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वाल्मीकि रामायण में ऋतु वर्णन | |||||||
Description of Seasons in Valmiki Ramayana | |||||||
Paper Id :
17095 Submission Date :
2023-02-12 Acceptance Date :
2023-02-22 Publication Date :
2023-02-25
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सारांश |
वाल्मीकि ने अपने काव्य में ऋतुओं का विशेष वर्णन किया है। उनके काव्य में वर्षा ऋतु का वर्णन बहुत प्रभावी हुआ है।
कवि ने वर्षा-ऋतु-वर्णन प्रसंग में वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वायु-वन, नदी-पर्वत आदि सभी पर वर्षा के प्रभावो का और वर्षा के बादलों का वैज्ञानिक विवेचन किया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Valmiki has given a special description of the seasons in his poetry. The description of rainy season in his poetry has been very effective. In the context of the description of the rainy season, the poet has scientifically explained the effects of rain on trees-vegetation, animals-birds, creatures, air-forests, rivers-mountains etc. and the clouds of rain. |
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मुख्य शब्द | वाल्मीकि, काव्य, वर्षा ऋतु। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Valmiki, Poetry, Rainy Season. | ||||||
प्रस्तावना |
माल्यवान पर्वत पर अपने निवास के दौरान वर्षा ऋतु में राम ने बादलो से आच्छादित आकाश के सौन्दर्य को आनन्द से देखा और लक्ष्मण से कहा कि वर्षा काल में मेघ से युक्त आकाश रूपी तरूणी सूर्य की प्रचण्ड किरणों से सतत् समुद्रपीत जलरूप गर्भ को कार्तिक आदि नवमास पर्यन्त धारण करके छः रसों के कारणस्वरूप जल को उत्पन्न करती है।[1]
रामायण में वाल्मीकि ने मेघों के निर्माण (गर्भाधान, पुष्टि और प्रसव) के साथ-साथ वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया का उल्लेख किया है। डाॅ कपिल देव द्विवेदी ने अपने ग्रंथ में मेघों के गर्भाधान से लेकर प्रसव तक का समय 195 दिन माना है।[2] रामायण में कवि द्वारा कल्पना की गई है कि सूर्य मेघ के उपरी भाग में इतना समीप आ गया है कि उसे सोपान पंक्ति द्वारा सहजता से प्राप्त किया जा सकता है।[3]
मंद-मंद प्रवाहित होने वाली मनोरम समीर रूपी श्वास वाला एवं संध्या रूपी चंदन से रंगा हुआ, जल से परिपूर्ण होने के कारण श्वेतता से युक्त आकाश एक कामातुर विरही के समान सुषमा को धारण कर सुशोभित हो रहा है।[4]
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य वाल्मीकि रामायण में ऋतु वर्णन का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | रामायण
काल में वर्षा प्रचुर मात्रा में होती थी जिससे की मार्ग अवरुद्ध हो जाता था और
बारिश के चार महिने में लोग अधिकतर एक ही स्थान पर रहते थे। जब वाली का वध करने के
बाद राम व लक्ष्मण माल्यवन पर्वत पर पहुंचते है तो वर्षा अपना प्रचण्ड रूप धारण कर
लेती है और वर्षा की अधिकता से मार्ग अवरुद्ध हो जाते है, ऐसा
उल्लेख कवि ने किया है।[5] आधुनिक मौसम विज्ञान के अनुसार जल से भार युक्त बादल पर्वतों के
अवरोध के कारण शीघ्र वर्षा प्रारम्भ कर देते है। जिसे वाल्मीकि ने साहित्यिक शैली
में वर्णित किया है।[6] संवहनीय वर्षा के वैज्ञानिक तथ्य को भावनात्मक मित्रता का
रूप प्रदान करके प्रकृति में निहित परस्पर उपकार भावना का सहज वर्णन किया है। बादल
और पर्वत का यह पारस्परिक संबंध भाव कवि की कल्पना नहीं है बल्कि पर्यावरणीय
वास्तविकता है। वाल्मीकि
ने अपने ग्रन्थ में बताया है कि वर्षा के समय
गेरूए रंग के जल से युक्त पहाड़ी नदियां तीव्र वेग से बहती हुई तटीय पेड़ों को
धराशायी करते हुए सागर की तरफ जा रही है।[7] कवि ने वर्षाकाल का वर्णन करते हुए
लिखा है कि ‘‘नदियांँ बह रही है, बादल बरस रहे है, मतवाले हाथी चिंग्घाड़ रहे है, वन प्रान्त शोभा पा रहे है, मयूर नृत्य कर रहे है, वानर निश्चिन्त और सुखी हो रहे है।‘‘[8] इस प्रकार कवि ने विश्लेषणात्मक शैली में ऋतु-पर्यावरण के समग्र तथ्यों का समावेश करने का प्रयत्न किया है। यहां नदी और मेघ जैसेेे अजैविक घटक, वन जैसे उत्पादक घटक, गज, वानर, मयूर, मानव जैसे उपभोक्ता घटक को वर्षा कालीन विशिष्ट परितंत्र का अंग बताया है।[9]
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मुख्य पाठ |
रामायण में समुद्र के उपर फैले हुए बादल और उसके प्रभाव से समुंद्र और बादल
दोनों के प्रभाव से उत्पन्न गर्जन का वर्णन किया है।[10] इसमें कवि ने वायु, समुंद्र और मेघों के संघर्षण से उत्पन्न गर्जन का वर्णन
किया है।
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निष्कर्ष |
इस प्रकार हम यह देखते है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित विविध ऋतुओं का चित्रण उस दौर के ऋतु परितंत्र और पर्यावरण पर एक नया आयाम प्रस्तुत करता है, जो कि शोधकर्ताओं के लिए अध्ययन और चिंतन का विषय है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. नवमासधृतं गर्भ भास्करस्य गभस्तिभिः।
पीत्वा रसं समुद्राणाां द्यौः प्रसूयते रसायनम्।। - वा. रामायण 4/28/3
2. द्विवेदी, डाॅ. कपिल देव: वेदों में विज्ञान, विश्व भारतीय अनुसंधान परिषद्, भदोही उत्तर प्रदेश, 2004, पृ. 342
3. शक्यमम्बरमारूहृां मेघसोपानपड्ंिक्तभिः
कु टजार्जुनमालाभिलंकर्तुं दिवाकरः।।-वा.रा.4/28/4
4. मन्दमारूतिनिः श्वासं संध्याचन्दनरंंिजतम्।
अपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम्।।-वा.रा. 4/28/6
5. वा.रा.4/27/46-48
6. समुद्वहन्तः सलिलातिभारं
बलाकिनो वारिधरा नदन्तः।
महत्सु श्रृंगेषु महीधराणां
विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति।। - वा.रा. 4/28/22
7. व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै-
नर्वं जलं पर्वतधातुताम्रम्।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं,
शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति।। वा.रा. 4/28/18, 4/28/28
8. वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्तिए घ्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः, प्रियाविहिनाः शिशिनः प्लवंगमाः।।- वा.रा. 4/28/27
9. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमारः रामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 122
10. वा. रामायण 5/1/69-71
11. मेघकृष्णाजिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः।
मारूतापूरितगुहाः प्राधीताः इन पर्वताः।।
कशाभिरिव हैमीभिर्विधुöिरभिताडितम्।
अन्तस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम्।।- वा.रामायण 4/28/10-11
12. वा.रामायण 4/28/12,13,20
13. संधरागोत्थिततैवस्तामै्ररन्तेष्वपि च पांण्डुभिः।
स्निगधैरभ्रपटच्देदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम्।।- वा.रा.4/28/5
14. स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैर्बद्धव्रणामिवाम्बरम्- वा.रा.4/28/5
अपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम्रु वा.रा.4/28/6
15. पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम्।-वा.रा. 4/30/2
16. नीलेषु नीला नववारिपूर्णा, मेघेषु मेघाः प्रतिभान्ति सक्ताः।-वा.रा.4/28/40
17. विद्युत्पताकाः सबलाकमालाः
शैलेन्द्रकूटाकृतिसंनिकाशाः।।- वा.रा. 4/28/20, 4/28/30
18. संध्यारागोत्थितैस्तामै्ररन्तवेष्वपि च पाण्डुभिः।
स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैब्रद्धव्रणमिबाम्बरम्।।- वा.रा.4.28.5
19. वा.रा.4/28/17
20. मेघकृष्ण (मेघकृष्णा) जिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः।
21. मेघाःसमु˜ूतसमुद्रनादा
महाजलौघैर्गगनावलम्बाः।
नदीस्तटाकानि सरांसि वापीर्महीं च
कृत्स्नामपवाहयन्ति- वा.रा. 4/28/44
22. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमारःरामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 133
23. वा.रा. 4/28/15-16
24. वा.रा.4/30/5-8
25. तर्पयित्वा सहóाक्षः सलिलेन वसुंधराम्।
निर्वर्तयित्वा सस्यानि कृतकर्मा व्यवस्थितः।।- वा.रा 4/30/22
26. सप्तच्छदानां कुसुमोपगन्धी षट्पादवृन्दैरनुगीयमानः।
मत्तद्विपानां पवनानुसारी दर्पं विनेष्यन्नधिकं विभाति।।- वा.रा. 4/30/30
27. नभः समीक्ष्याम्बुधरैर्विमुक्तं विमुक्तबहाभरणा वनेषु।
प्रयास्वरक्ता विनिवृत्तशोभा गतोस्तवा ध्यानपरा मयूराः।।- वा.रा. 4/30/33
28. मीनोपसंदर्शितमेखलानां नदीवधूनां गतयोद्यमन्दाः
कान्तोपभुक्तालसगामिनीनां प्रभातकालेष्विव कामिनीनाम््।।- वा.रा. 4/30/54
29. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमारः रामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 142
30. मृदुसूर्याः सुनीहाराः पटुशीताः समारूताः।
शून्यारण्या हिमध्वस्ता दिवसा भान्ति साम्प्रतम्।।- वा.रा. 3/16/11
31. रविसंक्रान्तसौभाग्यवस्तुषारारूणमण्डलः।
निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते।।- वा.रा. 4/16/13
32. वा.रा. 3/16/16
33. प्रकृत्या हिमकोशाढ्यों दूरसूर्यश्च साम्प्रतम्
यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् गिरीः।। वा.रा. 3/16/9
34. जराजर्जरितैः पत्रैः शीर्णकेसरकर्णिकेैः।।
नालशेषा हिमध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः।।- वा.रा. 3/16/26
35. नवाग्रयणपूजाभिरभ्यच्र्य पितृदेवताः।
कृताग्रयणकाः काले सन्तो विगतकल्मषाः।। वा.रा. 3/16/6
36. लाल, डी.एस.: जलवायु एवं समुद्र विज्ञान, शारदा पुस्तक भवन, इलाहाबाद, 2002, पृ. 110
37. पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम्।- वा.रा. 4/30/2
38. सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः।
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः।। - वा.रा. 4/1/10
39. वा.रा.4/1/7, 8
40. वा.रा. 4/1/11-14
41. वा.रा. 5/14/2-4
42. वा.रा 4/1/75-83
43. पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण।
मधूनि मधुकरीभिः सम्भृतानि नगे नगे।।- वा.रा.2/56/8
44. पश्य लक्ष्मण नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति।।
श्खििनी मन्मथार्तैषा भर्तारं गिरिसानुनि।।- वा.रा.4/1/38ए39
45. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमार: रामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 151 |