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सीकर जिले में वर्षा जल संग्रहण विधियों का विशेष अध्ययन | |||||||
Special Study of Rain Water Harvesting Methods in Sikar District | |||||||
Paper Id :
17369 Submission Date :
2023-03-14 Acceptance Date :
2023-03-21 Publication Date :
2023-03-22
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सारांश |
धरातल पर जलापूर्ती का प्रमुख स्रोत वर्षाजल को माना जाता है जिसे संरक्षित करके अथवा संचय करके उपयोग में लिया जाता है परन्तु वर्षा जल को सही तरीके से संचय नहीं करने के परिणामस्वरूप इसका अधिकांश भाग व्यर्थ बहकर चला जाता है जिसका ना तो मानवीय कार्यों में उपयोग होता है और ना ही भूमिगत जलस्तर में सहायक होता है। वर्षा के जल को एकत्र कर इसके समुचित उपयोग को ही वर्षा जल संग्रहण कहा जाता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The main source of water supply on the ground is considered to be rainwater, which is used by preserving or storing it, but as a result of not storing rainwater properly, most of it goes waste, which is neither used of human works nor is it helpful in underground water level. Collecting rain water and using it properly is called rain water harvesting. | ||||||
मुख्य शब्द | संरक्षित, संचय, भूमिगत जल स्तर, जल संग्रहण, समुचित उपयोग। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Conserve, Accumulate, Ground water level, Water storage, Proper Use. | ||||||
प्रस्तावना |
पृथ्वी की सतह पर जल प्राप्ति का प्रमुख स्रोत वर्षा जल है। अतः वर्षा से प्राप्त जल को समुचित रूप से संग्रहित करना आवश्यक होता है। किसी भी क्षेत्र की मिट्टी, चट्टानों की बनावट आदि के अनुसार जल संग्रहण की संरचना का निर्माण कर वर्षा के जल बहाव को एक निश्चित दिशा प्रदान कर जल रिसाव की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है अथवा किसी विशेष प्रकार की संरचना का निर्माण कर संग्रहित किया जा सकता है। वर्तमान समय में तीव्र नगरीकरण, औद्योगिकरण तथा बढ़ती जनसंख्या के कारण जल की मांग तथा उपभोग में तेजी से वृद्धि हुई है। जल की बढ़ती मांग तथा उपभोग के परिणामस्वरूप उपलब्ध जल संसाधन की कमी हुई है तथा भूमिगत जल स्तर भी गिरा है जिसके कारण कई स्थानों पर जल संकट की स्थिति उत्पन्न हुई है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए शोधार्थी ने इस शोध पत्र में वर्षा जल संग्रहण की विधियों का विवेचन किया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध में शोधार्थी के उद्देश्य निम्नलिखित रहे हैं-
1. अध्ययन क्षेत्र में जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु वर्षा जल के संग्रहण की विधियों का अध्ययन करना।
2. वर्षा जल संग्रहण से भूमिगत जलस्तर में वृद्धि तथा भूमिगत जल के दोहन में कमी करना।
3. वर्षा जल संग्रहण की आवश्यकता की विवेचना करना। |
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साहित्यावलोकन | ममता (2011) ने अपने शोध प्रबन्ध “पारम्परिक
जल संग्रहण संरचनाओं की वर्तमान प्रासंगिकता- जैसलमेर जिले का एक विशेष अध्ययन” में जल संसाधन की उपलब्धता, परम्परागत जल
संरक्षण की विभिन्न संरचनाओं, बढ़ती जनंसख्या के कारण
गहराता जल संकट, जैसलमेर जिले में परम्परागत जल स्रोतों के विश्लेषण सहित वर्षा जल को संग्रहित करने तथा नहरी जल संरक्षण का
विश्लेषण प्रस्तुत किया है। जाट, बी.सी. तथा कुमार अजय (2017) ने
अपनी पुस्तक “जल प्रबन्धन भूगोल” में भूमिगत जल संरक्षण तथा इसके पुनर्भरण, जल
की गुणवत्ता तथा प्रदूषण, जल का विभिन्न क्षेत्रों में
उपयोग, जल संकट तथा संरक्षण के साथ ही जल संरक्षण और
प्रबन्ध में सुदूर संवेदन तकनीक का उपयोग करने, वर्षा
जल के संग्रहण की विभिन्न विधियों के साथ ही भारत में जल संरक्षण की विभिन्न
पांरपरिक विधियों का वर्णन किया है। मीणा, सावित्री (2019) ने अपने शोध
प्रबन्ध “टोंक जिले में जल संसाधनों का प्रबन्धन एवं
सतत् विकास” में बताया कि जल का अविवेकपूर्ण तरीके से
उपभोग करने के कारण वर्तमान समय में जल की गम्भीर समस्या उत्पन्न हुई है। जिससे
निपटने के लिए जल संरक्षण की आधुनिक विधियों के साथ ही परम्परागत विधियों पर विस्तारपूर्वक
प्रकाश डाला है। यादव, सुभाष (2015) ने अपने शोध
प्रबन्ध “Resources Appraisal and Planning for Sustainable
Development in Sikar District, Rajasthan में सीकर जिले के
संसाधनों का विश्लेषण कर बताया कि सीकर जिले में संसाधनों का अतिदोहन होने से
अवनयन हो रहा है। जल संसाधन का दोहन होने से भूमिगत जलस्तर तीव्र गति से गिर रहा
है। शर्मा, रामनारायण (2010) ने शोध लेख “जयपुर जिले में जल गुणवत्ता एवं उपयोग एक भौगोलिक विश्लेषण” में तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या तथा जल के बढ़ते उपयोग के कारण बढ़ती मांग
तथा पेयजल की गिरती गुणवत्ता का विश्लेषण किया है। इन्होंने इस शोध पत्र में
भूमिगत तथा सतही जल स्रोतों की उपलब्धता, गुणवत्ता
तथा उपभोग का आंकलन किया है। भाभोर, बहादुर सिंह (2002) ने अपने
शोध प्रबन्ध “बांसवाड़ा जिले में जल संसाधन एवं उनका
उपयोगः एक भौगोलिक अध्ययन” में बांसवाड़ा जिले के जल
संसाधनों का विश्लेषण किया है। इन्होंने बांसवाड़ा जिले में जल संसाधनों, उपयोग, मूल्यांकन के आधार पर भविष्य में सम्भावनाओं का विश्लेषण किया है।
कलवार, एस.सी तथा सुगनचन्द (2010) ने
अपनी पुस्तक “जलग्रहण एवं पर्यावरण संरक्षण” में जल के अविवेकपूर्ण उपभोग के कारण तथा जल संसाधनों के संरक्षण के प्रति
उदासीनता के कारण भूमिगत जल स्तर में लगातार गिरावट हो रही है तथा ऐसे ही दुरूपयोग
होता रहा तो सन् 2025 तक जल संकट का सामना करना पड़
सकता है। |
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मुख्य पाठ |
अध्ययन
क्षेत्रः प्रस्तुत शोध पत्र का अध्ययन क्षेत्र राजस्थान का सीकर जिला है, जो
राजस्थान के उत्तरी-पूर्वी भाग में 27021‘ उत्तरी अक्षांश से 28012‘ उत्तरी अक्षांश तथा 74044‘ पूर्वी देशान्तर से 75025‘ पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित
है। सीकर जिले का क्षेत्रफल 7742 वर्ग किमी है तथा राज्य में शेखावाअी अंचल का एक प्रमुख जिला है। अवस्थिति
की दृष्टि से सीकर के उत्तर दिशा में झुन्झुनूं, उत्तर-पश्चित दिशा में चुरू, दक्षिण-पश्चिम दिशा में नागौर, दक्षिण-पूर्व दिशा में जयपुर
जिलों की सीमा स्पर्श करती है जबकि उत्तर-पूर्व दिशा में महेन्द्रगढ़ जिले
(हरियाणा) की सीमा स्पर्श करती है। आंकड़ों के स्त्रोत एवं विधि तंत्रः- प्रस्तुत शोध लेख में प्राथमिक तथा द्वितीयक दोनों आंकड़ों का प्रयोग किया गया
है- 1. प्राथमिक आंकड़ेः- प्राथमिक आंकड़ो को निम्न विधियों से संग्रहित किया गया- 1. अनुसूची 2. साक्षात्कार 3. व्यक्तिगत प्रक्षेपण 2. द्वितियक आंकड़ेः- द्वितियक आंकड़ो के स्रोतों में विभिन्न सरकारी व अर्द्ध सरकारी रिपोर्ट, पुस्तकें, शोध लेख तथा जिला सांख्यिकी रूपरेखा जिला सीकर से आंकड़ों का संग्रहण किया
गया। वर्षा जल संग्रह की आवश्यकता वर्षाजल संचयन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से होती है- 1. वर्षाजल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है साथ ही जीवाणुओं
और कार्बनिक पदार्थों से मुक्त एवं हल्का भी होता है। 2. अधिकांश वर्षाजल व्यर्थ ही बह जाता है एवं सड़कों को
क्षतिग्रस्त करता है तथा यातायात में बाधा उत्पन्न करता है। 3. कृत्रिम पुनर्भरण के लिए उपलब्ध वर्षाजल का वाष्पीकरण एवं
निस्यदन कम होता है। 4. वर्षाजल शहर के निचले क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न
करता है तथा भूमि का कटाव भी करता है। 5. संरचना की लागत कम आती है तथा कम समय में ही बनाई जा सकती है। 6. वर्षाजल पीने के लिए उपयुक्त होता है तथा इसके शुद्धिकरण
हेतु खर्चीले उपायों की आवश्यकता नहीं होती है। 7. पुनर्भरण के कार्य में किसी प्रकार की ऊर्जा की आवश्यकता
नहीं होती है। 8. सतही स्रोतों में वर्षाजल को आसानी से एकत्रित करके कृषि
(फार्म पोंड) एवं पशुधन हेतु भी उपयोग में लिया जाता है। 9. वर्षाजल का संग्रहण करके भूजल-पुनर्भरण द्वारा घटते भूजल की
समस्या का सही समाधान हो सकता है। भूजल-स्रोतों की जल क्षमता में वृद्धि करता
है। 10. पुनर्भरण एवं संचयन किया जाने वाला जल, उपयोग किये जाने वाले स्थान पर उपलब्ध रहता है, जिसका यह सर्वोत्तम उपयोग है। 11. पुनर्भरण संरचना का निर्माण उसी स्थान पर उपलब्ध सामग्री से
किया जा सकता है तथा स्थानीय रूप से सामग्री उपलब्ध होने पर कम लागत में संरचना का
निर्माण किया जा सकता है। 12. भूजल की गुणवत्ता में भी सुधार होता है, क्योंकि वर्षाजल मिलने से भूजल के लवण संतुलित हो जाते हैं, साथ ही यह जीवाणु रहित भी होता है। 13. भविष्य में उपयोग के लिए अधिशेष जल को संचित करने के लिए। 14. तूफानी जल प्रवाह को रोकने तथा मृदा कटाव को कम करने
के लिए। 15. भू-स्खलन को रोकने अथवा बंद करने के लिए हाइड्रोस्टेटिक
दबाव बढ़ने के लिए। 16. तटीय क्षेत्रों में लवण का प्रवेश रोकने के लिए। 17. विद्यमान पुराने कुओं और बोरवेल के साथ प्रचलनात्मक कुओं को
भी साफ करके पुनर्भरण संरचनओं के रूप में प्रयोग करने के लिए। वर्षाजल संचयन की प्रमुख विधियां 1. छतों पर गिरने वाले वर्षाजल का संचयन एवं कृत्रिम पुनर्भरण। 2. सड़क पर बहने वाले वर्षा जल का कृत्रिम पुनर्भरण। 3. परंपरागत जल-स्रोतों का जीर्णोद्धार (कुएं, बावड़ी, टांकें, झील, झालरें)। 4. भूमिगत जल बांध (सब सरफेस बेरियर)/उपसतही डाइक। 5. गैबियन संरचना। इन विधियों में शहरी क्षेत्रों में छतों पर से एकत्रित वर्षाजल संग्रह प्रमुख
है, साथ
ही सड़कों के प्रवाह को भी संग्रहित किया जाता है। इसके लिए शहरों में नवीन संरचनाएं
बनायी जा सकती हैं तथा प्राचीन बावड़ियों, टांकों, तालाब, बांध आदि का जीणोद्धार एवं निर्माण किया
जा सकता है। प्राचीन वर्षाजल संग्रहण की संरनाएं काफी सुनियोजित एवं विस्तृत रूप
में बनी हैं जिनका आधुनिकीकरण किया जा सकता है। इस प्रकार शहरी एवं ग्रामीण
क्षेत्रों में निम्नलिखित संरचनाओं में वर्षाजल का संग्रह किया जा सकता है- 1. कुओं, बावड़ी एवं टांकों में
वर्षाजल संग्रह कुओं का निर्माण पेयजल एवं कृषि कार्य हेतु विभिन्न स्थानों पर करवाया जाता
था। प्राचीन काल में वर्षाजल संचयन एवं जलभृत के भंडार हेतु विशाल बावड़ियों एवं
टांकों का निर्माण करवाया जाता था। बावड़ियों की बनावट एक विशेष तकनीक को अपनाकर की
जाती थी, जिसमें बावड़ी का ऊपरी भाग चौड़ा रखा जाता था तथा सीढ़ियों
के निर्माण द्वारा इसको क्रमानुसार पैंदे की ओर ले जाते हुए संकरा किया जाता है।
इस तकनीक से जल की खुली सतह, सूर्य की किरणों से कम
प्रभावित होती है तथा जल की वाष्पीकरण दर भी तालाबों आदि की तुलना में कम होती है।
ऊपरी भाग चौड़ा होने के कारण वर्षाजल बावड़ी में अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा
सकता है। वर्तमान में इन कुओं, बावड़ियों एवं टांकों में
पर्याप्त वर्षाजल का संग्रह किया जा सकता है। 2. तालाब, झील तथा बांधों में
वर्षाजल संग्रह पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षाजल के संचयन हेतु तालाब कृत्रिम झील, बांध
आदि का निर्माण करवाया जाता था ताकि वर्षाकाल में व्यर्थ बहकर जाने वाले जल को
एकत्रित कर उसका उपयोग किया जा सके। राजस्थान में जयपुर शहर के आसपास रामगढ़ बांध, मानसागर (जलमहल), तालकटोरा, मावठा अजमेर में आनासागर, उदयपुर में उदयसागर
आदि संरचनाओं का निर्माण किया गया था। इसी तरह देश के प्रत्येक भाग में ऐसी
संरचनाएं मिलती हैं जिनमें वर्षाजल का संग्रह होता है। 3. छतों पर गिरने वाले वर्षाजल का संचयन सरकारी एवं निजी भवनों की छतों एवं सड़कों पर गिरने वाला अधिकांश वर्षाजल
व्यर्थ बहकर गंदे नालों में मिलकर या तो दूषित हो जाता है या उसका वाष्पीकरण हो
जाता है। इस कारण यह वर्षाजल पृथ्वी की सतह के नीचे विद्यमान भूजल भंडार के सीधे
संपर्क में नहीं आता, इसके परिणामस्वरूप भूजल पुनर्भरण कम हो पाता है। अतः
व्यर्थ जा रहे इस वर्षाजल का कृत्रिम पुनर्भरण किया
जाना अत्यंत आवश्यक है।
छतों पर गिरने वाले वर्षाजल को पुनर्भरण करने हेतु पाइपों द्वारा एक स्थान पर
एकत्रित कर गाद के गढ़े (Silting Pit) एवं फिल्टर पिट (इनवर्टेड फिल्टर मीडिया)
में प्रवेश कराया जाता है, जिसमें 15 से 50 सेमी. मोटाई की छोटी ग्रेवल एवं बड़ी
ग्रेवल की परतें होती हैं, जो वर्षाजल के साथ आई मिट्टी, कचरा आदि को जलभृत में जाने से रोकती है। इस प्रकार छना हुआ शुद्ध जल
पुनर्भरण संरचना में प्रवेश करता है तथा भूजल भंडार के पुनर्भरण में वृद्धि करता
है। इन संरचनाओं का आकार, प्रकार भवन के क्षेत्रफल, उपलब्ध वर्षाजल एवं जलभृत की प्रकृति के आधार पर किया जाता है। इस संरचना
के सफल संचालन हेतु निम्न सावधानियों को अपनाया जाना आवश्यक है- 1.संरचना के उचित रख-रखाव हेतु वर्षा पूर्व छतों की पूर्णतया
सफाई किया जाना उचित होगा। 2. प्रथम वर्षा जल को आवश्यक रूप से बाहर निष्कासित किया जाए। 3. वर्षा पूर्व फिल्टर पिट की ऊपरी परत की सफाई किया जाना
उचित होगा। 4. नलकूप द्वारा वर्षाजल संग्रह एवं पुनर्भरण वर्षाजल के कृत्रिम पुनर्भरण हेतु चालू अथवा बेकार पड़े नलकूपों का उपयोग किया
जा सकता है। इस विधि में वर्षाजल को पाइप द्वारा फिल्टर पिट के माध्यम से नलकूप
में डाला जाता है। फिल्टर पिट का निर्माण नलकूप के चारों तरफ लगभग 2 से 3 मीटर गहराई तथा 1 मीटर व्यास का पिट बनाया जाता है। 5. पुनर्भरण कूल भूजल पुनर्भरण हेतु सूखे एवं अकार्यशील कुओं अथवा चालू कुओं को उपयोग में लाया
जा सकता है। वर्षाजल को फिल्टर पिट (जिसके तल में क्रमशः बजरी, उसके
ऊपर बारीक बजरी तथा सबसे ऊपरी सतह पर मोटी रेत होती है) के माध्यम से प्रवाहित
किया जाता है। फिल्टर पिट का आकार उस स्थान पर उपलब्ध वर्षा जल की मात्रा पर
निर्भर करता है। फिल्टर पिट के तल से (ग्रेवल वाले भाग के पास) एक निकास पाइस कुएं
से जुड़ा रहता है। वर्षाजल निर्मित फिल्टर पिट के माध्यम से छनकर निकास नली द्वारा
कुएं में गिरता है। इस विधि द्वारा जिन कुओं के तल में बोरिंग किया गया हो, उनको भी उपयोग में लाया जा सकता है। कुएं के तल में लगे बोरिंग पाइप को
पैंदे से 3-5 मीटर ऊपर तक जालीदार पाइप से जोड़
दिया जाता है तथा इस पाइप के चारों तरफ तल से 1.5-2 मीटर तक बड़ी ग्रेवल अथवा छोटी ग्रेवल भर दी जाती है। कुएं में गिरने वाला
यह जल पुनः बजरी आदि के माध्यम से छनकर जालीदार नल के द्वारा जलभृत का पुनर्भरण
करता है। 6. हैंडपंप द्वारा पुनर्भरण वर्षाजल का पुनर्भरण अकार्यशील अथवा चालू हैंडपंप द्वारा भी किया जा सकता है।
जिन भवनों में हैंडपंप उपलब्ध हो, उनके वर्षा जल को फिल्टर पिट के माध्यम से पाइप द्वारा
हैंडपंप से जोड़ दिया जाता है। वर्षाजल फिल्टर पिट के माध्यम से छनकर हैंडपंप में
जाता है ताकि सिल्ट से हैंडपंप खराब ना हो। 7. जल संचयन टैंक/टांका ऐसे भवन जिनका क्षेत्रफल अधिक हो उनमें कृत्रिम पुनर्भरण के साथ-साथ वर्षाजल संचयन हेतु टांके का निर्माण किया जा सकता है। छत के वर्षाजल को पाइप द्वारा फिल्टर पिट के माध्यम से टांके में प्रवाह करवाया जाता है। फिल्टर पिट एवं टैंक की जल संचयन क्षमता मुख्यतया भवन के क्षेत्रफल एवं वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है। टैंक के पूर्ण भराव के उपरांत यदि आवश्यकता हो तो जल को शॉफ्ट/पुनर्भरण बोरहोल के माध्यम से जलभृत में पुनर्भरित किया जा सकता है। टैंक में एकत्रित जल का उपयोग जल के अभाव में दैनिक कार्यों में किया जा सकता है। 8. जमीन में पानी उतारने का गड्ढ़ा
एक हजार वर्गफीट की छत वाले मकानों के लिए यह सरल तरीका बहुत ही उत्तम है। बरसाती मौसम में एक छोटी-सी छत से लगभग एक लाख लीटर पानी जमीन में उतारा जा सकता है। यह गड्ढ़ा किसी भी आकार का हो सकता है- गोलाकार, वर्गाकार, या आयताकार। साधारणतया यह गड्ढा 3 से 5 फीट चौड़ा और 6 से 10 फीट गहरा बनाया जाता है। खुदाई के बाद इसमें कंकड़, रोड़ी और बजरी भर दी जाती है तथा ऊपर से मोटी रेत डाल दी जाती है।
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निष्कर्ष |
वर्षा जल संग्रहण का दोहरा लाभ होता है एक ओर इसका संचय करने से पेयजल, घरेलू कार्यों तथा सिंचाई के काम में लिया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर इसको संचित कर भूमिगत जल स्तर में वृद्धि की जा सकती है इस बात को मद्देनजर रखते हुए शोधार्थी ने प्रस्तुत शोध पत्र में सीकर जिले में वर्षा जल संग्रहण की विधियों का विशेष अध्ययन किया है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. दिलबाग (2021): “सीकर जिले में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोग एवं प्रबन्धनः एक भौगोलिक अध्ययन” अनपब्लिशड पी.एच.डी. थीसीस, मो.सु.वि.वि. उदयपुर।
2. शर्मा, सुमन (2019) ने अपने शोध लेख “सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का एक विशेष अध्ययन”, International Journal of Geography, Geology and Environment, 2019.
3. जाट, वी.सी. तथा कुमार अजय (2017): जल प्रबन्धन भूगोल, मलिक एण्ड कम्पनी, चौड़ा रास्ता जयपुर।
4. जैन, शरद कुमार (2018): भारत में जल संसाधन प्रबन्धन, जल चेतना (रा.ज.वि.सं.) खण्ड 7, अंक 2, जुलाई 2018, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, नई दिल्ली।
5. दुबे, राकेश कुमार (2018): राजस्थान में जल संचय के परम्परागत स्रोत वर्तमान में प्रासंगिकता, जल चेतना (रा.ज.वि.सं.) खण्ड 7, अंक 2, जुलाई 2018, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, नई दिल्ली।
6. जाट, वी.सी. तथा कुमार अजय (2017): जल प्रबन्धन भूगोल, मलिक एण्ड कम्पनी, चौड़ा रास्ता जयपुर। |