P: ISSN No. 2231-0045 RNI No.  UPBIL/2012/55438 VOL.- XI , ISSUE- III February  - 2023
E: ISSN No. 2349-9435 Periodic Research
सन्त रविदास के विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता
Current Relevance of Sant Ravidass Thoughts
Paper Id :  17367   Submission Date :  2023-02-16   Acceptance Date :  2023-02-22   Publication Date :  2023-02-25
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अरुण कुमार
असिस्टेण्ट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
राजकीय रज़ा स्नातकोत्तर महविद्यालय
रामपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
‘सन्त’ उस व्यक्ति को कहते हैं जो सदा सत्य का आचरण करें और अपने इंद्रियों पर नियन्त्रण रखते हुए सांसारिक तृष्णाओं का अन्त कर दे। सन्त सर्व हित चिन्तक होते हैं। विश्व के कल्याण की बात करते हैं। सन्त संसार और आध्यात्म के मध्य सेतु का कार्य करते हैं। उनके आचरण सर्वजनीन, सार्वकालिक एवं सर्वथा प्रासंगिक होते हैं। वे अपने विचारों से समाज को सही दिशा प्रदान करते हैं। सन्त रविदास भी ऐसे ही दिव्य गुणों से सुशोभित महान सन्त थे। उनके क्रान्तिकारी विचार न केवल तदयुगीन विसंगतियों पर कुठाराघात करते हैं अपितु वर्तमान समाज में व्याप्त सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों को भी दूर करने की प्रेरणा देते हैं। सन्त रविदास या रैदास (1598-1518 ई.) निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख सन्त एवं समाज सुधारक थे। भारत में विक्रम की 15 वीं शताब्दी के अन्तिम भाग से लेकर 17 वीं शताब्दी के अन्त तक निर्गुण भक्ति काव्य की दो धाराएं ज्ञानाश्रयी तथा प्रेमाश्रयी समान्तर रूप से चलती रहीं। सन्त कवियों में सन्त कबीर दास, सन्त रैदास, नामदेव, तुकाराम, पीपा, नानक देव, हरिदास, निरंजनी, दादू दयाल, मलूकदास, धर्मदास, सुंदरदास, रज्जब, गुरु अंगद, रामदास , अमरदास, गुरु अर्जुन देव, लाल दास, बाबा लाल, वीरभान, शेख फरीद, सन्त भीखन, सन्त सतना, सन्त बेनी, सन्त धन्ना आदि प्रमुख हैं। इसमें अधिकांश रामानंद के शिष्य थे। सन्त रविदास भी रामानंद के 12 शिष्यों में से एक थे और कबीर के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित थे। सन्त कबीर जिन बातों को उग्र होकर दृढ़ता और साहस से कहते हैं, उन्हीं बातों को सन्त रैदास अत्यन्त सहज, सरल और सौम्य भाव से कहने में समर्थ होते हैं। निम्न वर्ग (चर्मकार) में जन्म होने के बावज़ूद भी वे अपने उत्तम आचरण, सहज जीवन शैली, उत्कृष्ट साधना पद्धति धारण करने और विशुद्ध आत्मज्ञानी होने के कारण वे भारतीय धर्म साधना के इतिहास में सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद A 'saint' is a person who always follows the truth and puts an end to worldly desires by keeping control over his senses. Saints are all welfare thinkers. He talks about the welfare of the world. Saints work as a bridge between the world and spirituality. His conduct is universal, everlasting and absolutely relevant. They provide the right direction to the society with their thoughts. Saint Ravidas was also a great saint adorned with such divine qualities. His revolutionary thoughts not only attack the anomalies of that time, but also inspire to remove the social anomalies and evils prevailing in the present society.
Saint Ravidas or Raidas (1598-1518 AD) was the chief saint and social reformer of the Nirguna Bhakti school. In India, from the last part of Vikram's 15th century till the end of 17th century, two streams of Nirguna Bhakti poetry, Gyanashrayi and Premashrayi, continued to run parallely. Sant Kabir Das, Sant Raidas, Namdev, Tukaram, Pipa, Nanak Dev, Haridas, Niranjani, Dadu Dayal, Malukdas, Dharmadas, Sunderdas, Rajab, Guru Angad, Ramdas, Amardas, Guru Arjun Dev, Lal Das, Baba Lal , Virbhan, Sheikh Farid, Sant Bhikhan, Sant Satna, Sant Beni, Sant Dhanna etc. are prominent. Most of them were Ramanand's disciples. Saint Ravidas was also one of the 12 disciples of Ramanand and was greatly influenced by the thoughts of Kabir. Saint Raidas is able to say the same things in a very easy, simple and gentle manner, which Saint Kabir says with fierce determination and courage. Despite being born in a lower class (charmakar), he will always be remembered in the history of Indian religious practice because of his good conduct, simple lifestyle, excellent spiritual practice and being pure self-knowledge.
मुख्य शब्द प्रासंगिकता, तृष्णा, कुरीति, बाह्याडम्बर, सामाजिक विसंगति, उपादेयता, सामाजिक मूल्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Relevance, Craving, Vice, Extravagance, Social Anomaly, Utility, Social Value.
प्रस्तावना
जिस प्रकार प्रसंग-गर्भत्व साहित्य को सांस्कृतिक गरिमा प्रदान करता है उसी प्रकार सन्त द्वारा दिए गए उपदेश और उनके संकलित पद एवं दोहे सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से शाश्वत प्रासंगिक होते हैं। सन्त और उनके विचारों की प्रासंगिकता उसे वर्तमान संदर्भ में प्रतिफलित होने का सामर्थ्य देती है। सन्त एवं साहित्यकार की वर्तमान पारखी दृष्टि भविष्य की चिरंतन समस्याओं का समाधान सहज ही ढूँढ लेती है। किसी भी सन्त कवि अथवा साहित्यकार के विचारों की प्रासंगिकता से तात्पर्य वर्तमान में उसकी उपादेयता एवं समीचीनता से है। सन्त रविदास के सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विचारों में समकालीन चेतना स्वतः ही प्रतिबिंबित होती है। वे सात्विक मान्यताओं का खुलकर समर्थन करते हैं। समाज, धर्म, संस्कृति, आडम्बर एवं अंधविश्वास की उन मान्यताओं का सिरे से खंडन करते हैं जो मूल्यपरक एवं कल्याणकारी न हो। लगभग 800 वर्ष पुराने विचारों में आज भी वही ताज़गी, वही सादगी, वही संदेश, वही प्रासंगिकता है। उनकी रचनाधर्मिता एवं सद्विचारों में अक्षुण्ण मूल्यों का समाहार है। सन्त रविदास की वाणी ने हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के विकृत सामाजिक एवं धार्मिक अंधविश्वासों एवं बाह्याडम्बरों का खंडन करके अपने नैतिक व आध्यात्मिक चरित्र बल से तद्युगीन समाज में ज्ञान का जो अलख जगाया, वह हमारे आज के टूटते-बिखरते जीवन के सापेक्ष उतना ही मूल्यवान है जितना अपने युगीन सन्दर्भों में था।
अध्ययन का उद्देश्य
सदियों से राजा-प्रजा, अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, शोषक-शोषित, पूँजीपति-सर्वहारा, वर्ग-जाति, धर्म-अधर्म के कुचक्र में उलझा हुआ समाज झूठी व्यवस्था, स्वाभिमान, मद, दम्भ, अहंकार, स्वार्थ आदि के वशीभूत मानव ही मानव का दुश्मन कब बन बैठा यह बात पता चलते-चलते बहुत देर हो चुकी थी। व्यवस्था की छत्रछाया में मध्यकालीन समाज में यह कुचक्र खूब फला-फूला। वर्ग-भेद, जाति-भेद, ऊॅच-नीच, अस्पृश्यता के कुचक्र में फँसे हुए मनुष्य का शोषण एवं दलन करना तद्युगीन सामाजिक व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बन गया था। कालान्तर में महात्मा गाँधी , जवाहरलाल नेहरू, रवीन्द्र नाथ टैगोर, डॉ.भीमराव आम्बेडकर, राजाराम मोहनराय, सन्त कबीर, सन्त रविदास जैसे अनेक सन्त, महात्मा, एवं समाज सुधारकों ने समाजिक कुव्यवस्थाओं एवं शोषण के विरुद्ध लड़ते-लड़ते अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, फिर भी समाज की परिधि पर रहने वाले दलितों के शोषण एवं दमन की समस्या समाप्त नहीं हुई। वर्तमान में लोकतान्त्रिक एवं कल्याणकारी संवैधानिक व्यवस्था सुचारु रूप से लागू होने के वावज़ूद भी दलित अपने अस्मिता, अस्तित्व एवं स्वाभिमान से युक्त सामाजिक समरसतामय जीवन जीने के लिए संघर्षरत है। इस समरसतापरक समाज की संकल्पना के मूल में महात्मा बुद्ध, सिद्ध शिरोमणि सरहपा, महावीर जैन ई.वी. रमास्वामी नायकर, सन्त तुकाराम, सन्त कबीर, गुरुनानक , नामदेव, सन्त रविदास, महात्मा गाँधी , डॉ. भीमराव आम्बेडकर, आदि के समतावादी सामाजिक विचार सन्निहित हैं। सन्त रविदास के विचारों का उद्घाटन करना एवं वर्तमान सन्दर्भों में उसकी प्रासंगिकता से जन सामान्य को परिचित कराते हुए, लोगों में सौहार्द्र, संवेदना, सहयोग एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना करना ही हमारा मूल उत्स है।
साहित्यावलोकन

यद्यपि सन्त साहित्य के विविध पक्षों पर  साहित्यकारोंआलोचकोंएवं शोधार्थियों आदि ने अनेक पुस्तकोंलेखोंशोधपत्रों एवं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से  प्रकाश डाला हैकिन्तु सन्त रविदास के सामाजिक एवं दार्शनिक विचारों की वर्तमान उपयोगिता एवं प्रसंगिकता पर अपेक्षाकृत कम प्रकाश डाला गया है।
सन्त रविदास जी की अमर कहानी‘,[1] ‘सन्त रविदासः जीवन और दर्शन‘,[2] ‘सन्त रविदास और मानवीय चेतना’[3] आदि पुस्तकों, ‘सामाजिक क्रन्ति के  अग्रदूतः सन्त रैदास’,[4] ‘सन्त रविदासः साम्प्रदायिक सौहार्द्र के हितैषी’,[5] सन्त रविदास:दार्षनिक एवं शैक्षिक चिन्तन’,[6] सन्त गुरू रविदास के शैक्षिक विचारों की आधुनिक भारत में प्रासंगिकता’,[7] आदि शोधपत्रों एवं लेखों में सन्त रविदास के सामाजिकसांस्कृतिकदार्शनिक एवं शैक्षिक विचारों पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत शोधपत्र  के माध्यम से वर्तमान सामाजिक सन्दर्भों के अनुरूप सन्त रविदास के समग्र सामाजिक चिन्तन की प्रासंगिकता को संक्षेप में प्रस्तुत करने एवं तद्विषयक शोध- शृंखला को आगे बढ़ाने का प्रयास किया गया है। आज समाज की परिधि पर रहने वाले दलित समाज के लोग सन्त रविदास के विचारों से प्रेरित होकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं और आत्म गौरव की अनुभूति कर रहे हैं। अतः वे आज दलितों के मसीहा माने जातें हैं। उनके विचार-रश्मियों से आज न केवल दलित अपितु समग्र मानव समाज का पथ आलोकित हो रहा है।

मुख्य पाठ

सन्त रविदास के विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता

सन्त रैदास का जन्म काशी में हुआ था। भक्तमाल और डॉ. भंडारकर के अनुसार उनका जन्म 1299 ई. में हुआ था। डॉ. भगवत मिश्र ने उनका जन्म काल 1398 ई. तथा मृत्यु काल 1448 ई. माना है। यह प्रसिद्ध है कि वे मीराबाई (1498-1546 ई.) के गुरु थे। अंतः साक्ष्य से पता चलता है कि वे जाति के चमार (चर्मकार) थे। उन्होंने कहा है- ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारा‘- अनंत दास द्वारा लिखित परिचईऔर प्रिया दास के सटीक भक्तमालके अनुसार रैदास को स्वामी रामानंद ने दीक्षा दी थी और  उनकी पत्नी का नाम लोना था। उन्होंने प्रयाग, मथुरा, वृंदावन, भरतपुर, जयपुर, पुष्कर, चित्तौड़ आदि स्थानों का भ्रमण किया था। वे सिकंदर लोदी के आमंत्रण पर दिल्ली भी गए थे।‘[8]

सन्त रविदास का युग दो संस्कृतियों का मिलन बिन्दु था। हिन्दू संस्कृति धार्मिक, एवं सामाजिक आडम्बर तक सीमित हो चला था। अस्पृश्यता, जाति-पाँति के भेदभाव, आडम्बरों एवं बाह्याचारों ने हिन्दू संस्कृति को खोखला कर दिया था। नाथ, सिद्ध, जैन, शाक्त, वैष्णव आदि धार्मिक पन्थ समाज को टुकड़ों में बाँटकर परस्पर विद्वेष से संघर्षों द्वारा इसे दुर्बल बना रहे थे।                                                    

भारतीय संस्कृति गैरिक भगवा और कोपीनधारी साधुओं को अपना आदर्श मान बैठी थी। मुस्लिम संस्कृति भी अपना पैर पसार चुकी थी । वह भारतीय धर्म एवं संस्कृति को विकृत कर रही थी। इस प्रकार डगमगाती हुई संस्कृति की विकृति को सन्तों एवं समाज सुधारकों ने अपने उदारवादी, तार्किक एवं वैज्ञानिक विचारों से सत्य का मार्ग दिखाने का प्रयास किया। इन सन्तों ने परंपरागत मान्यताओं की लकीर को त्याग कर फ़कीर की भूमिका निभाई। इसके लिए सन्त कबीर एवं सन्त रैदास जैसे सन्तों एवं समाज सुधारकों को तद्युगीन व्यवस्था की उग्रता एवं कठोरता का भी सामना करना पड़ा। एक ओर सन्त कबीर  अपनी अक्खड़ता, व्यंग्य, तर्क एवं नैतिक आत्मबल से सिकंदर लोदी जैसे बादशाह का भरे दरबार में सामना करते हैं तो दूसरी ओर सन्त रविदास को  समाज में बार-बार अपनी सुचिता, शुद्धता, ज्ञान, नैतिकता एवं आध्यात्मिक बल की परीक्षा देनी पड़ती है।

सन्त रविदास ने जीवन और जगत की वास्तविकताओं को पहचाना था। उनका युग-बोध, आत्म-बोध, और अध्यात्म-बोध विस्तृत, तत्त्वपूर्ण और शाश्वत सत्य से संपृक्त था। उनके विचार केवल बाहरी आडम्बर एवं अंधविश्वास के लबादे नहीं अपितु स्वयं के जीवनानुभव के निकष हैं। वर्तमान प्रणेताओंआचार्यों, नेताओं, लेखको, कवियों एवं सन्तों के कथनी-करनी में भेद के कारण उनके शब्दों का प्रभाव कम हो गया है या हम यूँ कहें कि उनके शब्दों के प्रति जनता की विश्वसनीयता कमतर होती जा रही है। कथनी-करनी  एक होने के कारण सन्तों की वाणी आज भी जनसामान्य में उतना ही विश्वसनीय, प्रभावकारी एवं प्रासंगिक है जितना तद्युगीन समाज में था।

सन्तों ने अपनी भक्ति को प्रेम भक्तिकहा है । उनके मत से प्रेम भक्ति अनमोल है जिसकी बराबरी ना योग कर सकता है ना ज्ञान। योग और ज्ञान दोनों अधूरे हैं, केवल भक्ति ही पूर्ण है। यह सहज और रस से परिपूर्ण है। सन्तो के विचार से केवल भक्ति ही साध्य है, शेष सब कुछ साधन है। भक्ति के बिना समस्त साधनाएँ व्यर्थ हैं।‘[9] सन्त रविदास भी इसीलिए केवल ज्ञान से नहीं अपितु भक्ति से हरि को पाना चाहते हैं। हरि रूपी हीरा के समक्ष संसार की प्रत्येक वस्तु तुच्छ है। वह जिसके अन्दर बसता है, वह कभी उदास कैसे रह सकता है? वे कहते हैं जिसके हृदय में रात और दिन राम बसते हैं वह भक्त भगवान राम के ही समान हो जाता है और उसे क्रोध पर विजय प्राप्त हो जाती -

हरि सा हीरा छाड़ि कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाखै रैदास।।
×××
रैदास कहे जाकै हृदयरहै रेन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।[10]

वे कहते  हैं नीच जाति में जन्म लेने के कारण जिस रविदास को देखने से लोग घृणा करते थे और वह नरक कुंड के समान जीवन जीते थे, उन्हें भी भक्ति से भगवान के दर्शन हुए-

जा देखि घिन ऊपजै, नरक कुंड में बास।
प्रेम भगति सों ऊघरै, प्रगटत जन रैदास।[11]

रैदास जी कहते हैं कि तूँ किवाच की फली की भाँति है, जिसे छूने मात्र से खुजली उत्पन्न हो जाती है अर्थात तूँ अस्पृश्य है, इसलिए तुझे कोई नहीं छूता। तूँ अपने ही स्वरूप राम रूपी नाव जो भवसागर से पार उतार सकता है, उसे जानता ही नहीं है। इसलिए तुम्हारा कल्याण कैसे सम्भव है? रैदास जी कहते हैं कि समस्त विवादों से दूर होकर रात्रि की निद्रा और दिन का स्वाद त्यागकर दिन-रात केवल हरिजी राम का सुमिरन करना चाहिए तभी ईश्वर की कृपा प्राप्त हो सकती है-

रैदास तूँ कावच फली, तुझे न छीपे कोइ।
तैं निज नाव न जानिया , भला कहाँ ते होइ।।
रैदास रात न सोइए, दिवस न करिये स्वाद।
अह-निसि हरि जी सुमिरिये, छाँड़ि सकल प्रतिवाद।।[12]

रैदास की रचनाओं में ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों का अद्भुत समन्वय है। तीनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। जैसे फल प्राप्त करने के उद्देश्य से वृक्षों पर फूल आते हैं और जब फल प्राप्त हो जाता है, तो पुष्प नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के लिए विविध कर्म करने पड़ते हैं और जब ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो कर्म का भाव स्वतः ही नष्ट हो जाता है। यह वट वृक्ष के फल जैसा तीनों लोकों में फैला हुआ है। यह जहाँ से उत्पन्न होता है वहाँ पर यह लुप्त हो जाता है और सहज सुन्नि ब्रह्मरंध्र में जाकर छुप जाता है।

फल कारन फूलैं बनराई। उपजै फल तब पुहुप बिलाई।
ग्यानहि कारन पुहुप नसाई, उपजै ग्यान त करम नसाई।।
बटु क बीज जैसा आकार। पसरयो तीन लोक पासार।।
जहाँ का उपजा तहाँ बिलाई। सहज सुन्नि में रह्या लुकाई।।[13]

रैदास, कबीर, नानक, नामदेव, धन्ना, पीपा, तुकाराम, आदि मध्यकालीन सन्तों ने जिस ईश्वर को व्याख्यायित किया वह विलक्षण है। इनके राम के स्वरूप का वर्णन करते हुए डॉ. राज देव सिंह लिखते हैं- सन्तों का राम न ज्ञानियों का अद्वैत ब्रह्म है, न भक्तों का सगुण ब्रह्म है। वह इन दोनों के बीच का है। वह अद्वैत सत्ता है किंतु प्रेम का विषय भी है। दया माया से हीन नहीं है। भक्तों का दुख दर्द उस तक पहुँचता है।---वह कीरी से कुंजर तक सबकी खबर रखता है। वह भक्तों को प्रेम की पीड़ा देता है और उसे हरता भी है।‘[14]

ज्ञानमूलक भक्ति की उदात्त भूमि पर पहुँचकर सन्तां के राम ने विष्णु, कृष्ण, गोपाल, गोविंद, अल्लाह, खुदा, रब, करीम, गोरख, महादेव, सिद्ध, नाथ आदि मिलकर एकार्थक हो जाते हैं और सब मिलकर सन्तों के अनन्त व अनिर्वचनीय राम को पूर्णता प्रदान करते हैं एवं सगुण अवतार का स्वरूप निर्गुण में आकर समाहित हो जाते हैं। सन्तो के यहाँ विष्णु वह हो जाता है जो समग्र विश्व में परिव्याप्त है, कृष्ण वह है, जिसने संसार का निर्माण किया है, गोविंद वह है, जिसने ब्रह्मांड को धारण किया है, राम वह है जो सनातन तत्त्व है, अल्लाह वह है, जिसने जननी रूप में सब कुछ जान लिया है, खुदा वह है जो दसों दरवाजों को खोल देता है, रब वह है जो 8400000 योनियों की परवरिश करता है, गोरख वह है जो ज्ञान से गम्य है, महादेव वह है जो मन को जानता है, सिद्ध वह है जो इस चराचर दृश्य मान जगत का साधक है, नाथ वह है जो त्रिभुवन का एकमात्र पति है, जगत के जितने भी सिद्ध साधक हुए हैं वह सभी इस एक की ही पूजा करते हैं ,सन्त उसे रामकहते हैं-

कृष्न, करीम, राम, हरि, राघव , जब लगि एक न पेखा।
वेद, कतेब, कुरान, पुरानन , सहज एक नही देखा।।
जोइ-जोइ, पूजिय , सोइ- सोइ कांची, सहज भाव सति होई।
कह रैदास मैं ताहि को पूजूँ, जाके ठाँव न कोई।।
×××
सब में हरि है, हरि में सब हैं, हरि अपनों निज जाना।
साखी नहीं और कोई दूसर, जननहार सयाना।।[15]

सन्त रविदास राम के चरणों में विश्वास रखते हैं। उनका तीर्थ या व्रत में कोई विश्वास नहीं   है। उनके राम तो सर्वत्र और शाश्वत रूप से विद्यमान हैं। केवल विशेष स्थान मंदिर-मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारा आदि में ही उनका निवास नहीं है, अपितु जन-जन में वे रमते हैं-

तीरथ, बरत न करौ अंदेसा, तुम्हरे चरण कमल का भरोसा।
जहँ-जहँ जावौं तुम्हरी पूजू, तुमसा देव और नहिं दूजा।।

वे अन्तर्साधना के प्रबल समर्थक थे। उनका विरोध किसी विशेष धर्म, सम्प्रदाय अथवा मान्यता  से नहीं था अपितु उनका विरोध उन धर्म अथवा धर्म के ठेकेदारों से था, जो स्वयं धर्मान्ध एवं पतित होकर बाह्याचार, स्वांग एवं आडम्बर का झूठा नाटक रचकर समाज को  धोखा दे रहे थे और  उसे दिशाहीन कर रहे थे।

निम्न जाति में पैदा होने कारण जाति-पाँति, वर्ग-भेद, छुआ-छूत और अस्पृश्यता का जितना कटु अनुभव सन्त रविदास को था कदाचित उतना कटु अनुभव सूर, तुलसी, जायसी अथवा किसी अन्य कवि को नहीं था। उन्होंने हृदय से अनुभव किया कि जाति-पाँति की खाई बहुत गहरी है। जब तक इसे वैचारिक सौहार्द्र्य से पाटा नहीं जायेगा तब तक मानव-मानव के बीच एकता सम्भव नहीं है। उन्होंने धर्म के उदारवादी पक्ष को उद्घाटित करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया कि धर्म किसी एक वर्ग, जाति अथवा किसी व्यक्ति विशेष के लिये नहीं हो सकता, अपितु यह सबके लिए समान रूप से मान्य होता है। जो धर्म सर्व कल्याणकारी न हो वह धर्म हो ही नहीं सकता है। धर्म तो सार्वकालिक, सर्वजनीन एवं सर्वग्राह्य होता है। उनके इन विचारों ने निम्न वर्ग के लोगों को बहुत गहराई से प्रभावित किया, उनमें आत्म सम्मान एवं आत्मगौरव की भवना का अलख जगाया  और इसे एक आन्दोलन के रूप में खड़ा कर दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि जन्म अथवा जाति से कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं होता सबका सृजनहार एक है और उसकी भक्ति पर सबका समान अधिकार है-

जन्म जात मत पूछिए, का जात अरु पात
रविदास पूत सभ प्रभ के, कोउ नहिं जात कुजात।।
×××
बहमन वैसे सूद अरु खत्री, डोम, चमार, मलेछ मन सोई।
होई पुनीत भगवन्त भजन तें, आपु तरे तारे कुल दोई।।[16]

सन्त रविदास जी कहते हैं कि कोई व्यक्ति केवल पुण्य कर्मों और हरि की भक्ति से ही श्रेष्ठ हो सकता है। सब मनुष्य को ईश्वर ने एक ही पवन, एक ही जल, एक प्रकाश से जीवन दिया है। सबके अन्दर एक ही तरह का रक्त है, सबका शरीर हाड़, मांस और नाड़ी का एक पिंजर है, जिसमें जीव रूपी पंक्षी बसेरा करता है। इस संसार में मेरा और तेरा कुछ भी नहीं है, केवल मेरा और तेरा का भाव तभी तक है, जब तक पंक्षी रूपी जीव पिंजरे रूपी शरीर में निवास करता है-

जल की भाँति पवन का थम्भा, रक्त बूँद का गारा।
हाड़-मांस नारी को पिंजर, पंखी बसै बिचारा।।
प्रानी किया मेरा, तेरा, जैसे तरुवर पंखि बसेरा।
×××
मेरी जाति कमीनी, पाँति कमीनी, ओछा जनम हमारा।
तुम सरनागत राजा रामचन्द्र, कहि रविदास चमारा।।[17]

वे कहते है- जाति-पाँति, ऊॅच-नीच, गरीब-अमीर, के भाव का महारोग मानव, मानव को एक नहीं

होने देता और यह  दुर्भाव मानवता को विनाश की ओर ले जाती हैं-

जाति-पाँति के फेर महि , उरझि रहइ सभ लोग।
मानुषता कँ खात हइ, रविदास जात कर रोग।।[18]

सतसंग मे इतना बल है कि चन्दन के सम्पर्क में आकर अरंडी का पेड़ भी सुगन्धित हो जाता है। उसी प्रकार साधुओं के सत्संग और हरि के भजन से निम्नकुल में जन्मे रविदास भी उत्तम सद्विचारों वाले सन्त और भक्त हो गये। सत्संग द्वारा अर्जित भक्ति और ज्ञान से उन्हें हरि का सानिघ्य प्राप्त हुआ -

तुम चन्दा हम अरंड बापुरो, संग तुम्हारे बासा।
नीच रूख तैं ऊँच भयो है, गंध सुगंध निवासा।।
माधउ सत संगत सरन तुम्हारी , हम अवगुन तुम उपकारी।।
××××
जाती ओछी, पाती ओछी, ओछा जनम हमारा।
राजा राम की सेवन कीन्हीं, कहि रैदास चमारा।।[19]

स्वांग रचने वाले और व्यक्ति एवं समाज के मध्य खाईं चैड़ी करने वाले लोग समाज का अहित करते हैं, वे सत्य को नहीं जानते, केवल झूठे दिखावे के बल पर लोगों को दिशाहीन करते हैं-

पाड़े! हरि बिचि अन्तर डाढ़ा।
मुंड मुड़ावै, सेवा पूजा, भ्रम का बन्धन गाढ़ा।
माला, तिलक, मनोहर बानौ, लागौ जम की पासी।
××××
कहनी-कथनी ग्यान अचारा, भगति इनहूँ सो न्यारी ।
दोइ घोड़ा चढ़ि कोउ न पहुँचो, सत गुरु कहै पुकारी।।[20]

जब तक व्यक्ति में मैं, घमण्ड और गर्व है तब तक उसे परमात्मा का दर्शन सम्भव नहीं है-

आपा मेटि मैं मेरी खोहीं, गरब तियागी अरपिहि निज देही।।

यह अहंकार और यह संशय केवल हरि की सच्ची भक्ति रूपी तत्व से ही दूर हो सकता है। सन्त रैदास जी कहते हैं-

भक्ति ऐसी सुनहु रे भाई, आई भक्ति तब गई बड़ाई।
कहा भयो नाचे अरु गाये, कहा भयो तप कीन्हैं।
कहा भयो जे चरन पखारे, जौं लौं परम तत्त नहिं चीन्हैं।
कहा भयो जो मूड़ मुड़ायो , बहु तीरथ ब्रत कीन्हें।
स्वामी दास भक्त अरु सेवक, जो परम तत्त्व नहिं चीन्है।
कहै रैदास तेरी भगति दूर है, भाग बड़े से पावै।
तजि अभिमान मेटि आपौ पिपिलक हू चुनि खावै।[21]
मैं-मैं जौ लौ गरब बौरानी, तौ लौं पियरा मनु नहिं आनी।

सामग्री और क्रियाविधि
संत रविदास के पदों एवं दोहों के संग्रह की मूल प्रतियों तथा सम्पादित संग्रहों का संकलन करके उनका विश्लेषण किया जाएगा। संदर्भगत पुस्तकों, शोध पत्रों, लेखों एवं समीक्षाओं का अध्ययन किया जायेगा।
जाँच - परिणाम संत रविदास के काव्य में अन्तर्निहित मूल्यों के माध्यम से समाज व राष्ट्र में मानवता, समता, समरसता, आदि मूल्यों का विकास होगा।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सन्त रविदास के विचार प्रगतिशीलता से सम्पृक्त हैं। वंचित समाज से होते हुए भी उन्होंने अपने कर्मबल एवं चरित्रबल से विषमता से भरे हुए समाज में स्वयं को प्रतिष्ठित किया और सन्त शिरोमणि के पद से विभूषित हुए। समत्व की भावना के समर्थक सन्त रैदास ने अतार्किक, अमानवीय, एवं संकीर्ण विचारधाराओं का पुरजोर विरोध किया और सर्वकल्याणकारी उदात्त विचारों को प्रतिष्ठित किया । उन्होने तद्युगीन सामाजिक, सांस्कृतिेक, धार्मिक, एवं आर्थिक विशृंखलताओं, तथा उच्छृंखलताओं को पहचान कर उसका निवारण करने का सद्प्रयास किया। वर्तमान में सामाजिक विघटन एवं मानवीय मूल्यों के क्षरण के मूल में कमेवेश वही कारण हैं, जो सन्त रविदास के समय में थे। आज परिवेश और परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृति, धार्मिक, आर्थिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है, किन्तु विघटन के मूल में छल-छद्म, स्वार्थलोलुपता, कटुता वर्चस्व की दुर्भावना, सत्तालोलुपता, एवं मानसिक विकृतियाँ आज भी कमोवेश वैसी ही हैं, जैसे पहले विद्यमान थीं। अतः सन्त रविदास के सात्विक विचार न केवल तद्युगीन समाज के लिए अपितु वर्तमान समाज के लिए भी प्रासंगिक हैं। सृष्टि में शाश्वत प्रगतिशीलता एवं मानवीय मूल्यों के संरक्षण के लिए सन्त रविदास के विचार सर्वथा अनुकरणीय हैं।
आभार साहित्य के प्रति समर्पित सोशल रिसर्च फाउंडेशन के सम्पादक मंडल एवम उसके सहयोगियो का शोध पत्र प्रकाशन मे तकनीकि सहयोग के लिए हर्दिक आभार।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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