P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- V January  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
आधुनिक समय में कबीर के सामाजिक दर्शन की प्रासंगिकता - आनंद दास
Relevance of Kabir s Social Philosophy in Modern Times - Anand Das
Paper Id :  16813   Submission Date :  2023-01-12   Acceptance Date :  2023-01-22   Publication Date :  2023-01-25
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ओम प्रकाश
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
आर. बी. एस. काॅलेज
आगरा,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
कबीर के उपदेश, उनकी शिक्षाएँ समाज को एकत्र करने का काम करती हैं। वे लोगों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए कहते हैं, पूजा-पद्धतियों से बाहर निकलने को कहते हैं, ‘लोका तुम हो मति के भोरा’ भ्रमित जनता को रास्ता दिखाने का कार्य कबीर के उपदेशों उनकी ज्ञानपरक वाणी से आगामी वर्षों में भी किया जाता रहेगा। आज की परिस्थितियाँ कबीर के चिन्तनात्मक मस्तिष्क की व्यापकता का बोध कराती हैं। आधुनिक संदर्भो में कबीर द्वारा कही गयी बातों का नैतिक मूल्य है। वास्तव में कबीर ने मनुष्य को मूल्य परक जीवन जीने की राह दिखाया। केवल यही कारण है कि समय के साथ परिवर्तन केवल बाहरी रूप में हुआ, आंतरिक रूप से हर व्यक्ति की मनः स्थिति अभी भी भ्रमपूर्ण है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Kabir's teaching works to unite the society. They ask people to fight for their existence, to get out of the worship-methods, 'Loka Tum Ho Mati Ke Bhora', the work of showing the way to the confused public was done by Kabir's teachings and it will for the upcoming many years. Will keep going Today's circumstances make one realize the vastness of Kabir's contemplative mind. In modern contexts, the sayings of Kabir have moral value. In fact, Kabir showed man the way to lead a valuable life. This is the only reason that the change over time has only happened externally, internally everyone's state of mind is still illusory.
मुख्य शब्द आधुनिक, सामाजिक, दर्शन, प्रासंगिकता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Modern, Social, Philosophy, Relevance.
प्रस्तावना
कबीर काव्य की पृष्ठभूमि-निर्माण में कबीर का व्यक्तिगत जीवन विशेष सहायक रहा है। जन्म स्थान काशी का धर्मान्ध वातावरण, माता-पिता के कारण प्राप्त विरोधी संस्कार, पारिवारिक जीवन से असन्तुष्टि, जातिगत विद्रोह, जुलाहा व्यवसाय, पर्यटनशीलता, अशिक्षा और रामानन्द जैसे गुरू की दीक्षा इन सब ने एक साथ मिलकर कबीर-काव्य का स्वरूप निर्मित किया है। कबीर का नाम नामदेव और ज्ञानदेव आदि सन्तों की परम्परा में आता है। इन सन्तों का प्रमुख लक्ष्य समाज के निम्न वर्ग को जागृत करके उच्च वर्ग के सम स्तर पर लाना था। ऊँच-नीच, जाति-पाति का विरोध करके इन्होंने एकता तथा समानता का सन्देश दिया था। कबीर के काव्य में भेदभाव विहीनता, सर्वात्मवाद, निर्गुण भक्ति, कर्म और वैराग्य का समन्वय, अनन्य प्रेम भावना, नाम साधना, सेवक सेव्य भावना इत्यादि अनेक बातें सन्त नामदेव के प्रभाव स्वरूप भी आई हैं। कबीर उच्च दृष्टिकोण वाले संत थे उनका सामाजिक चिन्तन जनसामान्य, समाजोन्मुख तथा उत्थान के लिए है। निर्गुण निराकार के उपासक संत कवियों ने समाज में व्याप्त बुराईयों रूढ़ियों, कुरीतियों से साधारण जनता को निजात दिलाने का प्रयास किया। कबीर की तरह ही गुरूनानक देव, रैदास, धर्मदास, दादूदयाल, सुन्दरदास, मलूकदास आदि संतो ने भी समाज के सन्मार्ग पर चलने का संदेश दिया। मानवता, मनुष्यता आदि संवेग कबीर के मन की हितैषणा को जाहिर करते हैं। उनके उपदेश उनकी वाणी में समाज का हित छिपा हुआ है। कबीर की वाणी मूलतः अपने मौखिक रूप में ही रही है। उन्होंने स्वयं उन्हें लिपि बद्ध नहीं किया। माना गया है कि कबीर के शिष्य धर्मदास ने उनकी बानियों का संग्रह ‘बीजक’ नाम से किया था। इसमें साखी, शब्द और रमैनी तीन छन्दों में लिखित रचनायें है। ‘आदि ग्रन्थ’ एवं ‘गुरूग्रन्थ साहब’ में भी कबीर की वाणी संकलित है।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध पत्र के निम्न उद्देश्य है - 1. कबीर के दोहो में सामाजिक बोध देखना। 2. कबीर ने आम आदमी को ध्यान में रखकर दोहे लिखे हैं का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

रघु नाथ गिरि (2020) ने अपने शोध कबीर दर्शन में मानव का स्वरूप् तथा उसका लक्ष्यके निष्कर्ष में बताया कि कबीर हठयोग के प्रति अधिक आकर्षित थे।

सिंह विमला (2019) ने अपने अनुसंधान कबीर का काव्य और सामसायिक चेतनामें बताया कि कबीर उन सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों की स्थापना करते है, जो अमृतवाणी के समान है।

सिंह श्रद्धा (2019) ने अपने शोध कबीर की आलोचना परम्परा एक मूल्यांकनके निष्कर्ष में बताया है कि कबीर के आविर्भाव से लेकर आज तक उनकी वाणी की आलोचना की एक दीर्घ परम्परा चली आई है। कबीर के समय से ही उनकी वाणी की शक्ति समकालीन रचनाकारों को प्रभावित करने लगी थी। कबीर के बहुत से समकालीन एवं परवर्ती रचनाकरों ने उनकी वाणी की सार्थकता पर विचार किया है। इनमें लगभग प्रत्येक कवि ने अपनी वाणी में कबीर के काव्य वैशिष्ट्य को स्थान दिया है।

मुख्य पाठ

भक्तिकाल को सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का काल माना जाता है, जिसमें प्रगतिशीलता सामाजिक उन्नयन के रूप में सामने आयी। कबीर ने अपने विचारों से समाज को जितना अधिक प्रभावित किया उतना और किसी ने नहीं। आज भी कबीर की सामाजिक दर्शन उतनी ही प्रासंगिक है जितनी भक्तिकालीन समय में थी। कबीर ने जिस निर्भीकता और साहस के साथ अपनी वाणी प्रवाहित की, उनकी प्रबल आत्मवत्ता का उदाहरण आज भी है। अपने समय की सामाजिक कुरीतियों, व्याप्त असमानता को कबीर ने यथार्थ के धरातल पर महसूस किया। उनकी वाणी से निकले शब्द स्वानुभूत सत्य से जुड़े थे, उन्होंने स्वयं ही सामाजिक यंत्रणाओं को भोगा था। उनका भोगा हुआ यथार्थ ही उनकी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनी। कबीर को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। तत्कालीन समय में जिस जीवटता के साथ वे समाज को बदलने निकले थे वो अपने आप में ही एक चुनौती है। जातिगत, धर्मगत, वर्गगत, वर्णगत, सम्प्रदायगत जो कटुता समाज में व्याप्त थी उससे अकेला कबीर जीवन पर्यन्त संघर्ष करता रहा कबीर ने कब और कैसे इन सामाजिक भेद-विभेद से संघर्ष किया उसे सरल ही समझा जा सकता है। कबीर ने सभी मानव को एक ईश्वर की संतान माना। उन्होंने ईश्वर की पूजा करने का अधिकारी सभी को माना है और इसका विरोध करने वालो को झूठा कहा है -

पण्डित वाद बदौ सो झूठा“[1]

जातिगत संघर्ष एवं चुनौती जाति के आधार पर समाज का बँटवारा और सार्वजनिक द्वारा उसे मान्यता देने के बाद जातिसे सबंधित विभिन्न दृष्टिकोणों से कबीर को दो-चार होना पड़ा। कबीर का कार्य क्षेत्र तो भक्ति ओर उपासना का था और यहाँ पर भी भेदभाव उन्हें सबसे ज्यादा अखरता था। कबीर ने हमेशा कर्म और परिश्रम को महत्व दिया।[2] वे मेहनत से जीवन यापन करने, परिश्रम से धन प्राप्ति करने और बेवजह धन संग्रह करने के घोर विराधी थे -

सांई इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।।”[3]

माया, धन, सम्पति आदि का लालच करने वालों को कबीर ने भटका हुआ राही कहा है। कबीर एक सशक्त क्रांतिकारी भी थे। तद्युगीन समाज के वातावरण को देखते हुए उन्होनें प्रत्येक क्षेत्र में क्रांति और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की। समाज और धर्म के प्रत्येक क्षेत्र में पुरातन व गलित रूढ़ियों को नष्ट एवं समाज के भेद-भाव तथा बाह्माडम्बरों को दूर करने के लिए वे निर्भीक होकर सामने आये। समाज सुधार उनके अन्तस की प्रेरणा थी। इसलिए उनमें यह निर्भीकता स्वतः आ गई। बड़ी से बड़ी शक्ति उन्हें उनके कार्य से विमुख न कर सकी। धर्म, सम्प्रदाय, जात-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, माया, सम्पत्ति का संग्रह को कबीर ने सामाजिक कुरीति माना है। वे नवजागरण के प्रणेता थे। वो सत्यको ही धर्म मानते थे। ईश्वर में विश्वास रखते थे, भगवद् प्रेम को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे, वाणी की शीतलता पर बल देते थे -

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
औरन को सीतल करै, आपहुँ सीतल होइ।।”[4]

आज के भौतिकवादी युग में मानव जाति वाणी की शीतलता और आपा दोनों ही दिन-प्रतिदिन खोते जा रहे हैं। एक इंसान दूसरे इंसान के महत्व को भूलते जा रहे हैं। कबीर की सामाजिक दर्शन आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है जितनी पहले थी।

कबीर की लोक चिन्ता स्वीकृत पखाण्डी धर्मों से अलग एक नयी विचारधारा को स्वीकार तथा नये मार्गों का अनुसंधान करने के लिए थी। अपने समय के श्रेष्ठ जनवादी कवि थे। कविता उनका उद्देश्य नहीं अपितु साधन मात्र थी, मूलतः वे एक चिन्तक, सुधारक तथा लोकवादी विचारक थे। अपढ़ होते हुए भी कबीर का संपूर्ण साहित्य अशिक्षित लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। जनकल्याण का भाव उनकी रग-रग में था। कविता करना उनका ध्येय नहीं अपितु कविता तो उनके लिए फोकट का माल है। समाज को परिवर्तित करने पर कविता साधन की तरह प्रयुक्त हुई। सामाजिक दोषों पर कबीर ने व्यंग्य भी किये। कई रूढ़ियों, परम्पराओं, धार्मिक आडम्बरों पर कबीर ने अपने शब्द बाण से प्रहार कियें हिन्दुओं की मूर्ति पूजा, मुस्लिमों का नमाज आदि का उन्होनें कट्टर विरोध किया। कबीर की निर्भीकता, बड़बोलेपन और ओजपूर्ण वाणी ने मृत प्राय लोगों में प्राणों का संचार किया। कबीर ने मनुष्य की मनुष्यता को सर्वश्रेष्ठ माना है। तत्कालीन राजाओं को धार्मिक रूढ़ियों, आडम्बरों अमानवीय अंध महाशक्तियों को ललकारा था। लोकशक्ति उनके साथ जुट आयी थी। साधारण जनों का विश्वास जीतकर उन्होंने लोकवासियों को गहराई से जाना जाता था।

आज के परिवेश में कबीर का अक्खड़पन प्रासंगिक है। उनकी फटकार और पुचकार दोनों मे वह शक्ति विद्यमान हैं जो साधारण जनमानस को आकर्षित करती है। कबीर के उपदेश, उनकी शिक्षाएँ समाज को एकत्र करने का काम करती हैं। वे लोगों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए कहते हैं, पूजा-पद्धतियों से बाहर निकलने को कहते हैं, ‘लोका तुम हो मति के भोराभ्रमित जनता को रास्ता दिखाने का कार्य कबीर के उपदेशों उनकी ज्ञानपरक वाणी से आगामी वर्षों में भी किया जाता रहेगा। कबीर ने मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना माना उन्होनें सभी को एक ही ईश्वर की संतान माना। इस देह में सांई बसते हैं, सभी के मन में एक ही ज्योति व्याप्त है, एक ही तत्व सर्वत्र विद्यमान है। तो भी लोक जाति-पांति, छुआ-छूत, धर्म आडम्बर के भेदभाव को मध्य में रखकर अज्ञानता की ओर बढ़ता है। इसीलिए कबीर ने मानव को विवेक और बुद्धि से सीखने का मार्ग बताया। वे मानव जीवन को संवारना चाहते हैं, वे मनुष्य के हृदय में गहरे उतरकर उसे सत्य की ओर ले जाना चाहते है। उनके लिए सत्य से बड़ा कोई तप नहीं। प्राणि मात्र से प्रेम, दया, करूणा का भाव रखना ही सबसे बड़ा धर्म है। कबीर मानव स्वभाव की कवियों तथा चित्त की चंचलता को भी इंगित करते हैं। कबीर के अनुसार सर्व साधारण को संतोषरूपी धन की प्रबल आवश्यकता है। वे कहते हैं -

कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी चाहे खैर।
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।”[5]

कबीर ने हमेशा समय से आगे की ओर रूख किया। उनकी दूरदर्शिता इसी बात में प्रकट होती है कि उन्होनें समय से आगे की बात कही साम्प्रदायिक दंगे, धार्मिक भेदभाव इन सभी की भयावहता को कबीर ने समझा लिया था। शायद इसीलिए उन्होनें बार-बार एकता पर बल दिया। आज भी समाज इन मानसिक बेड़ियों से जकड़ा हुआ हैं आज भी कबीर जैसे चिन्तक की जरूरत है। आज की परिस्थितियाँ कबीर के चिन्तनात्मक मस्तिष्क की व्यापकता का बोध कराती हैं। आधुनिक संदर्भो में कबीर द्वारा कही गयी बातों का नैतिक मूल्य है। वास्तव में कबीर ने मनुष्य को मूल्य परक जीवन जीने की राह दिखाया। केवल यही कारण है कि समय के साथ परिवर्तन केवल बाहरी रूप में हुआ, आंतरिक रूप से हर व्यक्ति की मनः स्थिति अभी भी भ्रमपूर्ण है।[6] एक नियत और निश्चित रूप को तय कर पाना अभी असम्भव लक्ष्य है कबीर की सोच, उनका चिन्तन यदि अंशतः भी क्रियान्विति की ओर बढ़ता तो आज समाज का ढाँचा किसी मजबूत आधार पर खड़ा होता और अधिकारिक समाज का स्वरूप निश्चित होता।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।[7]

हे मन ! धीरे-धीरे सब कुछ हो जाएगा माली सैंकड़ों घड़े पानी पेड़ में देता है परंतु फल तो ऋतु के आने पर हीं लगता है । अर्थात धैर्य रखने से और सही समय आने पर हीं काम पूरे होते हैं।

निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कबीर का काव्य उनके व्यक्तित्व का मूर्त रूप है। उनकी अक्खड़ता, फक्कड़ता, निर्भीकता, स्पष्टवादिता, क्रांतिकारिता और अहंभाव आदि सभी विशेषतायें उनके काव्य में झलकती है जो युगों-युगों प्रेरणा देती रहेगी। कबीर के प्रभावशाली अद्वितीय व्यक्तितत्व ने स्वभाविक रूप में उनके काव्य में भी युगान्तकारी प्रभाव शक्ति का सृजन किया है, जो आज के दौर में भी अति प्रासंगिक है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. श्रीलता डॉ. के., कबीर-कवि और युग एक पुर्नमूल्याकंन, प्रथम सं.-1997, जवाहर पब्लिकेशन, पृ., 107। 2. वहीं, पृ. 109। 3. दास डॉ. श्यामसुन्दर, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 88। 4. वही, पृ. 103। 5. देवरे डॉ. शिवाजी, कबीरदास, सृष्टि और दृष्टि, गरिमा प्रकाशन, कानपुर, पृ. 122। 6. वही, पृ. 124। 7. https://nationalkhabri.com/sant-kabir-das-ji-ke-dohe-in-hindi/