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गोदान में ग्राम और नगर जीवन की प्रासंगिकता | |||||||
Relevance of Village and City life in Godan | |||||||
Paper Id :
17386 Submission Date :
2023-03-12 Acceptance Date :
2023-03-23 Publication Date :
2023-03-25
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सारांश |
‘गोदान’ में ग्राम्य तथा नगर-जीवन एवं विभिन्न घटनाओं के कार्य-व्यापार का विस्तृत पट चुना गया है। भारत ग्राम प्रधान देश है और भारत की संस्कृति को ग्राम-जीवन की संस्कृति कहा जा सकता है। परन्तु बीसवीं शताब्दी में उद्योगों और कल-कारखानों की स्थापना से नगर नई चेतना के केंद्र बन गयें हैं। इस उपन्यास में दो कथाएँ साथ चल रही है एक ग्राम्य-जीवन की कथा तो दूसरी नगर – जीवन की कथा है | इस उपन्यास में पारिवारिक स्थिति, जाति-पाति का भेदभाव, ग्रामीणों पर पुलिस का आतंक, गरीबों का असंतोष, धार्मिक स्थिति, राजनितिक स्थिति, आर्थिक स्थिति आदि से तंग होकरलोग नगरों की ओर प्रस्थान करते हैं। नगरों में भी उनका शोषण होता है। इस उपन्यास के पात्रों में ग्राम और नगर जीवन का द्वन्द भी चलता है। आज वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो ‘गोदान’ में ग्राम और नगर जीवन की प्रासंगिकता बनी थी वह आज भी जीवित है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In 'Godan', a wide spectrum of rural and urban life and work-business of various events has been chosen. India is a village dominated country and the culture of India can be called the culture of village life. But with the establishment of industries and factories in the 20th century, cities have become centers of new consciousness. Two stories are running together in this novel, one is the story of rural life and the other is the story of city life. In this novel, being fed up with the family situation, caste-caste discrimination, police terror on the villagers, dissatisfaction of the poor, religious situation, political situation, economic situation etc., people leave for the cities. They are exploited even in the cities. The conflict between village and city life also goes on in the characters of this novel. Today, if seen in the present perspective, the relevance of village and city life was made in 'Godan', it is still alive today. | ||||||
मुख्य शब्द | ग्राम्य जीवन, नगर– जीवन, गरीबों का असंतोष, राजनितिक स्थिति, धार्मिक स्थिति| | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Rural life, City Life, Discontent of the Poor, Political Situation, Religious Situation. | ||||||
प्रस्तावना |
‘गोदान’प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इस उपन्यास का ध्येय ग्रामीण समाज का चित्रण करना है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में ग्रामीण और नगर जीवन का चित्रण सरल एवं सहज ढंग से किया है। इस उपन्यास में चित्रित होरी का बेटा गोबर नवयुवक है जो अपने पिता को छोड़कर नगर चला जाता है। वह देखता है कि ग्रामीण समाज में जाति-पाति का बोलबाला है। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों से बुरा वर्ताव करते हैं। ग्रामीण किसानों पर प्रत्येक पुलिस अधिकारी अत्याचार करते हैं। होरी की गाय को जब हीरा जहर दे देता है, तो दरोगा जाँच के लिए पहुँचते हैं। वह होरी को न्याय नहीं दिला पता है। ग्रामीण जीवन के चित्रण में प्रेमचंद ने यथार्थवादी शैली का अच्छा प्रयोग किया है, जिससे कथा की प्रभावात्मकता बढ़ी है। उन्होंने ग्रामीण समाज के आर्थिक आधार का चित्रण करने में उन सब शक्तियों का प्रयोग किया, जो उस व्यवस्था की अविभाज्य अंग बन पाई है। जमींदार, महाजन और किसान इस व्यवस्था के प्रमुख अंग है। ‘गोदान’ में ग्रामीण समाज इन्हीं के कार्य-व्यापार से प्रभावित है। होरी जब महाजन से कर्ज के रूप में तीन सौ रूपया ले लेता है तो वह महाजन रूपया चुकाने के बाद भी उसे कर्ज से मुक्त नहीं करता। इसका वर्णन भी प्रेमचंद ने सफलतापूर्वक किया है। जैसे – “इस फसल में सब-कुछ तौल देने पर भी तीन सौ रूपया का कर्ज है। सौ रूपया साल सूद बढ़ते हैं | साठ रूपया का कर्ज मांगने पर ....अब भी साठ बाकी है।”[1]
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध आलेख का मूल उद्देश्य है कि प्रेमचंद के समय और आज के समय में कोई खास परिवर्तन नहीं देखने को मिलता है | प्रेमचंद ने ‘गोदान’में ग्राम और नगर जीवन की जो समस्यायें उठाये हैं, उन समस्यायोंसेजनता को जागृत कराना है और उन समस्यायों का समाधान किस तरह करना है यहीं इस शोध आलेख का मूल उद्देश्य है। |
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साहित्यावलोकन | इस
शोध आलेख में, मैंने उद्देश्य पूर्ण अध्ययन अवलोकन पद्धति को अपनाया क्योंकि यह
पद्धति का उपयोग सामूहिक व्यवहार के अध्ययन के लिये किया जाता है। डॉ0 रामविलास
शर्मा की पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में प्रेमचंद के समय का समाज और नगर का
यथार्थ चित्रण मिलता है। इस पुस्तक का मूल्यांकन सामाजिक परिवेश की पृष्ठभूमि में
किया गया है। राकेश जी की पुस्तक ‘उपन्यासकार प्रेमचंद और गोदान’में ग्राम और नगर
जीवन की समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। वर्त्तमान में ‘गोदान’ की
प्रासंगिकता क्यों है, इस पर संवाद है। |
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मुख्य पाठ |
‘गोदान’ में ग्रामीण और
नगरीय समाज की अनेक समस्यायों पर दृष्टिपात किया गया है। अगर हम समस्यायों पर
ध्यान दे तो पारिवारिक समस्या, जाति-पाती का भेदभाव, ग्रामीणों पर पुलिस का आतंक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक हैं। इन समस्यायों पर सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर प्रेमचंद ने विशेष ध्यान दिया है। सामाजिक
समस्यायों में उन्होंने अंधविश्वास और धर्मभीरुता, जमींदार, फारिंदे, पटवारी
आदि द्वारा शोषण, लगान चुकाने की कठिनाई के कारण बेदखली, पूंजीपति, साहूकार,
सरकारी अफसरों, पुलिस, ग्रामीण पंचो द्वारा शोषण, अशिक्षा के कारण ग्रामीणों की
दुर्दशा इत्यादि का उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त वैवाहिक-पद्धति के दोष,
शहर के युवक-युवतियों में पाश्चात्य प्रभाव के कारण स्वछंद–बिहार की प्रवृति
आदि पर विहंगम दृष्टि डाली गयी है। प्रेमचंद ने इन बुराइयों की ओर हमारी घृणा
जगाकर समाज में आमूलचूक परिवर्तन करने का संकेत किया है। इसमें ग्राम-जीवन और नगर-जीवन के सभी वर्गों का चित्रण है। गाँव
में अगर किसान, महाजन, जमींदार, साहूकार, ग्वाला, पंडित, दरोगा आदि सभी वर्गों का चित्रण है तो सम्पूर्ण शहरी जीवन के सभी
वर्गों का चित्रण है। शहर में रईस, संपादक, अफसर, मिल-मालिक, वकील, एसेम्बली
के मेयर, प्रोफ़ेसर, इन्सुरेंश के एजेंट आदि सभी वर्गों के पात्र अपने-अपने वर्गों का चित्रण करते हैं। ग्रामीण क्षेत्र की नारी घरेलू होती है, तो दूसरी तरफ शहर की शिक्षित नारी की
स्वछंदता एवं उच्छृंखलता पर मिस्टर इन शब्दो में प्रकाश डालते हैं- “मुझे खेद है, हमारी बहने पश्चिम का आदर्श ले रही है, जहां नारी ने अपना पद खो
दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद
होना चाहती है। इसलिए की वह अधिक विलास
कर सके हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। पश्चिम की स्त्री आज
गृहस्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखलता बना दिया है।”[2] गोबर जैसे युवक रोजगार के लिए गाँव से नगर को
पलायन करने लगे और मालती-मेहता जैसे उदबुद्ध युवक-युवती ग्राम सुधार के लिए ग्राम की ओर जाने लगे। जमींदारो तथा नगर के पूंजीपतियों और
मिल–मलिकों द्वारा ग्राम जनता पर शोषण का पंजा जकड़ता गया। नगर और ग्राम की यह
समस्त स्थिति ‘गोदान’ में एक सूत्र में
पिरो दी गई है। ग्राम और नगर की दोनों कथाएँ मिलकर ही तत्कालीन भारत का समग्र
चित्र प्रस्तुत करती है। अतः ‘गोदान’ की कथा समस्त भारत की स्थिति का
प्रतिनिधित्व करता है। ‘गोदान’ में जो दीखता है कि गोबर गाँव से शहर रोजगार के
लिए पलायन करता है और शहर में उसका शोषण
होता है। वर्त्तमान में भी वहीं
परिस्थितियां बनी हुई है, गाँव से लोग रोजगार की तलास में नगर जाते हैं नगरों में
तो उन्हें काम मिल जाता है पर उनका शोषण बहुत होता है। ‘प्रेमचंद’ जब लिखना शुरू किया था तब संसार पर
पहले महायुद्ध के बादल मंडरा रहे थे। प्रेमचंद के सामने अनेक कठिनाइयाँ और बधाएं
थी। उन्होंने तमाम कठिनाइयों और बाधाओं को पार करते हुए भारतीय जनता से कहते हैं– “यह अंत नहीं है, और
आगे बढ़ों जब तक की रंगभूमि में विजय न हो, जब तक देश का काया–कल्प न हो, जब तक
की इस कर्मभूमि में गबन और गोदान के होरी और रामानाथ का त्रस्त होना बंद नहो जाय
और हमारा देश.......बन जाएँ।”[3] ‘गोदान’ में प्रेमचंद ने बड़े ही
सुंदर ढंग से नगर और ग्राम के संबंध को दिखाया हैं। उनकी उम्र भर की साधना की
परिपक्व फल इस उपन्यास में देखने को मिलता है ‘गोदान’ में जो ग्राम जीवन और नगर जीवन का संबंध है उसमें
विद्वानों की धारणा अलग–अलग है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने ग्राम और नगर की कथाओं को
एक दुसरे के सामानांतर चलती हुई माना है। उनके अनुसार ग्राम के पात्रों से संबंध
रखने वाली कथा अधिकारिक और नगर के पत्रों से संबंध रखने वाली कथा प्रासंगिक अथवा गौड़
है। उनकी दृष्टि से इन दोनों कथाओं का सामान
रूप से संतुलित संबंध नहीं है। उन्होंने ‘गोदान’ को शुद्ध
रूप से ग्राम जीवन का उपन्यास माना है, यह तो उनका मत है, पर वास्तव में सच्चाई
तो यह है कि दो कथाएँ सामानांतर चल रही है। एक तो गाँव की और दूसरी शहर की। जिसकी प्रासंगिकता उस समय
आंशिक रूप से दिखने को मिला है, पर वर्तमान में तो इसकी व्यापक प्रासंगिकता
दिखाई पड़ता है| वाजपेयी जी जिस नागरिक कथा को गौढ़ मानते है, वह उपन्यास के आधे से
अधिक भाग की घेरे हुए है। ‘गोदान’ का वृहद् कथानक उस समस्या
को लेकर चलता है जिसके कारण किसान का जीवन भार बना हुआ है| साहूकार, जमींदार, पटवारी, कारिंदे आदि किसान का शोषण करते रहते हैं। किसान का यह शोषण
नगर और ग्राम मिलकर करते हैं। अतः ‘गोदान’की दोनों कथाओं को एक दूसरे से अलग समझना गलत है। ‘गोदान’ के दो उद्देश्य और दो कार्य तो हैं ही इसके साथ इसका एकमात्र उद्देश्य यह भी
हो सकता है कि प्राचीन सामंती संस्कृति की मर्यादाओं- नैतिकताओं, आदर्शों का अंत
और पूंजीवादी प्रतिक्रिया स्वरुप सामंती और पूंजीवाद शोषण के विरुद्ध संगठित विद्रोह
की चेतना का उदय। डॉ. गुलाब राय के शब्दों में– “उपन्यास की कथावस्तु गढ़ी
हुई नहीं मालूम पड़ती, उसमे जीवन का बहाव है। जीवन से ही छाया लोकमय सुख – दुःख
भरे चित्र हैं। कही खन्ना और तंखा जैसे नैतिक गर्त है , तो कहीं होरी जैसे उच्च
शिखर है। कथावस्तु में पूरी गति है। वर्णन सुंदर होते हुए भी इतने बड़े नहीं है
की कथावस्तु की गति कुण्ठित हो जाय। कथावस्तु का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। सभी
प्रकार का जीवन आ गया है। चोटी के आदमियों का भी वर्णन है, निर्धन लोगों का भी। मिलों की हड़ताल, शक्कर व्यवसाय
की समस्यायें, चुनाव के दांव–पेंच, गाँव के पंचों, जमींदारों और पटवारियों का
दम्म और साहूकारों की जायदाद हड़पने वाली नीति, शिकार, पिकनिक, समाजसेवा, बालकों
का मनोरंजन जवान और बूढों की रसिकता सभी का सुंदर चित्र है।”[4] ‘गोदान’ के
ग्राम और नगर की कथानक प्रारंभ से लेकर अंत तक पूर्ण संगति और संबद्धता लिए हुए
अविराम गति से चलता है। हंसराज रहबर के शब्दों में– “प्रेमचंद ने
प्रत्येक वर्ग के प्रतीक पात्र को लेकर समूचे समाज का चित्रण किया है। जमींदार
अमरपाल सिंह, उद्योगपति खन्ना, स्वार्थी पत्रकार ओंकारनाथ, चुनाव विशेषज्ञ तंखा
है। दूसरे की मेहनत चूसने वाली जोंके हैं। मेहनत सिर्फ किसान करता है। अगर नगर
की कथा हटा दीजिए, तो होरी अर्थात समाज का चित्र अधूरा ही रह जायेगा। जमींदार
अमरपाल सिंह दोनों की रीढ़ की हड्डी है, इसलिए नगर की कहानी इस उपन्यास का
अविभाजित अंग है।”[5]
‘गोदान’ में भारत के नगर और ग्राम्य जन– जीवन की झांकी करायी गई है। बहुत से पात्रों और चरित्रों के संसर्ग
में लाकर समाज का जीवित चित्र निर्माण किया गया है। होरी के जीवन का अंत युग की
परिवर्तनशील, परिस्थितियों की विवशता के कारण होता है। गोबर के रूप में नया
विद्रोह किसान सामने आता है। ‘गोदान’ में प्रेमचंद
जी ने वे अपने युग की यथार्थ तस्वीर
चित्रित करने में सफल हुए हैं। इसलिए इसे युगपरक उपन्यास कहना ही उचित है। होरी
किसी महाकाव्य के धीरिदत्त नायक नहीं है। पर निराला ने ‘राम की शक्तिपूजा’ में जो बात राम के लिये कहीं
है, वह प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में होरी के
लिये कहीं है– “जीवन के संघर्ष में उसे
सदैव हार हुई, पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी, प्रत्येक हार जैसे उसे लड़ने की
शक्ति दे देती थी। मगर अब वह उस अंतिम दशा को पहुँच गया था, जब उसमें आत्मविश्वास
भी न रहा था।”[6] ‘गोदान’ के समरूप में शोषण का चक्र प्रस्तुत करता है, जिसके द्वारा ग्राम के कृषक का
गाँव और नगर के शोषक वर्ग मिलकर शोषण करते हैं। गाँव का साहूकार शहर के किसी बड़े
साहूकार का दलाल है। किसानों के शोषण से जो धन प्राप्त होता है, उसी से उन लोगों
का विलास और आमोद–प्रमोद चलता है। शक्कर मिल के मालिक किसानों की खड़ीफसल खरीद
लेते हैं। परन्तु भुगतान के समय गाँव के साहूकार से मिलकर किसानों के हाथ में भी
पैसा नहीं जाने देते। गोबर जैसे युवक नगर में जाकर मजदूर बनते हैं, परन्तु यहाँ भी शोषण का चक्र पीछा नहीं छोरता। खन्ना के मिल की हड़ताल उसका प्रमाण है।
प्रेमचंद जी ने शोषण का जो पूरा चक्र उभारा है, उसमें ग्राम और शहर की कथाएँ मिलकर एक हो गई है। अतः
दोनों कथाओं को परस्पर में असम्बद्ध नहीं कहा जा सकता। शोषण के चक्र को स्पष्ट
अध्ययन करने से ग्राम और नगर अर्थात दोनों
कथाओं में संतुलित संगठन में कहीं भी शिथिलता नहीं आने पाई है, प्रेमचंद का बड़ा
ही सुंदर कथन है –“ कौन कहता है? जीवन–संग्राम में वह हारा है, यह उल्लास, यह
गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं? इन्हीं हारों में उसकी विजय है।”[7] होरी हिंदी-कथा साहित्य का सबसे जीवंत पात्र
है, अपनी पराजय के कारण नहीं, अपने संघर्ष के कारण। |
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निष्कर्ष |
‘गोदान’ की ग्राम और नगर की कथा लगभग हर गाँव और नगरों में कमोबेस मिल जाएगी। न जाने होरी की तरह कितने किसान अपने जीवन से हार मान चूका है। न जाने देश में हर साल कितने किसान आत्महत्याएं कर रहे है। न जाने गोबर जैसे नवजवान कितने गाँव छोड़कर मजदूरी करने के लिए नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वास्तव में ‘गोदान’ में उभरी ग्रामीण और नगरों की समस्या वास्तविक जीवन का यथार्थ है। मुख्य रूप से कह सकते हैं कि ‘गोदान’में ग्राम और नगर जीवन की प्रासंगिकता तब तक बनी रहेगी जब तक की हम वास्तविक आजादी हासिल न कर ले। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. प्रेमचंद , गोदान , पृo- 36
2. वही, पृo 260-261
3. शर्मा डॉo रामविलाश , प्रेमचंद और उसका युग ,पृo -248
4. राकेश, उपन्यासकार प्रेमचंद और गोदान, पृo- 55
5. वही, पृo- 55
6. गोदान, पृo- 350
7. वही, पृo – 357 |