ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- I February  - 2023
Innovation The Research Concept
वाल्मीकि रामायण में ऋतु वर्णन
Description of Seasons in Valmiki Ramayana
Paper Id :  17095   Submission Date :  2023-02-12   Acceptance Date :  2023-02-22   Publication Date :  2023-02-25
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राजेन्द्र कुमार पुरोहित
सह आचार्य
इतिहास विभाग
राजकीय बांगड़ स्ना. महाविद्यालय
पाली,राजस्थान, भारत
सारांश
वाल्मीकि ने अपने काव्य में ऋतुओं का विशेष वर्णन किया है। उनके काव्य में वर्षा ऋतु का वर्णन बहुत प्रभावी हुआ है। कवि ने वर्षा-ऋतु-वर्णन प्रसंग में वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वायु-वन, नदी-पर्वत आदि सभी पर वर्षा के प्रभावो का और वर्षा के बादलों का वैज्ञानिक विवेचन किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Valmiki has given a special description of the seasons in his poetry. The description of rainy season in his poetry has been very effective.
In the context of the description of the rainy season, the poet has scientifically explained the effects of rain on trees-vegetation, animals-birds, creatures, air-forests, rivers-mountains etc. and the clouds of rain.
मुख्य शब्द वाल्मीकि, काव्य, वर्षा ऋतु।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Valmiki, Poetry, Rainy Season.
प्रस्तावना
माल्यवान पर्वत पर अपने निवास के दौरान वर्षा ऋतु में राम ने बादलो से आच्छादित आकाश के सौन्दर्य को आनन्द से देखा और लक्ष्मण से कहा कि वर्षा काल में मेघ से युक्त आकाश रूपी तरूणी सूर्य की प्रचण्ड किरणों से सतत् समुद्रपीत जलरूप गर्भ को कार्तिक आदि नवमास पर्यन्त धारण करके छः रसों के कारणस्वरूप जल को उत्पन्न करती है।[1] रामायण में वाल्मीकि ने मेघों के निर्माण (गर्भाधान, पुष्टि और प्रसव) के साथ-साथ वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया का उल्लेख किया है। डाॅ कपिल देव द्विवेदी ने अपने ग्रंथ में मेघों के गर्भाधान से लेकर प्रसव तक का समय 195 दिन माना है।[2] रामायण में कवि द्वारा कल्पना की गई है कि सूर्य मेघ के उपरी भाग में इतना समीप आ गया है कि उसे सोपान पंक्ति द्वारा सहजता से प्राप्त किया जा सकता है।[3] मंद-मंद प्रवाहित होने वाली मनोरम समीर रूपी श्वास वाला एवं संध्या रूपी चंदन से रंगा हुआ, जल से परिपूर्ण होने के कारण श्वेतता से युक्त आकाश एक कामातुर विरही के समान सुषमा को धारण कर सुशोभित हो रहा है।[4]
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य वाल्मीकि रामायण में ऋतु वर्णन का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

रामायण काल में वर्षा प्रचुर मात्रा में होती थी जिससे की मार्ग अवरुद्ध हो जाता था और बारिश के चार महिने में लोग अधिकतर एक ही स्थान पर रहते थे। जब वाली का वध करने के बाद राम व लक्ष्मण माल्यवन पर्वत पर पहुंचते है तो वर्षा अपना प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है और वर्षा की अधिकता से मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैऐसा उल्लेख कवि ने किया है।[5]

आधुनिक मौसम विज्ञान के अनुसार जल से भार युक्त बादल पर्वतों के अवरोध के कारण शीघ्र वर्षा प्रारम्भ कर देते है। जिसे वाल्मीकि ने साहित्यिक शैली में वर्णित किया है।[6] संवहनीय वर्षा के वैज्ञानिक तथ्य को भावनात्मक मित्रता का रूप प्रदान करके प्रकृति में निहित परस्पर उपकार भावना का सहज वर्णन किया है। बादल और पर्वत का यह पारस्परिक संबंध भाव कवि की कल्पना नहीं है बल्कि पर्यावरणीय वास्तविकता है।

वाल्मीकि ने अपने ग्रन्थ में बताया है कि वर्षा के समय गेरूए रंग के जल से युक्त पहाड़ी नदियां तीव्र वेग से बहती हुई तटीय पेड़ों को धराशायी करते हुए सागर की तरफ जा रही है।[7] कवि ने वर्षाकाल का वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘‘नदियांँ बह रही हैबादल बरस रहे हैमतवाले हाथी चिंग्घाड़ रहे हैवन प्रान्त शोभा पा रहे हैमयूर नृत्य कर रहे हैवानर निश्चिन्त और सुखी हो रहे है।‘‘[8]

इस प्रकार कवि ने विश्लेषणात्मक शैली में ऋतु-पर्यावरण के समग्र तथ्यों का समावेश करने का प्रयत्न किया है। यहां नदी और मेघ जैसेेे अजैविक घटकवन जैसे उत्पादक घटकगजवानरमयूरमानव जैसे उपभोक्ता घटक को वर्षा कालीन विशिष्ट परितंत्र का अंग बताया है।[9]

मुख्य पाठ

रामायण में समुद्र के उपर फैले हुए बादल और उसके प्रभाव से समुंद्र और बादल दोनों के प्रभाव से उत्पन्न गर्जन का वर्णन किया है।[10] इसमें कवि ने वायु, समुंद्र और मेघों के संघर्षण से उत्पन्न गर्जन का वर्णन किया है।
माल्यवान पर्वत पर वर्षा की सुषमा का अवलोकन करते हुए राम ने लक्ष्मण से कहा कि पर्वत, गुफाऐं एक बह्मचारी के समान है जिसमें मेघ को कृष्णचर्म एवं वर्षा की धारा को यज्ञोपवीत बताया गया है इसी प्रकार बादलों की गर्जना को विद्युत रूपी स्वर्णकोड़ो से ताड़न का आर्तनाद बताया है।[11]
वर्षा का वर्णन करते हुए कवि ने बताया है कि पहाड़ की चोटियों सी आकृति वाले उच्चे मेघ जोर-जोर से गर्जन कर रहे है और उनमें बिजली चमक रही है। आसमान ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों बादल रूपी हाथियों पर यह विद्युत पताकाओं के समान फहरा रही है और बगुलो की पंक्तियां माला के समान शोभा दे रही है।[12]
वाल्मीकि रामायण में विविध प्रकार के मेघों का वर्णन मिलता है। वाल्मीकि ने स्निग्ध एवं श्वेत मेघ खण्ड वाले पक्षाभ मेघ[13], स्निग्ध श्वेत पारदर्शी अभ्र पक्षाभ-स्तरी मेघ[14], पक्षाभ कपासी मेघ[15], नीले रंग की परत वाले नवीन जल से भरे हुए स्तरी मध्य मेघ[16], वायु की लम्बवत् सबल धाराओं से निर्मित विद्युत पताका वाले कपासी मध्य मेघ[17], स्तरी कपासी मध्य मेघ[18], स्तरी मेघ[19], गहरे भूरे और काले रंग वाले वर्षा स्तरी मेघ[20], अत्याधिक लम्बे और भयंकर गर्जना वाले कपासी वर्षा मेघ[21], का उल्लेख किया है।
मेघों के प्रकार और उनकी अवस्थिति[22]


वाल्मीकि रामायण में ग्रीष्म ऋतु का चित्रण
रामायण में ग्रीष्म ऋतु का बहुत कम उल्लेख मिलता है और जो थोड़ा बहुत विवरण है वह वर्षा ऋतु से जुड़ा हुआ है। वाल्मीकि ने अपने अल्प वर्णन में ग्रीष्म ऋतु के प्रभाव का विवेचन किया है। जब ग्रीष्मकाल अपनी चरम सीमा पर होता है तो परेशान होकर लोग वर्षा ऋतु की कामना करते है। इसी चीज को वाल्मीकि ने अपने ग्रंथ में बताया है। जहां वर्षा को गर्मी के दोषों की मुक्ति का साधना बताया गया है। जिसमें राम लक्ष्मण से कहते है गर्म हवा अथवा लू वर्षा ऋतु के आने पर सुखदाता हो जाती है, गर्मी में चलने वाली तेज आंधियों के प्रभाव से वायुमण्डल में फैली हुई धूल वर्षा काल में शान्त हो जाती है, वर्षा के कारण गर्म वायु में ठण्डक आ जाती है।[23]
वाल्मीकि रामायण में शरद् ऋतु का चित्रण
शरद् ऋतु के आगमन पर वर्षा ऋतु से उत्पन्न अनेक विकार दूर हो जाते है। कवि के अनुसार किसी भी प्रकार की प्राकृतिक सुषमा व्यक्ति की मानसिक दशा पर निर्भर करती है अर्थात मानसिक अवस्था के अनुसार ही एक ही स्थिति महान सुख अथवा दुखः में बदल सकती है।
किष्किन्धापुरी में वर्षा ऋतु बीत जाने पर राम लक्ष्मण दोनों भ्राताओं ने शरद् ऋतु की सुषमा पर नजर डाली उस समय के निर्मल आकाश का सीता से बिछुडे़ हुए राम के दग्ध हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव का कवि ने वर्णन किया है कि शरद ऋतु की अनुपम वनस्पति को देखकर राम के अभाव में सीता दारूण विरह वेदना का अनुभव करती होगी और स्वच्छ आकाश तथा सारसों की ध्वनि भी राम के दुखीः हृदय को भीषण वज्रपात से भी अधिक कष्टदायक प्रतीत होती होगी।[24]
वर्षा ऋतु में बोये गये धान और अन्य फल शरद्काल में पक गये है। उसका और अन्य वनस्पतियों की सुषमा का वर्णन कवि ने रामायण में किया है। जिसमें राम लक्ष्मण से कह रहे थे ‘‘ सुमित्रानन्दन! सहस्त्रनेत्र वाले इन्द्र इस पृथ्वी को जल से तृप्त करके यहां क अनाजों को पका कर कृतकृत्य हो गये है।[25]
शरद् ऋतु के वर्णन में कवि ने आकाश सुषमा के वर्णन के साथ-साथ प्राकृतिक दृश्यों से प्रसन्नचित्त होने वाले पशु-पक्षियों जैसे भ्रमर, हाथी, वृषभ, हंस,आदि जीवों की मनोरम चेष्टाओं का वर्णन किया है और कहा है कि छितवन के फूलों की सुगन्ध वाला शरद्काल वायु का अनुसरण करता है और भ्रमर समूह उसका गुणगान करता है।[26]
वर्षा ऋतु में उल्लास का अनुभव करने वाला मयूर शरद् ऋतु में उदास हो जाता है। इसी कारण वह मयूरी में अनासक्त रहता है तथा अपने पंख रूपी आभूषणों को त्याग कर अत्यन्त दुःख का अनुभव करता है।[27]
इस प्रकार शरद् ऋतु में कवि ने पशु-पक्षी वर्ग के अन्र्तगत भ्रमर, हंस, गज युगल, चक्रवात्, मयूर, आदि की चेष्टाओं का वर्णन किया है जो पारिस्थितिक परितंत्र के महत्त्वपूर्ण अंग है। रामायण में शरद् ऋतु वर्णन में शारदीय वनस्पति (सप्तच्छद्, मालती, कुमुद, कमल, आदि) के साथ ही खाद्यान्न पादपों का उल्लेख मिलता है। मानव पर्यावरण में वनस्पति के इस रूप का अत्यधिक महत्त्व है क्योंकि भोजन श्रृंखला के अन्तर्गत मानव मुख्यतः अन्न पर निर्भर रहता है।
शरद् वर्णन में कवि ने मेघ, आकाश, जीव-जन्तु और वनस्पति वर्णन के साथ-साथ नदियों के भौतिक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि शरद् ऋतु में नदी रूपी वधुओं की गति बहुत मंद हो गयी है जिससे की जल के स्वच्छ होने के कारण मीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है जो कि उनकी मेखला के समान प्रतीत होती है, जिस प्रकार प्रातः काल के समय अपने प्रियतमों से संभोग के बाद कामिनी स्त्रियों की गति मंद हो जाती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु रूपी रात्रि में मेघ रूपी पतियों से रमण करने के उपरान्त शरद् रूपी प्रभात काल में नदी रूपी कामिनियों की गति मंद हो जाती है।[28]
इस प्रकार कवि ने शरद् ऋतु के अवसर पर नदियों की प्राकृतिक छटां की मनमोहक छवि हमारे सामने प्रस्तुत की है। नदियों की तुलना वधुओं से की गई है, मछलियों की उनकी मेखला से, चकवा-चकवी, पत्र रेखा की गोरचन से और तटों की तुलना नारियों के जघन प्रदेश से की   है।[29]
इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में पर्यावरणीय तत्त्वों के एकत्र वर्णन के कारण शरद ऋतु के विविध परितंत्रों का विवरण मिलता है। कवि ने पर्यावरण के विविध जैविक घटक (शिवार-काश, मत्स्य, हंस, सप्तच्छद, कुमुद) एवं अजैविक (धरती, नदी, वन, सरोवर तथा वायु आकाश आदि) का घटकों का विवरण और परस्पर संबंध बताया है।
रामायण में हेमन्त ऋतु का चित्रण
इस ऋतु में शीत वायु तीव्र गति से प्रवाहित होती है और वन-कान्तार शून्यवत् प्रतीत होते है। ठण्ड अधिक होने पर भी शून्य दिवस मनोरम लगते है।[30] हेमन्त काल में चन्द्रमा शीत की अधिकता के कारण और सूर्य की मंद रश्मि के कारण हिम कणों से आच्छादित होकर धूमिल दिखाई देता है।[31]
कवि ने हेमन्त ऋतु वर्णन प्रसंग में शरद् ऋतु के विशिष्ट पक्षी हंस के समान क्रोंच पक्षी का उल्लेख किया है।[32] क्रोंच पक्षी के अलावा सारस, हस्ति और अन्य जलचरों की तरफ संकेत किया है। हेमन्त ऋतु वर्णन में कवि ने वनस्पति और जीव-जन्तुओं संबंधी वर्णन को प्रधानता न देकर जलवायु दशाओं को प्रमुखता दी है। कवि ने इस ऋतु के नाम ‘‘हेमन्त-ऋतु‘‘[33] सार्थकता से लेकर सम्पूर्ण प्राकृत दशाओं का सूक्ष्म वर्णन किया है।
शीत की अधिकता से इस ऋतु में पाला पड़ने से कमल विलिन हो जाते है,[34]  इस ऋतु में पृथ्वी पर रबी की फसल लहलहाने लगती है। नवसस्येष्टि कर्म के अनुष्ठान की इस वेला में नूतन अन्न ग्रहण करने के लिये आग्रयणकर्मरूप पूजा की जाती है।[35]
रामायण में शिशिर ऋतु का वर्णन
वाल्मीकि रामायण में शिशिर-ऋतु संबंधी अलग से कोई उल्लेख नहीं मिलता है बल्कि शरद् ऋतु वर्णन प्रसंग में ही शिशिर कालीन वायुमण्डलीय दशाओं का उल्लेख मिलता है। इस ऋतु में शीतल वायु में विद्यमान नमी के कारण वाष्प जल कणों के रूप में एक़ित्रत होकर कोहरा बनाता है[36] और इसी कोहरे के कारण गगन पांडु वर्ण का दिखाई देता है।[37]
रामायण और वसंत ऋतु का चित्रण
शीत ऋतु से उत्पन्न संताप से मुक्ति वसन्त ऋतु प्रदान करती है। इस ऋतु में अनेक पुष्प पुष्पित होकर वातावरण को मनोरम बना देते है। वाल्मीकि रामायण में राम और लक्ष्मण के पंपापुरी पहुंचने के समय वसन्त ऋतु अपने चरम यौवन पर होती है। इस संदर्भ में कवि ने उस समय प्रवाहित होने वाली सुमनोहर वायु की सुषमा का वर्णन किया है।[38]
कवि वर्णन करता है कि ऋतुराज वसन्त के प्रभाव से सरोवर के जल शीतल है, सरोवर कमल से ढके हुए हेै, मृग आदि पशु निर्भय विचरण कर रहे है और चारों तरफ बिखरे हुए पुष्प यह अनुभूत करवा रहे है कि मानो गलीचा बिछा दिया गया हो।[39]
वसन्त ऋतु में बहु प्रकार के वृक्ष पुष्प उत्पन्न होते है जो कि हर प्रकार से प्राणियों के हृदय में प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति आकर्षण पैदा करते है।[40]
कवि ने हनुमान के अशोक वाटिका में प्रवेश पर वसन्त ऋतु में विकसित हुए और देखे गए पुष्पों का भी उल्लेख करते हुए कहा है कि वहां साल, अशोक, निम्ब और चम्पा के वृक्ष खूब खिले हुए थे, अमराईयों से युक्त सभी वृक्ष शत-शत लताओं से युक्त थे।[41] 
कवि ने कमल, पलास, मालती, मल्लिका, पद्म, करवीर, केतकी (केवडा) सिन्दुवार, माधवीलता, कुन्द-कुसुम, चिरिबिल्व, (चिलबिल) महुआ, बैंत, मौलसिरी, चम्पा, तिलक, नागकेसर, नील-अशोक, लोध्र, अंकोल, कुरण्ट, चूर्णक (सेमल), परिभद्रक (नीम या मदार), आम, पाटलि, कोविदार, मुचुकुन्द (नारंग)अर्जुन, केतक, उदालक (लसोड़ा) शिरीष, धव, सेमल, लाल, कुरबक, तिनिश्, नक्तमाल, चन्दन, स्यन्दन, हिन्ताल, तिलक तथा नाग-केसर के पुष्पों का नामोल्लेख किया है।[42]
वाल्मीकि रामायण में वसन्त ऋतु वर्णन प्रसंग में भ्रमर, कोयल, मयूर, मृग, हस्ति आदि का उल्लेख हुआ है। शीत के भयंकर प्रकोप के बाद वसन्त ऋतु में ये सभी जीव सुख की अनुभूति करते है। उस समय पल्लवित और पुष्पित वृक्षों के दृश्य से भंवरे उन्मत्त होकर गुंजन करते है। भ्रमरों के अलावा मधुमक्खियों संबंधी विवरण भी मिलता है।[43]
जिस प्रकार मधुमक्खी और भ्रमरों की प्रसन्नता का उल्लेख रामायण में मिलता है उसी प्रकार हस्ति मृग और मयूर आदि की प्रसन्नता का भी उल्लेख मिलता है।[44] वाल्मीकि के इस वर्णन के आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि वाल्मीकि वसन्तकालीन बायोम (जैव विविधता) के सूक्ष्म ज्ञाता थे।[45]

निष्कर्ष
इस प्रकार हम यह देखते है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित विविध ऋतुओं का चित्रण उस दौर के ऋतु परितंत्र और पर्यावरण पर एक नया आयाम प्रस्तुत करता है, जो कि शोधकर्ताओं के लिए अध्ययन और चिंतन का विषय है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. नवमासधृतं गर्भ भास्करस्य गभस्तिभिः। पीत्वा रसं समुद्राणाां द्यौः प्रसूयते रसायनम्।। - वा. रामायण 4/28/3 2. द्विवेदी, डाॅ. कपिल देव: वेदों में विज्ञान, विश्व भारतीय अनुसंधान परिषद्, भदोही उत्तर प्रदेश, 2004, पृ. 342 3. शक्यमम्बरमारूहृां मेघसोपानपड्ंिक्तभिः कु टजार्जुनमालाभिलंकर्तुं दिवाकरः।।-वा.रा.4/28/4 4. मन्दमारूतिनिः श्वासं संध्याचन्दनरंंिजतम्। अपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम्।।-वा.रा. 4/28/6 5. वा.रा.4/27/46-48 6. समुद्वहन्तः सलिलातिभारं बलाकिनो वारिधरा नदन्तः। महत्सु श्रृंगेषु महीधराणां विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति।। - वा.रा. 4/28/22 7. व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै- नर्वं जलं पर्वतधातुताम्रम्। मयूरकेकाभिरनुप्रयातं, शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति।। वा.रा. 4/28/18, 4/28/28 8. वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्तिए घ्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति। नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः, प्रियाविहिनाः शिशिनः प्लवंगमाः।।- वा.रा. 4/28/27 9. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमारः रामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 122 10. वा. रामायण 5/1/69-71 11. मेघकृष्णाजिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः। मारूतापूरितगुहाः प्राधीताः इन पर्वताः।। कशाभिरिव हैमीभिर्विधुöिरभिताडितम्। अन्तस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम्।।- वा.रामायण 4/28/10-11 12. वा.रामायण 4/28/12,13,20 13. संधरागोत्थिततैवस्तामै्ररन्तेष्वपि च पांण्डुभिः। स्निगधैरभ्रपटच्देदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम्।।- वा.रा.4/28/5 14. स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैर्बद्धव्रणामिवाम्बरम्- वा.रा.4/28/5 अपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम्रु वा.रा.4/28/6 15. पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम्।-वा.रा. 4/30/2 16. नीलेषु नीला नववारिपूर्णा, मेघेषु मेघाः प्रतिभान्ति सक्ताः।-वा.रा.4/28/40 17. विद्युत्पताकाः सबलाकमालाः शैलेन्द्रकूटाकृतिसंनिकाशाः।।- वा.रा. 4/28/20, 4/28/30 18. संध्यारागोत्थितैस्तामै्ररन्तवेष्वपि च पाण्डुभिः। स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैब्रद्धव्रणमिबाम्बरम्।।- वा.रा.4.28.5 19. वा.रा.4/28/17 20. मेघकृष्ण (मेघकृष्णा) जिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः। 21. मेघाःसमु˜ूतसमुद्रनादा महाजलौघैर्गगनावलम्बाः। नदीस्तटाकानि सरांसि वापीर्महीं च कृत्स्नामपवाहयन्ति- वा.रा. 4/28/44 22. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमारःरामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 133 23. वा.रा. 4/28/15-16 24. वा.रा.4/30/5-8 25. तर्पयित्वा सहóाक्षः सलिलेन वसुंधराम्। निर्वर्तयित्वा सस्यानि कृतकर्मा व्यवस्थितः।।- वा.रा 4/30/22 26. सप्तच्छदानां कुसुमोपगन्धी षट्पादवृन्दैरनुगीयमानः। मत्तद्विपानां पवनानुसारी दर्पं विनेष्यन्नधिकं विभाति।।- वा.रा. 4/30/30 27. नभः समीक्ष्याम्बुधरैर्विमुक्तं विमुक्तबहाभरणा वनेषु। प्रयास्वरक्ता विनिवृत्तशोभा गतोस्तवा ध्यानपरा मयूराः।।- वा.रा. 4/30/33 28. मीनोपसंदर्शितमेखलानां नदीवधूनां गतयोद्यमन्दाः कान्तोपभुक्तालसगामिनीनां प्रभातकालेष्विव कामिनीनाम््।।- वा.रा. 4/30/54 29. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमारः रामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 142 30. मृदुसूर्याः सुनीहाराः पटुशीताः समारूताः। शून्यारण्या हिमध्वस्ता दिवसा भान्ति साम्प्रतम्।।- वा.रा. 3/16/11 31. रविसंक्रान्तसौभाग्यवस्तुषारारूणमण्डलः। निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते।।- वा.रा. 4/16/13 32. वा.रा. 3/16/16 33. प्रकृत्या हिमकोशाढ्यों दूरसूर्यश्च साम्प्रतम् यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् गिरीः।। वा.रा. 3/16/9 34. जराजर्जरितैः पत्रैः शीर्णकेसरकर्णिकेैः।। नालशेषा हिमध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः।।- वा.रा. 3/16/26 35. नवाग्रयणपूजाभिरभ्यच्र्य पितृदेवताः। कृताग्रयणकाः काले सन्तो विगतकल्मषाः।। वा.रा. 3/16/6 36. लाल, डी.एस.: जलवायु एवं समुद्र विज्ञान, शारदा पुस्तक भवन, इलाहाबाद, 2002, पृ. 110 37. पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम्।- वा.रा. 4/30/2 38. सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः। गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः।। - वा.रा. 4/1/10 39. वा.रा.4/1/7, 8 40. वा.रा. 4/1/11-14 41. वा.रा. 5/14/2-4 42. वा.रा 4/1/75-83 43. पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण। मधूनि मधुकरीभिः सम्भृतानि नगे नगे।।- वा.रा.2/56/8 44. पश्य लक्ष्मण नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति।। श्खििनी मन्मथार्तैषा भर्तारं गिरिसानुनि।।- वा.रा.4/1/38ए39 45. शर्मा, डाॅ. सुधीर कुमार: रामायण कालीन पर्यावरण चेतना की वैज्ञानिकता, हंसा प्रकाशन, जयपुर, 2012, पृ. 151