P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- IX May  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
स्वतंत्रता से पूर्व राजस्थान की राजनीति में महिलाओं की भूमिका
The Role of Women in The Politics of Rajasthan before Independence
Paper Id :  17651   Submission Date :  2023-05-12   Acceptance Date :  2023-05-23   Publication Date :  2023-05-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
निर्मला सैनी
शोधार्थी
राजनीति विज्ञान विभाग
राजऋषि भर्तृहरि मत्स्य विश्वविद्यालय
अलवर,राजस्थान, भारत
सारांश
राजस्थान में नारी के प्रति आदर और सम्मान यहाँ की संस्कृति की विशेषता रही है। नारी को यह सम्मान और आदर ऐसे ही प्राप्त नहीं हुआ हैं, इसके लिए उसने त्याग व बलिदान किये हैं। राजस्थान की संस्कृति में महिलाओं के योगदान को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के समाज की संरचना के अनुरुप उच्च, मध्य वर्ग की नारियों की स्थिति को अलग-अलग ढंग से देखा जाये। मध्यकालीन परिस्थितियों, तत्कालीन जीवन-मूल्यों और परम्परागत विश्वासों के अनुरुप यहाँ नारी के ‘वीरांगना’ स्वरुप को सर्वाधिक सराहा गया। यहाँ के लोकगीतों, ख्यातों व काव्यों में इसका वर्णन मिलता है। राजपुताना के प्रत्येक युग में महिलाओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता हम राजपूताना को वीरों की भूमि कहते हैं, इन वीरों में हम राजपूताना की वीरांगनाओं का इतिहास भी पढ़ते हैं। राजपूताना की महिलाओं ने राजनीति के साथ-साथ इस प्रदेश के प्रत्येक क्षेत्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इन वीरांगनाओं ने समय- समय पर केसरिया बाना पहनकर देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत जोशीले नारे लगाकर देश की स्वाधीनता के लिए लोगों में जागृति उत्पन्न करने का सफल प्रयास किया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Respect towards women in Rajasthan has been the specialty of the culture here. Women have not received this honor and respect just like that, for this she has made sacrifices. In order to understand the contribution of women in the culture of Rajasthan, it is necessary to look at the status of upper, middle class women in different ways according to the structure of the society of that period. According to the medieval conditions, contemporary life-values and traditional beliefs, the 'heroine' form of women was most appreciated here. Its description is found in the folk songs, legends and poems of this place.
मुख्य शब्द वीरांगनाएं, राजपूताना, त्याग, बलिदान, राजस्थान, राजनीति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Heroines, Rajputana, Sacrifice, Sacrifice, Rajasthan, Politics
प्रस्तावना
राजपूताना के इतिहास में बहुत सी वीरांगनाओं के किस्से पढ़े हैं। कोई अपने पिता लिए शहीद हुई तो किसी ने जौहर द्वारा सतीत्व की रक्षा की, किसी ने युद्धभूमि में शत्रुओं के छक्के छुड़ाए तो किसी ने अपनी कटार से शत्रु को मौत के घाट उतारा। बहुत सी ऐसी वीरांगनाएं हुई जिन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण राजकाज और शासन-व्यवस्था की बागडोर सँभाली तथा प्रजा का विश्वास प्राप्त किया। राजस्थान की ऐसी महिलाओं के नाम सदैव इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेंगें।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत लेख का उद्देश्य स्वतंत्रता से पूर्व राजस्थान की राजनीतिक व्यवस्था को समझना तथा यहाँ की महिलाओं के शौर्य व बलिदान की जानकारी प्राप्त करना है। प्रस्तुत लेख में यह भी स्पष्ट किया गया है कि देशी या विदेशी आक्रमणों के दौरान भी यहाँ की महिलाएं संयमित व वीरतापूर्ण जीवन जीती थी और आवश्यकता पड़़ने पर शासन का संचालन भी बुद्धिमता से करती थी, उनकी निर्णय लेने की क्षमता अभूतपूर्ण थी। कभी परिस्थितियों के आगे हार न मानने वाली वीरांगनाएं थी राजस्थान की।
साहित्यावलोकन

विक्रमसिंह राठौड़: राजस्थान की संस्कृति में नारी”(1995), इस पुस्तक में भारतीय संस्कृति में नारी के आदर्श और गौरवशाली चरित्र का विशद वर्णन मिलता है। प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान की विभिन्न वर्ग की नारियों की स्थिति के विवेचन के अतिरिक्त नारी के चारित्रिक गुणों और उनका समाज पर प्रभाव का उल्लेख किया गया है।

प्रकाश व्यास: राजस्थान का स्वाधीनता संग्राम” (1997), इस पुस्तक में लेखक द्वारा यह बताया गया है कि राजस्थान की भूमि का एक-एक कण यहाँ के स्वाभिमानी, देशभक्त और अपनी मातृभूमि पर प्राणों को न्यौछावर करने वाले रक्त से रंजित है और यहाँ की वीरांगनाओं ने भी अपनी मातृभूमि के लिए प्राणों की आहूति देकर महान् आदर्श प्रस्तुत किये हैं।

संजय कुमार द्विवेदी: नारी सशक्तिकरण के नए क्षितिज (2021), इस पुस्तक में लेखक द्वारा यह बताया गया है कि वर्तमान में महिलाओं ने प्रगति के अनेक आयामों को प्राप्त कर लिया है। महिलाओं द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में अपने आपको साबित गया है,जो हमेशा से पुरुषों के समझे जाते थे। प्रस्तुत पुस्तक में स्पष्ट कहा गया है कि भारतीय संस्कृति ने इस सत्य को रेखांकित करते हुए प्रकृति व पुरुष दोनों की महत्ता को स्वीकार किया है।

मुख्य पाठ

नारी के प्रति यह आदर और सम्मान हमारी संस्कृति की विशेषता है। नारी को यह सम्मान और आदर ऐसे ही नहीं प्राप्त हुआ, इसकी वह पूर्ण हकदार भी है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मर्यादित जीवन जी कर जो आदर्श उसने स्थापित किये यह मान-सम्मान उसी का परिणाम है। समाज और संस्कृति के संगठन और उसके विकास में नारी की महती भूमिका रही है, जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता।[1]

प्राचीनकाल में हमारे देश में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। स्त्रियों का समाज में सम्मान व आदर था। हमारे धर्मग्रंथों में तत्कालीन नारी की स्थिति का विशद् वर्णन मिलता है तथा पत्नी को पति अर्धांगिनीमानकर उसे समाज व परिवार में सम्मानजनक स्थान (दर्जा) दिया गया।[2] वैदिक युग की नारी बुद्धि और ज्ञान के क्षेत्र में प्रवीण थी।[3] वैदिककाल में स्त्रियों ने ऋग्वेद की ऋचाएँ बनायीं, वेद पढ़ने तथा पतियों के साथ धार्मिक कृत्य सम्पन्न किये।[4] उस काल में नारी को वेदाध्ययन व यज्ञ-सम्पादन करने का पूर्ण अधिकार था तथा धार्मिक अनुष्ठान उसके बिना पूरे नहीं होते थे।[5] उस काल की रोमशा, उर्वशी, विश्ववारा, घोषा, लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि अनेक विदुषी महिलाओं का नाम आज भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। इस प्रकार यह विदित होता है कि प्राचीनकाल में हमारे समाज में स्त्रियों का सम्मानजनक व आदर पूर्ण स्थान था।

वैदिककालीन स्त्रियों जैसी स्थिति बाद में सदा एक-सी नहीं रही। कालान्तर में उत्तरवैदिक काल में ही स्त्रियों की स्थिति में अंतर आ गया।[6]

राजस्थान की संस्कृति में महिलाओं का योगदान या उनकी भूमिका को भली-भांति समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के समाज की संरचना के अनुरूप उच्च, मध्य वर्ग की नारियों की स्थिति को पृथक-पृथक ढंग से देखा जाय। उनके क्रिया-कलापों व गतिविधियों के द्वारा यह आसानी से समझा जा सकता है कि तत्कालीन संस्कति में उनका योगदान किस रूप में रहा।[7]

मध्यकाल में अनेक ऐसी राजमाताएँ हुई, जिन्होंने उक्त परिस्थिति में राज्य व प्रशासन की बागडोर अपने हाथ में लेकर राज्य को संरक्षण प्रदान किया। इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर संरक्षिका पद पर रहते हुए यहाँ की महिलाओं ने अपने स्वतन्त्र चिन्तन तथा पारम्परिक नीतियों का पालन कर राज्य की प्रतिष्ठा को बढ़ाया और राज्य का नेतत्व भी संभाला।

इस प्रसंग का एक उदाहरण यहां द्रष्टव्य है-‘‘महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम (1638-78)की मृत्यु के पश्चात् उसकी पटरानी, जो हाड़ी रानी के नाम से जानी जाती है, उसने जोधपुर राज्य का नेतृत्व संभाला तथा अजीतसिंह को राज्यगद्दी दिलाने हेतु भरसक प्रयास किये।‘‘यह इस साहसी, कुशल हाड़ीरानी के त्याग व सूझबूझ का ही परिणाम था कि जोधपुर के हताश राठौड़ मारवाड़ की गद्दी पर न्यायिक अधिकारों के लिए मुगल सत्ता से लोहा लेने को तैयार हो गये। उसने राठौड़ सरदारों को एकत्रित करके महाराजा जसवन्त सिंह के वंशज के लिए राजगद्दी बचाने के पूरे प्रयत्न किये।[8]

परन्तु मुगल सम्राट औरंगजेब ने जोधपुर की राज्य गद्दी राव अमरसिंह के पुत्र इन्द्रसिंह को प्रदान की। इससे अजीतसिंह की गद्दी प्राप्ति की संभावनाएँ समाप्त हो गई और औरंगजेब के निर्णय से उसके सहयोग की सारी आशाएँ समाप्त हो चुकी थी तब विवश होकर उसे संघर्ष का रास्ता अपनाना पड़ा। जब तक पेशावर से आकर दुर्गादास राठौड़ ने मारवाड़ से सरदारों का नेतृत्व नहीं सँभाला, उससे पूर्व हाड़ी रानी ने ही इन राठौड़ों में अपने कुशल नेतृत्व के बल पर एकता स्थापित करके उन्हें बुलंद हौसलों के साथ मुगल सत्ता से लोहा लेने को उद्यत किया। अतहर अली का भी यह मानना है कि जोधपुर राज्य की और से (दुर्गादास से पूर्व) हाडीरानी ही समस्त क्रियाओं की संचालक थी।[9]

सामान्यतः भी राजमाता का जनानी डयोढ़ी में सर्वोच्च स्थान व सम्मान यथावत बना रहता था और राजमाता द्वारा अपनी बुद्धिमता के कारण पूर्ण वयस्क शासक के शासनकाल में राज्य व्यवस्था पर अपना प्रभाव जमा लेने के उदाहरण भी मिलते है।[10] राजमाता योग्यता एवं अनुभव के कारण महत्वपूर्ण राजनैतिक मसलों पर विचार-विमर्श ही नहीं निर्णय भी प्रदान करती थी। इसके अतिरिक्त जनानी ड्योढी के प्रबन्ध, राजकोठार की व्यवस्था, उत्सव त्यौहार व पारिवारिक एवं धार्मिक अनुष्ठानों में राजमाता की सलाह व सुझाव महत्वपूर्ण हुआ करते थे।[11]

मध्यकालीन परिस्थितियों, तत्कालीन जीवन-मूल्यों और परंपरागत विश्वासों के अनुरूप यहाँ नारी के ‘‘वीरांगना‘‘ स्वरूप को सर्वाधिक सराहा गया। यहाँ की बातांे, ख्यातों व लोकगीतों में तो उसका उल्लेख बिखरा हुआ मिलता ही है, इसके साथ ही यहाँ के कवियों ने अपने काव्यों में नारी की वीरत्व-भावना को विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से भी अभिव्यक्ति दी। नारी के वीरत्व की यह काव्यगत व्यंजना केवल कल्पना की उड़ान मात्र नहीं थी अपितु मध्ययुगीन विश्वासों से जड़ी भावात्मक जीवन का एक अंग समझी जाती थी।[12] यहाँ के की वीर बालाओं को वीर पति की कामना रहा करती थी और कायरों को पडौस तक अच्छा लगता था। यहाँ की वीर कन्या की यह वीरोचित कामना अनूठी है। अपने वीर पति की पहचान उन्हें चवरी (विवाहोत्सव) में ही हो जाया करती थी।[13] यहाँ की सौभाग्यवती स्त्रियों को वीरोचित भावना का उल्लेख करते हुए कवियों ने वीरांगना द्वारा युद्ध में जाते पति को दोनों कुलों की लाज निभाते हुए प्राण दिये बिना या विजयश्री का वरण किये बिना लौटने पर उससे दाम्पत्य सुख की आशा न रखने की बात कहलायी थी। पति को कायरता पर तीव्र व्यंग्य और मर्मांतक, प्रताड़ना से भी वह नहीं चूकती थी, तभी तो मर्दानगी के साथ व्यतीत किये जाने वाले अल्प जीवन को यहाँ अच्छा समझा गया।[14] इस वीर परम्परा की प्रेरक नारी तभी तो अपने वीर पति की वीरता[15] और उनके साथियों के बलिदान पर न्यौछावर होकर उनके इस कृत्य से अपने को गौरवान्वित महसूस करती थी।

यहाँ की ललनाएँ और वीरांगनाएं केवल वीर पति की कामना और कायर पति को धिक्कारने तक ही सीमित नहीं रहती थी, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं तलवार, बन्दूक इत्यादि शस्त्र उठाकर शत्रु से युद्ध करने को भी तत्पर रहती थीं। अश्व व अस्त्र-शस्त्र संचालन में विवेच्य काल की उच्च वर्ग की नारियाँ (विशेषकर राजपूत जाति की नारियाँ) निपुण हुआ करती थीं, जिससे आवश्यकता पड़ने पर शत्रु दल से मुकाबला करने में सक्षम होती थीं।[16]

मध्यकाल में आवश्यकता पड़ने पर यहाँ की वीरांगनाएँ युद्ध अभियान में भाग लेकर अपने शौर्य और वीरत्व प्रदर्शन में भी पीछे नहीं रही, जिसके कई उदाहरण यहाँ की बातों व ख्यातों में मिलते हैं। वीरांगना गोपाल दे सिंघल भी उनमें से एक थी।

चाचरणी गाँव जो बाघ की माँ गोपाल दे सीधल के अधिकार में था,[17] उसकी स्वतन्त्रता के लिए गोपाल दे ने शस्त्र धारण कर बादशाही सेना से कई लड़ाइयाँ लड़ीं। मुगलों और हाडों की फौज का कई बार नाश किया। गोपाल दे सिंघल के जीते जी चाचरणी गाँव पर दूसरा कोई अधिकार नहीं जमा सका, उस वीरांगना की मृत्यु के पश्चात् ही नवसेरी खान (नौशेरखाँ) चाचरणी गाँव पर अपना आधिपत्य जमाने में सफल हो सका।[18] मारवाड़ राज्य के आलनियावास ग्राम के ठाकुर विजय सिंह की धर्मपत्नी बजरंगदे कछवाही बड़ी वीर राजपूत महिला थी।

जसवंतसिंह प्रथम की मृत्यु के पश्चात औरंगजेब द्वारा जोधपुर पर मुगल आधिपत्य स्थापित कर लिया गया और दुर्गादास के नेतृत्व में अजीत सिंह को पुनः राज्य दिलाने व मारवाड़ राज्य को स्वतंत्र कराने के प्रयास जारी थे। मुगल आतंक के उस युग में भी वीरांगना बजरंगदे कछवाही ने अपने पति के देहांत के उपरान्त ठिकाने के सारे कार्यभार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली, बजरंगदे स्वयं मर्दानी पोशाक धारण कर ठिकानों का सारा कामकाज बड़ी कुशलता से देखा करती थी। उसने अपने पति की मृत्यु के पश्चात आलनियावास ठिकाने की रेख चाकरी भरना बंद कर दिया था। परन्तु अजीत सिंह के मारवाड़ के शासक बन जाने पर दुर्गादास राठौड़ ने राज्य की आमदनी की वृद्धि हेतु आलनियावास ठिकाने की बंद रेख को पुन प्रारंभ करने का प्रयास किया। बजरंगदे ने रेख देने से जब साफ इन्कार कर दिया तो दुर्गादास ने उसे भयभीत करने हेतु सैन्यशक्ति का उपयोग किया। परन्तु इससे वीरांगना बजरंगदे विचलित होने वाली नहीं थी। वह तो रीया की नदी के पास दुर्गादास की सेना से मुकाबला करने समरांगण में कूद पड़ी। वीरांगना बजरंगदे के शौर्य-पराक्रम और कुशल सैन्य संचालन के आगे दुर्गादास राठौड़ को भी पीछे हटना पड़ा। इस युद्ध में बजरंगदे की विजय हुई।[19]दोय कोस दोरी दुरगेस‘‘[20] यह कहावत आज भी उस वीरांगना के वीरत्व का स्मरण कराती है।

जीवन के प्रत्येक युग में महिलाओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इतिहास इस बात का गवाह है कि किसी भी देश के स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। हम राजपूताना को वीरों की भूमि कहते हैं। इन वीरों में  हम राजपूताना की वीरांगनाओं का इतिहास भी पढ़ते हैं। राजपूताना की इस पावन भूमि पर अनेक महिलाओं का योगदान रहा। राजपूताना की इन महिलाओं ने प्रत्येक क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर अपना नाम सदैव के लिए सुनहरे अक्षरों में चिन्हित करवाया, राजपूताना की महिलाओं ने इस प्रदेश के प्रत्येक क्षेत्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। राजस्थान में हम उन विशेष महिलाओं का योगदान पढ़ते हैं, जिन्होंने अपने प्राणों की बाजी लगाकर अपने राज्य को बचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में अनेक महिलाओं ने सांसारिक सुखों को त्यागकर अपने आपको भक्ति में समर्पित कर दिया।

राजस्थान के स्वाधीनता संग्राम में उन महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है, जिन्होंने देश की आजादी के लिए कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया। इन महिलाओं ने राजस्थान के अनेक प्रजामण्डलों के माध्यम से सफल आंदोलन किए, जिनके प्रयासों से राजस्थान में एकीकरण का चरण प्रारम्भ हुआ और हमें एक स्थायी शासन देखने को मिला।[21] ये वीरांगनाएँ स्वाधीनता संघर्ष में न केवल जेल गयीं, ब्रिटिश सरकार द्वारा दी जाने वाली यंत्रणाओं को सहा, वरन् अपने सीने पर गोलियाँ खाकर भी आजादी की मशाल को थामे रखने में पीछे नहीं रही। ये वीरांगनाएँ विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और उनकी होली जलाना, शराब की दुकानों के बाहर धरना देना, नमक कानून तोड़ना, सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सदैव अग्रणी रहीं। इन वीरांगनाओं ने समय-समय पर केसरिया बाना पहन कर जत्थे के जत्थे के रूप में गाँवों, शहरों आदि में देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत जोशीले नारे लगाकर, झंडा गीत गाकर, प्रभात फेरियाँ निकालकर देश की स्वाधीनता के लिए लोगों में जागृति उत्पन्न करने का सफल प्रयास किया।

इस अध्याय में देश की आन-बान और शान की रक्षा के लिए समर्पित तथा राजस्थान की राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करने वाली महारानी कर्मवती, हाड़ी रानी, जवाहरबाई, किशोरी रानी, पन्नाधाय, काली बाई, पद्मावती, कृष्णा कुमारी, शांता त्रिवेदी, अंजना चौधरी, नारायणी देवी वर्मा, जानकी देवी बजाज, रतन शास्त्री, भगवती देवी विश्नोई जैसी अनेक वीरांगनाओं के योगदान को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।[22]

महारानी कर्मवती

मेवाड़ के महाराणा समरसिंह की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण राजकाज और शासन-व्यवस्था की बागडोर विधवा महारानी कर्मवती के हाथों में आ गई थी। कठिन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए महारानी कर्मवती ने अपने व्यक्तिगत जीवन में समस्त सुख-सुविधाओं का परित्याग कर अपना संपूर्ण जीवन शासन कार्यों के भली प्रकार संचालन करने में लगा दिया। महारानी कर्मवती ने समर्पण की भावना व कर्तव्यनिष्ठा से मेवाड़ का शासन अच्छे ढंग से संचालित किया। राज्य में शांति व्यवस्था कायम हुई, प्रजा सुखी व सम्पन्न हुई, परिणामस्वरूप महारानी कर्मवती को मेवाड़ की प्रजा का विश्वास प्राप्त हो गया।

जिस समय मेवाड़ के राज्य का संचालन महारानी कर्मवती के हाथों में था, उन्हीं दिनों भारत में मुहम्मद गौरी अपना साम्राज्य विस्तार कर रहा था। जब उसे ज्ञात हुआ कि मेवाड़ में रानी कर्मवती शासन की बागडोर संभाले हुए हैं तो उसे लगा कि एक महिला को पराजित करना तो बायें हाथ का खेल है। उसने मेवाड़ पर अधिकार करने की योजना बनायी।[23]

मोहम्मद गौरी द्वारा धमकी भरा पत्र भेजा गया, इस पत्र को जब मेवाड़ के राज-दरबार में पढ़ा गया तो चारों ओर सन्नाटा छा गया तथा सभी राज-दरबारी चिंता में पड़ गए, वे निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि मुहम्मद गौरी द्वारा भेजे गए पत्र का क्या उत्तर दिया जाये। ऐसी किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति में रानी कर्मवती ने अपने सभी राज-दरबारियों को उनकी कायरता के लिए धिक्कारा तथा स्वयं ने मुहम्मद गौरी को आगाह करते हुए लिखा कि- ‘‘तुम्हारी साम्राज्य विस्तार की लालसा ने तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट कर दी है। तुमने मेवाड़ के उस राज्य पर दृष्टि डाली है जहाँ घर-घर में बलिदान की ही वीर गाथाएँ गाई जाती हैं। यदि तुम यह सोचते होंगे कि मेवाड़ का शासन एक अबला नारी संचालित कर रही है तो यह तुम्हारी महान भूल है, तुम भली प्रकार समझ लेना कि तुम जिसे अबला नारी समझ बैठे हो वह एक राजपूतनी है, जिसमें एक सिंहनी का साहस है। अपने मस्तिष्क से मेवाड़ पर विजय प्राप्त करने का दिवास्वप्न निकाल देना, इसी में तुम्हारी भलाई है, अन्यथा अपनी दुर्बुद्धि का कड़वा फल तुम्हें चखना पड़ेगा। मुहम्मद गौरी को इस प्रकार का पत्र लिखकर रानी कर्मवती ने अपने अद्भुत साहस, निर्भीकता, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास का परिचय दिया।[24]

रानी कर्मवती का पत्र मिलते ही मुहम्मद गौरी ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। तब रानी कर्मवती ने सैनिक वेशभूषा में हाथ में तलवार लिए दरबार में गर्जना करते हुए सभी राजपूत सरदारों का आह्वान किया कि- ‘‘हमारा संघर्ष न्याय और अन्याय के बीच का संघर्ष है, हमारा संघर्ष धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष है, हमें अपने आत्म स्वाभिमान और अपने देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आत्म बलिदान के मार्ग का अनुसरण करना है, इसके अतिरिक्त हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। हम अपनी अंतिम श्वास तक संघर्ष करेंगे।“ रानी कर्मवती के इस अह्वान के बाद राजपूत सैनिक भूखेसिंह की भाँति मुहम्मद गौरी की सेना पर टूट पड़े और मुहम्मद गौरी की सेना पराजित होकर मेवाड़ से भाग छूटी।

संक्षेप में,रानी कर्मवती ने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएँ भी कठिन परिस्थिति में आत्मविश्वास से दृढ़ निश्चय के साथ विजयश्री प्राप्त कर सकती हैं तथा पुरुषों की भाँति एक अच्छी राजनीतिज्ञ, प्रशासिका व सैनिक बन सकती है। महारानी कर्मवती की कर्तव्यनिष्ठा, साहस, पराक्रम, उचित निर्णय क्षमता की भावना भारतीय वीरांगनाओं के इतिहास में सदैव ही स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगी।[25]

जवाहर बाई

हमने इतिहास के पन्नों पर बहुत ही वीरांगनाओं के किस्से पढ़े हैं। कोई अपने पिता के लिए शहीद हुई तो किसी ने जौहर द्वारा सतीत्व की रक्षा की। किसी ने युद्धभूमि में शत्रुओं के छक्के छुड़ाए तो किसी ने अपनी ही कटार से शत्रु का काम तमाम कर दिया। जवाहर बाई भी एक ऐसी ही वीरांगना थी, जिसकी अमर गाथा आज भी कही सुनी जाती है।[26]

भारतीय इतिहास में मेवाड़ का नाम अपनी शौर्यता, वीरता, आन-बान और शान के लिए विख्यात है। मेवाड़ के राजवंश में महाराणा कुंभा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप का नाम बहुत ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। इसी गौरवशाली वंश में 1533 ई. में महाराणा विक्रमादित्य चित्तौड़ का शासक था।[27] मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह का पुत्र विक्रमादित्य कायर, विलासी और अयोग्य था। मेवाड़ की बागडोर जब उसके हाथ में आई तो उसके कुप्रबंधन के कारण राज्य में अव्यवस्था फैल गयी। मेवाड़ की पड़ोसी रियासतें मालवा व गुजरात के पठान शासकों ने इस अराजकता का लाभ उठाकर चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। शक्तिहीन विक्रमादित्य मुकाबला करने में अपने आपको असमर्थ समझ कायर की भाँति प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ।[28] सैनिक जी-जान से लड़ रहे थे, किंतु जब राजा ही युद्धभूमि से भाग खड़ा हो तो सेना का मनोबल टूटते देर नहीं लगती।

शत्रु सेना नगर में जब प्रवेश करने लगी तो राजपूत नारियों ने जौहरकरने की ठानी। जौहर की प्रथा से समय-समय पर राजपूत नारियाँ अपने सतीत्व की रक्षा करती आई हैं। इसी प्रथा का अनुसरण करने को तत्पर राजपूत नारियों को विक्रमादित्य की राजरानी जवाहर बाई ने ललकारते हुए कहा- ‘‘ वीर क्षत्राणियों! जौहर करके हम केवल अपने स्त्रीत्व की ही रक्षा कर सकेंगी, इससे देश की रक्षा नहीं हो सकती। हमें मरना तो है ही, इसलिए चुपचाप असहाय की भाँति मरने से तो अच्छा है कि हम शत्रु को मारकर मरें। बैटियों का खून बहाकर इस रणगंगा में अपने जीवन को ही नहीं, मृत्यु को भी सार्थक बनायें।[29]

जवाहर बाई की इस घोषणा को सुनकर सभी स्त्रियों पर जादू सा असर हुआ, वे मानों रणचंडी के रूप बन बैठी। जवाहर बाई के नेतृत्व में अगणित राजपूत वीरांगनाएँ युद्ध करने की उद्यत हुई।[30]

जिस ओर भी राजपूतों का पक्ष कमजोर दिखाई पड़ता था, जवाहर बाई तुरन्त अपने घोड़ों को उस ओर मोड़ लेती तथा मुस्लिम सेना पर भीषण प्रहार करती रही। इसी समय एक तोप का गोला जवाहर बाई को लगा और वह धड़ाम से घोड़े से नीचे गिर पड़ीं और परलोक सिधार गई। चित्तौड़ के किले में एक और जौहर यज्ञ की प्रचण्ड ज्वालाएँ आसमान को छू रही थीं तो दूसरी ओर एक अद्भुत आग का दरिया बह रहा था। ऐसी घड़ी में राजपूतों ने तुरन्त एक बड़ी चिता तैयार कर जवाहर बाई और अन्य वीरांगनाओं के पार्थिव शरीर को चिता में रखकर अग्नि की भेंट चढ़ा दिया। जब बहादुरसहाय की सेना ने चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया तो उन्हें वहाँ राख के ढेर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। उसकी जय, पराजय में बदल गई। इस प्रकार सतीत्व के साथ और देश रक्षा के लिए और जवाहर बाई के नेतृत्व में इन राजपूत रमणियों ने जो अद्भुत शौर्य प्रदर्शन किया, वह प्रशंसनीय और वंदनीय है।[31]

रानी पद्मिनी

‘‘राजपूत नारी आपातकाल में कर्म से परिचित होती है’’- पद्मिनी

रावल समरसिंह के बाद उसका पुत्र रतनसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा। पद्मिनी रतनसिंह की मुख्य रानी थी। रतनसिंह की रानी पद्मिनी के रूप की प्रशंसा सुनकर तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन खिलजी उससे विवाह करने की इच्छा करने लगा। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दुर्ग को घेर लिया, परन्तु लम्बे समय तक घेरा डाले रहने के बाद भी दुर्ग पर आधिपत्य जमाने में सफल नहीं हो सका। राजपूतों ने भी कसम खा रखी थी कि वह जीते जी अलाउद्दीन को किले के अंदर पैर नहीं रखने देंगें। अंत में बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने कूटनीति का सहारा लिया।[32]

रतनसिंह को उसने दूत के साथ यह संदेश कहलाया कि ‘‘एक बार यदि उसे रानी पद्मिनी को दिखा दे तो मैं घेरा समाप्त कर वापस दिल्ली लौट जाऊँगा। दूत का यह संदेश सुनकर रतनसिंह आग-बबूला हो गया। रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रतनसिंह को समझाया कि ‘‘मेरे कारण व्यर्थ ही मेवाड़ी वीरों का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण चित्तौड़ तबाह हो। सारी प्रजा बर्बाद हो जाए। राजपूत नारी आपात्काल से कम परिचित होती हैं। इस समय आपको शीशे में मेरा मुख दिखाने और उसके देख लेने में आपत्ति नहीं करनी चाहिए।’’[33]

रतनसिंह ने रानी पद्मिनी को सूझ-बूझ तथा मातृभूमि के प्रति उसके प्रेम और भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसने बादशाह को यह सूचना भिजवा दी। अलाउद्दीन ने उसकी बात स्वीकार कर ली, किन्तु जैसे ही बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी का बिम्ब शीशे में देखा, वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने मन-ही-मन चित्तौड़ को जीतने और रानी पद्मिनी को प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। अलाउद्दीन खिलजी ने छल से रतनसिंह को बंदी बना लिया और दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। उसने रानी को यह कहलवा भेजा कि यदि वह मेरे हरम में आकर रहे तो राजा रतनसिंह को मुक्त किया जा सकता है।[34]

पति-परायणा रानी पद्मिनी ने उत्तर भिजवाया कि ‘‘मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। मैं आपके निकट आत्मसमर्पण के लिए प्रस्तुत हूँ, मैं यह नहीं चाहती कि मेरे कारण मेवाड़ का सूर्य अस्त हो, किन्तु मेरे साथ सात सौ सहचरियाँ, कन्याएँ तथा परम सुन्दर महिलाएँ हैं। इनमें से कुछ मेरे साथ दिल्ली रह जाएँगी और कुछ चित्तौड़ वापस लौट आएँगी। मैं एक बार अपने पति से अवश्य मिलना चाहूँगी।पद्मिनी का ऐसा संदेश पाकर अलाउद्दीन ने तुरन्त रानी को कहलवाया’’ तुम्हारी हर शर्त मुझे स्वीकार है।[35]

रानी पद्मिनी ने यह योजना अपने सेनानायक गोटा की मंत्रणा से बनाई थी। स्वीकृति मिलने पर रानी पद्मिनी ने सैकड़ों पालकियाँ सजवाईं और दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। सबसे आगे की पालकी में रानी पद्मिनी स्वयं सवार थी। उसकी पालकी के दोनों और गोरा और बादल चल रहे थे। इन वीर सैनिकों ने रानी पद्मिनी के साथ मिलकर छल से राजा रतनसिंह को बादशाह अलाउद्दीन खिलजी की कैद से मुक्त करा लिया। भयंकर युद्ध हुआ, राजा रतनसिंह सकुशल चित्तौड़ पहुँच गए, किन्तु गोरा और बादल इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर फिर भयंकर आक्रमण किया, घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ, किन्तु अलाउद्दीन खिलजी का स्वप्न पूरा न हो सका, क्योंकि राजा रतनसिंह की मृत्यु के पश्चात रानी पद्मिनी के साथ अन्य अनेक राजपूत महिलाओं ने सामूहिक जौहर कर एक अपूर्व आदर्श स्थापित किया। अलाउद्दीन ने किला जीतकर जब किले में प्रवेश किया तो वहाँ पर केवल राख ही राख मिली।[36]

प्रो. एस.आर.शर्मा ने लिखा है- ‘‘ एक विशाल भूमिगत कक्ष में जहाँ दिन का प्रकाश भी नहीं पहुँच सकता था, वहाँ एक चिता जलाई गई और चित्तौड़ के रक्षकों ने सशस्त्रों रानियों, अपनी स्त्रियों और पुत्रियों का जुलूस देखा।.... उस गुफा में उन्हें पहुँचाकर द्वार बन्द कर दिया गया, जिससे अग्नि की लपटों द्वारा उनके सम्मान की रक्षा हो सके।[37]

राजकुमारी रत्नावती

जैसलमेर की राजकुमारी रत्ना महाराजा रत्नसिंह की पुत्री थी। महाराजा रत्नसिंह के कोई पुत्र नहीं था, जिसका अभाव उन्हें सदैव खटकता रहता था। एक दिन राजा रत्नसिंह अत्यधिक चिंताग्रस्त थे तभी उनकी पुत्री राजकुमारी रत्ना ने उनके कक्ष में प्रवेश किया तथा अपने पिता की चिंता का कारण पूछा। अपनी पुत्री के अत्यधिक आग्रह करने पर महाराजा रत्नसिंह ने राजकुमारी रत्ना को बताया कि ‘‘हमें गुप्तचरों के माध्यम से सूचना मिली है कि दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर हमारे राज्य पर आक्रमण करने वाला है। उसने जोधपुर राज्य को पराजित कर दिया है तथा अब जैसलमेर की तरफ आगे बढ़ रहा है। उसके पास एक विशाल सेना है। यदि हमने आमने-सामने युद्ध किया तो हमारी पराजय अवश्यम्भावी है। यदि हम जैसलमेर के दुर्ग में रहकर उससे टक्कर लेंगे तो वह किले की घेराबन्दी कर लेगा और हमारे सम्मुख रसद सामग्री की कमी हो जाएगी। वर्तमान में दुर्ग में जो अन्न का भंडार है वह मात्र 100 सैनिकों के लिए ही पर्याप्त है। यदि सभी सैनिकों को दुर्ग में रखा गया तो वह सभी भूख से मर जायेंगे, क्योंकि मलिक काफूर आसानी से दुर्ग की घेराबन्दी हटाने वाला नहीं है।‘’[38]

राजकुमारी रत्ना ने अपने पिता की बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुन कर कहा कि-‘‘पिताजी आपको किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। आप अपने सैनिकों के साथ दुर्ग से बाहर चले जायें तथा दुर्ग की रक्षा के लिए केवल सौ सैनिक मेरे पास छोड़ दीजिए। मैं दुर्ग की रक्षा का दायित्व स्वयं संभाल लूँगी। मैं शत्रु का डटकर मुकाबला करूँगी और यदि ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न हुई तो मैं हँसते-हँसते जौहर की ज्वाला में कूद जाऊँगी। आप मुझ पर भरोसा रखें। अपनी पुत्री की बात को सुनकर महाराजा रत्नसिंह ने प्रसन्न होकर कहा-‘‘ बेटी! तुमने मेरी परेशानी समाप्त कर दी है। मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम शत्रुओं से भली प्रकार दुर्ग की रक्षा में कामयाब हो जाओगी।“[39]

अगले दिन प्रातः ही महाराजा रत्नसिंह अपनी राजपूत सेना के साथ जैसलमेर के दुर्ग से निकलकर मरुप्रदेश की ओर बढ़ने लगे तथा राजकुमारी रत्ना ने रक्षा का भार संभाल लिया। कुछ दिन बाद ही मलिक काफूर की सेना ने जैसलमेर के दुर्ग को घेर लिया। राजकुमारी रत्ना भी पुरुष वेश में कमर में तलवार बाँधे, हाथ में धनुष-बाण लिए किले में घूमती रहती। उसने थोड़े से सैनिकों के साथ किले की ऐसी मोर्चाबन्दी की कि मलिक काफूर की सेना को बार-बार पीछे हटने को बाध्य होना पड़ रहा था। इसी संघर्ष के दौरान एक दिन मलिक काफूर के सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे तभी राजकुमारी रत्ना के सैनिकों ने उन पर गर्म तेल, पत्थर, मिर्च घोला हुआ उबलता पानी आदि गिराना प्रारम्भ कर दिया, जिसके कारण मुगल सैनिकों को पुनः पीछे हटना पड़ा। राजकुमारी रत्ना ने मलिक काफूर की प्रत्येक चाल को विफल कर दिया। ऐसी स्थिति में मलिक काफूर ने कूटनीति का सहारा लेना उचित समझा।[40]

मलिक काफूर ने अपने एक सैनिक को दुर्ग की दीवार के सहारे दुर्ग में प्रवेश करने के लिए भेजा। तब रत्नावती ने प्रश्न किया कि-कौन हो? तो उसने स्वयं को राजकुमारी के पिता का संदेश वाहक बताया, परन्तु राजकुमारी को आशंका हुई कि शत्रु सेना की चाल है और उसने उस सैनिक पर एक तीर छोड़ दिया, जिससे वह सैनिक धराशाही हो गया। इस प्रकार मलिक काफूर का यह प्रयास भी विफल हो गया। राजकुमारी रत्ना ने अपने एक द्वारपाल की इमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की सहायता से मलिक काफूर व उसके कुछ चुने हुए सैनिकों को बंदी बना लिया। जब अलाउद्दीन खिलजी के पास यह समाचार पहुँचा तो उसने जैसलमेर पर विजय पाने का इरादा त्याग दिया। उसने महाराजा रत्नसिंह के साथ संधि कर ली।[41]

बंदीकाल में राजकुमारी रत्ना ने मलिक काफूर और उसके सैनिकों के साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार किया। यहाँ तक कि जब दुर्ग में रसद सामग्री की कमी आ गई थी, तब भी राजकुमारी रत्ना ने अपने सैनिकों से अधिक मात्रा में भोजन सामग्री उपलब्ध कराई। उसके मानवीय व्यवहार से मलिक काफूर अत्यन्त प्रभावित हो गया। एक दिन राजकुमारी रत्ना ने देखा कि सुल्तान की सेना अपना घेरा उठाकर पुनः लौट रही है तथा राजपूत सेना विजयश्री प्राप्त कर दुर्ग की ओर आ रही है। राजकुमारी रत्नावती ने अपने पिता को दिए गए वचन को अक्षरश: पूरा किया। महाराजा रत्नसिंह ने अपनी पुत्री राजकुमारी रत्ना से कहा- ‘‘बेटी! तूने सचमुच में मेरे राज्य की लाज रख ली। मुझे तुम पर गर्व है।’’[42]

निसंदेह राजकुमारी रत्ना ने जिस दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ जैसलमेर के दुर्ग की रक्षा करने में सफलता प्राप्त की, जिस प्रकार से उन्होंने अपने राजनीतिक निर्णयों से एक बड़ी सेना को पराजित किया, ऐसी वीरांगना का नाम सदैव इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा।

पन्नाधाय

चित्तौड़गढ़ के इतिहास में जहाँ पद्मिनी के जौहर की अमरगाथाएँ मीरा के भक्तिपूर्ण गीत गूँजते हैं, वही पन्नाधाय जैसी मामूली स्त्री की स्वामीभक्ति की कहानी भी अपना अलग स्थान रखती है। पन्नाधाय के बलिदान ने मेवाड़ की राजनीति पर जो अमिट छाप छोड़ी, उसे कभी मिटाया नहीं जा सकता। यदि पन्नाधाय नहीं होती तो मेवाड़ की राजनीति का इतिहास कुछ और होता।

पन्नाधाय का जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी में खींची जाती के राजपूत परिवार में हुआ था। वह वीर राजपूत रमणी थी, जिसमें उदारता और कर्तव्यपरायणता के गुण कूट-कूट कर भरे थे। किसी भी नारी का विकास उसके मातृत्व में निहित होता है। माँ की ममता नील गगन के समान बिना किसी भेदभाव के सभी को अपने स्नेह के आँचल में समेट लेती है। पन्नाधाय ने मातृभूमि की रक्षा व अपने कर्तव्य पालन के लिए अपने जिगर के टुकड़े को हँसते-हँसते न्यौछावर कर दिया। पन्नाधाय का चरित्र अपने आप में बेजोड़ है, जिसने अपने पुत्र की बलि देने के साथ अपने भावी राजा की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक को भी संकट में डाल दिया और चित्तौड़ के राजकुमार उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की। ऐसी वीर-रमणि पन्नाधाय का चरित्र विश्व के इतिहास और साहित्य में एकमात्र अनूठा उदाहरण है।[43]

महाराणा संग्राम सिंह के पश्चात राजा विक्रम चित्तौड़ के राजसिंहासन पर बैठा, वह एक निकम्मा और अयोग्य शासक था। कुछ समय के बाद उसे राजसिंहासन से हटाकर उसके अनुज उदयसिंह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। इस समय उदयसिंह की आयु केवल छह वर्ष की थी, इससे पूर्व ही राजमाता करुणावती का निधन हो चुका था और बालक उदयसिंह पन्नाधाय की गोद में पल रहा था। पन्नाधाय का अपना स्वयं का पुत्र भी उदयसिंह की आयु का ही था। उदयसिंह के संरक्षण का उत्तरदायित्व दासी पुत्र बनवीर को सौंपा गया था। बनवीर स्वार्थी व्यक्ति था, बनवीर उदयसिंह की हत्या करके चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। पन्नाधाय को जब बनवीर की कुटिल योजना का पता चला तो वह बहुत चिंतित हुई, क्योंकि उदयसिंह उसके स्वामी महाराज का वंशज और चित्तौड़ का भावी शासक था।[44]

अंत में जिस रात बनवीर का उदयसिंह की हत्या करने का इरादा था, उसने उस रात उदयसिंह के कपड़े पहना कर अपने पुत्र चंदन को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया और उदयसिंह को फलों की टोकरी में लिटाकर पत्तों से ढक दिया। इससे पूर्व अपने भावी राजा उदयसिंह को अफीम से तैयार किया हुआ हल्का सा नशीला पदार्थ दूध में मिलाकर पिला दिया, जिससे उदयसिंह चुपचाप गहरी नींद में सोया रहे। पत्तों से ढकी टोकरी को उसने अपने विश्वासपात्र दासी को सौंप दिया और बनवीर की योजना बताते हुए उसे नदी के तट पर प्रतीक्षा करने के लिए कहा। दासी के दुर्ग से बाहर निकल जाने पर पन्नाधाय बनवीर की प्रतीक्षा करने लगी। बनवीर ने अपनी योजना के अनुसार अर्द्धरात्रि के आसपास उस कक्ष में प्रवेश किया जहाँ पर उदयसिंह के स्थान पर पन्ना धाय का पुत्र चंदन सोया हुआ था, उसने उदयसिंह समझकर चंदन की हत्या कर दी।[45]

माँ पन्ना की दरियादिली देखिए उसने उफ् तक नहीं की। अपने पुत्र को अपनी ही आँखों के सामने खत्म होता देखकर भी आँखों से निकलते आँसुओं को रोक दिया, गले से उमड़ती रुलाई को भीतर ही दबा दिया। पन्नाधाय को यह डर था कि कहीं बनवीर के सामने यह भेद खुल न जाए, उसने अपने पुत्र चंदन का अंतिम संस्कार वीरा नदी के तट पर किया और उदयसिंह को लेकर राज्य से बाहर निकल पड़ी।[46]

अनेक स्थानों पर भटकने के बाद पन्नाधाय देयरा के शासक आशाशाह के यहाँ पहुँची। पन्ना धाय ने आशाशाह की गोद में बालक उदयसिंह को डालकर कहा-‘‘ अपने राजा के  प्राण बचाओ। उदयसिंह के जीवित होने के समाचार से बनवीर बहुत क्रोधित और व्याकुल हुआ, किन्तु बनवीर को उसके पापों का दण्ड मिला और कुछ समय पश्चात् ही वह मारा गया। उदयसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा, उदयसिंह को राजसिंहासन पर देखकर पन्नाधाय निहाल हो गई, पन्नाधाय का बलिदान सार्थक हुआ। महाराजा उदयसिंह भी अपनी धाय माँ पन्ना की चरणरज शिरोधार्य कर आनंदित हो उठे।[47]

स्वामीभक्त पन्नाधाय अपनी कर्तव्यपरायणता, स्वामीभक्ति, दूरदर्शिता, साहस, त्याग और बलिदान के अनूठे कर्तव्य से सुशोभित इतिहास में युगों-युगों तक देशवासियों को याद रहेगी।

निष्कर्ष
हमारे यहाँ नारी को आदि शक्ति के नाना रूपों में देखने की अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। ऋग्वेद से लेकर वर्तमान समय तक शिष्ट और लोक साहित्य दोनों में नारी के त्याग, बलिदान, शौर्य, ममत्व, कष्टसहिष्णु, उदार तथा कर्मठ जीवन का चित्रण मिलता है। भारतीय साहित्य में नारी के आदर्श और गौरवशाली चरित्र का विशद् विवेचन मिलता हैं चाहे वह धार्मिक ग्रंथ हो या लौकिक, सर्वत्र उसके मर्यादित स्वरूप के कारण उसे पूजनीय माना है ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. द्विवेदी, हजारी प्रसाद, चंद्रबलि त्रिपाठी कृत ‘‘भारतीय समाज में नारी आदशी का विकास” नामक पुस्तक की भूमिका से। 2. काणे,पी.वी., धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-1, पृष्ठ 324 3 मिश्र,जयशंकर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ 344 4. काणे,पी.वी., धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-1, पृष्ठ 324 5 मिश्र, जयशंकर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ 342 6. मिश्र, जयशंकर, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृष्ठ 342, 7. राठौड़, विक्रम सिंह, ‘राजस्थान की संस्कृति में नारी‘ राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर 1995, पृष्ठ 13 8. अरोड़ा, शशि , राजस्थान में नारी की स्थिति, पृष्ठ- 83 9. अली, अतहर , मुगल नाबिलिटी अण्डर औरंगजेब, पृष्ठ-101 10. अरोड़ा, शशि , राजस्थान में नारी की स्थिति, पृष्ठ 84