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मूक बधिर एवं चालन दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं की समायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Comparative Study of Adjustment Ability of Deaf-mute and Motor Disabled Adolescent Students | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Paper Id :
17513 Submission Date :
2023-04-19 Acceptance Date :
2023-04-21 Publication Date :
2023-04-25
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सारांश |
प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्याता एवं क्षमतानुसार पूर्णरूपेण विकसित होने का अवसर प्रदान करती है। मानव समाज व्यक्ति के पूर्णरूपेण विकास में केवल सहायता मात्र प्रदान करता है। यह उसका सामाजिक दायित्व भी है। प्रत्येक सामाजिक मानव से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपना दायित्व निर्वहन करते समय मानव में विभेद न करे। जिस प्रकार सामान्य व्यक्तियों को उससे व्यवहार की अपेक्षा रहती है उसी प्रकार दिव्यांग व्यक्ति को भी अपेक्षा रहती है। यदि हम दिव्यांगों के साथ भी सामान्य व्यक्तियों जैसा व्यवहार करें तो निश्चित रूप से दिव्यांगों को मुख्यधारा से जोड़कर इन्हें समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सकता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Nature gives every person an opportunity to develop fully according to his ability and potential. Human society only provides assistance in the overall development of the individual. It is also his social responsibility. It is expected from every social human being that he should not discriminate between human beings while discharging his responsibility. Just as normal people have an expectation of behavior from him, in the same way a disabled person also has an expectation. If we treat disabled people like normal people, then definitely by connecting them with the mainstream, they can be made responsible citizens of the society. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द | मूक बधिर, चालन दिव्यांग, किशोर छात्र-छात्राएं, समायोजन क्षमता। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Deaf-mute, Locomotor Disability, Adolescent Students, Adjustment Ability. | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तावना |
सृष्टि के अभ्युदय से लेकर आज तक यह विशिष्टता रही है कि कोई दो प्राणी एक से नहीं होते। वे न तो एक सा व्यवहार करते हैं और न ही उनकी एक जैसी शिक्षा होती है। बाल विकास के अनुसार बालकों को दो प्रकार का माना गया है- सामान्य बालक व विशिष्ट बालक।विशिष्टता के इस क्रम में प्रखर बुद्धि वाले बालकों से लेकर शारीरिक रूप से दिव्यांग तथा मानसिक रूप से अक्षम बालकों तक को रखा गया है।
व्यक्तिगत विभिन्नता के मनोविज्ञान के विकास से पूर्व समस्त बालकों को समान बालकों की श्रेणी में ही रखा जाता था अर्थात समस्त बालकों को सामान्य मानकर चला जाता था। केवल उन थोड़े से बालकों को जो सामान्य से अधिक भिन्न थे असमान माना जाता था परंतु मानसिक मापन तथा मनोविज्ञान के विकास के साथ उन बालकों की ओर भी ध्यान गया जो सामान्य से थोड़ा भी भिन्न थे तथा सामान्य बालकों को ही एक पृथक बालक समझा जाने लगा। धीरे-धीरे इन असमान्य व्यक्तियों (दिव्यांग) की ओर भी समाज का ध्यान गया और समाज इनके पूर्ण विकास की ओर आगे बढ़ा और इनके विकास की पहली सीढ़ी होती है-शिक्षा।
विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहां समान बालकों के साथ-साथ बहुत से ऐसे भी विद्यार्थी आते हैं जो किसी न किसी विशेषता में सामान्य से अलग होते हैं। यह विशिष्टता शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार की हो सकती है। इन बालकों का शैक्षिक प्रशिक्षण सामान बालकों के साथ नहीं हो पाता है, जिस कारण इनके लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था अलग से करनी होती है। हालांकि आजकल समावेशी शिक्षा की बात भी हो रही है लेकिन समावेशी शिक्षा से विकास की संभावना भारत जैसे देश में अभी संभव नहीं है।
ईसा के जन्म से 500 वर्ष ( 551-479 ई0पू0) पहले एक चीनी दार्शनिक कुआनत्सु ने बड़ा सही कहा था-”अगर आप 1 साल की योजना बनाना चाहते हैं तो एक बीज बोइये और अगर आप 10 साल की योजना बनाना चाहते हैं तो एक पौधा लगाइए और अगर आप 200 साल की योजना बनाना चाहते हैं तो लोगों को पढ़ाइए।”
कहने का तात्पर्य है कि जब आप एक बीज बोयेंगे तो आपको एक फसल मिलेगी और यदि आप लोगों को पढ़ाएंगे तो आप हजारों से शिक्षित पीढ़ियॉं पाएंगे। अगर हम दुनिया पर नजर दौड़ाएं तो इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि जो राष्ट्र और सभ्यताएं शिक्षा एवं प्रशिक्षण पर जोर देती आई हैं उन्होंने बौद्धिक एवं आर्थिक दोनों क्षेत्रों में शानदार प्रगति की है जीवन और जीवन शैली को सुंदर बनाने में शिक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
मानव की प्रगति में शिक्षा का योगदान इतना महत्वपूर्ण है कि आज दुनियॉं में शिक्षा से बहुत सारी अपेक्षायें की जाने लगीं हैं। आज सारा विश्व इस बात को मानने लगा है कि हमारे भविष्य को सुन्दर आकार देने में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण माध्यम हो सकती है।
शिक्षा एक बहुत देश प्रक्रिया है। उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वह विभिन्न प्रकार के कार्य करती है। शिक्षा के किसी एक कार्य से दिव्यांग बालक में किसी एक ही प्रकार का विकास नहीं होता बल्कि यदि शिक्षा विकास का कार्य करती है तो स्वास्थ्य शरीर भी स्वस्थ मस्तिष्क का विकास करता है। स्वस्थ दिव्यांग बालक भी प्रशिक्षित होकर उत्पादन, उद्योग और व्यवसाय के लिए अधिक उपयोगी होते हैं। यह समाज की सेवा कर सकते हैं। उनसे भी राष्ट्र का विकास एवं सुरक्षा की आशा की जा सकती है। शिक्षा दिव्यांग बालकों को भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करती है। वह उनका संवेगात्मक विकास कर उनकी कल्पना शक्ति में वृद्धि करती है। उनके मनोभावों को निर्मल बनाती है। दिव्यांग बालकों में जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण विकसित करती है। इस प्रकार दिव्यांग किशोरों को जीवन जीने योग्य बनाती है। यह दिव्यांग बालक की सूचियों को परिष्कृत एवं संतुष्ट करती है। उन्हें सिखाती है कि किस प्रकार ललित कलाओं के माध्यम से मस्तिष्क की क्षमता को दूर कर सुंदर आत्मिक विकास करना चाहिए। शिक्षा अवकाश का सदुपयोग करना सिखा कर दिव्यांग बालकों का मनोरंजन करती है। शिक्षा के माध्यम से ही उनमें चारित्रिक एवं नैतिक प्रशिक्षण मिलता है। इसके द्वारा ही दिव्यांग बालक कठिनाईयों पर समायोजन स्थापित कर पाते हैं और उन पर विजय प्राप्त कर पाते हैं। विपरीत पस्थितियों में आशा और ईमानदारी को बनाए रखते हैं। यह नैतिक शिक्षा ही उनमें विनम्र, पवित्र, निष्पक्ष और परोपकारी बनाकर उन्हें सद्गुणों से युक्त करती है। जिससे कि वह अपने आपको समाज में समायोजित कर पाता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | शोध के उद्देश्य-शोध के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
1. मूक बधिर किशोर छात्र- छात्राओं की समायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करना।
2. दिव्यांग किशोर छात्र- छात्राओं की समायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करना।
3. मूक बधिर किशोर छात्र और दिव्यांग किशोर छात्रों कीसमायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करना।
4. मूक बधिर किशोर छात्राओं और दिव्यांग किशोरछात्राओं की समायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करना। |
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साहित्यावलोकन | 2022, तनवी, शैम- विधि विभाग, डिबरूगढ़ विश्वविद्यालय डिबरूगढ़ ने ’’असम में शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों का सशक्तिकरण’’ डिबरूगढ़ जिले का एक सामाजिक कानूनी अध्ययन किया और पाया कि लोगों और विकलांग आबादी के बीच जागरूकता की कमी उनके अधिकारों की रक्षा के लिए उचित लाभ और कानूनों को लागू न करने का मुख्य कारण है। स्कूल, डिब्रूगढ़ जिले के निरीक्षक द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, जिले में शैक्षणिक परिदृश्य खराब है क्योंकि संस्थान RPWD अधिनियम, 2016 के मानदंडों के अनुसार बिल्कुल भी सुलभ नहीं हैं। हालांकि 'समावेशिता' शब्द सभी सरकारों में मौजूद है और प्रांतीय विद्यालयों में उनकी रिपोर्ट के अनुसार वास्तव में बहुत कम छात्र नामांकित हैं और नियमित शिक्षा के लिए आते हैं। अधिकांश नियोजित विकलांग लोगों को सार्वजनिक परिवहन, लिफ्ट या रैंप की अनुपस्थिति और व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं के लिए अक्सर सुलभ शौचालय जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, फिर भी उन्हें समानता की सुविधा के लिए ऐसा कोई उपाय नहीं किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों और भवन, जैसे उपायुक्त कार्यालय में लिफ्ट और पहुंच की कमी है, डाकघर में कोई पहुँच नहीं है और अधिकांश बैंकों में अनदेखी हैं। पहुँच से बाहर होने के कारण विकलांग लोग अपने परिवारों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। हालांकि एक कानून है जो विकलांग लोगों की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए सभी प्रतिज्ञाओं को पर लागू होता है, फिर भी कानून के कार्यान्वयन में कमी है और अधिकार का पालन नहीं होता है क्योंकि दंडात्मक प्रावधानों का अभाव है या स्टॉकहोल्डर को उपलब्ध मुआवजे के रूप में कोई नुकसान है, यदि इनमें से कोई भी हो समाज में उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कानून लागू नहीं किया जाता है। 2018, हिल ब्रिग्स एफ., डायल जे.जी., मोरेरे डी.ए. और जॉयस ए.ने ‘‘शारीरिक अक्षमता, दृश्य हानि या अंधापन, और सुनवाई हानि या बहरापन वाले व्यक्तियों के तंत्रिका-मनोवैज्ञानिक
मूल्यांकन‘‘ विषय पर शोध किया है। इस शोध में पाया गया कि
उपरोक्त विकलांगता पर तंत्रिका-मनोवैज्ञानिकता का सकारात्मक प्रभाव पड़ता हैं।
शारीरिक या संवेदी विकलांग व्यक्तियों के लिए विश्वसनीय और वैध न्यूरोसाइकोलॉजिकल
मूल्यांकन प्रथाओं को सुनिश्चित करने के लिए व्यवस्थित अनुसंधान की आवश्यकता है। 2015, Brita Ryde & Brandt ने
अपने शोध में विकलांग बच्चों की माताओं में रक्षा रणनीतियों और चिंता की जांच की।
इस जांच का उद्देश्य विभिन्न विकलांग बच्चों की माताओं में चिंता और रक्षा
रणनीतियों का अध्ययन करना था। परिणाम बताते हैं कि, मानसिक
बच्चों की माताओं के लिए, रक्षात्मक रणनीतियों की सक्रियता
माँ-बच्चे की स्थिति से उत्पन्न चिंता की भावनाओं से बचने के लिए महत्वपूर्ण है।
अन्य पुरानी अक्षमताओं वाले बच्चों की माताओं के लिए, उदाहरण
के लिए, मोटर विकलांग या डाउन सिंड्रोम, मजबूत रक्षात्मक तंत्र के संचालन के बिना कम स्तर की चिंता का अनुभव किया
जा सकता है। मानसिक बच्चों की माताओं में रक्षा रणनीतियों और चिंता के बीच संबंध
की विभिन्न व्याख्याओं पर चर्चा की जाती है। 2011, मैक्लीन आर.ने ‘‘हल्के से मध्यम शारीरिक अक्षमता के लिए इनपेशेंट रिहैबिलिटेशन से छुट्टी
के छह महीने बाद रोजगार की स्थिति‘‘ विषय पर अध्ययन किया है।
इस अध्ययन में मामूली से मध्यम शारीरिक अक्षमता वाले व्यक्तियों को भर्ती रोगी
पुनर्वास से छुट्टी के 6 महीने बाद और उनके रोजगार की स्थिति
और काम पर लौटने के लिए कथित बाधाओं को देखा गया। अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला
गया था कि पुरुषों के काम पर नहीं लौटने की संभावना अधिक थी। महिलाओं की तुलना में
काम पर वापसी। अधिक उन्नत शिक्षा के साथ थोड़ी कम उम्र के लोगों के काम पर लौटने की
संभावना अधिक थी और शारीरिक अक्षमता के बिगड़ने का डर सबसे सामान्य कारण था,
जो हल्के से मध्यम शारीरिक अक्षमता के बाद काम पर नहीं लौटने का
सबसे आम कारण था। 2009, गोविंदशेनॉय एम. और स्पेंसर
एन. ने ‘‘विकलांग बच्चों का दुरुपयोगः जनसंख्या-आधारित अध्ययनों
की एक व्यवस्थित समीक्षा‘‘ पर शोध कार्य ने बचपन की अक्षमता
और दुर्व्यवहार और उपेक्षा के बीच संबंध की ताकत का पता लगाने की कोशिश की। अध्ययन में दुर्व्यवहार और उपेक्षा के साथ
विकलांगता के संबंध के लिए साक्ष्य आधार कमजोर पाया गया। मनोवैज्ञानिक और
भावनात्मक समस्याएं, और सीखने की कठिनाइयाँ दुर्व्यवहार से
जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं लेकिन यह जुड़ाव उत्पन्न हो सकता है क्योंकि ये स्थितियाँ
दुरुपयोग के साथ एक सामान्य एटियलॉजिकल मार्ग साझा करती हैं। सीमित साक्ष्य हैं कि
शारीरिक अक्षमता दुर्व्यवहार का पूर्वाभास कराती है। 2008, विद्या रवींद्रनंदन और राजू,
एस. ने अपने अध्ययन में मानसिक मंदता वाले
बच्चों के माता-पिता के समायोजन और दृष्टिकोण के स्तर का पता लगाने का प्रयास किया
गया है। अध्ययन के उपरान्त यह पाया कि माता-पिता के धर्म, आय और शिक्षा का समायोजन चर पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं है, लेकिन विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच माता-पिता के रवैये में बदलाव आया
है। माता-पिता की स्थानीयता सामाजिक समायोजन और माता-पिता के दृष्टिकोण के आयामों
पर ही प्रभाव डालती है। 2007, सी.पी.खोखर और बृजेश कुमार
उपाध्याय ने शारीरिक रूप से वंचित वातावरण में रहने वाले
किशोरों के समायोजन पैटर्न की तुलना की है। परिणामों से पता चला कि सहकर्मी
समायोजन के संबंध में यौन प्रभाव की स्वतंत्रता। किशोर लड़कियों की तुलना में लड़कों
को सहकर्मी समायोजन के संबंध में पर्यावरण संवर्धन के प्रति अधिक संवेदनशील पाया
गया। यह सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के कारण जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि लड़के
लड़कियों की तुलना में भौतिक वातावरण और परिवेश के अधिक संपर्क में हैं। 2007, फर्लांग एन और कॉनर जे.पी.ने
व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं के लिए शारीरिक अक्षमता तनाव स्केल (पीओएसएस) के विकास के
माध्यम से अक्षमता से संबंधित तनाव को मापने के उद्देश्यों के साथ शोध किया
है। और अध्ययन में यह पाया कि जीएचक्यू
मनोरोग समूह में स्कोरिंग करने वाले प्रतिभागियों में तनाव का स्तर उच्च था। 2007, जेनिफर ए क्लेलैंड, अमांडा जे0 ली0 और सुसान बॉल
ने अपने अध्ययन में खुलासा किया कि ब्रिटेन में सीओपीडी में प्राथमिक
देखभाल, अवसादग्रस्तता और चिंताजनक लक्षण उम्र और लक्षणों के
उच्च स्तर से संबंधित हैं। अवसाद भी कम रोगी-रिपोर्ट की गई सामान्य स्वास्थ्य
स्थिति से जुड़ा हुआ है। 2006, डेनिस सी. हार्पर ने
विकलांग और गैर-विकलांग (सामान्य) के बीच एमएमपीआई प्रोफाइल अंतर की जांच की। अध्ययन में पाया कि दोनों लिंगों के विकलांग
समूहों के प्रोफाइल पैटर्न समान थे। हालाँकि, पुरुष विकलांग
किशोरों के स्केल 1, 2, 5, 8 और 9 में
उल्लेखनीय रूप से उच्च अंक थे, जबकि विकलांग महिला किशोरों
के पास निम्न अंक थे। 2006, रोकाच, अमी, लेशियर-किमेल,
राहेल एवं सफारोव, आर्टेम ने अपने अध्ययन में पाया है कि
शारीरिक अक्षमता का व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता, सामाजिक
संभोग और भावनात्मक कल्याण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अकेलापन इनका लगातार साथी पाया
गया है। पुरानी बीमारियों से पीड़ित हैं जिसके परिणामस्वरूप शारीरिक अक्षमता होती
है। इस अध्ययन ने उस अकेलेपन के गुणात्मक पहलुओं की जांच की। परिणाम बताते हैं कि
शारीरिक अक्षमताओं वाले लोगों का अकेलापन सामान्य आबादी से काफी अलग होता है। 2004, कर्स्टन नौमन मुर्तग और हेलेन बी ह्यूबर्ट ने
वरिष्ठ नागरिकों के बीच अक्षमता में लिंग अंतर को स्पष्ट करने में
सामाजिक-जनसांख्यिकीय कारकों, पुरानी बीमारी जोखिम कारकों और
स्वास्थ्य स्थितियों की भूमिका का विश्लेषण किया है। अध्ययन में पता चला कि संभावित व्याख्यात्मक कारकों
के लिए समायोजित सहप्रसारण का विश्लेषण निम्न था परिणामों से भी पता चला कि महिलाएं
ज्यादा थीं। 2001, वीसन और मारिका ने विकलांग बच्चों के माता-पिताः व्यक्तित्व लक्षण पर शोध किया। परिणामों से पता चला कि विकलांग बच्चों की माताओं में एस्टोनियाई महिलाओं के मानदंडों की तुलना में काफी कम बहिर्मुखता, खुलापन और उच्च न्यूरोटिसिज्म था। परिणामों ने यह भी प्रदर्शित किया कि विकलांग बच्चों के पिता बहिर्मुखता और खुलेपन में उल्लेखनीय रूप से कम थे, लेकिन पुरुषों के लिए मानदंडों की तुलना में कर्तव्यनिष्ठा में काफी अधिक थे। |
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मुख्य पाठ |
समस्या की उत्पत्ति- आधुनिक युग प्रतिस्पर्धा का युग है। आज भी
दिव्यांगों को दीन-हीन समझा जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। अब
दिव्यांग किसी की दया नहीं चाहते। उनकी भी अपनी इच्छाएं हैं, अपने अधिकार है, दिव्यांग अच्छे अच्छे पदों पर आसीन
होकर इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं। आज के दिव्यांग किशोर भी सबसे आगे निकल जाना
चाहते हैं। वह सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र
में आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में राजनीतिक उन्नति चाहते
हैं। प्रत्येक मानव की तरह ये दिव्यांग भी अपनी उन्नति के साथ-साथ अपने राष्ट्र की उन्नति चाहता है। यह तभी सम्भव है
जब वह पूर्ण रूप से समायोजित हो।दिव्यांगों के पूर्ण विकास के लिए भारत सरकार ने 1961 में एक समिति बनायी थी जिसमें चिकित्सा, शारीरिक व
व्यावसायिक कार्यक्रम, भविष्य नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय
सहयोग को इसमें रखा गया। सरकार ने दिव्यांगों के पुर्नवास हेतु विज्ञान एवं तकनीकी भी उपयोग की। दिव्यांगों को लाभप्रद रोजगार देने के लिए देश भर में
सामान्य रोजगार केन्द्रों में विशेष रोजगार कक्ष खोले गये। 1989 के दौर में 23 विशेष प्रकार के केंद्रों पर व 42 सामान्य केंद्रों से
लगभग 4000 से अधिक दिव्यांगों को रोजगार मिला लेकिन आज
केंद्र सरकार इस योजना में इसलिए विफल है क्योंकि देश भर में दिव्यांगों की
बहुतायत है और उनके अनुपात में विशेष रोजगार केंद्र कम है जिसके कारण आज का
दिव्यांग किशोर सामान्य किशोरों की अपेक्षा अपने रोजगार के लिए अधिक असमायोजित
महसूस करता है। आज दिव्यांगों का संपूर्ण सामाजीकरण होना अनिवार्य है। इसके लिए उन्हें ऐसे अवसर अवश्य प्रदान करने की आवश्यकता है जिससे वह अपने हम उम्र तथा समाज के अन्य लोगों से ही हिल मिल सके और समाज में समायोजन स्थापित कर सकें। ऐसा माना जाता है कि दिव्यांगता सामान्य व्यक्तियों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करती है, जिसकी वजह से यह दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राएं अपने आप को औरो उसे अलग महसूस करते हैं और उनमें यह भावना कहीं ना कहीं उनमें निष्क्रियता का भाव जागृत करती है जो उन्हें असमायोजन की तरफ ले जाती है, इसीलिए शोधकर्ता ने अपने शोध के लिए निम्न विषय को चुना है। समस्या कथन- ”मूक बधिर एवं अस्थि दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं की
समायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करना।” शोध में प्रयुक्त चरों का परिभाषीकरण- दिव्यांगता दिव्यांगता वह स्थिति है जिसमें मनुष्य के किसी
अंग पर बीमारी, दुर्घटना या अन्य किसी वजह से इस हद तक प्रभाव पड़े कि
उसके रोज मर्रा के काम-काज में बाधा उत्पन्न हो जाए। जरूरी काम में निम्न हैं- 1. चलना-फिरना, 2. देखना, 3. सुनना व बोलना 4. सोचना व समझना। क्रो एण्ड क्रो के अनुसार- ”एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या उसे
सीमित रखता है, उसे हम विकलांग बालक (शारीरिक न्यूनता से
ग्रसित व्यक्ति) कह सकते हैं।” शोधकर्ता द्वारा अपने शोध कार्य के अन्तर्गत
शारीरिक रूप से दिव्यांग बालको में से किशोरावस्था के चालन दिव्यांगता तथा मूक बधिर
दिव्यांगता वाले बालकों को ही चुना गया है। चालन दिव्यांग बालक शोध के अन्तर्गत ऐसे चालन दिव्यांग
छात्र-छात्राओं को रखा गया गया जिनके हाथ और पैरों में इस हद तक दिव्यांगता होती
है कि उन्हें अपने सामान्य कार्य करलेमें भी कठिनाई भी होती है। मूक बधिर बालक मूक बधिर बालक गूंगे और बहरे होते हेैं अर्थात्
उनमें श्रवण औैैैैैर वाक्रूपी मिश्रित दिव्यांगता होती है। शोध में ऐसे छात्रों को
शामिल किया गया है जो 100 डी0 बी0
की आवाज भी न सुनने में असमर्थ हैं। शोध की आवश्यकता एवं महत्व सामाजिक दृष्टि से विकलांग व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि देश की एक बड़ी जनसंख्या में यह लोग भी शामिल होते हैं। जिसके कारण इनका देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा किए गए कार्य व्यवहार सदैव काम में आते हैं। अतः इनकी सारी क्षमताओं को अनदेखा करके इनका प्रयोग किसी भी कार्य-व्यवसाय में नहीं किया जा सकता है। इसलिएउचित समय पर उनकी क्षमता को जानकर उसी के आधार पर उनकी स्थिति में और अधिक सुधार करके उन्हें समाज एवं राष्ट्र का एक योग्य एवं समर्थ नागरिक बनाया जा सकता है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि प्रस्तुत समस्या पर एक अध्ययन की आवश्यकता है। प्रस्तुत शोध कार्य में विभिन्न प्रकार के संस्थानों में अध्ययनरत मूक-बधिर तथा दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं का वातावरण के साथ उनकी स्वयं की समायोजन क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन किया जाएगा। अध्ययन के उपरांत प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर इनके समग्र विकास की प्रक्रिया को सामान बालकों के समकक्ष लाने के लिए सुझाव प्रस्तुत किए जाएंगे। जिससे कि यह समाज के सक्षम एवं योग्य नागरिक बनकर समाज के कल्याण एवं राष्ट्र की प्रगति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके। साथ ही साथ शोध के निष्कर्षों से विकलांगता के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षण संस्थाएं तथा व्यवसायिक पुनर्वास केंद्र भी अपने क्षेत्र के दिव्यांग किशोरों की क्षमता को जानकर उसे और अधिक बढ़ाने का प्रयास करेंगे जिससे कि यह दिव्यांग किशोर भी अपनी योग्यता और क्षमताओं को सिद्ध कर सके। शोध की परिकल्पनाएं- शोध
की परिकल्पनाएं निम्नलिखित हैं- 1. मूक बधिर किशोर छात्र- छात्राओं की
समायोजन क्षमता में सार्थक अन्तर होता है। 2. दिव्यांग किशोर छात्र- छात्राओं
की समायोजन क्षमतामें सार्थक अन्तर होता है। 3. मूक बधिर किशोर छात्र और चालन
दिव्यांग किशोर छात्रों की समायोजन क्षमता में सार्थक अन्तर होता है। 4. मूक बधिर किशोर छात्राओं और दिव्यांग किशोर छात्राओं की समायोजन क्षमता में सार्थक अन्तर होता है। शोध की परिसीमायें- 1. अध्ययन के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में दिव्यांगता तथा मूक बधिर दिव्यांगता के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षण
संस्थाओं को शामिल किया गया हेै। 2. अध्ययन के अन्तर्गत उच्चतर माध्यमिक
स्तर के संस्थागत किशोर छात्र-छात्राओं को ही शामिल किया गया है। 3. इसमें केवल शारीरिक रूप से दिव्यांग
किशोर छात्र-छात्राओं को ही शामिल किया गया है। 4. ये सामान्य बुद्धि के शारीरिक रूप से दिव्यांग छात्र-छात्राएं हैं। प्रस्तुत शोध की जनसंख्या- शोधकर्ता ने अपने शोधकार्य को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश के अर्न्तगत संचालित उच्चतर समस्त उच्चतर माध्यमिक स्तर पर संचालित चालन दिव्यांग विद्यालयों तथा मूक बधिर विद्यालयों को जनसंख्या के रूप में चयन के साथ-साथ उन विद्यालयों को भी जनसंख्या में शामिल किया गया है जिनमें उपरोक्त छात्र-छात्राएं अध्ययनरत हैं। |
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सामग्री और क्रियाविधि | प्रस्तुत शोध की परिकल्पनाओं के सत्यापन हेतु सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया है। |
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न्यादर्ष |
प्रस्तुत शोधकार्य में शोधकर्ता ने ‘उद्देश्य परक‘ न्यादर्शन चयन विधि के द्वारा अपनी समस्या से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित उत्तर प्रदेश के समस्त उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों तथा प्रशिक्षण संस्थानों को चुना है जिनमें किशोर मूक बधिर दिव्यांग तथा किशोर दिव्यांग छात्र-छात्राएं अध्ययन करते हेेेेेैैं। |
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प्रयुक्त उपकरण | प्रस्तुत शोध कार्य को पूर्ण करने के लिए A.K.P. Sinha(Senior Prof. &Head Dept. of Psychology Ravi Shankar University, Raipur) and (R.P. Singh Reader, P.G. Dept. of Education, Patna University, Patna) निर्मित ‘कालेज विद्यार्थियों के लिए समायोजन सूची‘ का प्रयोग किया गया है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अध्ययन में प्रयुक्त सांख्यिकी | प्रस्तुत शोध में आंकड़ों के सांख्यिकीय विश्लेषण के लिए विश्लेषण अप्राचल (Non Parametric Test) की काई वर्ग परीक्षण विधि का प्रयोग किया गया है। इसका सूत्र इस प्रकार है- d.f.= (r-1) (c-1) |
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विश्लेषण | आंकड़ों का विश्लेषण एवं परिकल्पनाओं का परीक्षण
= 26-11 तालिका-2
= 26-11 तालिका-3
= 26-11 तालिका-4 मूक बधिर दिव्यांग छात्राओं तथा दिव्यांग छात्राओं की
समायोजना क्षमता की तुलना
= 26-11 प्रस्तुत तालिका से प्राप्त का मान (6.70), 0.1% विश्वास के स्तर पर सार्थकता के लिए आवश्यक मान से कम है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूक बधिर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है। |
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निष्कर्ष |
आकड़ों के विश्लेषण के उपरान्त निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त हुए-
1. मूक बधिर किशोर छात्र- छात्राओं की समायोजन क्षमता में सार्थक अन्तर होता है।
2. दिव्यांग किशोर छात्र- छात्राओं की समायोजन क्षमतामें कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।
3. मूक बधिर किशोर छात्र और चालन दिव्यांग किशोर छात्रों कीसमायोजन क्षमता में सार्थक अन्तर होता है।
4. मूक बधिर किशोर छात्राओं और चालन दिव्यांग किशोर छात्राओं की समायोजन क्षमता में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।
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अध्ययन की सीमा | 1. अध्ययन के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में दिव्यांगता तथा मूक बधिर दिव्यांगता के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षण संस्थाओं को सामिल किया गया हेै। 2. अध्ययन के अन्तर्गत उच्चतर माध्यमिक स्तर के संस्थागत किशोर छात्र-छात्राओं को ही सामिल किया गया है। 3. इसमें केवल शारीरिक रूप से दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं को ही सामिल किया गया है। 4. ये सामान्य बुद्धि के शारीरिक रूप से दिव्यांग छात्र-छात्राएं हैं। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. कपिल, एच0के0- अनुसंधान विधियां व्यावहारिक विज्ञान में सातवां संस्करण 1992-93 हरप्रसाद भार्गव पुस्तक प्रकाशन आगरा।
2. गुप्ता, एस0पी0- आधुनिक मापन एवं मूल्यांकन 1999 शारदा पुस्तक भवन इलाहाबाद।
3. गैरेट, हेनरी ई0- शिक्षा मनोविज्ञान एवं सांख्यिकी द्धितीय संशोधित संस्करण 1991 विनोद पुस्तक मंदिर आगरा
4. त्यागी, गुरदास- शिक्षा में मनोविज्ञान 1997-98 विनोद पुस्तक मंदिर आगरा।
5. तरंग, डॉ0 जयपाल- विकलांगों के लिए शिक्षा अक्टूबर 1989 निर्देशक प्रकाशन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार पटियाला हाउस नई दिल्ली ।
6. विष्ट, डॉ आभा रानी -विशिष्ट बालक प्रथम संस्करण विनोद पुस्तक मंदिर आगरा ।
7. भटनागर, आर0पी0 एवं अन्य- शिक्षा मनोविज्ञान 1996 आर लाल बुक डिपो मेरट।
8. भार्गव, महेश -विशिष्ट बालक 1989 भार्गव बुक हाउस राजा मंडी आगरा
9. विकलांग व्यक्तियों की पहचान 2002 राष्ट्रीय संस्थान विकलांगता के क्षेत्र में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकार नई दिल्ली
10. शोैरी, डा0 जी0 पी0- स्वास्थ्य शिक्षा विनोद पुस्तक मंदिर आगरा 1986
11. Atpm, A.A.- Handicapped: A challenge to non handicapped 1959, Citadel Press, New Yark
12. Bhalerao, Usha- Education Blind of Urban- Madhya Pradesh-1983
13. Panda, K.C.- Education of Exceptional Children, 2004, Vikas Publishing House Pvt. Ltd.
14. Asian Journal of Psychology & Education 19982.9(1), 3-7
15. Indian Educational Abstract, Vol. 1, Number-1, January 2003, NCERT, New Delhi
16. Indian Educational Abstract, Vol. 2, Number-2, July 2003, NCERT, New Delhi
17. http://hdl.handle.net/10603/464110 |