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अभिजन और नगरीय राजनीति स्वाधीनता से पूर्व और स्वाधीनता के बाद के कालखंड में स्थानीय अभिजन राजनीति का तुलनात्मक विश्लेषण | |||||||
Elite and Urban Politics Comparative Analysis of Local Elite Politics In Pre-Independence and Post-Independence Period | |||||||
Paper Id :
17468 Submission Date :
2023-03-08 Acceptance Date :
2023-03-21 Publication Date :
2023-03-25
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सारांश |
समाज में शक्ति विभाजन से संबंधित सिद्धांतों में अभिजन का विशेष स्थान है। अभिजन सिद्धांत के परंपरागत दृष्टिकोण में उसे किसी भी समाज के लिए अपरिहार्य माना गया है किंतु इसके विरुद्ध मार्क्सवादी दृष्टिकोण में उसके अस्तित्व को पूरी तरह नकार देने का उपक्रम किया गया है। नव मार्क्सवादियों ने मार्क्सवादी और बहुलवादी दोनों ही दृष्टिकोणों को अस्वीकार करते हुए समकालीन वास्तविकता को समझने हेतु मध्यम मार्ग का अनुसरण किया है। अभिजन निर्माण प्रक्रिया में कुछ सामाजिक और आर्थिक कारकों की भूमिका तथा समाज के लिए उनकी अपरिहार्यता के प्रश्न पर अभिजन सिद्धांतविदो में परस्पर मतभेद है। इस परिदृश्य के विपरीत किसी भी अभिजन अध्ययन का मुख्य विषय अभिजन समूहों का निर्माण तथा मूल्य संदर्शाे के रूप में उनके सदस्यों का अभिमुखीकरण है। अभिजन के ढांचागत पहलू के स्तरीकरण का आधार जो न्यूनाधिक रूप में समाज में उपलब्ध है,को अभिजन निर्माण के रूप में देखा जा सकता है,यद्यपि इसका स्वरूप परिवर्तनशील है जो कभी भी बदल सकता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Contrary to this scenario, the main subject of any elite study is the formation of elite groups and the orientation of their members in terms of value perspective. The basis of stratification of the structural aspect of elite which is more or less available in the society, can be seen as elite formation, although its nature is variable which can change anytime. | ||||||
मुख्य शब्द | अभिजन, नगर राजनीति, स्वाधीनता संग्राम पर आधारित राजनीतिक आचरण, स्थानीय स्वशासन, राजनीतिक दृष्टिकोण में अभिजन आदि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Elite, Urban Politics, Political Conduct Based On Freedom Struggle, Local Self-Governance, Elite In Political Outlook etc. | ||||||
प्रस्तावना |
भारत में नगरों और नगरीय राजनीति का क्षेत्र अन्वेषणात्मक है। स्थानीय सरकारों की प्रायः उपेक्षा ही होती रही है। उन्हें राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के न तो कोई विशेष प्रयास हुए हैं और न ही नए उत्तरदायित्वों के बढ़ते हुए क्षेत्र के अनुरूप उन्हें अपने आपको तैयार करने हेतु उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन ही मिला है। इसीलिए वह समाज में नित्य प्रति होने वाले परिवर्तनों की चुनौती का सामना कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाते रहें हैं। प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य देश के स्थानीय राजनीतिक अभिजनों के चरित्र एवं भूमिका में परिवर्तन संबंधी मुख्य मुद्दों को उठाना तथा स्थानीय नागरिकों को जन सुविधाएं उपलब्ध कराने में राजनीतिक अभिजनों की क्षमता, कार्यशैली और कर्तव्य बोध का विस्तृत परीक्षण करना है। इसके अंतर्गत समाज की परंपरागत संरचना, राजनीतिक दलों और आम नागरिकों के सामान्य व्यवहार में आए नवीन परिवर्तनों एवं स्थानीय सरकारों के प्रति राज्य प्रशासन के रूढ़िवादी एवं अपरिवर्तनीय दृष्टिकोण से उत्पन्न समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में, स्वाधीनता पूर्व एवं स्वाधीनोत्तर भारत की नगरीय राजनीति में स्थानीय राजनीतिक अभिजनों की भूमिका का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयत्न किया गया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोध प्रबंध में भारतीय राजनीति कि अभीजनवादी प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए स्थानीय स्तर पर पैदा हो रहे नए अभिजन कालखंड का लेख प्रस्तुत किया गया है। साथ ही ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अभिजन राजनीति का तुलनात्मक विश्लेषण वर्तमान परिपेक्ष को पंचायती राज व्यवस्था से जोड़ते हुए प्रस्तुतीकरण दिया गया है। |
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साहित्यावलोकन | आर0 शर्मा जगमोहन लीडरशिप इन अर्बन गवर्नमेंट नामक पुस्तक में
स्थानीय स्तर पर राजनीतिक विश्लेषण का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करते हुए भारतीय राजनीति
में स्थानीय स्तर पर पैदा हो रही नई अभिजन वादी प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण किया
गया है। रिचर्ड कॉल द्वारा लिखित
पुस्तक सिटीजंस पार्टिसिपेशन एंड द अर्बन पॉलिसी नामक पुस्तक में पश्चिमी सभ्यता
में विकसित हो रही नगरीय अभिजनवादी प्रवृत्तियों का उल्लेख प्रस्तुत किया गया है।
इसी के प्रभाव को भारतीय लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण पर सैद्धांतिक विश्लेषण के रूप
में निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है। साथ ही व्यवहारिक दृष्टिकोण पर भारत
में विकसित हो रही राजनीतिक प्रवृत्तियों को स्थानीय स्तर से जोड़कर दर्शाया गया
है। एस0एन0 मिश्रा द्वारा लिखित पुस्तक लीडरशिप इन अर्बन
गवर्नमेंट ए केस स्टडी इन ऑर्गेनाइजेशन एंड पॉलीटिकल बैकग्राउंड ऑफ अर्बन लीडरशिप
के माध्यम से भारतीय राजनीति में स्थानीय स्तर पर पैदा हो रही नेतृत्व की क्षमता
का विश्लेषणात्मक प्रस्तुतीकरण दिया गया है। जिसमें स्थानीय स्तर की राजनीति के
कुछ सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों का प्रस्तुतीकरण देते हुए व्यवहारिक राजनीतिक
दृष्टिकोण के लोकतंत्र को प्रस्तुत किया है।
प्रस्तुत शोध पत्र को
समाधान स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिए अर्बन एलिट मेकैनिज्म फॉर सुपरविजन
कंट्रोल ओवर द मीन सिंपल बॉडीज प्रपोजल , नॉन डिसीजन एंड द स्टडी ऑफ लोकल पॉलिटिक्स, स्टेट कंट्रोल ओवर द म्यूजिकल बॉडी आदि पुस्तकों का अध्ययन प्रस्तुत करते हुए
विवेचनात्मक विश्लेषण की प्रस्तुति दी गई है। |
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मुख्य पाठ |
राजनीतिक अभिजनः अवधारणा की व्याख्या अभिजन से तात्पर्य उस
अल्पसंख्यक वर्ग से लिया जाता है जिसने अपनी श्रेष्ठता द्वारा अपने आपको शेष समाज
से अलग कर लिया है। राजनीति शास्त्रियों द्वारा राजनीतिक क्षेत्र में नेतृत्व की
सर्वमान्य धारणा को अभिजन, राजनीतिक अभिजन, शक्ति अभिजन, प्रभावशाली अभिजन, निर्णयकर्ता अभिजन आदि नामों से संबोधित किया जाता है। विद्वानों द्वारा
समय-समय पर की गई टिप्पणियों और वरीयताओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न वैचारिक
अस्तव्यस्तता तथा अस्पष्टता से अभिजन की अवधारणा को पर्याप्त क्षति हुई है। फिर भी
आज का सामान्य विचार अभिजन ही है। समाज में कुछ लोग विशिष्ट
होते हैं और उनका समाज से पृथक एक अलग वर्ग होता है। ये लोग अपना अलग से तबका बना
लेते हैं। सामान्यतया समाज में इन्ही सम्पन्न एवं सम्भ्रांत लोगों को अभिजन कहा
जाता है।ये लोग अपनी आर्थिक स्थिति, सामाजिक श्रेष्ठता और जातीय उच्चता के कारण राजकीय कार्य करने वालों के निकट
रहते हैं। इसके कारण इनको समाज के अभिजन वर्ग मे सम्मिलित मान लिया जाता रहा है। यह
अभिजन वर्ग का व्यापक अर्थ है। राजनीतिक अभिजन एक सीमित अर्थ वाली धारणा हैं।
इसमें आर्थिक , सामाजिक
तथा धार्मिक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले श्रेष्ठजन नहीं
आते हैं । राजनीतिक अभिजन का सम्बन्ध उन
लोगों से है जो राजनीतिक व्यवस्था के संचालन और उसकी निर्णायकारिता से प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रुप से संबंध रखते हैं। इसीलिए राजनीतिक अभिजन को राजनीतिक व्यवस्था
के निर्णयकर्ता कहा गया है। राजनीतिक अभिजन समाज के सर्वोच्च
सत्ता केंद्र राजनीतिक व्यवस्था से संबंध रखते हैं। इस अर्थ में वे सभी महत्त्वपूर्ण
निर्णय लेने वाले और उन्हें कार्यान्वित करने वाले शीर्ष के नेता होते हैं। समाज
में उनका सम्मान होता है और वितरण के समस्त साधनों पर उनका प्रभावी नियंत्रण होता
है। वे लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व एवं नेतृत्व करते हैं। इस रूप में वे
समाज के अन्य लोगों से अलग हो जाते हैं। विकासशील भारतीय समाज और नगरीय राजनीति भारत में राजनीतिक
प्रक्रिया का प्रारंभ संवैधानिक एवं बाह्य राजनीतिक ढांचे से होता है । यह अभिजन
वर्ग के कार्यों के माध्यम से विभिन्न सामाजिक स्तरों से होती हुई चरणबद्ध ढंग से
नीचे से ऊपर की ओर अग्रसर एक नवीन मिश्रित ढांचे को जन्म देती है। राजनीतिक अभिजन एवं
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को इसी एकीकरण एवं अनेकीकरण की प्रक्रिया के रचनात्मक
कार्यकर्ताओं के रूप में देखा जा सकता है। नए अनुभागों को शामिल करके
समाज में शक्ति के क्षेत्र का विस्तार हो रहा है।
भारत में राजनीति एक छोटे से कुलीन तंत्र तक सीमित नहीं है। उसका एक विस्तृत ढांचा है जिसमें आर्थिक विकास
और सामाजिक परिवर्तन से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं। भारत जैसे समाज में राजनीति
जिस क्षेत्र को आच्छादित करती है उसमे वह शक्तिशाली होती है। राजनीति का सार सत्ता की औपचारिक संस्थाओं को
अभिजन के समाजीकरण और संयुक्त सरकार के निर्माण के आदर्श के रूप में देखना
है। यह सच है कि राजनीति का संस्थागत रूप
स्वयमेव गतिशील होता है और समाज में वह अपना लक्ष्य और साधन स्वयं प्राप्त कर लेता
है। इस प्रकार सामाजिक वास्तविकता उनके
नियंत्रण के क्षेत्र में अधिकाधिक आती जाती है। भारत में अभिजन का सामाजीकरण और सामाजिक समूहों का राजनीतिकरण दोनों परस्पर
मिश्रित तथा अपृथकनीय अवधारणाएं हैं। राजनीतिक प्रणाली की वैधता मुख्य रूप से सामाजिक आकृति एवं परिचय के
राजनीतिक परिनिर्माण पर निर्भर करती है। इस संदर्भ में निम्नलिखित
दो बिंदु विचारणीय हैं- 1. आज का भारत जिस आदर्श पर
खड़ा है वह एक खुली राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में एक प्राचीन और बहुलवादी समाज
के आधुनिकीकरण से संबंधित है 2. ऐसी व्यवस्था के अधीन
विकास के परंपरागत लक्ष्यों को जैसे आर्थिक विकास की भूमिका, सामाजिक विकास से संबद्ध खर्चों की सीमा, नवीन विचारों एवं मूल्यों का विस्तार आदि राजनीतिक प्रणाली
की उपलब्धियों तथा उसके विभिन्न तत्वों को एकीकरण द्वारा विकास के सामान्य ढांचे
में समाहित करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
भारतीय समाज में अभिजनों की
भूमिका एवं कार्य बोध की पर्याप्त उपयोगिता
रही है। अभिजनों के निर्णय से आलोचनात्मक निवेश का निर्माण हुआ है। जिसे भारतीय
राजनीतिक प्रक्रिया के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इसके प्रवेश और
संस्थाकरण के बावजूद भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की सफलता-असफलता, बौद्धिक अभिजन और राजनीतिक प्रशासन की गुणवत्ता और रचनात्मक
दृष्टिकोण मुख्य रूप से अभिजन की इस क्षमता पर निर्भर करता है कि वह यथार्थ के
परिवर्तनशील स्वरूप का कहां तक ध्यान रखता है। इन परिवर्तनों का उत्तर
नीतिगत प्रक्रिया के निर्माण, राजनीतिक
परिवर्तन की गतिशीलता एवं मिश्रित सरकार के विभिन्न अंगों की मानसिक तत्परता और
उनकी तुलनात्मक स्थिति में बदलाव द्वारा दिया जा सकता है। भारतीय समाज की परंपरागत
संरचना में जाति और धर्म जाति और व्यवसाय भारतीय समाज में जाति और
व्यवसाय का संबंध अटूट रहा है। इसीलिए कहा
जाता है कि जाति कुछ नहीं है समाज में विद्यमान व्यावसायिक विभिन्नता का स्थायीकरण
मात्र है। किंतु यह बात निर्विवाद रूप से नहीं कही जा सकती है कि किसी जाति विशेष
का हर व्यक्ति सदैव अपना परंपरागत व्यवसाय ही अपनाता है। जनसंख्या वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में जाति व्यवस्था का व्यवहारिक
पक्ष पूरी तरह टूट गया होता यदि समाज के शिल्पकार, व्यापारी और सेवी वर्ग के अधिशेष लोग कृषि में समाहित न कर लिए गए होते अथवा
वे जो रोजी-रोटी की तलाश में अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित न हो गए होते। फिर भी
प्राचीन समाज में लोगों में अपना परंपरागत व्यवसाय अपनाने की प्रवृत्ति विद्यमान
रही है और महिलाएं भी अपने पैतृक व्यवसाय में घर के पुरुषों का हाथ बटाती रही हैं।
व्यवसायों का वर्गीकरण भी जाति के आधार पर
उच्च एवं निम्न श्रेणी में किया गया है। जो व्यवसाय उच्च वर्ग के हाथों में
होते थे उन्हें उच्च कहा जाता था और जो व्यवसाय निम्न वर्ग के हाथों में होते थे
और शारीरिक श्रम पर आधारित होते थे उन्हें निम्न माना जाता था जैसे सूअर पालन और
कमाई गिरी को निम्न शैली के व्यवसायों में गिना जाता था। मुस्लिम समुदाय में केवल
शिल्पकार यथा तेली, दर्जी और बुनकर आदि ही अपना पैतृक व्यवसाय करते
थे शेष लोग नहीं। समाज के लोग केवल
व्यावसायिक आधार पर ही नहीं वरन भोजन जो वे खाते थे, वस्त्र और गहने जो वे धारण करते थे तथा रीति-रिवाज जिनका वे पालन करते थे, के आधार पर भी उच्च एवं निम्न वर्ग में विभाजित थे। सवर्ण जातियां शूद्रों के हाथ का पकाया हुआ
भोजन ग्रहण नहीं करती थी। जिन जातियों में
परस्पर हुक्का पानी के संबंध होते थे वह
समान समझी जाती थी। मुस्लिम समुदाय में क्योंकि एक दूसरे के हाथ का बना खाना पानी
स्वीकार होता था अतः उनमें परस्पर ऊंच-नीच का व्यवहार नहीं था श्रेष्ठता क्रम की दृष्टि
से हिंदू समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्णों में विभक्त था। इसमें प्रथम तीन सवर्णों की श्रेणी
में आते थे। ब्राह्मण वर्ग दोनों वर्गों के हाथ का बना खाना तो स्वीकार कर सकता था
किंतु कच्चा खाना नहीं। शेष दोनों वर्गों में एक दूसरे के हाथ का पकाया हुआ भोजन
स्वीकार करने की परंपरा थी। शूद्रों को
अस्पृश्य माना जाता था और उनका छुआ हुआ भोजन व पानी सवर्ण ग्रहण नहीं करते थे। शूद्रों
में भी आपस में छुआछूत की भावना पाई जाती थी और वे भी एक दूसरे के हाथ का पकाया
हुआ भोजन ग्रहण नहीं करते थे। शूद्रों के लिए गांव के कुएं में पानी भरना और मंदिर
तथा धार्मिक स्थलों में प्रवेश वर्जित था। धर्म और राजनीति समाज के राजनीतिक जीवन में
धर्म की भूमिका लगभग जाति के समकक्ष ही महत्वपूर्ण रही है। भारत में मुस्लिम लीग
की स्थापना की अंतिम परिणति पाकिस्तान राज्य के निर्माण एवं विभाजन काल के
हिंदू-मुस्लिम दंगों के रूप में हुई जिसके कारण उत्तर भारत में लाखों लोग बेघर हो
गए और लाखों निर्दाेष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इसके बावजूद कुछ क्षेत्र
ऐसे थे जहां विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द एवं भाईचारा कायम रहा , भले ही कुछ
स्थानीय मामलों को लेकर उनके बीच कुछ मतभेद उभर कर सामने आए हो किंतु उन्हें दो
जातियों या दो गांवों के बीच आपसी झगड़ों से अधिक नहीं माना जा सकता जो कि उनके
मध्य मैत्री संबंधों के बावजूद होते रहते हैं।
सामान्य रूप से मुसलमान
स्वभाव से रूढ़िवादी होने के कारण अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने में पिछड़ गए
और सरकारी नौकरियों तथा आधुनिक व्यवसायों में भागीदारी से वंचित रह गए। इस
कमी को दूर करने के लिए सर सैयद अहमद खां ने अलीगढ़ मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज
की स्थापना की जो कि आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ।
इसके अतिरिक्त अखिल भारतीय हिंदू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दो अन्य ऐसे
धार्मिक संगठन थे जिनका उद्देश्य हिंदू संस्कृति तथा हिंदू राष्ट्र का हित संवर्धन
था। आर एस एस ने ड्रिल और प्रशिक्षण
द्वारा अपने पैरामिलिट्री चरित्र का परिचय दिया। आज उसकी सैनिक शाखा में शिवसेना, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे सैन्य संगठन शामिल है। भारतीय समाज में ढांचागत परिवर्तन और अभिजन राजनीति सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन स्वतंत्रता के पश्चात
भारतीय समाज में ढांचागत परिवर्तन का सूत्रपात हुआ विभिन्न जातियों द्वारा अपने
परंपरागत व्यवसाय को अपनाने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ। जातीय एकाधिकार से युक्त
एक बड़ी संख्या में कुछ नए व्यवसायों का सृजन हुआ। यह नव उद्यमी उस वर्ग से आए
जिसने अनाज, सराफा तथा अन्य वस्तुओं के लाभदायक व्यापार पर
एकाधिकार द्वारा पर्याप्त संपन्नता अर्जित कर ली थी। सरकारी नौकरियों में हरिजनों
के आरक्षण की शासकीय नीति ने भी कुछ सीमा तक सफाई और चमड़ा व्यवसाय से संबंधित
श्रमिकों को अपने परंपरागत व्यवसाय से मुक्ति दिलाने में सहायता की। समाज का उच्च
वर्ग अब भी उच्च शासकीय व सैनिक पदों तथा वाणिज्य व्यापार के क्षेत्र में वर्चस्व
बनाए रखने में सफल रहा। भारतीय संविधान ने स्वतंत्र
भारत में जातियों को नए सिरे से सवर्ण , अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति में वर्गीकृत किया है।
इस नवीन वर्गीकरण में धर्म व परंपरागत हिंदू वर्ण व्यवस्था की उपेक्षा कर दी गई
है। राजनीतिक परिवर्तन यह सत्य है कि लोकतांत्रिक
विकेंद्रीकरण (पंचायती राज) तथा सामुदायिक विकास योजनाओं का लाभ अधिकांशतः समाज के
निर्धन व कमजोर वर्गों के स्थान पर स्थानीय रूप से प्रभावशाली एवं सक्षम जातियों
को ही मिला। इसीलिए उनमें धीरे-धीरे यह भावना घर कर गई कि आर्थिक व अन्य रूपों में
वे उच्च जातियों के समकक्ष कहीं नहीं है। औद्योगीकरण और नगरीकरण ने अस्पृश्यता की
भावना को कमजोर अवश्य किया है। पाश्चात्य शिक्षा के संपर्क से जहां समाज के
बुद्धिजीवी वर्ग में उदारवाद, लोकतंत्र और
धर्मनिरपेक्षता के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ है वही सार्वभौमिक मताधिकार लागू होने
से निम्न जातियों का भी भारतीय राजनीति में महत्व बढ़ा है और उसके कारण ऊंच-नीच की
भावना शिथिलता को प्राप्त हुई है। आज सभी राजनीतिक दल न्यूनाधिक रूप में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता की बात करते हैं। शासन के स्तर
पर भी इन वर्गों के उत्थान हेतु उठाए गए कदमों से उनके विकास में सहायता अवश्य
मिली है सांस्कृतिक परिवर्तन सार्वभौमिक मताधिकार ने
समाज के कमजोर एवं पिछड़े वर्गों में भी एक नई राजनीतिक चेतना उत्पन्न की है और
उन्हें सत्ता में भागीदारी करने का अवसर प्रदान किया है। नगरों के सीमावर्ती
क्षेत्रों में अनेक ऐसे गांव हैं जो उसके विस्तार के साथ-साथ उस में विलीन होते
चले गए हैं। परिणामस्वरुप उनकी जमीनें उनके हाथ से निकल गई है और उन्हें दूध बेचने
से मजदूरी करने तक के रूप में काम करने को मजबूर होना पड़ा है। शहर के इन ग्रामीणों
तथा नगर के अन्य क्षेत्रों में बसे हुए लोगों के रहन-सहन और जीवन शैली में पर्याप्त भौतिक विषमता देखने को मिलती है।
परंपरागत नगरीकरण और आधुनिक नगरीकरण में भी अंतर स्पष्ट है। महिलाओं की
स्थिति यह लोकप्रिय विश्वास कि
नगरीकरण, पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप शहर
में रहने वाली भारतीय महिलाओं को ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की अपेक्षा अधिक
अधिकार एवं स्वतंत्रता प्राप्त हुई है,
विशेष रूप से, समाज के अति विकसित उच्च वर्ग के लिए भले ही सच हो किंतु सामान्य वर्ग की
महिलाओं के संदर्भ में यह लागू नहीं होता। स्थानीय समाज की सामाजिक और
आर्थिक भिन्नता ने राजनीतिक अभिजनो की भर्ती में सदैव निर्णायक भूमिका अदा की है।
स्थानीय स्तर पर जाति, धर्म सामाजिक रुतबा और भाषा का हमेशा से प्रमुख
स्थान रहा है। फिर भी आम जनता के बीच लोकप्रियता शीर्ष नेतृत्व के साथ संबंध और
उसके समर्थन के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। |
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निष्कर्ष |
स्थानीय राजनीतिक अभिजन अनेक शक्तियों द्वारा समाजीकृत एवं संचालित होते हैं। उनके उद्देश्य परस्पर भिन्न-भिन्न और कभी-कभी परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं। राष्ट्रीय आदर्शों के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रायः आत्मपरक एवं व्यक्तिगत होता है। स्थानीय राजनीतिक अभिजन , उनकी राजनीतिक संबद्धता एवं विचारधाराओं के बावजूद वहां का प्रशासन सामान्यता दलगत आधार पर संचालित नहीं होता था। स्वाधीनता पूर्व काल में कुछ थोड़े समय को छोड़कर अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के अतिरिक्त कोई दूसरा राजनीतिक दल ही नहीं था और म्यूनिसिपल राजनीति में जो लोग सक्रिय थे वे कलेक्टर के मुलाकाती, अभिजात्य वर्ग एवं ब्रिटिश राज्य के भक्त होते थे । अतः उस समय दलगत आधार पर नगरीय राजनीति के संचालन का प्रश्न ही नहीं पैदा होता था किंतु ब्रिटिश शासन के अंतिम वर्षों में स्थानीय राजनीति कांग्रेस पार्टी के प्रभाव में कार्य करने लगी थी और कुछ समय के लिए स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित समस्त गतिविधियों का केंद्र बिंदु बन गई थी।
स्थानीय निकायों में जो प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरता है, अपनी धार्मिक संबद्धता के बावजूद धर्मनिरपेक्षता तथा सभी धर्मों की समानता के प्रति सम्मान प्रकट करता है। चूंकि राजनीतिक अभिजनों का संबंध समाज के प्रतिष्ठित एवं दबंग वर्ग से होता है और सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में उनकी स्थिति रुतबे की होती है। अतः उसके और जनसामान्य के बीच एक अंतर उत्पन्न हो जाता है। राजनीतिक अभिजन निर्वाचको के साथ अपना संपर्क बनाए रखने के लिए राजनीतिक संप्रेषण को एक युक्ति के रूप में प्रयोग करते हैं। ऐसी कई प्रकार से कार्य करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे उनसे सामाजिक समारोहों में मुलाकात करके तथा उनके पारिवारिक एवं संपत्ति संबंधी विवादों को सुलझा करके। चुनाव बाद के क्रियाकलापों की दृष्टि से स्थानीय राजनीतिक अभिजनों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
उपर्युक्त राजनीतिक विकृतियों को दूर करने हेतु आवश्यक है कि समस्त राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व अपनी अपनी सोच में परिवर्तन लाएं। चुनावों में योग्य ईमानदार जनहित में विश्वास रखने वाले श्रेष्ठ जनों को ही पार्टी का टिकट दे। राजनीतिक दलों तथा सभासदों के लिए आवश्यक आचार संहिता का निर्माण हो और उन सब के लिए उनका पालन अनिवार्य बनाया जाए। राजनीतिक अभिजन अपनी अंबुज मानिक भूमिका के महत्व को समझे और उसे उचित अंजाम दें। सभासद अपनी-अपनी निर्वाचको के साथ निरंतर संवाद की स्थिति बनाए रखें। स्थानीय जनता को भी राजनीतिक दृष्टि से जागरूक बनाया जाए और स्थानीय सरकारों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए। प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय सरकारें स्थानीय सरकारों को अपना प्रतिद्वंदी न मानकर उनके प्रति सहयोग और समर्थन का दृष्टिकोण अपनाएं। शासक अभिजन स्वयं को जनता का स्वामी न समझ कर उसका सेवक समझे। ऐसा होने पर नगरीय राजनीति में निश्चित रूप से एक नवीन वातावरण का सृजन होगा जिसमें स्थानीय राजनीतिक अभिजन भी अपनी भूमिका को सही अंजाम देने में सफल होने की आशा कर सकेंगे। |
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