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मध्य हिमालय में पर्यावरण असंतुलन: कारण व निवारण | |||||||
Environmental Imbalance in Central Himalayas: Causes and Remedies | |||||||
Paper Id :
17500 Submission Date :
2023-05-01 Acceptance Date :
2023-06-23 Publication Date :
2023-06-25
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सारांश |
हिमालय क्षेत्र सदैव से भारतीय जनमानस और दूसरे देंशों के जिज्ञासूओं के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। भारतीयों के लिए यह आध्यत्मिक चेतना का प्रेरणा स्रोत भी रहा है। सदियों से देश-विदेश के हजारों-लाखों लोग हिमालय का सानिध्य पानें के लिए यहॉ आते रहे हैं, यह स्थान आध्यात्मिक चेतना के साथ-साथ मानसिक शान्ति के लिए भी लोगों को आकर्षित करता रहा है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The Himalayan region has always been a center of attraction for the Indian public and the curious of other countries. It has also been a source of inspiration for spiritual consciousness for Indians. For centuries, thousands and millions of people from India and abroad have been coming here to get the company of the Himalayas, this place has been attracting people for spiritual consciousness as well as for mental peace. Presently due to materialistic and modernity natural resources are being exploited very fast. Due to which this region is also not untouched, the immense natural wealth of the sensitive Himalayas, the peaceful environment are being used only for 'economy' and maximum comfort and luxury. The delicate ecology of the sensitive Himalayas is being weakened due to the commercial-oriented mindset to attract tourists and pilgrims, and bigger and bigger natural disasters are coming to the fore every year. Due to which it is natural to have loss of public money in large quantities. The truth behind this is that the 'short-sighted policies' of the government are responsible. The incident in Joshimath town of the state in January 2023 is a strong example of this. The purpose of the study is to review the governance policy and other environmental policies and aspects of other Himalayan states including Uttarakhand. |
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मुख्य शब्द | मध्य हिमालय, पर्यावरण, असंतुलन, भारतीय जनमानस, आध्यात्मिक चेतना। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Middle Himalayas, Environment, Imbalance, Indian Public Mind, Spiritual Consciousness. | ||||||
प्रस्तावना | वर्तमान में भौतिकतावादी और आधुनिकता के कारण प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन बडी तेजी से किया जा रहा है। जिस कारण यह क्षेत्र भी अछूता नहीं है, संवेदनशील हिमालय की आकूत प्राकृतिक संपदा, शान्त वातावरण का प्रयोग केवल ’आर्थिकी’ और अधिक से अधिक आरामतलबी और विलासिता के लिए किया जा रहा है। व्यावसायिक गतिविधियों पर केंद्रित मानसिकता के चलते पर्यटकों व तीर्थयात्रियों को आकर्षित करनें के कारण संवेदनशील हिमालय की नाजूक पारिस्थिकी कमजोर हो रही है, और हर साल बडी से बडी प्राकृतिक आपदाऐं सामनें आ रहीं हैं । जिससे बडी मात्रा में जनधन की हानि होंना स्वाभाविक है। इसके पीछे का सत्य यही है की शासन की ’अदूरदर्शी नीतियॉ’ ही जिम्मेदार है। निकट में जनवरी 2023 को राज्य के जोशीमठ नगर की घटना इसका प्रबल उदाहरण है। इसका उद्देश्य उत्तराखण्ड सहित दूसरे हिमालयी राज्यों की शासन की नीति और अन्य पर्यावरणीय नीतियों और पहलुओं की समीक्षा करनीं है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | वर्तमान में शासन की अदूरदर्शी की नीतियों के कारण मध्य हिमालय क्षेत्र में
स्थित अनेक राज्यों की पर्यावरण-पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हुआ है, जिससे
क्षेत्र के कई मानवीय बसावट क्षेत्र पलायन करनें को मजबूर हो रहे हैं, जिससे सामाजिक, आर्थिक, व राजनीतिक सॉस्कृतिक परिवर्तन देखनें को मिल रहें हैं। अपना पुश्तैंनी
निवास छोड दूसरे स्थान पर निवास करना अनेक परेशानियों का सबब बन रहा है। खासकर
निर्धन राज्य उत्तराखण्ड। वर्तमान में उत्तराखण्ड के
प्रसिद्व नगर जोशीमठ की प्राकृतिक आपदा चर्चा में है। हिमालय क्षेत्र हमेशा से
भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है। इसकी उच्चता, भव्यता
और अलौकिक शौंदर्यं नें सबको अपनीं ओर आकर्षित किया
है। इसनें सबके हृदय में उच्चतम विचार, कल्पनाऐं, और उदार अनुभूतियों का संचार किया है। प्राचीन
ऋषि-मुनियों नें इसे जडी-बुटियों का भंडार समझ कर कभी इसे ’’औषधिनां पराभूमिः हिमवान शैल उत्तमः‘‘ प्राचीन
हिन्दु धर्मग्रन्थों के दृष्टातों व प्रसंगों में भी हिमालय की विशेषताओं और महत्व
को स्थान सर्वोपरी है। गीतापदेश में अर्जून को ईश्वर
की सर्वव्यापकता और सम्पूर्णता को समझाते हुए अंत में कृष्ण नें उस व्यापकता और
संम्पूर्णता की उपमा देंनें को हिमालय की उपमा देंनें
को हिमालय को चुना और कहा -’’हे पार्थ ! मैं स्थावरों में
हिमालय हूॅ(’’ स्थावराणां हिमालयः) गुप्तकाल में)6(, जो भारत के इतिहास में सभ्यता और संस्कृति का
स्वर्ण युग माना जाता है। कालिदास का हिमालय के बारे में यह कथन जगत प्रसिद्व है
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साहित्यावलोकन | मध्य हिमालय में स्थित नवादित राज्य उत्तराखण्ड के पर्यावरण व संकट को लेकर समय-समय पर अनेक अध्ययन पूर्व में हुए हैं। यहॉ ऐसे संदर्भित अध्ययनों की समीक्षा की गई है। जो प्रस्तुत शोध पत्र की दृष्टि से प्रासंगिक हैं। आर0पी0धस्माना एवं विजय लक्ष्मी ढौंढियाल (2007)[1] द्वारा संपादित पुस्तक ’उंत्तराखण्ड: नीड फॉर अ कम्परहेंसिव ईको-स्ट्रेजी’ में हिमालय क्षेत्र की भौगोलिक विषताओं एवं तदनुरूप वहॉ की प्रकृति संरक्षण की रीति-नीतियों को विस्तार रूप से दर्शाया गया है। हिमालय क्षेत्र का यह भाग में ’चिपको ऑदोलन’ की जन्मभूमि भी रही है, जो वहॉ की महिलाओं द्वारा सत्तर के दशक में सरकार पोषित ठेकेदारों के संरक्षण में हुआ था महिलाओं नें प्राकृतिक संपदा को नुकसान पहुचानें वाले ठेकेदारों को वहॉ से भागनें पर मजबूर कर दिया था । अरूण रावत व सीमा रावत (2011)[2] ’बायोसोर्सेस ऑफ उत्तराखण्ड: देयर कनवरशेसन एण्ड मैनेजमैंट’ में उत्तराखण्ड के पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन, भूमि, जलवायु, प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन, कृषि सिचाईं व जैव विविधता के पारम्परिक व आधुनिक तरीकों की चर्चा के साथ-साथ उन्हें कैसे संरक्षित किया जा सकता है की चर्चा है। एस0एस0रावत सी0एस0सूद सरिता पंवार (2011)[3] संपादित पुस्तक ’’पंचायत राज एण्ड रूरल डवलपमैंण्ट’’ उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों की उपयोग संरक्षणात्मक तरीके से किया जाता है, अपितू वन संपदा को दैवीय उपहार मानकर उनको पूजा भी जाता है, पंचायतें खासकर वन पंचायतों की भूमिका वन संपदा के संरक्षण में महत्वपूर्ण हैं। पंचायतों के स्थानीय जल, जंगल और जमीन को बचानें और उनका उपयोग करनें क चर्चा पुस्तक में की गईं है। एस0एम0 नायर (2017) [4] ’’इण्डनजर्ड एनीमल्स ऑफ इण्डिया एण्ड देयर कनजरवेशन’ भारतीय वन्य प्राणी (सुरक्षा k) अधिनियम 1972 तथा जैव विविधता से उत्पन्न खतरों का सविस्तार वर्णन किया है। उत्तराखण्ड में अनेक संरक्षित क्षेत्रों का वर्णन किया गया है। हर्षवन्ती बिष्ट, गोविन्द एस0रजवार संपादक (2007) [5] ’’टूरिज्म एण्ड हिमालयन बायोडाइवरसिटी’’ (प्रोसिडिंग ऑफ द नेशनल सेमीनार) में ख्याती प्राप्त लेखकों द्वारा हिमालय में तीर्थाटन-पर्यटन को प्रोत्साहित करनें के लिए अनेक उपाय सूझाये हैं। साथ ही संवेदनशील हिमालय क्षेत्र की भौगोलिक बनावट और उसमें पाई जानें वाली जैव-विविधता को संरक्षित करनें के अनेक लाभों का वर्णन किया है। अतः उपरोक्त कार्यों से विदित होता है कि हिमालय के पर्यावरण व उसके संकट को लेकर विद्वानों द्वारा अनेक शोध कार्य किये गये हैं, किन्तु प्रस्तुत शोध पत्र में मानव जनित व राजनीति हस्तक्षेप लेकर पर्यावरण के संकट कोलेकर चर्चा करना है। |
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मुख्य पाठ |
मानवीय हस्तक्षेप मध्य हिमालय प्राकृतिक शौंदर्य की दृष्टि से भी अत्यन्त समृद्व है, प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के कारण यहॉ आनें वालों की
संख्या में भी लगातार वृद्वि होती रही है। प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग ’मनुष्य केंन्द्रित’
होने के कारण विकास व निरंतर बढ रही भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
प्राकृतिक संपदा के विदोहन के कारण यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं से निरंतर घिरा है, अंतर इतना ही है कि क्षेत्र और आपदाओं के रूप बदलतें रहते
हैं। पुर्वी हिमालय क्षेत्रों में दार्जिलिंग,
सिक्किम और अरूणांचल प्रदेश पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में जम्मू कश्मीर, लद्दाक के कई इलाके भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील
हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय में निरंतर भूगर्भीय हलचल हो रही है। यह
अभी निर्माण की अवस्था में है। हिमालय अभी काफी युवा और बदलाव की ओर अग्रसर है। मानवीय दखल व पर्यावरणीय बदलाओं से हिमालय की सेहत व संरचना पर असर पडा है।
पर्वतीय क्षेत्रों मे किए जानें वाले अंधाधूंध निर्माण को लेकर पर्यावरणविदों एवं
वैज्ञानिकों की कई ओर से समय-समय पर चेताया न गया हो, लेकिन उस पर मुश्किल से ही
ध्यान दिया गया। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ
इण्डिया-(जीएसआई)के पूर्व निदेशक और
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रॉक मैकेनिज्म बंगलूरू के निदेशक डॉ0 पीसी नवानी स्पष्ट कहते
हैं, हम खुद आपदाओं को आमंत्रित
कर रहे हैं। हिमालय एक सक्रिय प्रणाली
हैं उसमें प्राकृतिक संतुलन बना हुआ है। यह संतुलन कई बार भारी बारीश और भूकंप आदि
प्राकृतिक कारणों से बिगडता है। दूसरा मानव जनित कारणों से प्रकृति का संतुलन तब
खंडित होता है। जब हम उसे गलत तरीके से छेड देते हैं।[8] जैसे नदी के बहाव क्षेत्र में मकानों के बन जानें पर आपदा का आकार कई
गुना ज्यादा और घातक हो जाता है। सूरंग ,खानों, सडक बडे निर्माण के लिए उसके प्राकृतिक संतुलन पर असर का
वैज्ञानिक अध्ययन जरूरी होता है। उत्तराखण्ड में वर्ष 2022 में करीब 900 छोटे भूकम्प दर्ज किए गए। राज्य में
बीते एक साल में 13 भूकम्प ऐसे आए,
जिनकी तीव्रता चार मैग्नीटयूट से ज्यादा रही। विगत कई दशको से पहाडों में लगातार तमाम तरह के बडे
निर्माण हुए हैं,। सडक निर्माण में में
चट्टानों की कटिंग बडी-बडी बॉध परियोजना के निर्माण में मिटटी का कटाव एक बदलाव ही
है। जो नये भूस्खलन क्षेत्र पैदा कर सकता है। प्रदेश में इस समय 84 भूस्खलन के
डेंजर जोंन चिन्हित किए जा चुके हैं। ग्लेशियर झील फटनें व तेज बारिश होंनें की
वजह से भी निचले इलाकों में भारी भूस्खलन,
भू कटाव हुआ है। एक अध्ययन में 1820 से 2000 के बीच हिमालयी क्षेत्र में कुल
180 सालों में बाढ की 64 घटनाऐं दर्ज की गईं। पहाड में भूमिगत दो तरह की चट्टानें
हैं। इसमें बाहर की ओर ढलान वाले रॉक से सम्बन्धित क्षेत्र में भूस्खलन ज्यादा
होते हैं। रिसता पानीं इनकी जडों कमजोर करता है। जिसमें भूस्खलन के हालात बनते
हैं। भीतर की तरफ ढलान वाले पहाडी क्षेत्रों में आपदाऐं कम देखी जाती है। शौचालय
का पानी सीवर लाइन के जरिये निकाला जाता है। बाथरूम और रसोई के पानी की निकासी की
कोई व्यवस्था नहीं है। यह खुले में बहकर पहाड को अंदर से कमजोर करता है। उच्च हिमालय के अधिकॉश क्षेत्र मलबे की ढेर पर बसे हैं यही मलबा सैंकडों
हजारों साल बाद एक ठोस सतह में बदल चूका है। पहले इसमें खेती हुई और धीरे-धीरे
आबादी बसनी शुरू हुई है। इस मलबे के भार वहन करनें की एक क्षमता है। लगातार बढती
आबादी इन क्षेत्र पहाडों पर भारी निर्माण बढते जा रहे हैं, लेकिन ड्रेनेज सिस्टम लागू नहीं है। पानीं जमीन के अंदर
रिसता रहता हैऔर वह देर-सवेर कमजोर जगह पर भूं-धसाव का कारण बन जाता है। नदी-नालों
के किनारे बडे पैंमानें पर अवैध निर्माण हो चूके हैं। जनप्रतिनिधि इन अवैध
निर्माणों की ढाल बन जाते हैं। जिन सरकारों पर अवैध बस्तियां न बसनें देंने की कानूनी जिम्मेदारी
है, वह वोट बैंक की राजनीति के कारण अवैध निर्माण की संरक्षक बन
बैठी है। अदालतें अवैध निर्माण हटानें का
आदेश देती हैं और सरकारें अवैध निर्माण को बचानें के लिए अध्यादेश ले आती हैं। इस
मामले में धूर विरोधी राजनीतिक दलों में
भी अघोषित सहमति है, लोंगों को भरोसा है, कि वोट बैंक के दबाव में अवैध निर्माण कभी नहीं टूटता, लिहाजा नदी नाले और जंगल सब जगह अवैध निर्माण बदस्तूर जारी है। विधायक और सांसद से
उन अवैध निर्माणों तक सुविधाऐं पहुॅचाई जा रहीं हैं। वहां सरकारी खर्च पर योजनाऐं
बन रही हैं। पहाडों पर बिना भूवैज्ञानिक सूझावों के छोटे-बडे हर तरह के निर्माण
कार्य हो रहे हैं। सरकारी महकमें बिना वैज्ञानिक राय लिए निर्माण करवा रहें हैं।
वन पंचायत और सिविल जंगल मनमानें तरीके से मशीनों से उधेडे जा रहे हैं। कई सरकारी
निर्माण अवैध रूप से पेड कटवाए जा चुके हैं। जब सरकारी तंत्र ही अवैध निर्माण में
हिस्सेदार हो, तो क्या किया जाए?[9] उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्रों में ट्री लाइन हर साल ऊपर की तरफ खिसक रही है,। अल्मोडा के जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान
के एक शोध के मुताबिक, बुरांश की प्रजातियां
सामान्य तौर समुद्र की सतह से 3,200 मीटर ऊॅचाईं तक मिलती थीं । गढवाल के तुंगनाथ
में यह 3,800 मीटर तक जा पहॅुची हैं।
बागेश्वर के पिंडारी में 4400 मीटर तक जा पहॅुची है। असका अर्थ यह हुआ कि
ट्री-लाइन अब छः सौ से 12 सौ मीटर तक उच्च हिमालय की ओर खिसक चुका है। इससे जलवायु
परिवर्तन के स्पष्ट संकेत मिल चुके हैं। शीतकाल में जंगलों के जलनें की घटनाऐं नए
संकट की ओर इशारा कर रही है। ये घटनाऐं जंगलों की विविधता ओर जमीन को बॉधनें की
वनस्पतीय क्षमता को कुप्रभावित करती है। सरकारी तंत्र के पास जाडों की वनाग्नि को छोडिए गर्मियों की आग
रोकनें की प्रभावी योजनाऐं नहीं हैं। हिमालयी क्षेत्र भूकंप के लिहाज से से बेहद
संवेदनशील है। पहाड पर मिट्टी की मजबूत पकड रहती है। नहर-गुलों में लगातार पानीं रहनें से आसपास के क्षेत्र में नमीं रहती है। इसके
चलते आसपास झाडियां और पेड-पौंधे उगते हैं। ये अपनीं जडों से जमींन को मजबूती देते
हैं, और भू-कटाव रोकते हैं।
पहाडों में अधिकॉश नहर-गूलें नहर-गूलें जंगलों से निकलती है। इनमें बह रहा पानीं
खेतों मेे आता है। ये पानीं के बहाव को कम करनें में सहायक होती हैं, पहाड बचानें को नहर-गूलों को बचाना जरूरी है। जले में बीते
पॉच साल में गुलों की संख्या 50 फीसदी तो बढी,
लेकिन रख रखाव के अभाव में ये फायदा पहुॅचानें से ज्यादा नुकसान का सबब बन रही
है। क्षतिग्रस्त गुलों और नहरों में रिस रहा पानीं मैदानों में जहॉ खेतों में
फसलों को नुकसान पहॅुच रहा है। वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में पहाडों को कमजोर कर रहा
है। बागेश्वर विभाग के ऑकडें बताते है कि हल्द्वानी सिंचाई खंड में बजट की कमीं व
शहरीकरण के चलते करीब 40 फीसदी गुुलें अस्तित्व खो चुकी है। पिथौरागढ में आठ साल
पहले 13 हजार से भी ज्यादा नहर-गूलें थीं । इनमें 30 फीसदी आपदा, सडक कटिंग के मलबे व बजट के अभाव की भेंट चढ गईं । चम्पावत
में भी पॉच साल से नहर गूलें देखभाल के अभाव में अस्तित्व खो रही है। इनका जमीन में रिसता पानीं पहाड की जडों को
भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है। अल्मोडा में 125 नहरों में से 18 क्षतिग्रस्त है।
मानसून में ये ये पहाड की जमीन को नुकसान पंहुचाती है। पहाड की मिट्टी को जकडे
पेडों को जडों को ढीला करती है। बागेश्वर की 141 नहरों में से 25 या तो बजट की
भेंट चढ गई या सडकें बननें में निकले मलबे जद में आकर क्षतिग्रस्त हो गईं। मैदानीं
जिले उधमसिंहनगर में पॉच साल में नहरों की संख्या 186 से 198 हो गईं। लेकिन यहॉ प्रमुख दो नहरें नेशनल हाईवे के
चौडीकरण के फेर में क्षतिग्रस्त हो गई। ये नहरें मानसून में लोंगों के लिए
मुसीबतें लातीं हैं।[10] दून सिंचाईं खण्ड की 82 नहरों में से 3 बंद है। करीब 400 गूलों में से ’कुछ’ देखरेख न होंनें से
क्षतिग्रस्त हैं। टिहरी में 8 बडी नहरों सहित कुल 459 नहरें गूलें । इनमें से 178
आंषिक व 68 नहरें पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं। उत्तरकाशी में 501 नहर-गूलों में
अधिकतर की स्थिति अच्छी नहीं हैं, पौडी के कोटद्वार में सिर्फ
10 नहरें हैं। लघु सिंचाईं की गूलें बडी संख्या में ध्वस्त हो चुकीं हैं। जोशीमठ की आपदा ब्रिटिश काल से ही लोग इस तथ्य से अवगत हैं,कि जोशीमठ की बसावट ऐसी जगह
पर है जो एक ग्लेशियर के पिघलनें से निकले
मलवे के रूप में है। यह भूगर्भीय दृष्टि से एक नाजूक जगह है। ऐसी जगह पर है, किये जानें वाले निर्माण कार्यों के प्रति सावधानी बरती
जानीं चाहिए थीं। एक समय ऐसा होता था कि यहॉ लकडी के घर होते थे, और आबादी भी सीमित होती थीं । लेकिन धीरे-धीरे कंक्रीट के
घर बनने ंलगे जैसे-जैसे इन क्षेत्रों की आबादी
और तीर्थाटन के साथ पर्यटन बढा वैसे-वैसे घरों के साथ होटलों का निर्माण भी
तेज हुआ । अधिकॉश निर्माण न तो वैज्ञानिक ढंग से हुआ और नहीं यह ध्यान में रखते
हुए कि की यह क्षेत्र भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील है। देश का एक बडा हिस्सा सिस्मिक जोंन पॉच में आता
है। जो भूकंम्प की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील है। इसमें उत्ंतराखण्ड का भी एक
हिस्सा है। इसे ध्यान में रखते हुए यहॉ निर्माण कार्यों को लेकर अतिरिक्त सावधानी
बरती जानी चाहिए, नैंनीताल जैसा संवेदनशील शहर अंग्रेजों के बनाए ड्रेनेज
सिस्टम के भरोसे ही है, जबकि आज यहॉ आबादी चार गुणा
बढ चूकिं हैं तब बनें दो ट्रीटमैंट प्लंाट आज 50,000 से ज्यादा की आबादी का भार ढो
रहे है। पर्यटन सीजन में ये भार दो गुना हो जाता है। घरों और होटलों के गंदे पानी
को सीवर लाइन के जरिये शहर से बाहर निकाला जाता है।[11] जोशीमठ कितना संवेदनशील है, इसे यूरोप के विश्व प्रसिद्व भू गर्भवेता हेंस और गेंरेंस नें महिनों इस क्षेत्र में रहकर 100
साल पहले विस्तृत रिर्पोट तैयार कर पुस्तक का आकार दिया और बताया कि यह क्षेत्र कितना संवेदनशील है।
पर्यावरणविद् चंण्डी प्रसाद भट्ट कहते हैं,
तथ्यात्मक प्रमाणों के आधार पर हिमालयी क्षेत्र के किसी भी क्षेत्र में विकास
के मानदंड निर्धारित होंनें जरूरी हैं।
हिमालयी क्षेत्र में बडी परियोजनाओं के बडे धमाकों के कारण यह क्षेत्र
जर्जर होंनें की स्थिति में आ गया है। नैंनीताल में ये पानी रूसी गॉव और जंगलों
में छोडा जा रहा है। इस जमीन पर पेडों की
पकड भी कमजोर होती है। कुछ जगहों पर इसे नदी-नालों में छोडनें से यह प्राकृतिक
प्रवाह को रोक देता है। इससे नदी नालों को रास्ता देंनें वाले पहाड भी अपनीं जडों
से कमजोर हो जाते हैं। अल्मोडा में भी वेस्ट वाटर पहाडों को कमजोर कर रहा है। वहॉ
गंदे पानी से सुयाल और कोषी नदी दुषित हुई है। और इसका प्रभाव बाधित हुआ है।
जोशीमठ की तरह चंपावत शहर भी कमजोर पहाड पर टिका है। यहॉ जलनिकासी का संकट बडी समस्या खडी करता
है। गंदे पानी की निकासी सीमित भूमिगत
नालियों से हो रही है। लेकिन इसके ट्रीटमैंट व्यवस्था नहीं है। बागेश्वर में गंदा
पानी सरयु-गोमती नदी में गाद जमा कर रहा है। यह दो नदियों के किनारे बसे बागेश्वर
के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। संवेदनशील पौडी-चमोली में में ड्रेनेज सिस्टम
नहीं है। पौडी में ढलान की वजह से हालॉकि जल भराव नहीं होता लेकिन पहाड की मिट्टी
को ये पानी कमजोर कर रहा हैै । चमोली जिले में ड्रेनेज संकट का खामियाजा जोशीमठ भूगत
रहा है। गोपेश्वर में जल निकासी को लेकर
गंभीरता नहीं है। यहॉ प्रस्तावित 7 नालों
के निर्माण कार्य अधूरे पडे हैं।
उत्तरकाशी में ड्रेनेज सिस्टम आध-अधूरी है। लेकिन इस पर केवल चार से पॉच नाले ही
टैप किए गए हैं।[12] उत्तराखण्ड के जोशीमठ में भूमि के दरकनें के कारण वहॉ कई घरों, होटलों, और अन्य भव बडे पैमानें पर
वनींकरण, पेडों के कटान पर रोक, पहाड की कटिंग व बडे पैमानें पर रोक किसी भी तरह के निर्माण
पर वैज्ञानिक सलाह जरूरी, आबादी का दबाव एक ही जगह से
शिफ्ट हो, नदी तट पर अतिक्रमण न हो, ढलान वाले नालों से आबादी को दूर रखा जाए, भूस्खलन संभावित जोंनों चिन्हित कर ट्रीटमैंट शुरू हो, रिटेंनिग वॉल के कार्य हो,
भूस्खलन से कमजोर हुई संरचानाओं को
किया जाय मजबूती दी जाय जलनिकासी
की उचित व्यवस्था हो , भूस्खलन क्षेत्र से आबादी
को विस्थापित किया जाय।[13] वाडिया के रिटायर्ड वैज्ञानिक डीपी डोभाल के अनुसार हिमालयी क्षेत्र में
जोशीमठ समेत पॉच हजार फीट से ऊपर के सभी इलाके ग्लेशियर के मलबे पर टिके शहर हैं।
जोशीमठ अधिक ढलान पर बसा है। जनसंख्या का दबाव अधिक है। और भवनों की तादात भी अधिक
है। पानीं की निकासी सही नहीं है। ऊपर औली क्षेत्र में जमकर बर्फवारी होती है।
जिसका सीधा ढलान जोशीमठ की तरफ है। जहॉ तक सूरंग के प्रभाव की बात है। तो सूरंग की
वजह से कहीं न कहीं प्रभाव तो पडा ही होगा। शासन की नीति व मध्य हिमालयी क्षेत्र भारत एक विकासशील देश है और आबादी के मामले में यह विश्व का सबसे बडा देश बननें जा रहा है। । यहॉ अभी भी अधिकतर लोग गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के हैं। इसलिए एक बडी आबादी आनें वालें कुछ दशकों में अपनें लिए घरों का निर्माण
करानें में सक्षम होगी । सरकार भी लोंगों को इसके लिए प्रोत्साहित कर रही है। कि
वे अपना घर बनाऐं। स्पष्ट है कि आनें वाले
समय में पर्वतीय क्षेत्रों के साथ मैदानीं इलाकों में और घरों का निर्माण होगा। जोशीमठ की आबादी बीते दो दशक में करीब 50 फीसदी बढी है, जबकि इसी अवधि में भवनों
की संख्या में 103 फीसदी से भी ज्यादा वृद्वि दर्ज की गईं है । पर्यटन स्थल
होंनें के कारण आवादी के अनुपात में यहॉ भवन निर्माण की गति दोगुनी से भी ज्यादा
हो रही है। लेकिन जोशीमठ का भू-धसाव का इतिहास होंनें बावजूद डेनेज सिस्टम
विकसित नहीं किया गया । वहॉ की जमीन कितना
बोझ सह सकती है, इसका कोई अध्ययन नहीं है।
ऊपर से जमीन के अंदर एवं बाीर बडे निर्माण के साथ-साथ विस्फोटकों का इस्तेमाल अबाध
गति से चलता रहा। 1976 में जोशीमठ के भू-धंसाव के लिए तत्कालीन मंडलायुक्त महेश चंद्र मिश्रा की
अध्यक्षता में बनाईं गईं 18 सदस्यों वाली समिति में पद्म विभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट
भी शामिल रहे। भट्ट बताते हैं, कि 11 मार्च 1976 में
जोशीमठ में शुरू हो रहे भू-धसाव पर स्थलीय निरीक्षण कर एक तथ्यात्मक रिर्पोट
प्रधनमंत्री इंदिरा गॉधी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को
भेजकर तत्काल कदम उठानें का आग्रह किया गया था। उसके बाद गढवाल कमिश्नर महेश चंद्र
मिश्रा की अध्यक्षता में 18 सदस्यीय कमेटी गठित की गईं। वैज्ञानिकों व तकनिकी विशेषज्ञों नें जोशीमठ स्थिति का निरीक्षण कर भूस्खलन और
भू-धंसाव के कारणों पर रिर्पोट तैयार की ओर सरकार को सुरक्षात्मक उपायों के सुझाव
दिए। लेकिन सरकार नें इन सुझावों पर पूरी तरह अमल नहीं किया। कुछ सुरक्षात्मक उपाय
जरूर किए गए। लेकिन भरी विस्फोंटकों के इस्तमाल पर रोक लगानें जैसे काम नहीं किए
गए।[14] पहाडों पर भूस्खलन अथवा भू-धसाव की घटनाऐं बढ रही है। पहाड एवलांच मूसलाधार
बारिश तापमान बढनें का दुष्प्रभाव,
ग्लेशियर पिघलनें ग्लेशियर झील फटनें,
जलवायु परिवर्तन, जंगलों में आग जैसे खतरों
से जूझ रहे हैं। इसके अलावा अनियोजित और अवैज्ञानिक निर्माण की वजह से पहाड के कछ
क्षेत्रों का अस्तित्व खतरे में आ चुका है। वैज्ञानिको का मत है कि ग्लेशियर के
मलबे पर बसे पॉच हजार फीट से ज्यादा ऊॅचाईं वाले इलाकों पर यह खतरा अधिक है।
जोशीमठ के अलावा नैंनीताल में मालरोड के धंसनें का मामला भी चर्चाओं में रहा।
धारी देवी मंदिर के पास कलियासौड सिरोबगड में भूस्खलन जोंन का ट्रीटमैंट सफल नहीं
रहा है। केदारघाटी में बांसवाडा बद्रीनाथ के पास लामबगड भी संवेदनशील इलाके हैं।[15] बढते आठ वर्षों से केंद्र की सत्ता में काबिज भाजपा सरकार नें इन वर्षों
मे आधारभूत ढॉचें के विकास के लिए कई परियोजनाऐं शुरू की हैं। इनमें चार धाम
परियोजना भी शामिल हैं। |
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निष्कर्ष |
मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित नवोदित राज्य उत्तराखण्ड जहॉ अपनीं नैसर्गिक सुदंरता के विख्यात है, वहीं भीषण आपदाओं के लिए भी कुख्यात है। किन्तु शासन की नीतियॉ और कानूनों में प्रकृति के संरक्षणात्मक उपयोग की बात दिखती है, लेकिन उसके जमीन पर लागू होंनें का व्यवहारिक उपाय नदारद रहता है, जिस क्षेत्र में जानवरों घोडें-खच्चरों के पॉवों के दबाव से भी वहॉ की नाजूक धरती को चोट पहुॅचती हो, फिर चार धाम योजना व रेल लाईन बिछनें कि धरती को कितना दबाव झेलना पडता है, स्वाभाविक है कि उसका प्रत्युत्त बडी प्राकृतिक आपदा ही होगी ? यही कारण है, कि उत्तराखण्ड प्रदेश आपदा प्रदेश बनता जा रहा है। हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए, राज्य में पर्यावरण संरक्षण के कठोर से कठोर कानून लागू किये जॉए। बडे-बडे निर्माणों और उनमें प्रयुक्त होंनें वाले हथियारों व आधुनिक विस्फोंटकों पर रोक लगाईं जाएं। हिमालय को सुरक्षित रखना हैं, तो उसे हिमालय के तरीके से ही बचाना होगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. धस्माना आर0पी0, एवं ढौंढियाल वी0एल0 ’उंत्तराखण्ड: नीड फॉर अ कम्परहेंसिव ईको-स्ट्रेजी’ साउथ एशियन डाइलॉग ऑन इकॉलाजिकल डेमोक्रेशी दिल्ली 2007 |