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गिरिजाकुमार माथुर के काव्य शिल्प पर छायावादी प्रभाव | |||||||
Shadowist Influence on Poetic Craft of Girija Kumar Mathur | |||||||
Paper Id :
17294 Submission Date :
2023-03-19 Acceptance Date :
2023-03-22 Publication Date :
2023-03-25
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सारांश |
शिल्प अंग्रेजी के (टेकनीक) शब्द का पर्याय है, जिसका अर्थ है- ढंग, विधान या शैली। कला के क्षेत्र में शिल्प भावाभिव्यक्ति का एक प्रकार है। शिल्प का लक्ष्य अनुभूति को सम्प्रेषित करना है। जिस स्तर का उसका जीवन अनुभव होगा, उसी कोटि की उसकी कला होगी। कवि अनुभूतियों को जैसा जीता है, शिल्प में वैसा ही करने के लिए सचेष्ट रहता है, परन्तु उसकी अनुभूति अमूर्त होती है। ‘‘अमूर्त अनुभूति को मूर्त बनाने में ही काव्य शिल्प की सार्थकता है। काव्य शिल्प वस्तुतः काव्य चिंतन का प्रयोगात्मक पक्ष है, जिसमें काव्य सामग्री के विनियोजन एवं प्रयोग की सूक्ष्म संयोजनाओं का विशेष मूल्य होता है।’’[1]
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Craft is synonymous with the English word (technic), which means - manner, method or style. Craft is a form of expression in the field of art. The goal of craft is to communicate a feeling. The level of his life experience, his art will be of the same quality. The poet is conscious to do the same in the craft as he lives the feelings, but his feelings are abstract. “The meaning of poetic craft lies in making the abstract feeling concrete. Poetry craft is actually the experimental side of poetic thinking, in which the subtle combinations of appropriation and use of poetic material have special value. | ||||||
मुख्य शब्द | काव्य शिल्प, छायावादी प्रभाव, गिरिजाकुमार माथुर, काव्य। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Poetry Craft, Shadowist Effect, Girijakumar Mathur, Poetry. | ||||||
प्रस्तावना |
गिरिजा कुमार माथुर आधुनिक हिन्दी काव्य जगत के प्रतिभाशाली कवि हैं। प्रयोगशील कविता के प्रवर्तकों और नयी कविता के प्रतिस्थापको में उनका नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनकी काव्य लेखनी से आधुनिक हिन्दी काव्य को अनुपम कृतियां उपलब्ध हुई। डाँ. नगेन्द्र तथा कैलाश वाजपेयी के सम्मिलित प्रयास में 'आज के लोकप्रिय कवि गिरिजाकुमार माथुर" प्रकाशित हुआ। उसमें करत की शिल्प सजगता तथा कृत्य की नवीनता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने माथुर की काव्यात्मा को पकड़ने का जो सराहनीय कार्य किया। कोई भी अमृत संवेदना शिल्प के द्वारा मूर्त रूप धारण कर लेती है। शिल्प की सार्थकता तभी सम्मन होती है जब प्रमूर्त संवेदना का सफल मूर्तिकरण होता है। सभी कलाकारों के सन्दर्भ में अनुभूति और लक्ष्य मुख्य तत्व है।"कवि अपनी कविताओं में, शिल्पी अपनी मूर्तियों में, चित्रकार अपने चित्रों में अनुभूति की सार्थकता पाता है। चित्रकार की सृष्टि निस्सन्देह एक अनुभूति होती है जिसे वह अपनी रेखाओं और विभिन्न रंगों के अनुपातिक संयोग से अभिव्यक्त करता है, अमूर्त अनुभूति को मूर्त करता है। (लक्ष्मीनारायण लाल - हिन्दी कहानियों की शिल विधि की विकास भूमिका) गिरिजा कुमार माथुर के काल्प का मूल्यांकन करने पर उनकी प्राथमिक प्रारम्भिक रचनाएं छायावाद के प्रभाव से अभिलसित होती हैं। उनके काव्य-शिल्प पर वह सभी विषयगत एवं शिल्पगत प्रवृत्तियां मिलती हैं जो छायावाद के कवियों में दृष्टिगत होती हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | गिरिजा कुमार माथुर बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं वे काव्य में छायावाद के उत्तरार्द्ध में उपस्थित हुए। उनकी आरम्भिक रचनाएं छाणकारी से अछूती नहीं हैं अर्थात उनकी आरम्भिक रचनाओं पर छायावादी शिल्प का प्रभाव दृष्टिगत होता है। गिरिजा कुमार माथुर के काव्य में छायावादी शिल्प विधान का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उनके काव्य में शब्द योजना, लोकोक्ति एवं मुहावरे, प्रतीक योजना, बिंब योजना, अप्रस्तुत विधान, अलंकार, छंद आदि के महत्व को दर्शाया गया है। |
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साहित्यावलोकन | गिरिजा कुमार माथुर के काव्य में छायावादी काव्यभाषा की भावुकता पूर्ण कोमलकांत पदावली, अनेक स्वरूप में विकसित हुई है। माथुर जी के काव्य में शब्दों का समिप्राय प्रयोग मिलता है। उन्होंने अपने काव्य में लोकोक्ति एवं मुहावरों का प्रयोग भाषा में प्रेणनीयता और व्यंजकता लाने का प्रयास किया है। गिरिजा कुमार माथुर का काव्य बिंबो का मंजूषा है। जिसमें बिंबो के प्रकारों का उल्लेख किया है। ये विम्ब, अर्थ, भाव एवं विचार सम्प्रेषण में सहायक होकर सौंदर्य एवं रस की प्रतिष्ठा करने में सफल हुए हैं। इनके काव्य में अंलकारों, छन्दो का प्रयोग छायावादी काव्य की तरह किया है। अत: उनके शिल्प विधान पर छायावादी प्रभाव दृष्टिगत होता है।
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मुख्य पाठ |
‘‘शिल्प वास्तव में कला के विभिन्न तत्वों अथवा उपकरणों की
योजना का वह विधान है, वह ढंग है, जिसमें कलाकार की अनुभूति
अमूर्त से मूर्त हो जाये।’’[2] प्रत्येक रचनाकार का अपना
अलग शिल्प-बोध होता है, जिसमें कवि की वैयक्तिकता अधिक रहती है। कभी-कभी एक ही युग, परिवेश एवं संस्कार
के प्रभाव से अनुप्रेरित कवि के शिल्प एक से प्रतीत होते हैं, फिर भी उनमें
विविधता अवश्य होती है। नये भाव-बोधों एवं नूतन शिल्प प्रयोगों के योग से नयी
कविता में नवीनता समाविष्ट है नूतन ज्ञान-विज्ञान के संस्पर्श से नये कवि के अनुभव
में भी काफी वैविध्य आया है। नूतन प्रयोग माध्यमों से पुराने शिल्प बंधनों को
नकारती हुई नयी कविता अपने कथ्य को नये-नये ढ़ंग से व्यक्त करती रहती है। इस दिशा
में नये कवि ‘‘अपनी मनोनुकूल शैलियों में कई तत्व लेकर अपनी-अपनी मिट्टी
की मूरत गढ़ने की कोशिश करते हैं। अपनी अनुभूतियों का रंग भरते हैं और इस प्रकार
अपनी विशिष्टता की छाप इन शैलियों पर लगाते हैं।’’[3] अज्ञेय के अनुसार ‘‘वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग लाभप्रद होता
है।’’[4] प्रयोग की यह प्रवृत्ति नयी
कविता में तेज होती गयी है और वह नयी-नयी शैलियाँ लेकर आयी। नयी शैली का अर्थ है ‘‘अनुभव जगत के नये
पहलुओं को नयी दृष्टि से देखना और उन्हें नये चित्रों, प्रतीकों, अलंकारों द्वारा
अभिव्यक्ति देना।’’[5] क्योंकि प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों की सहायता के
बिना अभिव्यक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है। नये कवियों ने शिल्प की ओर अधिक ध्यान
दिया, इसलिए उनके काव्य में शिल्प के विविध आयाम अभिव्यक्त हुए
हैं। गिरिजाकुमार माथुर नयी
कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके काव्य में शिल्प की नवीनता, संतुलित और
स्वाभाविक मौलिकता का समावेश हुआ है। अभिव्यक्ति वैविध्य की दृष्टि से माथुर की
कविता में शिल्प पक्ष के सभी अंगों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। नयी कविता के
संदर्भ में गिरिजाकुमार माथुर ने काव्य शिल्प विधान के अंतर्गत निम्न माध्यमों
भाषा, प्रतीक विधान, बिम्ब योजना अलंकार या
अप्रस्तुत विधान, छन्द विधान आदि पर पृथक-पृथक विचार करना अधिक उपादेय है।
गिरिजाकुमार माथुर ने नयी कविता में नवीन शिल्प का प्रयोग भले ही किया हो लेकिन
उनकी प्रारम्भिक रचनाओं पर छायावाद शिल्प का प्रभाव दिखाई देता है। गिरिजाकुमार माथुर की
रचनाओं का समग्र अध्ययन करने पर उनकी प्रारम्भिक रचनाएं छायावादी प्रतीत होती है।
उनकी रचनाओं में वह सीधी विषयगत एवं शिल्पगत प्रवृत्तियाँ मिलती हैं जो कि छायावाद
के सभी कवियों में विद्यमान हैं विभिन्न विद्वानों द्वारा छायावाद में देखी गयी
है। (क) शब्द योजना- छायावादी कवियों ने जिस प्रकार भाव जगत का निर्माण किया है तदनुकूल शिल्प बोध की भी सर्जना की है। उन्होंने भाषा को अभिव्यक्ति का एक मात्र साधन मानते हुए भाव और भाषा के पूर्ण सामंजस्य को अनिवार्य माना है। छायावादी कवियों ने खड़ीबोली को ब्रजभाषा के समान, सरल, सरस और कोमल कान्त बना दिया है। गिरिजाकुमार माथुर ने
यद्यपि अपना कवि-कर्म सर्व प्रथम ब्रजभाषा में आरम्भ किया था, तथापि वे शीघ्र ही खड़ी बोली की प्रौढ़, परिनिष्ठित एवं प्रांजल पढ़ावली में अपनी रचनाएं प्रस्तुत
करने लगे। माथुर जी ने छायावादी कवियों की तरह तत्सम, तद्भव तथा बोल चाल
के शब्दों के साथ ही विदेशी शब्दावली का प्रयोग किया है। माथुर जी ने सहज एवं सरल
भाषा का प्रयोग अपने गीतों में किया है जो निम्न है- ‘‘यह सुनहला दिवस आया (ख) लोकोक्ति एवं मुहावरे - छायावादी कवियों ने अपनी
भाषा को लोकोक्तियों और मुहावरों से जीवंत, समृद्ध व प्राणवान भी बनाया
है उन्होंने अपने साहित्य में जितनी लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रयोग किया है उन
पर सामूहिक दृष्टिपात करने पर कुछ तथ्य स्पष्ट सामने आते हैं- (1) इन्होनें अपने आरम्भिक रचनाकाल से ही भाषा को
लोकोक्तियों एवं मुहावरों से सजीव एवं लोचदार बनाये रखने का प्रयास किया है। (2) छायावाद के कवि प्रायः सजग रहकर अपनी भाषा को असाधारण रूप से स्वच्छ एवं परिनिष्ठित रखते थे। इस प्रयत्न में भाषा लोक स्तरीय
भाषा की जीवंत चेतना से प्रायः असम्प्रक्त रहती थी। कवि गिरिजाकुमार माथुर ने
अपने काव्य में लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग भाषा में प्रेषणीयता और
व्यंजकता लाने के उद्देश्य से किया है जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता मिली है। ये
कवि के वैयक्तिक भावों को सांकेतिक शैली में लक्षण-व्यंजना के सहारे मुख्यार्थ घोषित कराने में अत्यंत सक्षम रहे हैं। गिरिजाकुमार माथुर ने
छायावादी कवियों की तरह लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग करके भाषा को सजीव
परिनिष्ठित एवं लोचदार बनाने का प्रयास किया है। गिरिजाकुमार माथुर ने
छायावादी कवियों की तरह लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है वो निम्न हैं- जीभ हिलाना, मुहर लगाना, हवाईयां उड़ाना, खिल्ली उडाना, खाल उधेड़ना, मुहभारी करना, डींग हाँकना, भावों का पथराना, लोहे की दीवार पिघलना, खाली हाथ बैठना, फूक-फूक कर पैर रखना, आदि ऐसे ही अनेक
लोकोक्तियां एवं मुहावरों का प्रयोग किया है। (ग) प्रतीक योजना:- श्री रामचन्द्र वर्मा ने ‘प्रामाणिक हिन्दी
शब्द कोश’ में प्रतीक शब्द के निम्न अर्थ दिये हैं- (1) चिह्न लक्षण, निशान (2) मुख, मुँह (3) आकृति या रूप या सूरत (4) किसी के स्थान पर या बदले में रखी हुई या काम
आने वाली वस्तु (5) प्रतिमा, मूर्ति (6) वह जो किसी समष्टि के प्रतिनिधि के रूप में और
उसकी सब बातों का सूचक या प्रतिनिधि हो। अर्थो की यह विविधता ही
प्रतीक शब्द की व्यापकता सिद्ध करती है। हमारे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में
प्रतीक शब्द का प्रयोग भी विभिन्न प्रकार से होता है। हमारे सामाजिक या राष्ट्रीय
जीवन में हमारे गौरव का सूचक कोई रंग, आकृति या चिह्न प्रतीक
कहलाता है, जैसे किसी संस्था का व्यापारिक चिह्न, किसी समाज की कोई
मुद्रा या किसी राष्ट्र की ध्वजा पताका, कोई रंग या आकार। धार्मिक
क्षेत्र में पत्थर या धातु-मूर्तियों को किसी परम सत्ता की प्रतीक मानकर पूजा जाता
है। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में किसी भाव या विचार का प्रतिनिधित्व करने
वाले शब्द को प्रतीक कहा जाता है। अतः हमारी भाषा का प्रत्येक शब्द ही सामान्यतः
प्रतीक है। हम ‘शेर’ को ‘शेर’ क्यों कहते हैं? इसलिए कि इस ध्वनि को हमने
पशु-विशेष का प्रतीक मान लिया है। दूसरी भाषाओं में शेर को शेर न कहकर और कुछ कहा
जाता है क्योंकि उन्होंने किसी दूसरी ध्वनि को प्रतीक माना है। इस स्थिति में तो
भाषा का प्रत्येक शब्द प्रतीक सिद्ध होता है, किन्तु प्रतीकवाद का सम्बंध
इस रूप से नहीं है। वस्तुतः किसी भी शब्द के प्रचलित अभिधेय अर्थ को ग्रहण हुए जब
उसके द्वारा किसी अन्य अर्थ की सूचना दी जाये तो उसे प्रतीक कहते हैं। यदि किसी
मृत शरीर को देखकर कहा जाये कि ‘‘पंछी उड़ गया, खाली पिंजरा पड़ा है’’ तो यहाँ पंछी आत्मा का
प्रतीक तथा पिंजरा शरीर का प्रतीक कहलायेगा। हिन्दी साहित्य कोश के
अनुसार- ‘‘प्रतीक शब्द का प्रयोग उस दृश्य अथवा गोचर वस्तु के लिए
किया जाता है, जो किसी अदृश्य, अगोचर या अप्रस्तुत विषय का
प्रतिविधान उसके साथ अपने साहचर्य के कारण करती है।’’[7] प्रतीकों का प्रयोग
छायावादी कवियों ने खूब किया है। निरालाजी की ‘जूही की कली’’ नव परिणीता का ‘वन बेला’ सन्यासी का बादल राग’, बादल क्रान्तकारी, विद्रोही का ‘शेफालिका’ एक मदमस्त युवती का
तथा ‘कुकुरमुत्ता’ में कुकुरमुत्ता शोषित और
गुलाब शोषक वर्ग का प्रतीक है। पन्त की परिवर्तन कविता में ‘अहे वासु की सहस़्त्रफन’ काल का प्रतीक है।
प्रसाद जी की ‘‘आंसू’’ की ये पंक्तियां दृष्टव्य
है।- ‘‘इस करूणाकलित हृदय में गिरिजाकुमार माथुर के काव्य में भी इस प्रकार के प्रतीक दृष्टिगत होते हैं।
माथुर जी ने सभी प्रकार के गीतों को अपनाया है इसके काव्य में सांस्कृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, मौन आदि सभी प्रकार
के प्रतीक दृष्टिगत होते है- ‘‘जब जगत को चाहिए फुलवाडियां हो रही तब युद्ध की तैयारियाँ फिर धरा-सीता सताई जा रही फिर असुर संस्कृति जमाई जा रही।’’[9]
(घ) बिम्ब योजनाः- किसी वस्तु अथवा घटना को देखने पर उसका जो
चित्र हृदय पर उभरता है उस मानस चित्र या प्रतिबिम्ब को रूपक आदि की सहायता से
अभिव्यक्त करना बिम्ब कहलाता है। बिम्ब-विधान से हमारा तात्पर्य काव्य में आये हुए
उन शब्द चित्रों से है, जो भावात्मक होते हैं जिनका संबंध व्यावहारिक क्षेत्रों से
तथा कल्पना के शाश्वत जगत से होता है जो कवि की सजीव अनुभूति, तीव्र भावना एवं
उत्कट वासना से परिपूर्ण होते हैं और गत्यात्मक, सजीवता, सुन्दरता एवं सरसता
के कारण जीते जागते चलते-फिरते और बातचीत करते से जान पड़ते है। पाश्चात्य समालोचना के
क्षेत्र में इस बिम्ब विधान को बडा महत्व दिया गया है अंग्रेजी में ‘इमेजरी’ और बिम्ब को ‘इमेज’ कहा गया है। जिस कवि
या लेखक की ‘इमेजरी’ जितनी उच्च एवं उन्नत होती
है, वह उतना ही महान माना जाता है, इस बिम्ब-विधान से
प्रत्येक बिम्ब का संबंध उन प्रत्येक पदार्थ से होता है जो लेखक या कवि के सम्मुख
विद्यमान है या अतीत काल में हो चुके हैं। इनके द्वारा कवि अपने मानसिक जगत का
सम्बंध शेष सृष्टि के साथ स्थापित करता है। माथुर जी ने बिम्ब को चार
प्रमुख वर्गों में विभाजित किया है- (1) ऐन्द्रिय बिम्ब (2) वस्तुपरक बिम्ब (3) भाव बिम्ब (4) आध्यात्मिक बिम्ब इस प्रकार कवि माथुर ने
विविध प्रकार के बिम्बों द्वारा अपनी अभिव्यक्ति को सुन्दर, सजीव एवं सशक्त
बनाया है। आपका बिम्ब-विधान अत्यंत परिष्कृत एवं परिमार्जित है। इन बिम्बों के
द्वारा आपने अपनी उक्तियों में चमत्कार उत्पन्न करते हुए अपनी अभिव्यंजना शक्ति को
मार्मिकता एवं मनोरंजकता प्रदान की है। अतः उपर्युक्त बिम्बों का
अध्ययन करने पर कहा जा सकता है कि उनके शिल्प-विधान पर छायावादी प्रभाव लक्षित
होता है। (ड.) अप्रस्तुत योजना- गिरिजाकुमार माथुर ने अपनी
कविता को सरल, सुरम्य एवं सजीव बनाने के लिए अप्रस्तुत योजना पर भी विशेष
ध्यान दिया है। आधुनिक काल में अप्रस्तुत विधान की एक भव्य परम्परा छायावाद से
प्रारंभ हुई थी। इसलिए आपने प्राचीन अलंकारों के साथ-साथ नवीन अलंकार का प्रयोग करते
हुए भाव-सौंदर्य की सृष्टि की है, उक्ति-सौष्ठव को जन्म दिया
है और गहन, शिल्प-सौंदर्य की अभिव्यंजना की है। गिरिजाकुमार माथुर द्वारा
प्रयुक्त अप्रस्तुतों के चयन में अपनी नवीन और यथार्थ दृश्टि का परिचय दिया है।
उन्होनें ये उपमान, धर्म, संस्कृति, कला, संगीत, साहित्य, जीवन प्रवृत्ति आदि
क्षेत्रों से उठाये हैं। गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपनी पुस्तक में छायावाद की
प्रवृत्त्यिाँ बताते हुए अप्रस्तुत विधान के नाम से ही संबोधित किया है। माथुर जी ने छायावादी
कवियों की तरह ही मूर्त के लिए मूर्त, मूर्त के लिए अमूर्त, अमूर्त के लिए मूर्त, अमूर्त के लिए
अमूर्त, उपमानों का प्रयोग किया है।- ‘‘देह पड़ी रह जाती खोखले लिफाफे सी।’’[10]
उपर्युक्त समग्र विवेचनोपरान्त कहा जा सकता है कि कवि गिरिजाकुमार माथुर के
काव्य में प्रकृति एवं लोकजीवन से संबंधित अप्रस्तुतों की योजना हुई है। अपने
अनुभूत तथ्य को पूरी प्रभविष्णुता के साथ संवेदनीय एवं प्रेषणीय बनाने के लिए
अप्रस्तुतों के विधान में गिरिजाकुमार माथुर अत्यधिक सजग रहे हैं। माथुर के काव्य
में प्रयुक्त अप्रस्तुत मूर्तामूर्त दोनों स्वरूपों में जीवन और जगत के सभी
क्षेत्रों मे संग्रहित हैं। अतः यह कहना अनुचित न होगा
कि माथुर जी की अप्रस्तुत विधान की प्रवृत्ति छायावाद के समकक्ष है। (च) अलंकार - भाषा की चमत्कृति के रूप में अलंकारों का विवेचन प्राचीन
काल से होता चला आया है। अलंकारों की महत्ता भाषा की श्री वृद्धि के रूप में
प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार की है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अलंकार की
व्याख्या देते हुए अपने गन्तव्य को इस प्रकार स्पष्ट किया है- ’’वस्तु या व्यापार की
भावना को चटकीली बनाने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुंचाने के लिए कभी किसी वस्तु
का आकार या गुण बहुत बढ़ा चढ़ाकर दिखाना पड़ता है, कभी उसके रंग रूप या गुण की
भावना को उसी प्रकार के और रंग रूप मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप और धर्मवाली
और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है। कभी-कभी बात को घुमा फिराकर कहना पड़ता है।
इस तरह भिन्न-भिन्न विधान और कथन के ढंग को अलंकार कहा है।’’[11] छायावादी कवियों ने उपमा, रूपक यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि
अलंकारों का प्रयोग तो किया ही है साथ ही कुछ नये अलंकारों को भी अपनी रचनाओं में
स्थान दिया है। इन अलंकारों में विशेषण विपयर्य मानवीकरण, ध्वन्यार्थ व्यंजना, विशेष उल्लेखनीय है।
इन अलंकारों ने माथुर जी को प्रभावित किया। इनसे प्रभावित होकर इन्हें अपनाकर वे
छायावाद की श्रेणी में आ गये। गणपतिचन्द्र गुप्त ने विशेषण विपयर्य तथा मानवीकरण
को छायावाद की शिल्पगत प्रवृत्ति को स्वीकार किया है। छायावाद कवि निराला ने ‘संध्या’ का वर्णन करते हुए
उसे परी के समान कहकर संध्या जैसी अरूप एवं निराकार बेला का एक रूपवती एवं साकार
सुन्दरी की भांति चित्रण किया है, जिसमें उपमा अलंकार ने
अद्भुत मार्मिकता, गतिशीलता एवं
प्रभावोत्पादकता उत्पन्न कर दी है- ‘‘दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या सुन्दर परी-सी धीरे-धीरे-धीरे।’’[12]
इसी प्रकार गिरिजाकुमार माथुर ने ‘चूड़ी का टुकड़ा’ कविता का वर्णन करते
हुए उपमा अलंकार का चित्रण किया है- ‘‘दूज-कोर के उस टुकडे पर तिरने लगी तुम्हारी सब लज्जित तस्वीरें।’’[13]
छायावादी कवियों ने उपमाओं की सुकुमार लड़ियों के साथ-साथ कवि ने सुन्दर, सजीव एवं कोमल
रूपकों की भी बड़ी ही कमनीय योजना की है। ‘पल्लव’ कविता में ये रूपक
कितने सजीव, सुकुमार एवं सौम्य जान पड़ते हैं, क्योंकि कवि कोमल
पत्तों के लिए कहता है- ‘‘कल्पना के यह विह्वल बाल, आँख के अश्रु, हृदय के हास, वेदना के प्रदीप की ज्वाल, प्रणय के ये मधुमास, सुकवि के छाया-वन की सांस, भर गई इनमें हास
हुलास।’’[14] इसी प्रकार गिरिजाकुमार माथुर
भारती का मंगल गान अनेक रूपकों के माध्यम से किया है। ‘‘एशिया के कमल पर तुम भारती सी पूर्व के जन जागरण की आरती सी इस सदी के साथ केसर चरण धरकर आ गयी तुम भूमि स्वर्ग
सँवारती-सी।’’[15]
छायावादी कवियों ने कुछ
नवीन अलंकारों का प्रयोग किया है। जिसका अनुसरण गिरिजाकुमार माथुर ने अपने काव्य
में किया है। विशेषण, विपर्यय, मानवीकरण ध्वन्यार्थ
व्यंजना अलंकारों का प्रयोग किया है। इस प्रकार गिरिजाकुमार
माथुर के काव्य पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी अलंकारों के
प्रयोग की प्रवृत्ति भी छायावाद से अनुप्रणित है। (छ) छंद- छंद कविता का ऐसा रूप नहीं
है जिसे आप चाहें तो प्रयोग करें चाहें तो त्याग प्रयोग करें, चाहें तो त्याग दें, वह उसका अनिवार्य
रूप है। वह कविता का बाह्य आच्छद नहीं है जिसे उससे अलग किया जा सके, वह उससे एकरूप होता
है। लय कोई बाहर से खोजी गई वस्तु नहीं, वह मनुष्य के भीतर से उद्धृत होती है। अतः वह कविता के लिए जो हृदय की वस्तु है, स्वाभाविक है जब
मानव हृदय में विचारों और भावों की लय उठेगी, तो बाहर भी वह लयात्मक भाषा
में ही अर्थात छंद में ही अभिव्यक्त होगी। छंद समर्थकों का दूसरा तर्क
यह है कि काव्य में रसात्मक तत्व अधिक होता है, रसात्मक स्थिति मन की
उच्छ्वासित अवस्था का ही दूसरा नाम है। नाम का उच्छवास लय युक्त होता है, अतः रसात्मक अनुभूति
लयात्मक होती है और उसे लय में व्यक्त करना होता है। लय ही शब्द के साथ संयुक्त
होकर छंद बन जाती है, अतः काव्य के लिए छंद आवश्यक है। इस प्रकार छंद यदि बाहरी
लय है, तो कविता का भावोच्छवास आंतरिक लय। दोनों में संगीत
स्वाभाविक है, छंद रसात्मक अनुभूति का सहज माध्यम है। गिरिजाकुमार माथुर ने अपनी कविता में छंद का प्रयोग किया
है। छंद प्रयोगों में सर्वाधिक सफलता हासिल की है। उन्होने वर्तमान जटिल जीवन की
अनुभूतियों की व्यंजना के लिए मुक्त छंद का कला-कौशल के साथ प्रयोग किया है छंद के
क्षेत्र में माथुर ने अनेक प्रयोग भी किये हैं। उन्होंने छंद की अनिवार्यता को
मानते हुए स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट किए हैं। माथुर ने छंद की
स्वाभाविकता की रक्षा की है तथा लयात्मकता का विधान भी किया है। ‘‘कविता के विकास में
छंद कुछ उसी तरह टूटते और बनते चलते हैं जैसे भाषा के विकास में व्याकरण।’’[16] छायावादी कवियों ने छंदों की पारम्परिक परिपाटी से हटकर मुक्त छंद को अपनाया
है निराला जी ने स्पष्ट कहा है- ‘‘नुपुर के स्वर मंद रहे यदि न चरण स्वच्छ रहे।’’
इन छायावादी कवियों ने संगीतात्मकता को प्रमुखता दी है। गिरिजाकुमार माथुर जी
भी इससे सहमत हैं- ‘‘छंद संबंधी नवीनता माथुर के काव्य में सर्वाधिक उपलब्ध होती
है उन्होंने मुक्त छंद को ही पसंद किया है। उन्होंने छंद के क्षेत्र में अनेक
प्रयोग किये हैं छंदों की स्वाभाविकता व नवीनता के साथ माथुर जी ने संगीतात्मकता
पर भी बल दिया है।’’[17] सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपने काव्य में मुक्त छंद का प्रयोग किया है
मुक्त छंद में कवि के स्वच्छंद भाव उन्मुक्त कल्पना गगन में स्वतंत्र पक्षियों के
समान उड़ते ऐसी स्वच्छंद छंद वाली कविताएँ संकलित है और अन्य काव्य-संग्रहों में
कवि ने ऐसी ही स्वछंद छंद युक्त कविताओं का अधिक सजीवता एवं मार्मिकता के साथ
निर्माण किया है, यथा- ‘‘विजय-वन वल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी-स्नेह - स्वप्न - मग्न अमल- कोमल - तनु- तरूणी - जूही सी कमी दृग वंद किए, शिथिल, पत्रांक में’’[18]
इसी प्रकार गिरिजा कुमार माथुर ने छायावादी में कवियों की तरह मुक्त छंद का
प्रयोग किया है और पुराने छंदों को तोेडकर नवीन छंद सर्जना भी की है- ‘‘आज है केसर रंग रंगे वन गिरिजाकुमार माथुर ने लोकगीत की धुन पर आधारित पंक्तियां निम्न है- ‘‘उजला पाख क्वार का फूल कास सा खिली चंदीले रात की कली सुहावनी नरम नखूनी रंग धुले आकाश में छिटक रही है पूरनमा की चाँदनी।’’[20]
‘‘माथुर जी अपने विभिन्न प्रयोगों के बल पर केवल अपने मुक्त छंद को अधिक सुथरा बनाने में सफल हुए है अपितु उन्होंने उसे एक सहज संगीतात्मकता
भी प्रदान की है उनका मुक्त मंद चाहे वह
कवित्त का आधार लिए हुए है, चाहे सवैया का, चाहे गजल अथवा बहर
सी लय पर आधारित हो चाहे अन्य किसी लोक प्रचलित माध्यम पर सब में लय का समावेश
पूरे आकर्षण के साथ विद्यमान मिलेगा।’’[21] अतः कहा जा सकता है कि
माथुर जी ने मुक्त छंद के साथ ही साथ अनेक नये छंदों का भी सृजन किया है तथा इस
विशेषता में वह छायावादी कवियों के निकट आ गये हैं इस विषय में नामवर सिंह का यह
कथन उल्लेखनीय है- ‘‘छायावाद में जीवन के हर
क्षेत्र की तरह छंद विन्यास में भी हर कवि का अपना वैयक्तिक वैशिष्ट्य था। कवि को
इतनी स्वतंत्रता थी कि वह चाहे जितने छंदो का अविष्कार कर सकता था। निसंदेह कवियों
ने इस स्वतंत्रता का सुन्दर सदुपयोग किया।’’[22] गिरिजाकुमार माथुर की भाषा की रचनाएं छंद सी दृष्टि से भी छायावादी रचनाओं से
प्रभावित प्रतीत होती है। |
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निष्कर्ष |
गिरिजाकुमार माथुर की भाषा छायावादी काव्य भाषा की भावुकता पूर्ण कोमल कांत पदावली, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी काव्य भाषा की शुष्क तथ्यात्मक परिपाटी से दूर हटकर अनेक स्वरूपों में विकसित हुई है। कहीं चित्रात्मक रूप में प्रकट हुई तो कहीं लक्षणा, व्यंजना से युक्त होकर ध्वन्यात्मक रूप में।
माथुर जी ने काव्य में शब्दों का साभिप्राय प्रयोग मिलता है। उन्होने उर्दू, अंग्रेजी के शब्द के साथ-साथ विज्ञान एवं लोक जीवन से एवं उसके विविध क्षेत्रों से शब्दों को ग्रहण करके अपने शब्द भंडार को पर्याप्त समृद्ध किया है। उन्होंने अपने काव्य में स्वनिर्मित शब्दों का प्रयोग भाषा में प्रेषणीयता और व्यंजकता लाने का प्रयास किया है जिसमें उन्हें पर्याप्त सफलता मिली है।
माथुर जी काव्य में प्राकृतिक ऐतिहासिक, वैज्ञानिक एवं यौन प्रतीकों के अलावा दैनिक जीवन से संबंधित एवं आधुनिक बोध से सम्पृक्त प्रतीकों को भी स्थान दिया है और साथ में गिरिजाकुमार माथुर का काव्य बिम्बों का मंजूषा है। जिसमें बिम्बों के प्रकारों का उल्लेख किया गया है। ये बिम्ब अर्थ, भाव एवं विचार सम्प्रेषण में सहायक होकर सौंदर्य एवं रस की प्रतिष्ठा करने में सफल हुए हैं। माथुर के काव्य में प्रयुक्त अप्रस्तुत मूर्तामूर्त दोनों स्वरूपों में जीवन और जगत के सभी क्षेत्रों से संग्रहित हैं।
गिरिजाकुमार माथुर के काव्य में जहाँ प्रचलित अलंकारों का प्रयोग हुआ है और साथ में ही नवीन अलंकारों का प्रयोग भी हुआ है। अतः अलंकार शिल्प का मुख्य तत्व है। इसी प्रकार छंद का भी माथुर जी ने छायावादी काव्य की तरह प्रयोग किया है। माथुर जी ने मुक्त छंदों में भी तुक का विभिन्न रूपों में प्रयोग किया है। मुक्त छंदों के अधिकांश प्रयोग कवि की सफलता के द्योतक हैं। उनमें संगीत एवं लय का पूरा-पूरा खयाल रखा गया है, गिरिजाकुमार माथुर के छंदों में नवीनता एवं मौलिकता मिलती है।
अतः कहा जा सकता है कि गिरिजाकुमार माथुर के काव्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उनके शिल्प-विधान पर छायावादी प्रभाव दृष्टिगत होता है। माथुर जी ने जब रचना कार्य प्रारंभ किया था तथा छायावादी युग अंतिम सांस ले रहा था उसी समय माथुर जी काव्य रचना कर रहे थे तभी तो उनकी प्रारम्भिक रचनाओं पर छायावादी प्रभाव दृष्टिगत होता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. डॉ. नगेन्द्र : काव्य शिल्प के आयाम, पृष्ठ 5
2. डॉ. कैलाश वाजपेयी : आधुनिक हिन्दी कविता में शिल्प, पृष्ठ 19
3. गिरिजा कुमार माथुर : नयी कविता की सीमाएं और सम्भावनाएं, पृष्ठ 94
4. अज्ञेय : हिन्दी साहित्य एक आधुनिक परिदृश्य, पृष्ठ 199
5. डॉ. देवराज : नयी कविता अंक-2, पृष्ठ 5
6. गिरिजाकुमार माथुर : मंजीर, पृष्ठ 26
7. धीरेन्द्र शर्मा : हिन्दी साहित्य कोष, पृष्ठ 57
8. जय शंकर प्रसाद : आंसू, पृष्ठ 7
9. गिरिजाकुमार माथुर : धूप के धान, पृष्ठ 92
10. गिरिजाकुमार माथुर : शिलापंख चमकीले, पृष्ठ 37
11. डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सैना : हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि, पृष्ठ 211
12. गिरिजाकुमार माथुर : नाश और निर्माण
13. सुमित्रानन्दन पंत : पल्लव
14. गिरिजाकुमार माथुर : धूप के धान पृष्ठ 17
15. कुँवर नारायण : तीसरा
16. विजय कुमारी : गिरिजाकुमार माथुर नयी कविता के परिप्रेक्ष्य में, पृष्ठ 181
17. डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सैना : हिन्दी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि पृष्ठ 219
18. गिरिजाकुमार माथुर : नाश और निर्माण, पृष्ठ 110
19. गिरिजाकुमार माथुर : धूप के धान, पृष्ठ 73
20. डॉ. शिवकुमार : नया हिन्दी काव्य, पृष्ठ 369
21. नामवर सिंह : छायावाद, पृष्ठ 134 |