|
|||||||
प्राचीन स्मृति साहित्य में प्रायश्चित्त एवं कृच्छ्रव्रत | |||||||
Atonement and Krichhravrata in Ancient Smriti Literature | |||||||
Paper Id :
17304 Submission Date :
2023-02-05 Acceptance Date :
2023-02-22 Publication Date :
2023-05-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/researchtimes.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
व्यक्ति जाने या अनजाने अनेक कर्म प्रतिक्षण करता रहता है किन्तु सामान्यतया अच्छे या बुरे कर्म की परिभाषा नहीं दी जा सकती। इसके ज्ञान हेतु विद्वानों के विचारों व आचरण तथा आचारशास्त्रों का ज्ञान आवश्यक होता है क्योंकि एक व्यवस्थित समाज का निर्माण तब ही हो सकता है, जब वह एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार व्यवहार करे।
धर्मशास्त्र में अनुचित कर्म के परिमार्जन हेतु अनेक व्यवस्थाएं दी गई हैं। उनमें एक व्यवस्था ‘प्रायश्चित्त’ की है। पाप कर्म कर लेने के उपरान्त व्यक्ति ‘प्रायश्चित्त’ के योग्य होता है। प्रायश्चित्त के सिद्धान्त में सर्वप्रथम यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य दुष्कृत्य दो प्रकार से कर सकता है ज्ञानपूर्वक एवं अज्ञानपूर्वक। ज्ञान और अज्ञान दुष्कृत्य के निर्धारण में अति महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पाप करने वाले की भावना का पापफल से प्रगाढ़ सम्बन्ध होता है। प्रायश्चित्तों में बहुत से कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। इनकी मुख्य संज्ञा ‘व्रत‘ है। व्रत प्रायश्चित्त रूप में अनिवार्य होते हैं। पाप निवारण के लिए किये जाने वाले प्रायश्चितों में विलक्षणता प्राप्त होती है। वह है- ‘‘प्रायश्चित रूप में अनुष्ठेय उपायों की विविधता‘‘। अपनी सामर्थ्यानुसार प्रायश्चित्ती उनमें से किसी भी एक या अधिक उपायों द्वारा काम्य अथवा नैमित्तिक प्रायश्चित्त अनुष्ठान कर सकता है।
|
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Knowingly or unknowingly a person keeps waiting for many deeds, but in general the definition of good or bad deeds cannot be given. Knowledge of the thoughts and conduct and ethics of scholars is necessary for its knowledge because an orderly society can be built only when it behaves according to a certain system. Many arrangements have been given in the Dharmashastras for the rectification of wrong deeds. One of them is the system of 'atonement'. After committing sinful deeds, a person is eligible for 'Prayashchitta'. In the theory of atonement, first of all, it is clear that a man can commit a bad deed in two ways, knowingly and unknowingly. Knowledge and ignorance are very important in determining the evil act because the feeling of the doer has a strong connection with the result of the sin. Many strict rules have to be followed in atonement. Their main noun is 'Vrat'. Fasting is mandatory in the form of atonement. Uniqueness is achieved in the atonement done for the atonement of sins. That is - "Variety of ritual measures in the form of atonement". According to his ability, the atonement can perform Kamya or Naimittik atonement ritual by any one or more of them. |
||||||
मुख्य शब्द | प्राचीन स्मृति साहित्य, प्रायश्चित्त, कृच्छ्रव्रते। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Ancient Smriti Literature, Atonement, Krichhravrate. | ||||||
प्रस्तावना |
धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में व्रतों का साहित्य विशाल है, इससे धर्मशास्त्रीय चिन्तन मनन की समृद्धि का ज्ञान होता है। अपनी सामर्थ्यानुसार व्यक्ति उनमें से किसी भी एक या अधिक उपायों का अनुष्ठान कर सकता है। यह शरीर धर्म के पालन का मूल है अतः शरीर प्रयत्न पूर्वक रक्षणीय है। पापी को महान कष्ट अथवा जीवन भय का सामना नहीं करना पडे़ साथ ही वह अपने अपराध के प्रति निरन्तर पश्चाताप युक्त रहे, व्यवस्था इसी प्रकार की होनी चाहिये। अतः पातक के गौरव-लघुता, कामाकामकृत्यता तथा सकृदभ्यासापेक्षा से ही सभी कृच्छ्र कल्प्य होते हैं।
|
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | 1. ‘कर्म और पुनर्जन्म‘ का सिद्धान्त प्रायश्चित्त की अवधारणा से अटूट रूप से जुड़ा है। कर्म के शुभाशुभ फल की प्राप्ति और इहामुत्र लोकों की परिकल्पना द्वारा ही मनुष्य यह आभास कर सकता है कि सम्भवतः उससे तत्-तत् अनुचित कर्म हुआ है। जिसका परिणाम इस लोक में, परलोक में अथवा अन्य जन्म में उसे ही भोगना होगा। उस परिणाम के भय से ही उसे मन की कालिमा दूर करते हुए तत्तत् प्रायश्चित्त व्रत करना चाहिये अन्यथा दारूण दुःख की प्राप्ति होगी। अतः अनुचित कर्म के परिमार्जन हेतु एक व्यवस्था है - ‘‘प्रायश्चित्त‘‘। ‘कृच्छ्रव्रत‘ उस प्रायश्चित प्रक्रिया के अंग भूत है। उनकी विशेषता प्रस्तुत करना शोधपत्र का उद्देश्य है।
2. समाज में मनुष्यों के अनेक स्तर होते हैं, उनके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक कारणों से अनेक भेद रहते हैं। सभी के समीप एक से साधन नहीं होते। अतः प्रत्येक व्यक्ति की शुद्धि हेतु एकाधिक विधियाँ धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। कृच्छ्रव्रतों की अनेक विधियों से सामाजिकों का परिचय कराना प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य है। |
||||||
साहित्यावलोकन | धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में अनेक कृच्छ्रव्रतों, उपवासों आदि का वर्णन हुआ है और उससे सम्बद्ध साहित्य अत्यन्त विशाल है किन्तु संग्रहित रूप में एक स्थान पर कृच्छ्रव्रतों का वर्णन, विवेचन एवं समीक्षा उपलब्ध नहीं होते यद्यपि महामना पी.वी.काणे ने अपने ग्रन्थ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास‘ में कृच्छ्रव्रतों का संक्षिप्त वर्णन किया है किन्तु धर्मसूत्रों, स्मृतियों, निबन्ध एवं भाष्य ग्रन्थों में उपलब्ध कृच्छ्रव्रत विषयक विपुल साहित्य पर समीक्षात्मक अध्ययन का अभाव है। धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में विभिन्न अवयवों से सम्बन्धित तथ्यों का पर्यवेक्षण, संग्रह वर्गीकरण एवं व्याख्या करते हुए उक्त दिशा में कार्य करके प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण को नवीन दृष्टि से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाये जिससे विलुप्त प्रायः कृच्छ्रव्रतों के विषय में धर्मप्राण समाज को नयी उद्भावना प्राप्त हो सके।
विचार-विमर्श की
सुदीर्घ परम्परा में वैदिक साहित्य,
रामायण, महाभारत, इतिहास-पुराण
सहित धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में प्रायश्चित्त संबंधी गम्भीर चिन्तन मनन द्वारा अनेक
सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया। इससे सम्बद्ध साहित्य अत्यन्त विपुल है।
संस्कृत धर्मशास्त्रीय वाङ्मय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता
है- सूत्रग्रन्थ, स्मृति ग्रन्थ तथा निबन्धग्रन्थ। इनमें
धर्मसूत्रों में विवाह संस्कार, छात्रों व स्नातकों से
संबद्ध नियम, श्राद्ध एवं मधुपर्क आदि की गौण रूप से विवेचना
है, किन्तु मुख्य रूप से धर्मसूत्रों के प्रतिपाद्य विषय हैं,
आचार, विधि नियम एवं क्रिया संस्कार।
गौतमधर्मसूत्र, बौधायन धर्मसूत्र, आपस्तम्ब
धर्मसूत्र आदि प्रमुख धर्मसूत्र हैं। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य
स्मृति, पराशर स्मृति आदि प्रमुख स्मृतियाँ हैं। विश्वरूप,
मेधातिथि, विज्ञानेश्वर, अपरार्क, हरदत्त आदि प्रमुख निबन्धकार हैं। उपलब्ध
धर्मशास्त्रीय वाङ्मय नाग प्रकाशन, दिल्ली, आनन्दाश्रम प्रेस, पूना इत्यादि प्रतिष्ठित
प्रकाशनों से प्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त महामहोपाध्याय डा. पी.वी.काणे का धर्मशाला का इतिहास, भाग 1-5 (.हिन्दी अनुवाद -अर्जुन चौबे कश्यप (हिन्दी संस्करण) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, सन् 1975) उल्लेखनीय ग्रन्थ है। श्रीमति उषा गुप्ता की पुस्तक ’याज्ञवल्क्यस्मृति का समीक्षात्मक अध्ययन’ प्रकाशक ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली 1998 तथा डॉ. सुधीर कुमार शर्मा की पुस्तक ’धर्मशास्त्रीय परम्परा में अपराध एवं दण्डविधान’ प्रकाशक हंसा प्रकाशन जयपुर 2012 भी उक्त अध्ययन हेतु प्रामाणिक है। इसी क्रम में बाबू साधुचरण
प्रसाद का "धर्मशास्त्रसंग्रह (हिन्दी
टीकासहित) खेमराज कृष्णदास प्रकाशन, बम्बई- 4, संस्करण 2021तथा सत्यप्रकाश शर्मा का "धर्मशास्त्र के मूलतत्व (तीन खण्ड)" न्यू भारतीय बुक कॉर्पोरेशन,
नई दिल्ली-02 प्रथम संस्करण 2021
कार्य भी उत्तम कोटि के हैं। |
||||||
मुख्य पाठ |
भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही ‘प्रायश्चित्त‘ की अवधारणा पर चिन्तन होता रहा है। सूत्रकाल तक आते-आते यह अवधारणा स्वतन्त्र चिन्तन का विषय बन गई और स्मृतिकाल में इस व्यवस्था का पूर्ण पल्लवन हुआ तथा मध्यकाल में भाष्यकारों एवं निबन्धकारांे ने इसे नये आयाम दिये। किन्तु कालकराल के हाथों भारतवर्ष की अनेक सदियाँ उथल-पुथल भरी रहीं और विपुल साहित्य एवं अनेक व्यवस्थाआंे का विनाश हो गया तथापि सम्प्रति उपलब्ध धर्मशास्त्रीय साहित्य भी अत्यंत विशाल है, जिसमें आपस्तम्ब धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र, बौधायनधर्मसूत्र, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, विष्णुस्मृति आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। धर्मशास्त्रकारों के अनुसार ‘धर्म‘ जीवन जीने के लिए सामूहिक आचरण संहिता है, जो समाज के किसी अंग और व्यक्ति के रूप में मनुष्य के कर्म एवं कृत्य को व्यवस्थापित करता है तथा उसमें क्रमशः विकास लाता हुआ उसे मानवीय अस्तित्व के लक्ष्य तक पहुँचने के योग्य बनाता है। महाभारत में धर्म की परिभाषा से इसका अर्थ और अधिक स्पष्ट हो जाता है- धारणाद् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।[1] जो धारण करता है, उसे धर्म कहते है, धर्म प्रजा को धारण करता है। अतः जो धारणा से संयुक्त है, वह निश्चय ही धर्म है। मनुष्य में स्वाभाविक ही विभाजन ही प्रवृत्ति होती है, इस विभाजन को रोकने के लिए संकल्पपूर्वक जिन आचरणों एवं नियमों का पालन किया जाता है, वह धर्म है। ऐसा धर्म जो मानव जाति के कल्याण में उपयोगी होने से विश्व का संरक्षक है, जो मानवप्रजा को धारण करता है, उसे विभाजन और दमन से रोकता है, वहीं धर्म कहलाने योग्य होता है। ऐसा धर्म मनुष्य जाति का, अन्ततोगत्वा विश्व का संरक्षक है। मनुष्य में मनुष्यता को बनाए रखने के लिए धर्म की आवश्यकता है। धर्म के नहीं होने पर मनुष्य आकाश में भटकते दिशाहीन बादलों की तरह नष्ट हो जाएगा। लोक को व्यवस्था या मर्यादा में रखने के लिए आवश्यक है। लौकिक उन्नति के साथ आत्म कल्याण होता हो, जो जीवन को संतुलित रखे, वह धर्म है। अनेक विपर्ययों एवं परिवर्तनों के चक्र में घूमते हुए यह शब्द कभी विशेषण तो कभी संज्ञा के रूप में प्रयुक्त होता रहा है तथापि यह अनेक स्थानों पर धार्मिक विधियों या क्रिया संस्कारों के रूप में प्रयुक्त हुआ है।[2] तन्त्रवार्तिक में वर्णों एवं आश्रमों के धर्मों की शिक्षा देना ही धर्मशास्त्रों का कर्त्तव्य माना गया है- सर्वधर्मसूत्राणां वर्णाश्रमधर्मोपदेशित्वात्।[3] यह धर्मशास्त्र मानवीय समाज के लिए विशिष्ट आचार संहिता है, जहाँ आचार, विधि और क्रिया संस्कार के नियमों और विधानों का समावेश और व्याख्या की जाती है। स्मार्त धर्म का ही वर्णन धर्मशास्त्रों में वर्णित है। इस स्मार्त धर्म के छः विषय हैं - 1. वर्णधर्म (प्रत्येक वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विशिष्ट आचरण के नियम), 2. आश्रम धर्म (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास के विशिष्ट नियम), 3. वर्णाश्रम धर्म (विशिष्ट वर्ण के लिए विशिष्ट आश्रम में आचरण के नियम), 4. गुणधर्म (समाज में विशिष्ट पदानुसार आचरण योग्य धर्म, यथा राजा को प्रजा की रक्षा करनी चाहिये), 5. नैमित्तिक धर्म (सूतक, प्रायश्चित्त आदि आचरण के नियम) तथा 6. साधारण धर्म (समाज में सभी मनुष्यों के आचरण योग्य यम एवं नियम)। व्यावहारिक जीवन से सीधा सम्पर्क रखते हुए धर्मशास्त्रकारों ने कुछ व्यवहारिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और उनके पालन के लिए बल दिया। धर्म के पालन हेतु पुरूषार्थ-चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की परिकल्पना की, जिसमें धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया। कृत्यों (करणीय कार्यों) के दृढ़तापूर्वक पालन को धर्म की संज्ञा दी और धर्म पालन हेतु अर्थ, काम और मोक्ष की कल्पना की। यह चारों पुरूषार्थ मनुष्य के आचारण की अवस्था विशेष के द्योतक हैं। कर्त्तव्य पालन-धर्म, धन का उपार्जन-अर्थ, कार्य करने की इच्छा/संकल्प-काम तथा उनसे उत्पन्न स्थितियों, दुरवस्थाओं, ऊहापोहों से मुक्ति अथवा मनुष्य जीवन की यायावरता से मुक्ति-मोक्ष कहे जाते हैं इनसे से किसी का महत्त्व, अन्य से कम नहीं हैं। यद्यपि कई धर्मशास्त्र धर्म को (मनुस्मति 2.224, विष्णुधर्म सूत्र 71.84, भागवत पुराण 1.2.9) तथा कौटिल्य (कौटिल्य, अर्थशास्त्र,1.7) अर्थ को अधिक महत्व प्रदान करते हैं। अन्ततः धर्मशास्त्रकारों के अनुसार उच्चतर जीवन के लिए तन और मन दोनों का अनुशासित होना परम आवश्यक है। प्रत्येक जीव वासनाओं की ओर झुकता है, अतः उन पर बल देने के स्थान पर उनके निग्रह पर बल देना चाहिए।[4] समस्त धर्मशास्त्रीय वाङ्मय यथा-धर्मसूत्र, स्मृति, निबन्ध एवं भाष्य इन्हीं षड्धर्मों की विवेचना करते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के तीन अध्याय हैं, इसमें प्रथम आचाराध्याय में वर्ण, आश्रम, वर्णाश्रम एवं सामान्य धर्म का वर्णन प्राप्त होता है, द्वितीय व्यवहाराध्याय में गुणधर्म का तथा तृतीय प्रायश्चित्ताध्याय में नैमित्तिक धर्म का वर्णन प्राप्त होता है। इस अध्याय विभाग परम्परा से प्रायः इन्हें ‘त्रीणि धर्माणि‘ भी कहा जाता है, जिससे तात्पर्य है कि धर्मशास्त्र के तीन विषय हैं- आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित्त। इनमें याज्ञवल्क्य स्मृति में प्रथम दो अध्यायों में पाँच धर्मों का वर्णन किया गया है तथा तृतीय अध्याय में आशौच, वानप्रस्थ, संन्यास एवं प्रायश्चित्त का वर्णन प्राप्त होता है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारों ने प्रायश्चित्तों का विशद वर्णन किया है। ये प्रायश्चित्त किसी ‘‘पाप के शुद्धिकरण‘ के उपायभूत हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा टीका में विज्ञानेश्वर ने प्रायश्चित्त को नैमित्तिक कर्म विशेष कहा है- प्रायश्चित्तशब्दश्चायं पापक्षयार्थे नैमित्तिके कर्म विशेषे रूढः।[5] नैमित्तिक से तात्पर्य है कि इसका उपयोग तभी होता है - जबकि उसके लिए कोई अवसर आता है और वह अवसर है- ‘‘पाप क्षय‘‘। व्यक्ति जाने या अनजाने अनेक कर्म प्रतिक्षण करता रहता है किन्तु सामान्यतया अच्छे या बुरे कर्म की परिभाषा नहीं दी जा सकती। इसके ज्ञान हेतु विद्वानों के विचारों व आचरण तथा आचारशास्त्रों का ज्ञान आवश्यक होता है क्योंकि एक व्यवस्थित समाज का निर्माण तब ही हो सकता है, जब वह एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार व्यवहार करे। धर्मशास्त्र में अनुचित कर्म के परिमार्जन हेतु अनेक व्यवस्थाएं दी गई हैं। उनमें एक व्यवस्था ‘प्रायश्चित्त’ की है। पाप कर्म कर लेने के उपरान्त व्यक्ति ‘प्रायश्चित्त’ के योग्य होता है। पाप की अनेक परिभाषाएँ धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में दी गई हैं। प्राचीनतम धर्मसूत्र गौतम में कहा गया है कि यह पुरुष कुत्सित कर्म द्वारा पाप से लिप्त हो जाता है, यथा अयाज्य के लिए याजन, अभक्ष्य का भक्षण, अकथनीय का कथन, शास्त्रविहित आचरण न करना और प्रतिषिद्ध का सेवन- अथ खल्वयं पुरूषो याप्येन कर्मणा लिप्यते यथैतदयाज्ययाजनमभक्ष्यभक्षणमवद्यवदनं शिष्टस्याक्रिया प्रतिषिद्धसेवनमिति।[6] अवान्तर काल में इन सब उदाहरणों सहित पाप की परिभाषा करने के स्थान पर केवल तीन कारण दिये गये, जिनमें सभी अनुचित व्यवहारों का समावेश हो जाता है, जिनसे व्यक्ति पतन को प्राप्त होता है- विरूद्ध कर्म का आचरण करना, शास्त्रविहित कर्म का आचरण न करना और इन्द्रिय संयम न रखना। अकुर्वन् विहितं कर्म प्रतिषिद्धानि चाचरन्। प्रायश्चित्तीयते ह्येवं नरो मिथ्यां तु वर्तयन्।।[7] पापकर्म कर लेने के उपरान्त उस पाप के निस्तारण हेतु प्रायश्चित्त करना चाहिये अथवा नहीं? इस विषय पर धर्मवेत्ताओं में प्राचीन काल से मतभेद रहा है। गौतम ने इस विवाद का उल्लेख करते हुए दोनों मत प्रस्तुत किये हैं। इनमें प्रथम मत है कि, दुष्कृत्यों के लिए प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिये क्योंकि कर्मों का क्षय नहीं होता। द्वितीय मत है प्रायश्चित्त करना चाहिये- तत्र प्रायश्चित्तं कुर्यान्न कुर्यादिति मीमांसन्ते। न कुर्यादित्याहुः। न हि कर्म क्षीयत इति। कुर्यादित्यपरम्।[8] इस विवाद का वसिष्ठ 22.1, बौधायन 3.10.2-8 आदि धर्मसूत्रकारों ने भी उल्लेख किया है। द्वितीय मत के पक्ष में धर्मशास्त्रकार चार श्रुति वाक्य प्रमाणस्वरूप उद्धृत करते हैं- प्रथम- पुनःस्तोमेनेष्ट्वा पुनः सवनमायान्तीति विज्ञायते। द्वितीय- व्रात्यस्तोमैश्चेष्ट्वा। तृतीय- तरति सर्वपाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते। चतुर्थ- अग्निष्टुताऽभिशस्यमानं याजयेदिति च।[9] इन वैदिक प्रमाणों की ओर संकेत करते हुए मनु ने भी स्वीकार किया है कि प्रायश्चित्त करने चाहियें। उन्होंने प्रायश्चित्त करने के विषय में पुनः दो मत प्रस्तुत किये हैं, जो पाप के कामतः और अकामतः होने की अवधारणा पर आधारित हैं। इनमें प्रथम है कि विद्वानों के अनुसार अकामकृत पाप प्रायश्चित्त द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं तथा द्वितीय यह है कि अन्य विद्वान् श्रुति वाक्यों को प्रमाण मानकर मानते हैं कि कामकृत पाप भी प्रायश्चित्तों द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं- अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुर्बुधाः। कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात्।।[10] प्रायश्चित्त के सिद्धान्त में सर्वप्रथम यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य दुष्कृत्य दो प्रकार से कर सकता है ज्ञानपूर्वक एवं अज्ञानपूर्वक। ज्ञान और अज्ञान दुष्कृत्य के निर्धारण में अति महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पाप करने वाले की भावना का पापफल से प्रगाढ़ सम्बन्ध होता है। कामकृत पाप भी प्रायश्चित्त से नष्ट हो जाते हैं, इस विवाद में मनु का स्पष्ट मत है कि अकामतः किया गया पाप वेदाभ्यास से शुद्ध हो जाता है तथा कामतः मोहवश किया गया पाप विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित्तों से नष्ट हो जाता है- अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुद्धयति। कामतस्तु कृतं मोहात्प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः।।[11] इस विषय में याज्ञवल्क्य का मत है कि अज्ञानकृत पाप प्रायश्चित्तों के आचरण से नष्ट हो जाते हैं और कामकृत पाप का प्रायश्चित्त कर लेने पर व्यक्ति शास्त्रवचनानुसार इस लोक में व्यवहार (शिष्ट संसर्ग) के योग्य हो जाता है- प्रायश्चित्तैरपैत्येनो यदज्ञानकृतं भवेत्। कामतोव्यवहार्यस्तु वचनादिह जायते।।[12] याज्ञवल्क्य के मत से स्पष्ट होता है कि प्रायश्चित्त कर लेने के पश्चात् भी कामकृत पाप के परिणाम अर्थात् नरकादि से मुक्ति तो नहीं होती परन्तु व्यक्ति सामाजिक संसर्ग के योग्य हो जाता है। यह याज्ञवल्क्य के इस कथन से और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि इस लोक में शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त इसलिए करने चाहिये, जिससे उस व्यक्ति का अन्तःकरण और लोक (समाज) प्रसन्न हो जाये- तस्मात्तेनेह कर्त्तव्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये। एवमस्यान्तरात्मा च लोकाश्चैव प्रसीदति।।[13] मनु ने भी कहा है कि भाग्यवश अथवा पूर्वजन्म के कारण प्रायश्चित्त संपादन के योग्य हो जाने पर द्विज को प्रायश्चित्त किये बिना सज्जनों के संसर्ग में नहीं जाना चाहिए- प्रायश्चित्तीयतां प्राप्य दैवात्पूर्वकृतेन वा। न संसर्गं व्रजेत्सद्भिः प्रायश्चित्तेऽकृते द्विजः।।[14] मनु के इस कथन से स्पष्ट होता है कि मनु भी बिना प्रायश्चित्त किये व्यक्ति को सामाजिक व्यवहार के योग्य नहीं मानते। पापी व्यक्ति के प्रति सामाजिकों का आचरण कैसा हो? इस विषय में मनु ने दृढ़ शब्दों में स्पष्ट निर्देश दिया है कि प्रायश्चित्त न करने वाले पातकियों के साथ सम्पर्क नहीं रखना चाहिये एवं प्रायश्चित्त कर लेने पर घृणा नहीं करनी चाहिये- एनस्विभिरनिर्णिक्तैन्नार्थं किंचित्सहाचरेत। कृतनिर्णेजनांश्चैतान्न जुगुप्सेत कर्हिचित्।।[15] अतः व्यक्ति को प्रायश्चित्त करना चाहिये क्योंकि व्यक्ति सामाजिक संसर्ग के योग्य हो जाता है, उसकी अन्तरात्मा भी प्रसन्न होती है एवं पाप से मुक्ति प्राप्त होती है और व्यक्ति शुद्ध हो जाता है। प्रायश्चित्त के द्वारा पश्चाताप करने वाले पापी का चित्त प्रायशः (सामान्यतः) पर्षद् (विद्वान् ब्राह्मणों की परिषद्) द्वारा विषम के स्थान पर सम कर दिया जाता है- प्रायशश्च समं चित्तं चारयित्वा प्रदीयते। पर्षदा कार्यते यत्तु प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्।।[16] इस प्रकार प्रायश्चित्त की अवधारणा पूर्णतया पाप के सिद्धान्त से जुड़ी हुई है और परिषद् द्वारा निर्दिष्ट धार्मिक कृत्यों का पालन प्रायश्चित्त है। उस निर्दिष्ट धर्म का मनसा-वाचा-कर्मणा पालन करने पर मनुष्य के पाप का निवारण होता है। किन्तु, पाप क्या है ? धर्मशास्त्रों में इसकी सर्वसम्मत परिभाषा के रूप में याज्ञवल्क्य को उद्धृत किया जा सकता है- विहितस्याननुष्ठानान्निदितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति।।[17] अर्थात् शास्त्र विहित कर्म न करने, निन्दित कर्म का आचरण करने तथा इन्द्रिय निग्रह न करने से व्यक्ति का पतन हो जाता है और पतन से रहित होने का उपाय है- मन की शुद्धि एवं दुष्कृत्य के प्रति पश्चाताप की भावना। भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने इसी भावना का विस्तार प्रायश्चित्तों में किया है और कामना की है कि व्यक्ति पाप से मुक्त हो जाये। प्रायश्चित्तों में बहुत से कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। इनकी मुख्य संज्ञा ‘व्रत‘ है। व्रत प्रायश्चित्त रूप में अनिवार्य होते हैं। पाप निवारण के लिए किये जाने वाले प्रायश्चितों में विलक्षणता प्राप्त होती है। वह है- ‘‘प्रायश्चित रूप में अनुष्ठेय उपायों की विविधता‘‘। इससे प्रायश्चित विषयक धर्मशास्त्रीय चिन्तन मनन की समृद्धि का ज्ञान होता है। अपनी सामर्थ्यानुसार प्रायश्चित्त उनमें से किसी भी एक या अधिक उपायों द्वारा काम्य अथवा नैमित्तिक प्रायश्चित्त अनुष्ठान कर सकता है। ब्रह्मचारी, स्नातक आदि सभी षड्धर्मों में संकल्पों एवं व्रतों की व्यवस्था है। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में तथा मध्यकाल के निबन्धों में इसका विपुल साहित्य प्राप्त होता है। (1) एक भुक्त (2) नक्त (3) अयाचित (4) उपवास-कायिक व्रत, (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) ब्रह्मचर्य (5) अकुटिलता-मानसव्रत तथा (1) वेदाध्ययन (2) विष्णुकीर्तन (3) सत्यभाषण (4) अपैशुन्य - वाचिक व्रत कहलाते हैं।[18] इसके अतिरिक्त (1) दान (2) अनुताप (3) दोषख्यापन (4) प्राणायाम (5) जप (6) तप (7) होम (8) तीर्थयात्रा आदि भी प्रायश्चित्त के अंगभूत (जैसा परिषद् निर्दिष्ट करे - एक या एक से अधिक) होते हैं। धर्मशास्त्रीय वाङ्मय में व्रतों का साहित्य विशाल है, इससे धर्मशास्त्रीय चिन्तन मनन की समृद्धि का ज्ञान होता है। अपनी सामर्थ्यानुसार व्यक्ति उनमें से किसी भी एक या अधिक उपायों का अनुष्ठान कर सकता है। व्रत में देवपूजा प्रमुख होती है- पूजाद्यात्मकः कर्मविशेषो व्रतम्।[19] व्रत में अपने अभीष्ट देवता का पूजन किया जाता है तथा देवता से अपनी अभिलाषा पूर्ण करने की प्रार्थना की जाती है। इसमें भोजन ग्रहण करने की दृष्टि से एकभक्त, नक्त, अयाचित अथवा उपवास में से किसी एक का पालन किया जाता है। व्रतों में भोजन के नियमों की अनेक व्यवस्थाएं दी गई हैं, जिनमें अल्प मात्रा में भोजन करके शरीर को क्लेश पहुंचाने तथा मानसिक रूप से अपने पाप के प्रति ग्लानि का अनुभव करने के उपरान्त व्यक्ति शुद्ध मान लिया जाता है। अमरकोश में ‘कृच्छ्र‘ शारीरिक दुःख के लिए प्रयुक्त हुआ है।[20] तथा सान्तपन आदि कालिक (निश्चित अवधि युक्त) व्रतों को ‘कृच्छ्र‘ कहा है।[21] धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रायश्चित्त के लिए ‘कृच्छ्र‘ एक सामान्य शब्द है। कृती (कृत्+इनि, कृतकार्य, संतुष्ट, सफल पवित्र, पावन) से रक् और उसे छ आदेश करने पर ‘कृच्छ्र‘ शब्द निष्पन्न होता है। ‘कृच्छ्र‘ शब्द का अर्थ है शारीरिक तप, तपस्या, प्रायश्चित्त।[22] कृच्छ्र व्रत कष्ट साध्य होते है, अतः धर्मशास्त्रज्ञ ब्राह्मण अपराधी की अवस्था, शक्ति तथा काल को देखकर प्रायश्चित्त का निर्णय करते हैं। वस्तुतः प्रायश्चित्त इस प्रकार का होना चाहिये जिसमें प्राणों की हानि न हो और पाप निवारण हो जाये। यह शरीर धर्म के पालन का मूल है अतः शरीर प्रयत्न पूर्वक रक्षणीय है। पापी को महान कष्ट अथवा जीवन भय का सामना नहीं करना पडे़ साथ ही वह अपने अपराध के प्रति निरन्तर पश्चाताप युक्त रहे, व्यवस्था इसी प्रकार की होनी चाहिये। अतः पातक के गौरव-लघुता, कामाकामकृत्यता तथा सकृदभ्यासापेक्षा से ही सभी कृच्छ्र कल्प्य होते हैं। प्रायश्चित्तभूत कृच्छ्रादिव्रतों में यम नियमों का पालन करना अति आवश्यक है। याज्ञवल्क्य के अनुसार वे यम नियम इस प्रकार हैं- ब्रह्मचर्यं दया क्षान्तिर्दानं सत्यमकल्कता। अहिंसाऽस्तेयमाधुर्ये दमश्चेति यमाः स्मृताः।। स्नानं मौनोपवासेज्यास्वाध्यायोपस्थनिग्रहाः। नियमा गुरुशुश्रूषा शौचाक्रोधाप्रमादता।।[23] ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा, दान, सत्य, सरलता, अहिंसा, अचौर्य, माधुर्य, दम (इन्द्रिय निग्रह)-ये यम कहे जाते हैं। स्नान, मौन, उपवास, यजन, स्वाध्याय, उपस्थ (जननेन्द्रिय) का निग्रह, गुरुसेवा, पवित्रता, अक्रोध और अप्रमाद-ये सभी नियम कहे जाते हैं। मनु ने प्रायश्चित्त के अनुष्ठान में आचरण योग्य सामान्य निर्देश दिये हैं, जो इस प्रकार हैं- महाव्याहृतिभिर्होमः कर्त्तव्य स्वयमन्वहम्। अहिंसा सत्यमक्रोधमार्जवं च समाचरेत्।। त्रिरह्नस्त्रिर्निशायां च सवासा जलमाविशेत्। स्त्रीशूद्रपतितांश्चैव नाभिभाषेत कर्हिचित्।। स्थानासनाभ्यां विरहेदशक्तोऽधःशयीत वा। ब्रह्मचारी व्रती च स्याद् गुरुदेवद्विजार्चकः।। सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः। सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थमादृतः।।[24] सभी प्रायश्चित्तों में महाव्याहृतियों के साथ प्रतिदिन होम करना चाहिये। पापी को अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ऋजुता का पालन करना चाहिये। दिन में तीन बार तथा रात्रि में तीन बार वस्त्रों सहित स्नान करना चाहिये। स्त्री, शूद्र तथा पतितों के साथ बात नहीं करनी चाहिये। दिन में खड़े रहना चाहिये तथा रात्रि बैठ कर बितानी चाहिये, यदि ऐसा करने में अशक्त हो तो पृथिवी पर सोना चाहिये। ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। गुरुजनों, देवों और ब्राह्मणों की अर्चना करनी चाहिये। निरन्तर यथाशक्ति गायत्री तथा पवित्र मन्त्रों का जप करना चाहिये। यही व्यवस्था अन्य धर्मशास्त्रकारों ने भी दी है। |
||||||
निष्कर्ष |
सान्तपन, यति सान्तपन, ब्रह्मकूर्चव्रत, पराक, पादकृच्छ्र, प्राजापत्यकृच्छ्र, अतिकृच्छ्र, कृच्छ्रातिकृच्छ्र, तप्तकृच्छ्र, शीतकृच्छ, वैदिककृच्छ्र, पर्णकृच्छ, पर्णकूर्च, उदक कृच्छ्र, मूलकृच्छ, श्रीफलकृच्छ, सौम्यकृच्छ, चान्द्रायण, यावककृच्छ्र, कृच्छ्रसंवत्सर आदि अनेक कृच्छ्र व्रतों की विधियों का वर्णन प्राप्त होता है ।
इन व्रत विधियों में अनेक स्थानों पर विधि अथवा काल को लेकर मत वैभिन्य भी प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक धर्मशास्त्रकार के अपने काल में पातक-गुरुत्व भिन्न भिन्न रहा। अतः उन्होंने उस समय प्रचलित अथवा परम्परा से प्राप्त व्रतों की व्यवस्था दी अथवा दोष गुरुत्व के अनुसार स्वयं अपना मत भी प्रस्तुत किया। अतः जिन व्रत विधियों में विकल्प उपलब्ध होता है, वहाँ जातिशक्तिगुणापेक्षा से किसी भी एक विधि का प्रयोग करना चाहिये। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. महाभारत, शान्तिपर्व, 109.111
2. ऋग्वेद 1.22.18; 5.26.6; 7.43.24; 9.64.1
3. तन्त्रवार्तिक, पृष्ठ 237
4. मनुस्मृति 5.5
5. याज्ञवल्क्य स्मृति 3.220/पर मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर
6. गौतमधर्मसूत्र 3.1.2
7. महाभारत, शांतिपर्व, 34.2
8. गौतम धर्मसूत्र 3.1.3-6
9. गौतमधर्मसूत्र, 3.1.7-10
10. मनुस्मृति, 11.45
11. मनुस्मृत्ति, 11.46
12. याज्ञवल्क्य स्मृति, 3.226
13. याज्ञवल्क्य स्मृति, 3.220
14. मनुस्मृति, 11.47
15. मनुस्मृति, 11.190
16. पराशरमाधवीय, 2, भाग 1 पृष्ठ 3
17. याज्ञवल्क्य स्मृति 3.219
18. पद्म पुराण 4.84.42-44
19. श्रीकाशीनाथ उपाध्याय धर्मसिन्धुः, प्रथम परिच्छेद, कर्म के भेद, पृ०-17
20. (अमर कोश, नरकवर्ग 9.3-4 पृष्ठ 0-45)
21. (अमरकोश, ब्रह्मवर्ग, 7.52)
22. (वामन शिवराम आप्टे, पृष्ठ-295)
23. याज्ञवल्क्य स्मृति, 3.312-313
24. मनुस्मृति, 11.223-226 |