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पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो के शिक्षा सिद्धान्तों की वर्तमान उपादेयता का अध्ययन | |||||||
Study of Present Applicability of Education Principles of Western Philosopher Plato | |||||||
Paper Id :
16386 Submission Date :
2023-04-04 Acceptance Date :
2023-04-17 Publication Date :
2023-04-25
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सारांश |
संयम, धैर्य, ज्ञान और न्याय की आधारशिला पर सामाजिक संरचना की नींव रखने वाले पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो के पूर्व दार्शनिक चिन्तन एवं बाद के दार्शनिक चिन्तन में यूँ तो अन्तर दिखाई देता है, किन्तु वह अन्तर सामाजिक, राजशाही एवं अनुभवशीलता की परिपक्वता तथा बाहृय दबावों का एक परिणाम मात्र है।
आज समाज अनियमितता, अराजकता, अन्याय, विषमता एवं अर्थ केन्द्रित धारणाओं के कारण लगाम प्राप्त नहीं कर पा रहा है। अनियन्त्रित हो दिशा भटकते समाज को यदि बेलगाम होने से बचाना है तो हमें वास्तव में न्याय की परिभाषा गढ़ने वाले समसामयिक पाश्चात्य विचारधारा के सिरमौर्य विख्यात आदर्शवादी दार्शनिक प्लेटो के दार्शनिक सिद्धान्तों का न केवल समझना होगा, बल्कि उसमें स्थित महत्वपूर्ण ग्राहृय तत्वों को अपनाना होगा। तभी हम जानना समझना एवं अपनाना अर्थात तत्व ज्ञान, ज्ञान मीमांसा एवं मूल्य व आचार मीमांसा को वास्तविक परिप्रेक्ष्य में ग्राहृय बना सकते है।
वर्तमान परिवेश में बालक बिना जाने व समझे विभिन्न सामाजिक व्यवहारों को उनके परिणाम की चिन्ता किये बिना आत्मसात करता जा रहा है। केवल धन एवं चकाचौंध तथा भौतिक जगत ही हमारे जीवन का जब तक आधार रहेगा, तब तक हम एक उच्च मूल्यों वाले समाज का जिसमें परोपकार कर्तव्य परायणता, मानव धर्म, राष्ट्रहित जैसे तत्वों का निर्माण कर ही नहीं सकते। अतः हमको भौतिकवादी मूल्यों के सापेक्ष आध्यात्मिक मूल्यों का भी अध्ययन एवं विश्लेषण करके एक ऐसे सामाजिक वातावरण का निर्माण करना होगा, जहाँ न्याय, निष्पक्षता एवं संयम आदि का बोलबाला हो।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | There is a difference between the pre-philosophical thinking and the later philosophical thinking of Western philosopher Plato, who laid the foundation of social structure on the foundation of restraint, patience, knowledge and justice, but that difference is due to maturity of social, monarchy and experience and external pressures. Today society is not able to control due to irregularity, anarchy, injustice, disparity and money-centered concepts. If we want to save the uncontrollable deviating society from becoming unbridled, then we will not only have to understand the philosophical principles of the famous idealistic philosopher Plato, who is the head of the contemporary western ideology, but also adopt the important elements in it. Only then we can understand, and adopt that means we can make philosophy and values and ethics acceptable in real perspective. In the present environment, the child is imbibing various social practices without knowing and understanding them without worrying about their consequences. As long as only wealth and glamour, and the material world remain the basis of our life, we cannot build a society with high values in which elements like charity, duty, human religion, national interest are inculcated. Therefore, we have to create a social environment by studying and analyzing spiritual values in relation to materialistic values, where justice, fairness and restraint etc. prevail. |
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मुख्य शब्द | पाश्चात्य, आदर्शवादी, दार्शनिक, सामाजिक, प्लेटो, शिक्षा सिद्धांत । | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Western, Idealism, Philosopher, Social, Utility. | ||||||
प्रस्तावना |
पाश्चात्य दर्शन की प्राचीनतम विचारधारा आदर्शवाद है। आदर्शवाद की उत्पत्ति वस्तुतः विचारवादी सिद्धान्त से हुयी है। आदर्शवाद वस्तु की अपेक्षा भावों विचारों एवं आदर्शों को अधिक महत्व देता है और यह मानता है कि व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक विकास करना है। आदर्शवाद का सम्बन्ध भौतिक जगत से न होकर आध्यात्म से है जो सत्य है, चिर है, और अनश्वर है। इसके विपरीत भौतिक जगत सत्य का आभास है, जिसे वे वास्तविक जगत की अभिव्यक्ति मात्र मानते है। इस प्रकार आदर्शवाद में आध्यात्मिक संसार का अधिक महत्व है तथा इसमें विचार अन्तिम एवं सार्वभौमिक महत्व के होते है और प्रकृति अथवा जड़ की अपेक्षाकृत मानव अधिक महत्वपूर्ण है। मानव का महत्व इसलिये भी अधिक है, क्योंकि मानव प्रगतिशील एवं विकासशील प्राणी है। आदर्शवाद विकास पर बल देता है। यह विकास सांसारिक अथवा भौतिक उपलब्धियों द्वारा नहीं बल्कि आध्यात्मिक विकास पर आधारित होना चाहिये। महान दर्शनिक प्लेटो कट्टर आदर्शवादी था। उसने जीवन का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति माना है, जिसे शाश्वत मूल्यों सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् से प्राप्त किया जा सकता है। इन मूल्यों की प्राप्ति में बौद्धिक कलात्मक एवं नैतिक क्रियायें करनी होती है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो के शिक्षा सिद्धान्तों की वर्तमान उपादेयता का अध्ययन का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | प्लेटो के दार्शनिक विचार महान दार्शनिक प्लेटो का मानना था कि अज्ञानता ही समस्त बुराइयों का आधार है। बुराइयों एवं अवगुणों को न पहचानना ही अज्ञानता का प्रमुख तत्व है। इसलिये प्लेटो ने शिक्षा में नैतिकता एवं सद्गुण पर बल दिया है। प्लेटो अपने गुरू सुकरात के इस विचार से सहमत था कि समय की यह मांग है कि नये नैतिक बन्धन को जीवन में सूचीबद्ध किया जाये ताकि यह पुरातन सामाजिक मान्यता को समाप्त कर स्थान गृहण कर सके, किन्तु प्राचीनता की प्रतिस्थापना यदि करनी भी है, अर्थात पुराने के स्थान पर नये विचार एवं व्यवस्था तथा सामाजिक आधुनिकता को अपनाना भी है तो नैतिक बन्धन को सूत्र बद्ध करके ही हम नैतिक आदर्शवादी समाज की स्थापना कर सकते है। |
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मुख्य पाठ |
प्लेटो आदर्श समाज के
सम्बन्ध में व्यक्तिगत गुण को महत्व देता है, और उसी को महत्व देता है जब व्यक्तिगत जीवन में बुद्धि अधिक प्रबल इच्छाओं पर
अंकुश लगाती है तो क्रियायें स्वतः नियंत्रित हो जाती है और गुणों के विकास का
अवसर प्राप्त होता है और इस प्रकार एक आदर्श समाज का भी विकास होता है। प्लेटों ने
समाज को तीन वर्गो में वर्गीकृत किया है-
1. दार्शनिक वर्ग जो ज्ञान को महत्व है जिसका गुण बुद्धिमत्ता है। 2. सैनिक वर्ग जो सैन्य से सम्बद्ध है जिसका गुण सम्मान करना है। 3. व्यवसायिक वर्ग, जो व्यापार से सम्बद्ध है और इस वर्गीकरण से स्पष्ट है कि प्लेटो ने ज्ञान एवं बुद्धिमत्ता को एक आदर्श समाज के निर्माण में सर्वोपरि स्थान दिया है। किसी भी दार्शनिक विचारधारा के स्वरूप को समझने के लिए हमें उसकी तत्व मीमांसा(Metaphysics), ज्ञान मीमांसा(Epistemology) और मूल्य एवं आचार मीमांसा(Axiology and Ethics) को समझना आवश्यक होता है। प्लेटो ने इस ब्रम्हाण्ड को दो भागों में विभक्त किया है। विचार जगत और वस्तु जगत। विचारों को वे अनादि, अनंत और अपरिवर्तनशील मानते थे। उनकी दृष्टि से इन विचारों में एक दैवीय और नैतिक व्यवस्था होती है। जिसकी सहायता से ईश्वर इस जगत का निर्माण करता है। आत्मा को प्लेटो ईश्वर का अंश मानते थे। उनके अनुसार आत्मा इस संसार में आने से पहले विचारों के संसार में रहती है इसलिये यहाँ आने के बाद वह विचारों के संसार में ही जाने की इच्छुक रहती है। आदर्शवादी दार्शनिक वस्तु जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत को श्रेष्ठ मानते है और ईश्वर को अन्तिम सत्य मानते है। प्लेटो के अनुसार विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है। प्लेटो के अनुसार मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है। आत्मानुभूति के लिये वे तीन सनातन मूल्यों सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की प्राप्ति आवश्यक समझते थे इन मूल्यों की प्राप्ति के लिये नैतिक जीवन जीने पर बल देते थे। नैतिक जीवन के लिये व्यक्ति में संयम, धैर्य, ज्ञान और न्याय का होना आवश्यक है। प्लेटो के शैक्षिक विचार महान दार्शनिक और शिक्षा विद प्लेटो ने शिक्षा को मानव के विकास के लिये श्रेष्ठतम् वस्तु माना था। उन्होंने लिखा है ‘‘शिक्षा प्रथम तथा श्रेष्ठतम वस्तु है, जिसे सर्वोत्तम मनुष्य ही प्राप्त कर सकते है।’’ प्लेटो ने शिक्षा को नैतिक प्रशिक्षण की प्रक्रिया कहा है, जिसके द्वारा व्यक्ति में बुद्धिमत्ता, साहस, संयम एवं न्याय जैसे मौलिक गुणों का विकास किया जा सकता है। प्लेटो का विचार था कि संयम तथा साहस का विकास अभ्यास से होता है। अभ्यास से बुद्धि तत्व विकसित होता है ओर इसी बुद्धि तत्व पर बुद्धिमत्ता एवं न्याय जैसे सदगुण निर्भर है जिनका विकास शिक्षा के द्वारा ही किया जाना सम्भव है। प्लेटो ने शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुये लिखा है, ‘‘शिक्षा से अभिप्राय उस प्रशिक्षण से है, जो बालकों में उचित आदतों के निर्माण द्वारा सदगुण की प्रथम प्रवृत्ति उत्पन्न करता है जो जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक तुम्हें घृणा करने के लिये सदैव अग्रसित करती है, जिससे तुम्हे घृणा करनी चाहिये और उस वस्तु से प्रेम करो जिसमें तुम्हें प्रेम करना चाहिये। मेरे विचार से यही वास्तविक शिक्षा कही जायेगी।’’[1] प्लेटो ने शिक्षा के उद्देश्यों एवं कार्यों के विषय में लिखा है, ‘‘शिक्षा का उद्देश्य चक्षु को उस प्रकाश की ओर घुमा देना है, जो आत्मा में पहले से विद्यमान है। शिक्षा का समस्त कार्य आत्मा में ज्ञान को रखना नहीं है वरन् उन सर्वोत्तम गुणों को बाहर निकालना है जो आत्मा में अन्तर्निहित है और यह कार्य इसे (आत्मा को) सही लक्ष्यों की ओर निर्देशित करके हो सकता है तब शिक्षा की समस्या इसे (आत्मा को) उचित वातावरण प्रदान करना है।’’[2] इस प्रकार उपर्युक्त विचार को अनुरूप प्लेटो ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों एवं कार्यों का उल्लेख किया है- 1. राज्य की एकता की रक्षा करना। 2. गुणों अथवा नागरिक दक्षता का विकास करना। 3. सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता का विकास करना। 4. सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के प्रति प्रेम उत्पन्न करना। 5. व्यक्ति के व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास करना। 6. स्वअनुशासित व्यक्तियों को उत्पन्न करना। 7. बालकों को परस्पर तालमेल के साथ रहने के लिये शिक्षित करना। पाश्चात्य शिक्षा के इतिहास में प्लेटो ने सर्वप्रथम पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में व्यवस्थित विचार प्रस्तुत किये थे। उसने शिक्षा को दो वर्गों में विभक्त किया था-1. प्रारम्भिक शिक्षा 2. उच्च शिक्षा। प्रारम्भिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में उसने व्यायाम, खेलकूद एवं नृत्य, गणित, इतिहास, विज्ञान एवं कला को स्थान दिया था। उच्च शिक्षा के पाइ्यक्रम में गणित, ज्योतिष, संगीत, तर्क शास्त्र को प्रमुख स्थान दिया था। शिक्षण विधि के सम्बन्ध में प्लेटो ने संवाद विधि (Dialectic Method) तथा खेल विधि (Play way method) को अपनाने पर बल दिया था। प्लेटो बालकों की शिक्षा के लिये स्वतन्त्रता का पक्षधर था। वह बल प्रयोग एवं कठोर अनुशासन का प्रबल विरोधी था। उसने लिखा है, ‘‘बल प्रयोग द्वारा प्राप्त किया जाने वाला ज्ञान मस्तिष्क में स्थायी नहीं बन पाता है। अतः प्रारम्भिक शिक्षा बल प्रयोग पर आधारित न होकर एक प्रकार का मनोरंजन होनी चाहिये।’’ आदर्शवादी दार्शनिकों के विचार से मनुष्य आत्मानुभूति करने में तभी सफल हो सकता है जब उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास हो जाये। इन सबके लिये वे सामाजिक, आदर्शों, मूल्यों और सिद्धान्तों से पूर्ण उच्च सामाजिक वातावरण की आवश्यकता समझते है। यह सब विद्यालयों में ही सम्भव है। विद्यालयों में आदर्श शिक्षकों के सम्पर्क में आकर बच्चे उच्च सामाजिक आदर्शों और आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति कर सकते है। |
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निष्कर्ष |
आज के भौतिक वादी वैज्ञानिक युग में आत्म संयम एवं धैर्य जैसे गुणों के स्थान पर सुविधा सम्पन्नता जैसी भोगवादी संस्कृति को जन्म देकर समाज को विभिन्न विकारों से युक्त कर दिया है। परिणामस्वरूप आज का समाज विभिन्न आधुनिक सुख-सुविधाओं से सम्पन्न होने के बाद भी द्वेष, ईष्या, वैमनस्य, अनावश्यक प्रतिस्पर्धा जैसे दोषों के साथ ही मानसिक तनाव एवं विभिन्न शारीरिक कष्टों के विकराल स्वरूप से ग्रस्त है। जिनका समाधान प्लेटो के आदर्शवादी नैतिक एवं संयमपूर्ण जीवन द्वारा ही सम्भव है।
महान दार्शनिक प्लेटो का संयम, धैर्य, ज्ञान एवं न्याय वाली विचारधारा ही आज के युग में ‘चरित्र गया तो सब गया वाली’ विचारधारा के द्वारा वर्तमान सामाजिक दोषों एवं भ्रष्टाचार का निवारण कर सकता है।
इसके लिये एक तथ्य और आवश्यक है कि ‘शिक्षा मानव निर्माण की प्रक्रिया है।’ की अवधारणा को बाल्यावस्था से ही अपनाना होगा। क्योंकि यदि बालक को बचपन में धनार्जन की मशीन में तब्दील कर दिया तो फिर बालक के अन्दर भविष्य में शिक्षा चरित्र निर्माण की प्रक्रिया है की संकल्पना को जागृत करना कठिन ही नहीं मुश्किल हो जाता है। अतः माता-पिता, परिवार, पड़ोसी आदि बालक को संस्कारिक बालक बनाने वाले चरित्र का अनुकरण करायेगे तो फिर आज हम वास्तव में जिन गुणों से युक्त बालक को देखना चाहते है, वैसे ही बालक उत्पन्न होगे एवं जैसे बालक होगे वैसा ही समाज बनेगा। फिर प्लेटो की यह अवधारणा चरितार्थ होगी कि जिस राज्य के नागरिक जैसे होगे वह राष्ट्र भी वैसा ही होगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. ‘‘उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक’’-एस0एम0 यूनुस, डा0 कर्ण सिंह गोविन्द प्रकाशन, पेज नं0 87
2. ‘‘उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक’’-डा0 कर्ण सिंह गोविन्द प्रकाशन, पेज नं0 87
3. ‘‘उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक’’-डा0 कर्ण सिंह गोविन्द प्रकाशन, पेज नं0 87
4. ‘‘शिक्षा दर्शन’’-डा0 राम शकल पाण्डेय, विनोद पुस्तक मन्दिर आगरा।
5. ‘‘उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक’’-प्रो0 रमन बिहारी लाल, रस्तोगी पब्लिकेशन मेरठ।
6. ‘‘उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षक’’-प्रो0 रमन बिहारी लाल, रस्तोगी पब्लिकेशन मेरठ। |