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सत्सण्डा पहाड़ी (सिल्वे), लखीसराय एवं बड़ी-छोटी पहाड़ी (मंझवे) जमुई: किऊल नदी घाटी (बिहार) में खोजा गया / मिला प्रागैतिहासिक (निम्न एवं मध्य-पुरापाषाणिक) बहु-सांस्कृतिक स्थल | |||||||
Satsanda Hill (Silve), Lakhisarai and Big-small Hill (Manjwe) Jamui: Prehistoric (Lower and Middle Palaeolithic) Multi-cultural Sites Discovered / Found in Kiul River Valley (Bihar) | |||||||
Paper Id :
17637 Submission Date :
2023-05-07 Acceptance Date :
2023-05-18 Publication Date :
2023-05-25
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सारांश |
सत्सण्डा पहाड़ी लखीसराय, लखीसराय-जमुई रोड पर के गुणसागर ग्राम से लगभग 1 कि०मी० दक्षिण में स्थित है। प्राचीन लखीसराय के बारे में हमें जानकारी सर्वप्रथम कनिंघम महोदय से होती है, लेकिन यह एक ‘विषय’ ‘‘क्रिमिला’’ है इसकी वास्तविक पहचान सर्वप्रथम डी०सी० सरकार ने किया। समुद्रगुप्त का नालंदा अभिलेख, नौलागढ़ अभिलेख के अतिरिक्त इसकी जानकारी देवपाल के ताम्र पत्र अभिलेख से होती है। जहाँ तक प्रागैतिहासिक काल का सम्बंध है, तो हमें कोई भी प्रमाण लखीसराय से सम्भवतः आज से पहले तक नहीं प्राप्त हुए थे।
सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र, सत्सण्डा से लेखक को एक खुरचनी तथा एक हस्तकुठार एक अन्य खुरचनी एक अण्डाकार हस्तकुठार एक स्पर्श/प्रक्षेप्य बिन्दुक उपकरण तथा एक विदारक की प्राप्ति हुई। इस पहाड़ी में प्राकृतिक गुफा अथवा आश्रय स्थल भी उपलब्ध हैं।
यहाँ से निम्न-पुरापाषाण काल के एश्युलियन तकनीक से बने कलाकृतियों/औजार के साथ-साथ मध्य-पुरापाषाण काल के लेवोलोईस तकनीक से बने शल्क कलाकृतियाँ/औजार प्राप्त हुए हैं जो कि आधुनिक शोधों के अनुसार लगभग 15 लाख वर्ष पूर्व से 30 हजार वर्ष पूर्व तक के निरंतर जीवन एवं मानवीय क्रियाकलापों के प्रमाण हैं।
गुणसागर पहाड़ी (गुणसागर), लखीसराय में भी लगभग छः (6) प्राचीन गुफा/आश्रय स्थल तथा सम्भवतः एक शैल चित्र तथा चट्टान काटने (Rock Cut) के प्राचीन तकनीक के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
निकट के बड़ी एवं छोटी पहाड़ी क्षेत्र, मंझवे, (जमुई प्रखण्ड), जिला जमुई से भी लेखक को कई अन्य कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं जिनमें मध्य-पुरापाषाण (Middle Paleolithic) काल एवं संभवतः मध्य-पाषाण (Mesolithic) काल के उपकरण शुक्ष्म-पाषाण है। प्राप्त कलाकृतियों को देखने के बाद यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र मध्य-पुरापाषाण (Middle Paleolithic) एवं मध्य-पाषाण (Mesolithic) काल की संस्कृतियों से सम्बद्ध रहा है जहाँ प्लाईस्टोसीन एवं होलोसीन दौर अर्थात लगभग 385000 वर्ष पूर्व से 6000 वर्ष पूर्व तक (आधुनिक शोधों एवं अन्य मान्यताओं के अनुसार) के मनुष्यों ने अपने क्रियाकलाप के प्रमाण छोड़े हैं। यदि यह सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र का ही उपनिवेश है तो यह लगभग 5 कि०मी० में फैला हुआ एक महत्वपूर्ण संस्कृति केन्द्र रहा है जहाँ निम्न-पुरापाषाण (Lower Paleolithic) संस्कृति से लेकर मध्य-पाषाण (Mesolithic) संस्कृति काल तक के मानवों का जीवन-यापन अथवा क्रियाकलाप निरंतर रहा है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Satsanda hill Lakhisarai is located about 1 km south of Gunsagar village on Lakhisarai-Jamui road. We first get information about ancient Lakhisarai from Mr. Cunningham, but it is a 'subject' "Krimila", its real identity was first done by the DC government. In addition to the Nalanda inscription of Samudragupta, the Naulagarh inscription, its information comes from the copper plate inscription of Devpal. As far as the prehistoric period is concerned, we did not get any evidence from Lakhisarai probably before today. From Satsanda hill area, Satsanda, the author received a scraper and a handaxe, another scraper, an elliptical handaxe, a tangent/projectile point tool and a dissector. Natural caves or shelters are also available on this hill. From here artefacts/tools made of Acheulean technique of Lower-Paleolithic period as well as flake artefacts/tools made of Levolois technique of Middle-Paleolithic period have been obtained, which according to modern research is about 1.5 million years ago to 30 thousand years ago. There is evidence of continuous life and human activities. In Gunsagar Hill (Gunsagar), Lakhisarai also about six (6) ancient cave/shelter sites and probably one rock painting and evidence of ancient rock cutting techniques have been found. The author has also received many other artifacts from the nearby big and small hill area, Manjhwe, (Jamui block), district Jamui, in which the tools of the Middle Paleolithic period and possibly the Mesolithic period are micro-stones. After looking at the artefacts obtained, it can be said with certainty that this area has been associated with the cultures of the Middle Paleolithic and Mesolithic period, where the Pleistocene and Holocene periods i.e. about 385000 years ago to 6000 years ago. Till years ago (according to modern researches and other beliefs), humans have left evidence of their activities. If it is a colony of the Satsanda hill region, then it has been an important cultural center spread over about 5 km, where humans from the Lower Paleolithic culture to the Mesolithic culture lived or lived. The activity has been continuous. |
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मुख्य शब्द | सत्सण्डा, गुणसागर, मंझवे, निम्न-पुरापाषाण, मध्य-पुरापाषाण, उच्च-पुरापाषाण, मध्य-पाषाण, खुरचनी, शल्क, हस्तकुठार, प्लाईस्टोसीन, होलोसीन, गुफा, शौलाश्रय | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Satsanda, Gunsagar, Intermediate, Lower-Paleolithic, Middle-Paleolithic, Upper-Paleolithic, Mesolithic, Scraper, Flake, Handaxe, Pleistocene, Holocene, Cave, Rock shelter | ||||||
प्रस्तावना |
सत्सण्डा पहाड़ी (जिसे स्थानीय लोग किश्किन्धा पहाड़ के नाम से भी जानते हैं), लखीसराय-जमुई रोड पर के गुणसागर ग्राम से लगभग 1 कि०मी० दक्षिण में स्थित है। किऊल नदी इसके लगभग 3 कि०मी० उत्तर में बहती है। लखीसराय एवं जमुई जिला एवं इनके मुख्यालय को जोड़ने वाले रोड पर, लखीसराय रेलवे स्टेशन से दक्षिण पूर्व की ओर लगभ्लग 15 कि०मी० दूरी पर का यह क्षेत्र जमुई एवं लखीसराय की सीमा पर अवस्थित है तथा रामगढ़ चौक प्रखण्ड के सत्सण्डा ग्राम में पड़ता है (चित्र सं०-1) जिसके उत्तर में एन०एच० से सटे गुणसागर ग्राम, दक्षिण में सिल्वे ग्राम, पश्चिम में सत्सण्डा ग्राम, सबन खेरवान एवं गुल्नी ग्राम तथा पूर्व में मंझवे ग्राम (जमुई प्रखण्ड, जमुई) पड़ता है।[1][2] यह 25 डिग्री 02’ 55’’ से 25 डिग्री 02’ 04’’ उत्तरी अक्षांश तथा 86 डिग्री 07’ 14’’ से 86 डिग्री 08’ 24’’ पूर्वी देशान्तर के बीच लगभग 2 कि०मी० में फैला हुआ क्षेत्र है।[3]
3 जुलाई 1994 को आस्तित्व में आया लखीसराय जिला, पहले मुंगेर जिला का एक अनुमंडल हुआ करता था।[4] यह पूरब में मुंगेर, दक्षिण में जमुई, उत्तर में बेगुसराय तथा पश्चिम में पटना एवं नालंदा एवं शेखपुरा जिला से घिरा हुआ है। मुख्यालय लखीसराय (स्टेशन), रेलवे के मुख्य एवं लूपलाईन से तथा रोडवे की एन.एच. (N.H.) 80 द्वारा राज्य एवं देश (भारत) के सभी भागों से जुड़ा हुआ है।[5] (चित्र सं०-2)
भौगोलिक बनावट की दृष्टि से यहाँ तीन प्रकार की महत्वपूर्ण संरचनाएँ पाई जाती है - (1) पहाड़ी क्षेत्र, जिसमें कछुआ पहाड़ियाँ, कजरा पर्वत (अभयपुर तक) तथा जयनगर पर्वत स्थित है,[6] 2. किऊल नदी (चित्र सं०-3) जो कि गंगा की दक्षिणी सहायक है, झारखंड के गिरिडीह से निकल कर जमुई जिला से बिहार में प्रवेष करती है तथा बरनार, आलाई एवं अंजन नदियों से मिलती हुई उत्तर-पूर्व में लखीसराय तक बहती है तथा सकरी की निरंतरता हरोहर से मिलकर आगे बढ़ते हुए सूरजगढ़ा के समीप गंगा में समा जाती है। इसकी कुल लम्बाई 111 कि०मी० है तथा 16580 वर्ग कि०मी० क्षेत्र में बहती है तथा न सिर्फ बाढ़ एवं उपजाऊ भूमि का कारण है अपितु अपने साथ बालू बहा कर लाती है जो कि जिला एवं राज्य के आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है तथा (3) बाकी बचे क्षेत्र में उपजाऊ भूमि है जिस पर खेती होती है।[7][8]
प्राचीन लखीसराय से सम्बद्ध खोज के बारे में हमें जानकारी सर्वप्रथम कनिंघम[9] महोदय से होती है जिन्होंने लखीसराय का 1871 में तत्पश्चात् 1879-80 में दौरा किया और बताया कि यह तृतीय शताब्दी ई०पू० का होगा, लेकिन यह एक ‘विषय’ ‘‘क्रिमिला’’ है इसकी वास्तविक पहचान सर्वप्रथम डी०सी० सरकार[10] ने (बाल गुदर जगह को) किया। प्राचीन काल में यह एक जिला मुख्यालय (विषय) रहा है जिसका उल्लेख कई अभिलेखों जैसे, समुद्र गुप्त का नालंदा अभिलेख, नौलागढ़[11] अभिलेख इत्यादि से मिलता है। यह पाल काल में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र था। इसकी जानकारी देवपाल के ताम्र पत्र अभिलेख से होती है।[12] इसके बाद इस क्षेत्र का इतिहास चलता रहा।
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अध्ययन का उद्देश्य | किऊल नदी घाटी के सत्सण्डा पहाड़ी (सिल्वे), लखीसराय एवं बड़ी-छोटी पहाड़ी (मंझवे) जमुई के साथ-साथ गुणसागर पहाड़ी लखीसराय से लेखक को आकस्मिक रूप से प्राप्त कलाकृतियों को सामने लाना तथा प्रागैतिहासिक काल से सम्बद्ध इन स्थलों के बहुसांस्कृतिक पक्ष एवं महत्व से सबको अवगत कराना ही लेखक के इस शोध (पत्र) का मुख्य उद्देश्य है ताकि इस खोज का ज्ञान एवं लाभ सबको प्राप्त हो तथा इतिहास निर्माण में योग हो सके। |
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साहित्यावलोकन | जहाँ तक प्रागैतिहासिक काल का सम्बंध है, तो सम्भवतः हमें कोई भी प्रमाण लखीसराय से नहीं प्राप्त हुए और ना ही इससे संबंधित कहीं उल्लेख मिलता है। अतः यह एक महत्वपूर्ण शोध का क्षेत्र (विषय) रहा है। बिहार के संदर्भ में हमें जिन प्रागैतिहासिक संस्कृतियों एवं उससे संबद्ध प्राप्तियों की जानकारी होती है उसमें बिहार के खड़गपुर घाटी (मुंगेर) में प्रागैतिहासिक पुरावशेषों की सर्वप्रथम सूचना श्री आर०एन० टैगौर (1944-45 ई०) ने दी थी।[13] इसके पश्चात् श्री ए०डी०पी० सिंह ने (1960-61 ई०) भागलपुर के माली पहाड़ में राजापोखर, भलजोर तथा राजदोत में पुरापाषाण अवशेष पाए जाने की सूचना दी।[14] श्री बी०के० शरण द्वारा राजगीर में एक नियोलिथिक सेल्ट (कुलहाड़ी/कुदाल) की प्राप्ति की गई।[15] श्री आर०एस० बिष्ट एवं डी०पी० सिन्हा ने (1977-78 ई०) में बराबर पहाड़ी की तलहती से सूक्ष्म पाषाण एकत्र किए तो श्री के०पी० गुप्ता तथा श्री डी०पी० सिन्हा ने मसौढ़ी (सम्भवतः मसौढ़ी, जिला- पटना) से ताम्र पाषाण संस्कृति वाले लाल मृदभाण्ड, ब्लेड, लूनेटस तथा प्वाइंटस सहित सूक्ष्म पाषाण एवं फ्लुटेड कोर की प्राप्ति की।[16] श्री पी०सी० पंत एवं सुश्री विदुला जयसवाल ने 1978 में खड़गपुर घाटी की पहचान गहन पुरापाषाण कालीन क्षमता वाले क्षेत्र के रुप में किया।[17] श्री डी०पी० सिन्हा तथा श्री ए०एन० राय ने श्री आर०एस० बिष्ट महोदय की सहायता से मंडेर पहाड़ियों भागलपुर से दो मध्य पुरापाषाण कालीन स्क्रैपर (खुरचनी) प्राप्त किए तो श्री विजेन्द्र सिंह तथा श्री डी०पी० सिन्हा ने पुनः श्री आर०एस० बिष्ट महोदय की सहायता से राजगृह के बाणगंगा बजरी क्षेत्र से शुक्ष्म पाषाण (1978-79 ई०) प्राप्त किए।[18] श्री बी०आर० मणि ने (1988-89 ई०) में डोंगेश्वरी गुफा के आस-पास, बोधगया से उच्च-पुरापाषाण काल के उपकरण क्वार्टजाईट एवं चर्ट के बने स्क्रेपर, प्वाइंट और ब्लेड प्राप्त किए।[19] पंत एवं जायसवाल महोदय ने 1978 में जमालपुर मुंगेर[20] से मध्य पुरापाषाण काल की कलाकृतियाँ प्राप्त की तथा घाटी से प्राप्त सूचना के आधार पर सम्भवतः 1984-88 तक खड़गपुर के पैंसरा नामक जगह का उत्खनन कार्य किया और यहाँ से बस्ती के अवशेष प्राप्त किए जिसमें प्राचीनतम अवशेष एश्यूलियन तकनीक वाले संस्कृति के थे। उन्होंने फर्श, अर्द्ध तैयार उपकरण, कोर, हथौड़ा, निहाई एवं पोस्टहोल के प्रमाण प्राप्त किए। यहाँ से शुक्ष्म पाषाण संस्कृति वाले लोगों का शिविर स्थल भी पाया जो सम्पूर्ण भारत में इस काल का एक मात्र रेडिया कार्बन तिथि देता है।[21] श्री डी०के० भट्टाचार्य ने 1997 में शोहडीहवा पर जो शोध पत्र लिखा है उसमें उन्होंने जमुई एवं मुंगेर के उच्च पुरापाषाण के साथ-साथ सूक्ष्म पाषाण एवं नवपाषाण उपकरणों की प्राप्ति का भी जिक्र किया है जो कि उनके 1996 के सर्वेक्षण में प्राप्त हुए थे।[22] इसके पश्चात् संभवतः इस क्षेत्र में किसी भी तरह की प्राप्ति का प्रमाण या उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। |
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मुख्य पाठ |
चित्र सं०-1 चित्र सं०-2 चित्र सं०-3 प्राप्तियाँ: लखीसराय के आस-पास इतिहास एवं पुरातत्त्व से सम्बंद्ध स्थलों एवं कलाकृतियों को देखने के लिए भ्रमण के दौरान लेखक को सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र, सत्सण्डा से एक शल्क खुरचनी (Scraper) तथा एक हस्त कुठार (Hand axe) की सर्वप्रथम प्राप्ति हुई। यह सुनिश्चित हो जाने पर कि ये कलाकृतियाँ/औजार/ उपकरण पुरापाषाण कालीन है, लेखक ने इस सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र एवं आस पास के क्षेत्रों का भ्रमण/सर्वे किया। इस दौरान लेखक को पुनः एक अन्य शल्क खुरचनी (Flake Scraper) एक अण्डाकार हस्तकुठार (Ovate Hand axe), एक स्पर्श/प्रक्षेप्य बिन्दुक उपकरण (Tanged Point tool) तथा एक विदारक (Cleaver) की प्राप्ति हुई। सबसे अधिक खुशी तब हुई जब लेखक ने देखा कि इस पहाड़ी में प्राकृतिक गुफा (Caves) अथवा आश्रय (Shelter) स्थल भी उपलब्ध हैं, जो कि इस पहाड़ी के पश्चिमी किनारे पर 5 तथा एक अन्य पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित हैं। कोई संदेह नही रह गया कि सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र, सत्सण्डा (लखीसराय) बिहार के प्राचीनतम मानवों का महत्वपूर्ण निवास स्थल रहा है जो कि न सिर्फ किऊल नदी घाटी एवं लखीसराय अपितु बिहार एवं देश (भारत) के लिए एक बड़ी खोज एवं उपलब्धि है। सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र, लखीसराय, बिहार से लेखक को प्राप्त कलाकृतियों/औजारों तथा आश्रय स्थल का विस्तृत विवरण:- (1).विदारक (Cleaver)- एक द्विमुख विदारक (Biface cleaver) की प्राप्ति 25002’40’’ उत्तरी अक्षांश 86007’39’’ पूर्वी देशान्तर(23) से हुई है जो क्वार्टजाईट पत्थर (Quartzite stone) का बना हुआ है (चित्र सं०-4)। इसकी अधिकतम लम्बाई लगभग 04.07’’ है तथा अधिकतम मोटाई लगभग 02.02’’ है। यह लगभग आयताकार है जिसके नुकीले सिरे को काटकर हटाया हुआ है। यह एक फ्लेक (Flake) क्लीवर है जिसमें दोनों ओर ट्रेंचेट फ्लेक द्वारा बनाई गई धार है। इसका उपयोग मानव, जानवरों के माँस एवं हड्डियाँ काटने के लिए करता होगा। इस प्रकार के विदारक (Cleaver) औजार/कलाकृतियाँ भारत में निम्न-पुरापाषाण काल में उपयोग में लाए जा रहे थे, अब जिसका कालखण्ड आधुनिक शोधों के आधार पर लगभग 15 लाख से 2 लाख वर्ष पूर्व माना जा रहा है।[24][25] माप इंच में चित्र सं०-4 (2). हस्त कुठार (Hand Axe)- एक हस्तकुठार (Hand Axe) की प्राप्ति 25002’33’’ उत्तरी अक्षांश 86008’21’’ पूर्वी देशान्तर से हुई है जो कि र्क्वाटज पत्थर (Quartz stone) का बना हुआ है (चित्र सं०-5)। इसकी अधिकतम लम्बाई लगभग 05.30’’ तथा अधिकतम मोटाई लगभग 01.85’’ है। यह भी उसी काल का प्रतीत होता है जिस काल का विदारक (Cleaver) है अर्थात् निम्न पुरापाषाण काल का। माप इंच में चित्र सं०-5 इसका एक सिरा नुकीला तथा आधार लगभग गोल है तथा यह एश्यूलियन हस्तकुठार है जो ”मानव इतिहास में सबसे लम्बे समय तक इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है“। इसका उपयोग सम्भवतः जानवरों को मारने, कन्द इत्यादि काटने तथा पानी के लिए खुदाई करने, लकड़ी काटने और पेड़ का छाल हटाने इत्यादि के लिए किया जाता होगा।[26] कुछ विद्वानों का मानना है कि शिकार पर फेंकने (मारने) के लिए भी हस्तकुठार का इस्तेमाल किया जाता था।[27] (3) अण्डाकार हस्तकुठार (Ovate Hand Axe) -एक अण्डाकार हस्तकुठार (Ovate hand Axe) की प्राप्ति 25002’38’’ उत्तरी अक्षांश 86007’50’’ पूर्वी देशान्तर से हुई है जो कि क्वार्टजाईट पत्थर (Quartzite stone) का बना हुआ है (चित्र सं०-6)। इसकी अधिकतम लम्बाई 03.87’’ तथा अधिकतम मोटाई 01.37’’ है। यह भी सम्भवतः निम्न-पुरापाषाण काल का ही है जिस काल के पूर्व की दो कलाकृतियाँ प्रतीत होती हैं। यह दिखने में यद्यपि गोल तथा सपाट है तथापि यह भी द्विमुखी ही प्रतीत होता है जिसके अन्त में एक नोक है। ”यह दुनिया का पहला बहु-कार्यात्मक टिकाउ उपकरण था“।[28] यह हड्डी एवं मांस को काटने में उपयोग में लाया जाता होगा जिसके दोनों किनारे तेज (धारदार) है जबकि नोंक मोटी दिखती है। निःसंदेह यह भी एश्यूलियन परम्परा का ही साक्ष्य है। बाद (Late Phase) के हस्तकुठार में अब अण्डाकार एवं त्रिकोणिय रूप शामिल हैं (ऐसा प्रतीत होता है)।[29][30]
माप इंच में चित्र सं०-6 (4) प्रक्षेप्य/स्पर्श बिन्दु (Tanged Point)- द्विमुखी स्पर्श बिन्दु (Biface Tanged Point) की प्राप्ति हस्तकुठार प्राप्ति स्थल से थोड़ा दक्षिण में हुई है जो कि र्क्वाटजाईट पत्थर (Quartzite stone) का बना हुआ है (चित्र सं०-7)। इसकी अधिकतम लम्बाई 04.11’’ तथा अधिकतम मोटाई 00.94’’ है। इसके काल निर्धारण के संबंध में असमंजस की स्थिति है किन्तु विद्वानों का ऐसा मानना है कि द्विमुखी नैपिंग तकनीक एश्युलियन तकनीक की विशेषता रही है।[31] माप इंच में चित्र सं०-7 प्रक्षेप्य/स्पर्श बिन्दु मुख्य रूप से फ्लेक/ शल्क/ब्लेड (Flake) पर बने होते हैं जो या तो प्राकृतिक रूप से नुकीले सिरे या रिटचिंग (Retouching) द्वारा बनाए गए नुकीले सिरे वाले होते हैं। उनके सममित नुकीले रूप के कारण प्रक्षेप्य/स्पर्श बिन्दुओं को भाला की नोंक (Spear tip) के रूप में उपयोग किया गया माना जाता है।[32][33] लकड़ी के दस्त शाफ्ट से सुरक्षित लगाव के लिए आधार पर एक छोटे से प्रक्षेपण के साथ आमतौर पर त्रिकोणीय या पत्ती के आकार का पत्थर का यह एक प्रक्षेप्य बिन्दु[34] (Tanged point) होता है। सम्भवतः यह बाद का एश्यूलियन (Late-Acheulean) उपकरण हो सकता है। मध्य-पुरापाषाण काल को आमतौर पर परतदार (शल्क) औजारों की प्रधानता के रूप में जाना जाता है-स्क्रेर्पस, बोर्रस और प्वाइंट के साथ-साथ हैण्ड एक्स (जो इस काल में कम हो जाते हैं) और चौपर चौपिंग औजार की निरंतरता के साथ।[35][36] (5) शल्क (Flake)- दो शल्क औजार/उपकरण (Flake tool) की प्राप्ति हुई है जो कि क्वार्टजाईट पत्थर (Quartzite stone) के बने हुए हैं। यह लेवोलोईस तकनीक द्वारा निर्मित हैं जिनका विकास विद्वान मध्य-पुरापाषाण काल [37] (385000-30000 वर्ष पूर्व) से मानते हैं। यह विधि अंतिम शल्क के माप और आकार पर बहुत अधिक नियंत्रण प्रदान करती है जिसे बाद में एक खुरचनी या चाकू के रूप में नियोजित किया जा सके। हालाँकि इस तकनीक को प्रक्षेप्य बिन्दुओं के उत्पादन के लिए भी अनुकूल किया गया होगा, जिन्हें लेवोलोईस प्वाइंट के रूप में जाना जाता है।[38] ऐसा माना जाता है कि लेवोलोइस तकनीक एश्युलियन हस्तकुठार का परिणाम है। लेवोलोईस तकनीक की उपस्थिति आमतौर पर मध्य- पुरापाषाण काल की प्रारंभ के रूप में जाना जाता है।[39] शल्क बनाने की प्रक्रिया में पहले एक कोर (Core) किनारो को वांछित आकार में ट्रिम किया जाता है जिससे यह तैयार कोर ”कछुआ कोर“ के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसकी गुंबददार पीठ मुखरित और तल सपाट होता है। जब इसमें वांछित पपड़ी को कोर से अलग किया जाता है तो यह शल्क ही (लेवोलोईस पपड़ी के रूप में जाना जाता है) पृष्ठीय सतह पर प्रारंभिक कार्य के निशान दिखाता है जबकि उदर (अन्दर) वाला हिस्सा चिकना होता है। इसका इस्तेमाल चाकू (Knife) की तरह फल, कन्द-मूल इत्यादि के काटने के साथ, खुदाई करने के लिए भी, तेज किनारों की सहायता से किया जा सकता है। मध्य-पुरापाषाण काल में शल्क औजार/कलाकृतियाँ बहुतायत में बननी शुरू हुई क्योंकि इनको बनाना आसान था। इन्हें बेहद तेज बनाया जा सकता था और मरम्मत किया जा सकता था। दो प्रकार के शल्क उपकरण मिले हैं। I. पार्श्व खुरचनी (Side Scraper)- एक खुरचनी की तरह का शल्क उपकरण प्राप्त हुआ है (25002’35’’ उत्तरी अक्षांश एवं 86007’32’’ पूर्वी देशांतर) जो चक्रकार या आयताकार दिखता है (चित्र सं०-8)। यह क्वार्टजाईट का बना हुआ है। इसकी अधिकतम लम्बाई 02.09’’ तथा अधिकतम मोटाई 00.42’’ है। इसमें पिछे तरफ लकड़ी का दस्ता लगाने के लिए प्रक्षेपण (स्थान) बना हुआ है। यह लेवोलोईस प्वाइंट भी हो सकता है। माप इंच में चित्र सं०-8 खुरचनी कई अलग-अलग आकार के होते हैं जिनमें आयताकार, त्रिकोणीय अनियमित, चक्रकार, गुबददार इत्यादि जो कि साईज (Size), शेप (Shape), बेस (Base), एज (Edge) की संख्या, एज एंगल (Edge Angle) एवं एज शेप (Edge Shape) की आधार पर बाँटे जा सकते हैं। सामान्यतः खुरचनी के काम करने वाले किनारे उत्तल होते हैं। खुरचनी के दो मुख्य प्रकार होते हैं-साईड स्क्रेर्पस (पार्श्व खुरचनी) या एण्ड स्क्रेपर (पार खुरचनी)। साईड स्क्रेपर में लम्बे पक्षों में से एक के साथ वर्किंग एज होता है जबकि एण्ड स्क्रेपर में शल्क के एक या दोनों सिरों पर काम करने वाले किनारे होते हैं। II. पार खुरचनी (End Scraper)- एक अन्य खुरचनी की प्राप्ति 25002’30’’’उत्तरी अक्षांश 86008’21’’ पूर्वी देशान्तर से हुई है जो कि सम्भवतः पार या नोंक खुरचनी है (चित्र सं०-9)। यह र्क्वाटजाईट पत्थर का एवं लवालोइस तकनीक से बना शल्क खुरचनी है। इसकी अधिकतम लम्बाई 02.00’’ तथा अधिकतम मोटाई 00.54’’ है। नोंक खुरचनी में आम तौर पर दोनों सिरों पर या एक छोर पर एक छोटा सा काम करने वाला किनारा होता है। इस प्रकार के खुरचनी को उत्तल ब्लेड/शल्क पर बनाया जाता है, जैसा कि प्राप्त हुआ है। माप इंच में चित्र सं०-9 (6) गुफा/आश्रय स्थल (Cave/Shelters)- इस सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र में वर्तमान में तीन जगह गुफा/आश्रय स्थल भी उपलब्ध हैं (25002’39’’ उत्तरी अक्षांश 86007’16’’ पूर्वी देशान्तर के आस-पास का क्षेत्र)[40] जहाँ लगभग 5 तथा वहीं लगभग 50 मिटर की दूरी पर दक्षिण में एक अन्य अर्थात् लगभग आधे दर्जन गुफा/आश्रय स्थल (चित्र-10) इस क्षेत्र में अभी भी विद्यमान हैं। यह नवीन बनाए गए बजरंग बली स्थान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित हैं जो सत्सण्डा ग्राम के समीप हैं। एक अन्य गुफा/आश्रय स्थल इस पहाड़ी क्षेत्र के पूर्वी उत्तरी क्षेत्र में लगभग (25002’51’’ उत्तरी अक्षांश 86008’05’’ पूर्वी देशान्तर के आस-पास)[41] है। ऐसी और भी गुफाएँ आश्रय स्थल इस पहाड़ी क्षेत्र में हो सकती है अथवा रही होंगी जो अपरदनकारी दूतों के कारण काल के गाल में समा गई होंगी। ऐसे गुफा/आश्रय स्थल निःसंदेह रूप से प्रागैतिहासिक मानवों के रहने के काम आते रहे हैं। सत्सण्डा पहाड़ी के ऊपर में मन्दिर अवस्थित है तथा नीचे दक्षिण दिशा के साथ साथ आस पास में काले पत्थर की संभवतः मूर्तियों एवं मंदिरों के टूटे हुए अवशेष देखे जा सकते हैं।
चित्र चित्र सं०-10 इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र लखीसराय, न सिर्फ बिहार अपितु प्रागैतिहासिक भारत का एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक केन्द्र रहा है जहाँ किऊल नदी घाटी में देश की प्राचीनतम संस्कृतियों के लोगों से सम्बद्ध प्रमाण उपलब्ध मिले हैं (चित्र सं०-11)। चित्र सं०-11 हमें यहाँ से प्लाइस्टोसीन दौर के निम्न-पुरापाषाण काल के एश्युलियन तकनीक से बने कलाकृतियों/औजार के साथ-साथ मध्य-पुरापाषाण काल के लेवोलोईस तकनीक से बने शल्क कलाकृतियाँ/औजार प्राप्त हुए हैं जो कि आधुनिक शोधों के अनुसार लगभग 15 लाख वर्ष पूर्व से 30 हजार वर्ष पूर्व तक के निरंतर जीवन एवं मानवीय क्रियाकलापों के प्रमाण हैं। इन तकनीकों के साथ-साथ चौपर-चौपिंग तथा नैपिंग एवं फ्लैक निकालने (Flaking) इत्यादि की तकनीकों के इस्तेमाल के प्रमाण दृष्टिगोचर/उपलब्ध होते हैं। यहाँ के लोग कौन थे? और किस प्रजाति के थे, यह शोध का विषय है। किन्तु इसमें कोई दो राय नहीं रह जाता कि इन्होंने बहुत लम्बे काल तक किऊल नदी घाटी में जीवन यापन किया तथा अपने क्रियाकलाप के प्रमाण छोड़े जो उपलब्ध हुए हैं। "स्थानीय लोगों के अनुसार इस सत्सण्डा पहाडी के दक्षिणी हिस्से के खेतों से बड़ी-बड़ी इंटें निकलती हैं। अतः अत्यधिक सम्भावना है कि यहाँ से ऐतिहासिक काल के भी अवशेष हमें आस-पास में प्राप्त हों"। विस्तार क्षेत्र: यहाँ इस सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र में बसे हुए पुरापाषाण कालीन मानव यही तक समिति थे ऐसा नहीं है। इस पहाड़ी क्षेत्र के अलावा भी लगभग 5 कि॰मी॰ के क्षेत्रफल में फैले हुए अन्य सांस्कृतिक अवशेषों की भी प्राप्ति लेखक को हुई है। जिसमें से महत्वपूर्ण गुणसागर पहाड़ी क्षेत्र, गुणसागर (लखीसराय) तथा बड़ी एवं छोटी पहाड़ी क्षेत्र मझवे एवं टकारी पहाड़ी नबीनगर (जमुई) महत्वपूर्ण है। गुणसागर पहाड़ी (गुणसागर), लखीसराय - गुणसागर पहाड़ी [42] 25003’55’’-25003’59’’-उत्तरी अक्षांश तथा 86007’48’’-86008’01’’ पूर्वी देशान्तर के बीच लगभग आधे किमी॰ (0.5 Km.) में फैला हुआ है[43] (चित्र सं०-12)। चित्र सं०-12 यहाँ पर भी छोटी-बड़ी लगभग 6 गुफाएँ/आश्रय स्थल (तथा सम्भवतः एक शैल चित्र) उपलब्ध हैं (चित्र सं०-13)। चित्र सं०-13 चट्टान काटने (Rock-cut) के तकनीक के प्रमाण भी उपलब्ध हैं जिनका उपयोग ऐतिहासिक काल में भवन, मन्दिर, मूर्ति इत्यादि के निर्माण में होता था। यह तकनीक मौर्य काल से ही उपयोग में लाई जा रही है (चित्र सं०-14) चित्र सं०-14 बड़ी एवं छोटी पहाड़ी क्षेत्र मंझवे (जमुई) - बड़ी एवं छोटी पहाड़ी क्षेत्र, मंझवे, (जमुई प्रखण्ड), जिला जमुई[44] (चित्र-15) चित्र सं०-15 लगभग आधे (0.5) कि०मी० क्षेत्र में 25002’38’’ से 25002’22’’ उत्तरी अक्षांश तथा 86009’29’’ से 86009’24’’ पूर्वी देशान्तर के बीच अवस्थित है।[45] वर्तमान में इसके उत्तर में किऊल नदी, दक्षिण में जमुई-लखीसराय मुख्य रोड, पूर्व में टकारी पहाड़ तथा पश्चिम में एक कच्ची रोड के बाद नोनगढ़ (रामगढ़ चौक प्रखण्ड, लखीसराय) का क्षेत्र है। इस पहाड़ी क्षेत्र से लेखक को कई अन्य कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं जिनमें मध्य-पुरापाषाण (Middle Paleolithic) काल (चित्र सं०-16) उच्च-पुरापाषाण काल (Upper Paleolithic) (चित्र सं०-17) एवं सम्भवतः मध्य-पाषाण (Mesolithic) काल के उपकरण (चित्र सं०-18) भी है तथा साथ ही यहाँ की चट्टानों में एक स्थान पर कुछ चट्टाने ऐसी पड़ी (गिरी) हुई दिखती हैं जैसे कि यह सम्भवतः शौलाश्रय रहा हो (चित्र सं०-19)। यहां से काले-लाल मृदभाण्ड (BRW) के कुछ टुकड़े प्राप्त हुए हैं। संदर्भ के आधार पर तो ये नव-पाषाणकाल या ताम्र-पाषाण काल से सम्बद्ध होने चाहिए, किन्तु उत्तरी एवं मध्य भारत में काले-लाल मृदभांड उत्तर-कालीन कांस्य युग (Late Bronze age) से प्रारंभिक लौह युग तक प्राप्त होते हैं, ऐसा विद्वानों का मानना है। पास का टकारी पहाड़ भी सम्भवतः इसके बसाव क्षेत्र का हिस्सा रहा होगा। चित्र सं०-16 चित्र सं०-17 चित्र सं०-18 चित्र सं०-19 बड़ी एवं छोटी पहाड़ी क्षेत्र, मंझवे (जमुई) से प्राप्त कलाकृतियों को देखने के बाद यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र मध्य-पुरापाषाण (Middle Paleolithic), उच्च-पुरापाषाण (Upper-Paleolithic) एवं मध्य-पाषाण (Mesolithic) काल की संस्कृतियों से सम्बद्ध रहा है जहाँ प्लाईस्टोसीन[46] एवं होलोसीन[47] दौर अर्थात लगभग 385000 वर्ष पूर्व से[48] 6000 वर्ष पूर्व(49) तक (आधुनिक शोधों एवं अन्य मान्यताओं के अनुसार) के मनुष्यों ने अपने क्रियाकलाप के प्रमाण छोड़े हैं। यदि यह एक पृथक संस्कृति क्षेत्र है तो हमें यहाँ से मध्य- पुरापाषाण (Middle Paleolithic) काल से मध्य-पाषाण (Mesolithic) काल तक के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। सम्भव है कि कुछ कलाकृतियाँ निम्न पुरापाषाण काल की भी हों तथा नवपाषाण (Neolithic) संस्कृति के अवशेष भी हमें आस-पास प्राप्त हों, तथा यही प्राचीन संस्कृतियाँ आज तक इस किऊल नदी घाटी क्षेत्र में निरंतर हों, जो कि आगे सर्वेक्षण एवं शोध का विषय है। चित्र सं०-20 |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार, निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि गुणसागर पहाड़ी क्षेत्र (लखीसराय) के साथ-साथ बड़ी-छोटी पहाड़ी क्षेत्र मंझवे (जमुई), सत्सण्डा पहाड़ी क्षेत्र (लखीसराय) का ही विस्तार क्षेत्र है जो लगभग 5 कि०मी० में फैला हुआ एक महत्वपूर्ण बहु-सांस्कृतिक प्रागैतिहासिक केन्द्र रहा है(50) (चित्र सं०-20) जहाँ निम्न-पुरापाषाण (Lower Paleolithic) संस्कृति से लेकर मध्य-पाषाण (Mesolithic) संस्कृति काल (15 लाख वर्ष पूर्व से 6000 वर्ष पूर्व) तक के मानवों का जीवन-यापन अथवा क्रियाकलाप निरंतर रहा है। किऊल नदी घाटी भी देश की अन्य प्रागैतिहासिक सांस्कृतिक केंद्रों जैसे- बेलन नदी घाटी, नर्मदा नदी घाटी, सोहन नदी घाटी, गोदावरी क्षेत्रों इत्यादि की तरह देश की प्राचीनतम प्रागैतिहासिक पाषाणिक संस्कृतियों का पालना तथा महत्वपूर्ण केंद्र रहा है जिसका विस्तार सम्पूर्ण किऊल नदी घाटी क्षेत्र एवं साथ के जुड़े हुए पठारी क्षेत्र में होगा। |
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