसलिए बंगाल के राष्ट्रवादियों ने उपनिषद के पुरातन आदर्श को अपने स्वराज्य आंदोलन का आधार बनाया, जिसके अनुसार मनुष्य को आध्यात्मिक परम् तत्व को अपने अंतरतम में खोजना पड़ता है। इसीलिए माँ की उपासना शुरू हुई, माँ अर्थात् काली के रूप में प्रतिष्ठापित मातृभूमि की उपासना और याचना के माध्यम से वे महान् देशभक्त मातृभूमि के लिए उनके मन में ज्वलन्त प्रेम, अनुरागी, त्याग, समर्पण में बंगाल के राष्ट्रीय गौरव में महत्वपूर्ण स्थान बनाया था।

भारतीय चिंतन में, मानव सेवा ही सत्य है और हर प्रकार के धर्म का एकमात्र आधार है, को महत्वपूर्ण स्थान दिया, जिसने आगे आने वाले समाज सुधार कार्यक्रमों में महती भूमिका निभाई। पहले रोटी बाद में धर्म, परमात्मा को खोजना है तो मनुष्य की सेवा करो जैसे विचार और दरिद्र नारायण की सेवा का चिंतन भारतीय चिंतन का आधार बना और गांधी, विनोबा जैसे विचारकों पर उसका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। पश्चिम के भौतिकवाद, उपयोगितावाद या सुखवाद से पूर्णता नहीं आती वरन् उनकी मान्यता थी कि यह स्थिति तब आती है जब मनुष्य यह महसूस करने लगे कि धर्म ईश्वर तक पहुंचने का सीधा रास्ता है और ईश्वर को उसके किसी विशिष्ट रूप से नहीं समझा जा सकता और जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं उनका दृष्टिकोण संसार के सभी प्राणियों के प्रति करूणा और पूर्ण सहानुभूति का होता है। विवेकानन्द ने महसूस किया कि सामान्य तौर पर धर्म पर चर्चा ज्यादा होती है आचरण कम, जिससे धर्म मात्र कर्मकांड परख और याज्ञिक बन कर रह गया है। शिकागो धर्मसंसद में उन्होंने इसके सार्वभौम दृष्टिकोण पर सर्वाधिक जोर दिया, जिसकी वर्तमान में भी महती आवश्यकता है।

निष्कर्ष
भारत में पहले आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का उद्भव हुआ फिर राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक राष्ट्रवाद का विकास हुआ। आध्यात्मिक राष्टवाद आध्यात्मिक चेतना पर निर्भर था। आध्यात्मिक चेतना हिन्दू धर्म के वैदिक एवं वेदान्त चिन्तन का आधार है। इस आध्यात्मिक चेतना ने भारतीय धर्म, व्यक्ति और राष्ट्र को शक्ति प्रदान की इसलिए भारत में राजनीति एवं समाज का आधार धर्म बना। भारत में धर्म को व्यापक रूप में स्वीकार किया इसे मानवतावादी रूप प्रदान किया गया है। भारत में राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्रधर्म के प्रति आत्म विश्वास उत्पन्न करने के लिए किया गया है। भारतीय चिंतकों ने सार्वभौम प्रेम और बन्धुत्व से जन जागृति संभव माना है। अतः राष्ट्रवादी विचारकों ने पुररूत्थानवाद को राष्ट्रवाद से जोड़ा इसलिए उदारवादियों का बौद्धिक पूर्वज राजा राम मोहन राय तथा उग्रवादियों का आध्यात्मिक गुरू विवेकानन्द को माना। आध्यात्मवादी विचारकों ने सामाजिक सुधार की जगह आत्मा के पुरूद्धार पर जोर दिया। यथा विपिनचन्द्र पाल ने राष्ट्रीय एकता के लिए आध्यात्मिक शक्तियों के एकीकरण को आधार बनाया। बंकिम चन्द्र चटर्जी ने राष्ट्रीयता का आधार धर्म को बनाया और काली माँ की पूजा भारत माँ के रूप में की। विवेकानन्द मानव सेवा ही सत्य है इसे धर्म का आधार बनाया। धर्म के सार्वभौमिक दृष्टिकोण पर जोर दिया। इस प्रकार भारत में आध्यात्मिक चेतना और राष्ट्रवाद के मध्य घनिष्ठ संबंध है। भारत का राष्ट्रवाद आध्यात्मिक चेतना से ही उत्पन्न हुआ। उसी के सकारात्मक रूप में प्रसारित एवं प्रचारित हुआ है। अतः भारत में राष्ट्रवाद के मूल में आध्यात्मवाद ही है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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