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"अभिज्ञान" उपन्यास: एक विश्लेषण | |||||||
"Ignition" Novel: An Analysis | |||||||
Paper Id :
17331 Submission Date :
2023-02-16 Acceptance Date :
2023-02-23 Publication Date :
2023-02-25
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सारांश |
‘अभिज्ञान’ उपन्यास के कथानक की रचना गीता के ‘कर्म सिद्धान्त’ की आधारभूमि पर हुई है। लेखक नरेन्द्र कोहली ने कृष्ण-सुदामा की कथा के माध्यम से जहाँ एक ओर गीता के कर्म सिद्धान्त का अत्यन्त रोचक विवेचन-विश्लेषण किया है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक जीवन की अनेक विडम्बनाओं का भी बखूबी चित्रण किया है। इस उपन्यास की कथावस्तु के सन्दर्भ में कार्तिकेय कोहली लिखते हैं - ”नरेन्द्र कोहली ने एक उपन्यास ‘अभिज्ञान’ कृष्ण-कथा को लेकर लिखा। कथा राजनीतिक है। निर्धन और अकिंचन सुदामा को सामर्थ्यवान कृष्ण, सार्वजनिक रूप से अपना मित्र स्वीकार करते हैं, तो सामाजिक, व्यावसायिक और राजनीतिक क्षेत्र में सुदामा की साख तत्काल बढ़ जाती है। इस कृति का मेरूदंड भगवद्गीता का कर्म सिद्धान्त है। इस कृति में न परलोक है, न स्वर्ग और नरक, न जन्मांतरवाद। कर्म-सिद्धान्त को इसी पृथ्वी पर एक ही जीवन के अंतर्गत, ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि के आधार पर वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप व्याख्यायित किया गया है।“[1]
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The plot of the novel 'Abhigyan' has been created on the basis of 'Karma Siddhanta' of Gita. Writer Narendra Kohli, through the story of Krishna-Sudama, on the one hand has done a very interesting discussion and analysis of Karma theory of Gita, on the hand, has also depicted many irony of modern life. In the context of the story of this novel, Kartikeya Kohli writes - "Narendra Kohli wrote a novel 'Abhigyan' on the story of Krishna. The story is political. Sudama's reputation in the social, business and political sphere is immediately enhanced when the powerful Krishna publicly accepts the poor and penniless Sudama as his friend. The backbone of this work is the doctrine of Karma of the Bhagavad Gita. There is no other world, no heaven and hell, no reincarnation in this work. The principle of Karma has been explained according to scientific principles on the basis of sense organs and intellect within a single life on this earth.”[1] | ||||||
मुख्य शब्द | मेरूदंड, अकिंचन, जन्मांतरवाद । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Spinal Cord, Contraction, Transmigration. | ||||||
प्रस्तावना |
नरेन्द्र कोहली की अनेक रचनाओं में वर्तमान जीवन की विसंगतियों को, मूल्यों के सन्दर्भ में देखने का प्रयास किया गया है। इसी कारण भारतीय सांस्कृतिक मूल्य त्याग, समर्पण, प्रेम, समन्वय आदि भाव उनके साहित्य में यत्र-तत्र दिखाई देते हैं। सामाजिक विडम्बनाओं के साथ-साथ राजनीतिक विद्रूपताएँ भी उनके साहित्य में स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं। समस्याओं के प्रति जागरूक नरेन्द्र कोहली ने जहाँ एक ओर फंतासी एवं सूक्ष्म व्यंग्यात्मक शैली के माध्यम से शासन तंत्र के मायाजाल की अंतिम परत तक चीर डाली है, वहीं अपने विचारों को सशक्त ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए शैली के विविध रूपों का प्रयोग किया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | नरेन्द्र कोहली का उपन्यास ‘अभिज्ञान’ कृष्ण एवं सुदामा की कथा पर आधारित पौराणिक-दार्शनिक उपन्यास है, जिसमें कोहली ने गीता के कर्म-सिद्धान्त की नई व्याख्या की है। अतीत से सम्बद्ध होकर भी यह उपन्यास पूर्णतः नया और आधुनिक है। इस उपन्यास की मूल प्रेरणा के सम्बन्ध में कोहली लिखते हैं - ”आपातकाल के पश्चात् चुनाव हुए और संयोग से कुछ ऐसे लोग महत्वपूर्ण हो उठे, जो मेरे नाम और चेहरे दोनों से परिचित थे। ऐसे में कुछ लोगों के लिए मैं भी बहुत महत्वपूर्ण हो उठा ......... इसी घटना से मेरे मन में सुदामा की पौराणिक कथा जाग उठी थी, जहाँ कृष्ण से उनका सम्बन्ध उजागर हो जाने से सुदामा का संसार बदल गया था।“[2] |
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साहित्यावलोकन | लेखक नरेन्द्र कोहली की रामकथा व कृष्णकथा को लेकर विपुल शोध-कार्य किया गया है। अपने शोध-पत्र के लेखन हेतु अनेक पुस्तकों व शोध-पत्रों का अध्ययन किया। न्यूज़ टाइम पोस्ट, लखनऊ के 1-15 अगस्त, 2021 के अंक में प्रकाशित डॉ0 कौस्तुभ नारायण मिश्रा ने अपने शोध-पत्र ‘भारतीयता के उपासक नरेन्द्र कोहली’ में लेखक के पौराणिकता के प्रति आग्रह को व्यक्त करते हुए लिखा है कि साहित्य में पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक समाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। सन् 2018 में प्रकाशित अमृत हल्लां के शोध-पत्र ‘नरेन्द्र कोहली द्वारा अभिज्ञान की मेरी समीक्षा’ से भी उपन्यास को नए दृष्टिकोण से समझा। डॉ0 राहुल उठवाल के शोध-पत्र ‘डॉ0 नरेन्द्र कोहली के कृष्णपरक उपन्यासों में जीवन-मूल्य’ के अध्ययन से भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति लेखक की आस्था को पहचाना, जिससे अपने शोध-पत्र के कार्य को आगे बढ़ाने में मदद मिली। |
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मुख्य पाठ |
चूँकि आधुनिक वैज्ञानिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि वैज्ञानिक व नवीन हो गई है, अतः मनुष्य सूक्ष्म प्रश्नों का विश्लेषण व प्रतिपादन वैज्ञानिक दृष्टि से करता है। लेखक कोहली ने ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में अनेक घटनाओं को आधुनिक मानव की तर्कबुद्धि के अनुसार ही परम्परा से हटकर वास्तविकता के धरातल पर चित्रित किया है। सभी चमत्कारों और परम्परागत धारणाओं को तर्क के आधार पर छिन्न-भिन्न कर दिया गया है, जो आधुनिकता की परिचायक हैं। कृष्ण की गोपियों के साथ विभिन्न प्रकार की जिन लीलाओं का वर्णन पौराणिक कथाओं में मिलता है, ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में उसे सर्वथा नवीन दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण द्वारा गोपियों की मटकियाँ तोड़ने के प्रसंग को सर्वथा तार्किक व बौद्धिक धरातल पर प्रस्तुत किया गया है - ”कृष्ण के लीलाप्रिय भक्तों ने उसके राजनीतिक, सामाजिक दर्शन को लीलाओं में बदल दिया है। यादवों का मुख्य काम गो-पालन और दूध का व्यवसाय था। सुदामा नहीं जानते कि यह व्यवसाय का अतिरेक था या कंस का आंतक, पर तथ्य यही है कि ब्रज का सारा दूध मथुरा पहुँच जाता था ............. कृष्ण ने दूध के इस विवेक-शून्य निर्यात का विरोध किया था। गोप तो फिर मान गए थे- भीरू गोपियाँ; कंस के क्रोध से बचने के लिए छिप-छिपकर दूध ले जाया करती थी; या उन्हें धन का मोह अधिक था। उन्हें रोकने के लिए कृष्ण को अपने मित्रों की सहायता से मटकियाँ तोेड़नी पड़ीं। इस सामाजिक, राजनीतिक संघर्ष को भक्तों ने कृष्ण का विलास बना दिया।“[3] आधुनिक वैज्ञानिक युग में समाज के प्रत्येक क्षेत्र में नैतिकता का पतन होता जा रहा है। परिवार भी इससे अछूते नहीं है। यह सत्य है कि पारिवारिक सम्बन्धों में परायापन बड़ी तीव्रता से व्याप्त होता जा रहा है, जहाँ माता-पिता बालकों के प्रति अपने दायित्वों से मुँह मोड़कर केवल अपने अहं की तुष्टि में लगे रहते हैं। ‘अभिज्ञान’ उपन्यास का सुदामा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर अपने पारिवारिक दायित्वों के प्रति उदासीन होकर केवल अपने ज्ञान की पिपासा को शान्त करने में जुटा रहता है। उपन्यासकार बाबा द्वारा आधुनिक माता-पिता के दायित्वों पर प्रश्नचिह्न लगाकर उन्हें उनके कर्त्तव्य का बोध कराते प्रतीत होते हैं - ”गृहस्थी के अपने दायित्व होते हैं ....... पिता अपनी सन्तान की आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाए, तो क्या यह नहीं कहा जाएगा कि वह अपने धर्म से चूक गया?“[4] यह सत्य है कि नारी व पुरुष समाज की दो धुरी हैं। किसी भी एक पक्ष की प्रगति अवरुद्ध होने पर समाज का समुचित विकास संभव नहीं हो सकता। यह सत्य है कि आज नारी पुरुष की समानता पाने के लिए घर की चारदीवारी को लांघकर सार्वजनिक जीवन रूपी ऊँचे तटों की ओर अग्रसर है। आज नारी ने सफलता के अनेक शिखरों को छुआ है, लेकिन यह भी सत्य है कि पुरूष इस समानता की भावना को हृदय सेे स्वीकार नहीं कर पाया है। पुरुष की इस मानसिकता का उद्घाटन करते हुए ‘अभिज्ञान’ उपन्यास के बाबा नारी-स्वतन्त्रता को स्वीकृति देते प्रतीत होते हैं - ‘.............. नर-नारी के कार्य-विभाजन में आजीविका अर्जित करने का कार्य न जाने क्यों पुरुष के हिस्से में ही आया है, या शायद मुझे कहना चाहिए कि पुरुष ने यह कार्य स्वयं ले लिया है ताकि स्त्री आर्थिक दायित्वों के साथ आर्थिक अधिकारों से भी वंचित हो जाए और परिणामतः पुरुष के अधीन रहे। ................. इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि नारी को यह नहीं मान लेना चाहिए कि वह आजीविका उपार्जन के लिए सर्वथा पुरुष की आश्रित है। .......... मैं तो और आगे बढ़कर यह भी मानता हूँ कि अपने आर्थिक अधिकारों को प्राप्त करने और उसके माध्यम से अपनी सामाजिक-राजनीतिक स्वतन्त्रता पाने के लिए भी स्त्री को अपनी आजीविका के लिए आत्मनिर्भर होना चाहिए।“[5] विद्वान् प्राचीनकाल से ही समाज के पथ-प्रदर्शक रहे हैं। अपने ज्ञान से आने वाली पीढ़ियों का मानसिक परिष्कार कर वे राष्ट्र की उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे हैं। समाज में सम्मानित होे बुद्धिजीवी वर्ग अपने ज्ञान के प्रचार-प्रसार द्वारा समाज की उन्नति में सहयोगी होता है, परन्तु आधुनिक युग में स्थितियाँ बदली हैं। बुद्धिजीवी वर्ग समाज द्वारा उपेक्षित हो रहा है व जीवन की मूलभूत जरूरतों से भी वंचित है। ‘अभिज्ञान’ उपन्यास का सुदामा ऐसे ही बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतीक बन कर उभरा है। घर में भोजन का अभाव समाज द्वारा सुदामा की उपेक्षा का पूर्णतः उद्घाटन करता है। इस सन्दर्भ में आधुनिक चिन्तनशील समाज की चिन्ता को बाबा के शब्दों में वाणी प्रदान करते हुए उपन्यासकार लिखते हैं- ”सुदामा जैसा मेधावी दार्शनिक बच्चों को अक्षर-ज्ञान और अंक-ज्ञान कराकर अपने परिवार का पालन करता है, तो आश्रमों और गुरुकुलों में दर्शन के साधकों को ज्ञान देने का अधिकारी कौन है?“[6] इसके प्रत्युत्तर में सुदामा के माध्यम से किया गया उपन्यासकार का कटाक्ष वस्तुतः आधुनिक शिक्षा-संस्थानों की विडम्बनापूर्ण स्थिति का उद्घाटन है - ”जो हैं वे ज्ञान दे ही रहे हैं। राजपुरुषों के सम्बन्धी, सत्ता के चाटुकार, ज्ञान के हत्यारे, बड़े-बड़े तिलक, टीका, पदवी-उपाधिधारी।“[7] वर्तमान भौतिकता प्रधान युग में सर्वत्र ‘अर्थ’ को ही वरीयता प्रदान की जा रही है। आज मनुष्य ने मानवीय मूल्यों को छोड़कर धन को ही सामाजिक स्तर का प्रतीक मान लिया है। फलतः व्यक्ति की अपेक्षा पद ही महत्वपूर्ण हो उठा है। इस सामाजिक विडम्बना का दिग्दर्शन कोहली ने ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में अनेक स्थलों पर करवाया है। जब सुदामा गाँव में गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव लेकर ग्राम प्रमुख के पास जाता है तब अपने पद के नशे में चूर ग्राम प्रमुख सुदामा जैसे विद्वान् को भी अपमानित करने से नहीं चूकता। सुदामा द्वारा ग्राम प्रमुख को ‘आर्य’ सम्बोधित करने पर वह क्रोधित होकर स्वयं को ‘ग्राम प्रमुख’ सम्बोधित करने के लिए कहता है। अपने पद के नशे में चूर उस निकृष्ट एवं अहंकारी व्यक्ति के प्रति सुदामा की मानसिकता उजागर है- ”यह व्यक्ति एक क्षण के लिए भी नहीं भूल सकता कि यह ग्राम प्रमुख हैं; और दूसरे व्यक्ति को भी याद दिलाए रखना चाहता है। यह व्यक्ति एक पद पर नहीं बैठा है, वह पद ही इसके सिर पर बैठा हुआ है। यह व्यक्ति नही है, इसलिए ‘आर्य’ नहीं है, पद है; इसलिए ‘ग्राम प्रमुख’ है।“[8] यह सत्य है कि भ्रष्टाचार सामाजिक स्वास्थ्य के विकार का लक्षण और राजनीति की सफलता की कुंजी है। वस्तुतः भ्रष्टाचार से तात्पर्य निन्दनीय आचरण से है, जिसके वश में होकर व्यक्ति स्वयं को भूलकर अनुचित रूप से लाभ प्राप्त करना चाहता है। ”आचरण समाज रूपी क्यारी का निर्मल नीर है किन्तु जब उसमें मलिनता का एक भी कीटाणु प्रवेश कर जाता है, तो क्यारी के पौधों को स्वस्थ रखना असम्भव नहीं, तो दुष्कर अवश्य हो जाता है।“[9] रिश्वत, कालाबाज़ार, सिफारिश आदि सब भ्रष्टाचार के ही विभिन्न रूप हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भ्रष्टाचार रूपी राक्षस को जड़मूल से समाप्त करने का प्रयत्न सदियों से होता रहा है, किन्तु भ्रष्ट ‘आचार’ के रूप में भ्रष्टाचार कालान्तर से राजनीतिक वातावरण को दूषित एवं कुलषित किए हुए है। आज स्थिति यह है कि हमारे देश में व्याप्त राजनैतिक भ्रष्टाचार ने ‘प्रजातन्त्र’ से जनता की आस्था ही हटा दी है। ‘अभिज्ञान’ उपन्यास का कंस आधुनिक भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का साक्षात प्रतिरूप है। अत्याचारी और भ्रष्ट कंस के शासन के सम्बन्ध में कृष्ण सुदामा के सम्मुख कहते हैं - ”........ कंस ने समाज की अकर्मण्यता तथा असावधानी का लाभ उठाकर राजनीतिक संगठन को सर्वथा असामाजिक तत्वों से भर दिया था। समाज के हित के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए। निहित स्वार्थों से प्रेरित अन्यायी लोग विभिन्न अधिकार और शक्तियाँ संभाले बैठे थे। व्यवस्था ऐसी भ्रष्ट हो गई थी कि उसमें चरित्रवान व्यक्ति टिक ही नहीं सकता था। भ्रष्ट व्यवस्था का पहला लक्षण यह है कि उसमें भ्रष्ट व्यक्ति समाज के शीश पर स्थापित होने लगता है; अधिकार और शक्ति उन हाथों में संचित होती चली जाती है, जो उसका सन्तुलित, न्यायसंगत, बहुजन हिताय उपयोग करना जानता ही नहीं। भौतिक सुख-सम्पत्ति पर उसी स्वार्थी का आधिपत्य हो जाता है और अपने इस शोषणजन्य संचय के कारण, वह समाज में सम्मानित और अग्रगण्य हो जाता है। ऐसे समाज में आंतक का शासन होता हैं।“[10] अपने ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में लेखक ने कृष्ण को आधुनिक विचारधारा से सम्पन्न एक चेतन व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, जो परम्परागत रूढ़िवादी मान्यताओं का विरोध कर नवीन मान्यताओं की स्थापना का इच्छुक है। कृष्ण के व्यक्तित्व के इस पक्ष की झलक सुदामा के चिन्तन में है- ”सुदामा की कल्पना में उनका मित्र कृष्ण आ खड़ा हुआ। कृष्ण इन बातों को बहुत पहले से समझता था। तभी तो उसने अपने बाल्यकाल में ही इन्द्र की पूजा के स्थान पर गोवर्द्धन की पूजा आरम्भ करवा दी थी। इन्द्र, वैदिक युग का एक काल्पनिक देवता था। काल्पनिक न हो तो ऐतिहासिक होगा, किन्तु वह वर्तमान का यथार्थ नहीं था। वर्तमान का यथार्थ तो गोवर्द्धन गिरि ही है। यमुना के कछारों में रहने वाली प्रजा के लिए कोई ऊँचा स्थान कितना महत्वपूर्ण हो सकता है, यह तो यमुना की एक ही बाढ़ ने सिद्ध कर दिया था। अपनी विपत्ति के वे दिन यमुना-तटवासियों ने गोवर्द्धन की ऊँचाई पर ही काटे थे। गोवर्द्धन की पूजा .......... सुदामा का बुद्धिजीवी मन हँसा ........पूजा का क्या अर्थ है............ सिवाय इसके कि उस वस्तु का महत्व समझा जाए और उसके महत्व और उपयोगिता के लिए उसका सम्मान किया जाए। पूजा के नाम पर गंगा में पुष्प और मिष्ठान्न अर्पित करने वाला व्यक्ति तो उसके जल को गंदा ही कर रहा हैं; किन्तु जो व्यक्ति समझता है कि गंगा का जल यदि हिमालय की ओर बहने के स्थान पर, किन्हीं कारणों से हिमालय की इस ओर बह गया होता, तो गंगा-युमना का यह मैदान मरूभूमि हो गया होता। वह व्यक्ति वास्तविक पूजा-भाव रखता है गंगा के प्रति................।“[12] संयम, सत्य, अहिंसा, सद्भाव आदि मूल्यों के पुंज को नैतिकता कहा जा सकता है। यह सत्य है कि आज वैज्ञानिकता के प्रभावस्वरूप नैतिकता समाप्त होती जा रही है। ”नवीन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज ने परम्परागत नैतिक मान्यताओं को तिलांजलि देकर नवीन नैतिक प्रतिमानों की ओर अभिरूचि प्रदर्शित की है। वस्तुतः वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों की समस्या और भी विकट इसलिए हो गई है कि प्राचीन शास्त्रीय, धार्मिक अथवा ईश्वर-संभूत धार्मिकता इस युग मे क्रमशः क्षीण होती जा रही है और आज नैतिकता का आधार एक मानव-संभूत नीति में खोजा जा रहा है।“[13] नरेन्द्र कोहली ने अपने ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में मनुष्य की नैतिकता से बढ़ती दूरी का बखूबी
उद्घाटन किया है। आधुनिक मनुष्य अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु निकृष्ट-से-निकृष्ट कर्म
में भी गौरव का अनुभव करता है। वह सत्य है कि महाभारतयुगीन परिस्थितियां तथा आज की
परिस्थितियाँ नैतिकता की दृष्टि से बहुत साम्य रखती हैं। आधुनिक नैतिक मूल्यों के
पतन की पराकाष्ठा ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में चौपाल में बैठे व्यापरियों के वार्तालाप
में सहज ही देखी जा सकती है- ”व्यापारी
को क्या चाहिए? व्यापार करने की सुविधा!
और व्यापार किसलिए है? धन
कमाने के लिए। अब इसमें नैतिकता-अनैतिकता या स्वाभिमान- अपमान की बात कहाँ से आ
गई। अन्न के व्यापार में लाभ होगा तो हम अन्न बेचेंगे, मदिरा बेचने से लाभ होगा, हम मदिरा बेचेंगे। सुंदरियाँ बेचने में लाभ होगा, तो हम सुंदरियाँ बेचेंगे।“ |
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निष्कर्ष |
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लेखक नरेन्द्र कोहली ने अपने ‘अभिज्ञान’ उपन्यास में सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों का चित्रण आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में किया है। उन्होंने कृष्णकालीन अनेक पात्रों व घटनाओं की प्रस्तुति तर्कसम्मत ढंग से की है। उन्होंने कृष्ण के ईश्वर रूप की सर्वथा उपेक्षा कर एक सहज मानवीय चरित्र के रूप में कृष्ण को इस संघर्ष के नेता के रूप में प्रस्तुत किया है। वस्तुत ‘अभिज्ञान’ उपन्यास आधुनिक युग की अनेक ज्वलंत समस्याओं को प्रस्तुत करता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. कार्तिकेय कोहली, नरेन्द्र कोहली के विषय में, पृ0 7
2. नरेन्द्र कोहली, बकलम खुद, पृ0 11
3. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 62
4. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 43
5. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 41
6. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 30
7. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 30
8. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 51
9. तनसुख रामगुप्त, हिन्दी निबन्ध, पृ0 295
10. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 189
11. ओम शिवराज, धर्म विजय, पृ0 27
12. नरेन्द्र कोहली, अभिज्ञान, पृ0 61
13. डॉ0 राजेन्द्र प्रताप, हिन्दी उपन्यास: तीन दशक, पृ0 143 |