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डॉ. भीमराव अम्बेडकर: बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामाजिक सुधार | |||||||
Dr. Bhimrao Ambedkar: Buddhism-Philosophy and Social Reform | |||||||
Paper Id :
17526 Submission Date :
2023-04-19 Acceptance Date :
2023-04-22 Publication Date :
2023-04-25
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सारांश |
भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही विभिन्न संस्कृतियों के लिए विश्वप्रसिद्ध रहा है। यहाँ धर्म एवं दर्शन समान रूप से गतिमान रहे हैं। भारतीय दार्शनिक-परम्परा में बौद्ध-धर्म-दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्राचीन एवं अर्वाचीन भारत में बौद्ध-धर्म-दर्शन की व्याख्या अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से की गई है। इन भारतीय विचारकों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का एक अलग स्थान है। इन्हें सामाजिक-समता का सूत्र बौद्ध-धर्मं-दर्शन से प्राप्त हुआ। बौद्ध-धर्म का सूत्रपात एक क्रान्तिकारी युग के नाम से जाना जाता है, वहीं दूसरी तरफ डॉ. अम्बेडकर का उदय एक प्रखर समाज-सुधारक, दार्शनिक एवं चिंतक के रूप में विख्यात है। भारतीय संस्कृति का निर्माण किसी एक व्यक्ति के द्वारा न होकर आचार्योपासना के माध्यम से नियमित होता रहा है। जिस कारण से एक कालखंड के उपरान्त सामजिक व्यवस्था में आयी कुरीतियों का निदान समय-समय पर आचार्यों या सुधारकों के माध्यम से समाज में होता रहा है। इसी तरह वैदिक समय में आयी कुरीतियों के कारण सामाजिक मूलभूत संरचना को चलायमान रखने के लिए अत्यावश्यक प्रतीत होने लगा था। ऐसे समय में महात्मा बुद्ध ने उन कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयास किया। जिसके लिए उन्होंने अनेक तरह के निदान, समाधि की आवश्यकता पर बल दिया। कालान्तर में उनकी यही शिक्षाएं पंथ के साथ-साथ धर्म के रूप में स्थापित हुयी। जिसने भारत में एक बृहद रूप ग्रहण किया। महात्मा बुद्ध के सामाजिक ढ़ांचे को दुरुस्त करने की प्रक्रिया को आधुनिक युग के संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर ने भी अपनाया और समाज को स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से महात्मा बुद्ध एवं अम्बेडकर के विचारों को दृष्टिगत करके उनके द्वारा सामाजिक रचना के लिए अंगीकार किये गये विचारों का अध्ययन किया जायेगा।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | India has been world famous for various cultures since ancient times. Here religion and philosophy have been moving equally. Buddhism-religion-philosophy has had an important place in the Indian philosophical tradition. Buddhism-philosophy has been explained by many scholars in their own way in ancient and modern India. Dr. Bhimrao Ambedkar has a different place among these Indian thinkers. He got the formula of social-equality from Buddhism-religion-philosophy. The introduction of Buddhism is known as a revolutionary era, on the other hand, the rise of Dr. Ambedkar is known as a strong social reformer, philosopher and thinker. The formation of Indian culture has been regular through the worship of Acharyopasana, not by any one person. Because of which, after a period of time, the evils that came in the social system have been diagnosed from time to time in the society through Acharyas or reformers. Similarly, due to the evils that came in the Vedic times, seemed essential to keep the basic social structure running. At such a time, Mahatma Buddha tried to remove those evils. For which he emphasized on the need for various types of diagnosis and samadhi. In course of time, his same teachings were established in the form of religion along with the cult. Which took a big form in India. The process of reforming the social structure of Mahatma Buddha was also adopted by Bhimrao Ambedkar, the constitution maker of the modern era and inspired the society to work on freedom, equality and fraternity. Through the presented research paper, keeping in view the ideas of Mahatma Buddha and Ambedkar, the ideas adopted by them for the creation of society will be studied. | ||||||
मुख्य शब्द | वर्ण-व्यवस्था, प्रतीत्यसमुत्पाद, मध्यमप्रतिपाद, द्वादशनिदान, अष्टांगिक मार्ग, शोषण, अस्पृश्यता इत्यादि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Varna system, Pratityasamutpada, Madhyampratipada, Dwadashnidan, Ashtangik Marg, Exploitation, Untouchability etc. | ||||||
प्रस्तावना |
वैदिक काल से ही भारतवर्ष में कुछ रूढ़ियाँ व्याप्त थीं, जिनमें बाद के चिंतकों ने यथासम्भव सुधार करने का प्रयत्न किया. इस दिशा में औपनिषदिक ऋषियों का प्रमुख योगदान रहा है। प्रायः समाज में अनेकानेक कुरीतियों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। धर्म के नाम पर याज्ञिक-कर्मकाण्ड, बलि-प्रथा एवं पुरोहित-व्यवस्था का बोलबाला था और दार्शनिक-चिन्तन, आत्मा, परमात्मा, पाप-पुण्य, परलोक, मोक्ष जैसे रहस्यात्मक एवं विवादास्पद विचारधाराओं से घिरा था। बौद्धिक-चिंतन का सर्वथा ह्रास हो चुका था एवं समाज में अकर्मण्यता का बोलबाला था।[1] वर्ण-व्यवस्था ने विकृत होकर जाति-व्यवस्था का रूप धारण कर लिया। जाति-व्यवस्था शनैः शनैः इस सीमा तक पहुँच गई कि शूद्र वें का वेदाध्यन श्रवण का भी निषेध हो चुका था।[2] याज्ञिक-कर्मकाण्डों में भी अनेक जटिलताएं आ चुकी थीं, हिंसा बढ़ गई थी और पुरोहितवाद अपनी चरम सीमा पर था। इस सबसे समाज के बौद्धिक वर्ग में प्रतिक्रिया हों स्वाभाविक ही था और अब इसके विरुद्ध धीरे-धीरे आवाज़ उठने लगी था।[3] ऐसे समय में एक ऐसी धार्मिक एवं दार्शनिक व्यवस्था की आवश्यकता थी जो जनसामान्य के लिए उपयोगी, सुगम और सुबोध हो। जिसमें अम्बेडकर के स्थान पर वास्तविकता एवं व्यावहारिकता का समावेश हो। भगवान् बुद्ध ने इसी तरह के विचारों का प्रतिपादन किया, जिसे बौद्ध धर्म-दर्शन के नाम से जाना गया और इसे एक युग-परिवर्तन का संकेत भी माना गया, जिसके आधार पोर कई तरह की कुरीतियों एवं दुर्व्यव्यवस्थाओं का शमन किया गया। डॉ. भीमराव आम्बेडकर को भी इस सुधारवादी बौद्ध धर्म-दर्शन में अनेक बिंदु ऐसे लगे जो समाज के निम्न वर्ण (जो आगे दलित के नाम से जाने जाते हैं) अथवा भारतीय दलित समाज के उत्थान के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो सकते थे और इसे डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने अपने चिंतन का प्रमुख बिंदु बनाया।
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अध्ययन का उद्देश्य | शोध पत्र का उद्देश्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे- अछूत-प्रथा, शिक्षा का अभाव, स्त्रियों की स्वतंत्रता में अवरोध तथा समंज में व्याप्त अशिक्षा के कारण उत्पन्न मनुष्यों में भेदभाव की भावना को समाप्त करके सुदृढ़ और समृद्ध राष्ट्र निर्माण को प्रश्रय देना है। |
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साहित्यावलोकन | लेखक का शोध पत्र जिसका शीर्षक ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर: बौद्ध धर्म-दर्शन एवं सामजिक सुधार’ है। इसके लिए लेखक डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित भगवान् बुद्ध एवं उनके धम्म नामक ग्रंथ को आधार बनाते हुए शोधपत्र के लिए विभिन्न द्वितीय स्रोतों के अध्ययन किया है जिसमें से मुख्य स्रोत ‘डॉ. भीमराव आम्बेडकर और समकालीन भारत में बौद्ध धर्म एवं धर्म’, ‘आम्बेडकर: अ लाइफ(2022)’, ‘डॉ. आम्बेडकर: राष्ट्र दर्शन(2019)’, ‘आम्बेडकर्स इण्डिया: अ कलेक्शन ऑफ फोर वर्क्स (2022)’ ‘अम्बेडकर्स इंडिया(2020)’, ‘द अनटचेबल्स: हू वर दे एंड दे बिकम अनटचेबल(2023)’, इत्यादि हैं। |
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मुख्य पाठ |
बौद्ध धर्म-दर्शन चार आर्य सत्यों का विस्तृत रूप है, जिसमें
प्रतीत्यसमुत्पाद, मध्यमाप्रतिपाद, द्वाद्शनिदान,
अष्टांगिक मार्ग, दश्भूमि, त्रिकायवाद जैसे विभिन्न विचारों का प्रतिपादन मानव तृष्णा के शमन हेतु
किया गया है, यहाँ मनुष्य को दो अतियों से मुक्त रहकर मध्यम
मार्ग का चयन पूर्ण परीक्षा के साथ करने का परामर्श दिया गया है।[5] डॉ.
आम्बेडकर को भगवान् बुद्ध के यही विचार तात्कालिक समस्या का प्रासंगिक समाधान लगे,
जो उनकी कृतियों में दृष्टिगोचर होते हैं. संविधान की रचना करते
वक्त उन्होंने बौद्ध धर्म-दर्शन के इन्हीं विचारों कि ओर प्रतिपादन विभिन्न रूपों
में किया। भारतीय संविधान में सभी को समान अधिकार, सभी को
विकास करने का समान अवसर आती मानवोचित अधिकारों को भारतीय संविधान का वैशिष्ट्य
माना गया।[6] बौद्ध धर्म-दर्शन श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हुए भी कर्म सिद्धांत
में विश्वास करने के साथ ही निर्वाण में भी विश्वास करता है। परन्तु कर्म और
निर्वाण हेतु बौद्ध धर्म-दर्शन जाति, कर्म, गौत्र, कुल जैसी विकृतियों से विलग है, जो सभी को निर्वाण
का अधिकारी मानता है परन्तु इस हेतु उसी प्रकार के कर्म करने का विधान भी
निर्धारित किया है।[7] डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भी बौद्ध धर्म-दर्शन की इस
व्यवस्था को माना और भारतवर्ष में व्याप्त जन्मना वर्ण-व्यवस्था, कुल, गौत्र आदि कुरीतियों के शमन हेतु मानवोचित
व्यवस्था का प्रारम्भ करने का अथक प्रयास किया, जिसकी झलक
भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। शोषण और शोषित दो वर्ग समाज में पाए जाते हैं। बौद्ध धर्म प्रारम्भ से ही इस व्यवस्था को अस्वीकार करता रहा है क्योंकि शोषण
और शोषित एक ऐसा वर्ग भेद है जो समाज को बांटता है लेकिन धर्म समाज को जोड़ने की एक
प्रक्रिया है क्योंकि धर्म धारण करने के अर्थ में सदैव प्रयुक्त होता रहा है[8] और
धर्म की यह व्यवस्था बुद्ध को भी स्वीकार थी और बुद्ध पूर्व भी धर्म की इसी
मान्यता को माना जाता रहा है। धर्म की इसी परिभाषा को अम्बेडकर ने कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन के साथ अंगीकार किया। यहीं अस्पृश्यता निवारण हेतु डॉ. अम्बेडकर को एक अमोघ अस्त्र लगा जिसका
उन्होंने प्रयोग भी किया। वे कहते थे कि धर्म पर
सबका अधिकार होता है। मात्र ये शब्द ही अछूतों
को मुक्ति नहीं दिला सकते थे। उस हेतु उन्हें एक ऐसे
धर्म-मार्ग की आवश्यकता थी जो मानव समानता पर बल देता हो। डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बौद्ध धर्म इस हेतु सबसे अधिक उपयुक्त धर्म-मार्ग
प्रतीत हुआ।[9] समाज में समरसता हेतु सामुदायिक भावना एवं त्याग आवश्यक है। बिना इसके समाज का सर्वांगीण विकास असम्भव है। वर्ण, जाति, गौत्र आदि मानव निर्मित व्यवस्था
है जो समाज को विश्रंखलित करने के साथ-साथ विकृत एवं अविकसित रखती है क्योंकि यही
सब कुरीतियाँ अधिनायकवाद, सामन्तवाद, साम्राज्यवाद
के रूप में विस्तृत हो जाती है, जिसका परिणाम युद्ध एक भयंकर
नरसंहार होता है, जोकि हिंसा का ही क्रूरतम रूप है। यह बौद्ध-अहिंसक-नीति के सर्वथा विपरीत है, यही कारण है कि भगवान् बुद्ध ने हिंसा के
इस मूल वर्ण-व्यवस्था को ही त्याग दिया और संघ-व्यवस्था का सूत्रपात किया।[10] जहाँ सभी मनुष्य समान भावना एवं विचार के साथ सह-असतित्व के सिद्धांत को
मानते हुए धर्म का परिपालन करते हैं। यही संघ, धर्म-संघ बन
गया और धम्म् शरणम् गच्छामि.......संघं शरणम् गच्छामि का उद्घोष समाज का प्रेरणा
देने लगा और इससे प्रेरित होकर डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी,
शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन, डिप्रेस्ड क्लासिज
लीग आदि संस्थाओं की नींव डाली, जिसमें समाज के सभी वर्गों
की भागीदारी वर्ण-व्यवस्था के उच्च, निम्न विचारों से
पूर्णतया मुक्त है।[11] मनुष्य समाज में रहता है समाज से परे रहकर उसका जीवन नहीं चल सकता। समाज से ही उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है इसीलिए मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी कहा
जाता है। परन्तु समाज सामाजिक नियमों एवं सिद्धांतों को साथ लेकर चलता है। नियमों
एवं सिद्धांतों के अभाव में समाज की कल्पना असम्भव है। इसी कारण यह कहा जाता है कि मानव प्रारम्भ से ही सामाजिक नियमों का पालन करता
रहा हैं, परन्तु समय-समय पर समाज में मनुष्य की कुछ दुश्प्रवृत्तियों के कारण कुछ सामाजिक नियमों एवं मान्यताओं के नाम पर ऐसी-ऐसी प्रथाएं प्रचलित हो ही जाती हैं
जिनका निवारण देश, परिस्थिति के अनुसार सामाजिक नियमों में परिवर्तन, परिवर्धन एवं सुधार होते रहते हैं, जिन्हें समाज को
व्यवस्थित रखने के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य माना गया है। बौद्ध धर्म-दर्शन भी सामाजिक व्यवस्था, सिद्धांत एवं सामाजिक सुधार की बात स्वीकार
करता है और यही बात डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों में भी परिलच्छित है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जीवन के प्रारम्भिक समय से ही समाज में एक ऐसी
व्यवस्था को देखा, जो न तो हृदय संगत थी और न ही मानवता के किसी मूल्य के
संरक्षण में सहायक थी। अतः उनके जिज्ञासु मन ने
इस व्यवस्था को सदैव स्वीकार किया एवं इसको मानवता के कल्याण हेतु बाधक माना। डॉ. अम्बेडकर ने अपने अध्ययन एवं विचारों के माध्यम से इस अव्यवस्था के खण्डन
के साथ ही समाज में एक ऐसी व्यवस्था की बात की, जिसकी नींव भारतीय परम्परा के आधार में
मिलती है। ‘वसुधैव
कुटुम्बकम’ (अयम् निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानाम तु वसुधैवकुटुमम्बकम्।[12] अर्थात् यह मेरा अपना है और यह मेरा
नहीं है, इस तरह की बातें संकुचित चित्त वाले लोग करते हैं.
उदार ह्रदय वाले होगों के लिए तो सम्पूर्ण धरा ही परिवार है।) की भावना भारतीयता का मूल विचार बिंदु है जिसके समस्त
विश्व को एक रूप मानकर चर्चा की गई है। अतः शोषण-शोषित ये दोनों ही तत्व विश्व के किसी समाज के लिए अनुपयोगी एवं
विध्वंसकारी सिद्ध होने वाली एक ऐसी व्यवस्था है जो कि मनुष्य की उन प्रवृत्तियों
से उत्पन्न होती है। इन प्रवृत्तियों को डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपने समाज सुधार एवं अपने नव्य बौद्धवाद के लिए आवश्यक माना है। इन विशिष्ट प्रवृत्तियों में से भीमराव अम्बेडकर ने आत्मप्रेम, परोपकार और
न्याय, इन प्रवृत्तियों को सामाजिक सुधार एवं सामाजिक समानता
और समरसता के लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा में स्थान देते हुए समाज के सर्वांगीण
कल्याण के लिए सर्वथा उचित माना है एवं नव्य बौद्धवाद में आत्मप्रेम एवं परोपकार
को स्वीकार करते हुए बौद्ध धर्म-दर्शन से चारों ब्रह्म विहार (मैत्री, मुदिता, करुणा और उपेक्षा) को परोपकार एवं आत्मप्रेम
के लिए आधार स्वीकार किया है। जिसे तथागत बुद्ध ने अपने
बौद्ध सम्बन्धी विचारों में भी प्रकाट्य करते हुए तात्कालीन समाज एवं धर्म में
व्याप्त अंध विश्वास तथा कुरीतियों पर कटाक्ष करते हुए नवीन मानवता केन्द्रित धर्म एवं दर्शन को प्रायोजित करने का कार्य किया था जो कि अम्बेडकर को उनके समय की सामाजिक दुर्व्यव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए एक
अकाट्य बौद्धिक एवं परिवर्तनकारी मार्ग के रूप में परिलच्छित हुआ और डॉ. अम्बेडकर
ने अपने वैचारिकी में बौद्ध धर्म-दर्शन के इस मानवतावादी कल्याणकारी शील, समाधि और
प्रज्ञा पर आधारित बुद्धि धर्म-दर्शन को अपने सामाजिक और धार्मिक चिंतन में स्थान
दिया। धर्म के रूप में उन्होंने नव्य बौद्धवाद पर अपना एक ग्रंथ लिखा जिसका नाम “भगवान्
बुद्ध और उनका धम्म” है और इस ग्रंथ का आधार समान मानव
कल्याण की भावना है। साथ ही भीमराव अम्बेडकर ने
एक सुदृढ़ समृद्ध भारत के नव निर्माण हेतु जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए संविधान
में धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार, जो कि मानवता एवं समाज दोनों के लिए अतिआवश्यक है और इसी आवश्यकता की
पूर्ति हेतु उन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विधि के नियमों के माध्यम से
मनुष्य की दुश्प्रवृत्तियों के उन्मूलन हेतु विशेष योगदान दिया। जोकि अविस्मरणीय तथा उनकी वैचारकी के पटल पर एक दार्शनिक एवं सामाजिक
अवधारणा है। जिनकी भर्त्सना प्रत्येक समाज में प्रत्येक सम्प्रदाय की मान्यताओं
में है। राग, द्वेष इन
दो तरह की प्रवृत्तियों से ही मनुष्य मानवता के कल्याण का विचार त्याग कर स्वार्थमय
आचरण के वशीभूत होकर समाज, समष्टि एवं व्यष्टि के सिद्धांत
को भूलकर समाज को एक गंभीर एवं विचारणीय अवस्था में ला खड़ा करता है।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने इस सामाजिक समस्या को अपने चिन्तन में स्थान दिया एवं
इस हेतु उन्होंने बौद्ध धर्म-दर्शन के मूल सिद्धांत के माध्यम से सामाजिक सुधार हेतु मार्ग प्रशस्त किया, जिसने जातिगत व्यवहार एवं शोषण-शोषित की प्रवृति के निवारण के
सूत्र परिलच्छित है। |
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निष्कर्ष |
भारतीय-संस्कृति सर्वधर्मसमभाव की भावना से ओत-प्रोत है और यही कारण है कि यहाँ वर्ण-व्यवस्था का विस्तृत एवं बृहद स्वरुप मिलता है, जिसमें विकृतियों को अवकाश नहीं दिया गया था (या बचने का प्रयास किया गया था)। प्रायः वर्ण-व्यवस्था का उपयोग समरसता एवं मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किया गया था। किन्तु बाद में कतिपय कारणों से वर्ण-व्यवस्था में कई दोष आ गये, जिससे समाज में अराजकता व्याप्त हो गई साथ ही कर्मकाण्डी धार्मिक-मान्यताओं ने पुरोहितवाद को बढ़ावा दिया। इससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न होने लगीं। इन विकृतियों में वर्ण-व्यवस्था का कट्टर जाति-प्रथा में परिवर्तित होने जाना एक महत्वपूर्ण घटना रही है।
भगवान बुद्ध प्राचीन भारतीय संस्कृति के उन्नायक के रूप में जाने जाते थे जबकि डॉ. भीमराव आम्बेडकर आधुनिक भारत के संविधान निर्माता के रूप में जाने जाते हैं। भगवान बुद्ध ने ‘अत्त्दीपो भवः’ का उद्घोष कर मानव-चेतना का जागृत किया वहीं डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने शिक्षित एवं संगठित होने का उद्घोष किया। दोनों ही महापुरुषों ने मनुष्यों को कर्मरथी बनने का परामर्श दिया परन्तु उनका यह परामर्श पूर्णतः विवेकाधारित, मानवोचित एवं समाजोपयोगी था।
यद्यपि धर्म और दर्शन सर्वथा विचार के दो पृथक विषय हैं परन्तु भारतवर्ष में कदाचित इस दोनों में बहुत अधिक पार्थक्य भी नहीं है। यहाँ यह बतलाने का प्रयास हुआ है कि यदि दर्शन धर्म में परिणित न हो तो वह एक वाक्-जाल मात्र बना रहेगा और उसे शब्दों की क्रीड़ा मात्र कहना उचित होगा। इसी प्रकार यदि धर्म के पीछे दार्शिनिक पृष्ठभूमि न हो तो वह रुढियों, पोथियों, मंदिरों, मस्जिदों आदि से परिचालित आचरण मात्र बन जाएगा। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. आचार्य बलदेव उपाध्याय, बौद्ध दर्शन मीमांसा, पृ.सं. 15.
2. डॉ. आर. शरण, प्राचीन भारतीय धर्म एवं दर्शन का स्वरुप, पृ.सं. 98.
3. वही, पृ.सं. 99.
4. डॉ. राजेंद्र मोहन भटनागर, डॉ. आम्बेडकर चिंतन और विचार, पृ.सं. 70.
5. डॉ. आर. शरण, प्राचीन भारतीय धर्म एवं दर्शन का स्वरुप, पृ.सं. 112.
6. चेतन मेहता, डॉ. भीमराव आम्बेडकर (संवैधानिक दर्शन), पृ.सं. 53-54.
7. हेलना रेरिख, बौद्ध दर्शन के मूल आधार, पृ.सं. 21.
8. डॉ. सूच नारायण रणसुभे, डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर, पृ.सं. 81.
9. वही, पृ.सं. 83-84.
10. डॉ.गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ.सं. 136.
11. डॉ. राजेंद्र मोहन भटनागर, डॉ. आम्बेडकर चिंतन और विचार, पृ.सं. 129.
12. महोपनिषद, अध्याय 6, मन्त्र 71. |